सोमवार, 23 जुलाई 2018

गोतस्करी के लिए दोषी कौन?

मित्रों, हम सभी जानते हैं कि हिन्दुओं के जीवन में गायों का क्या स्थान है? हमारे जनजीवन के बहुत सारे महत्वपूर्ण शब्द गौ से बने हैं यथा-गोत्र, ग्राम या गाँव, ग्वाला, गोस्वामी, गंवार, गोष्ठी, गोधुली, गौरी, गोरस, गोधूम, गौना, गोप, गोपिका, गोपाल आदि. गायों की रक्षा की जानी चाहिए और निश्चित रूप से की जानी चाहिए लेकिन कैसे? क्या हमें तलवार लेकर सडकों पर उतर आना चाहिए?
मित्रों, आपमें से बहुतों के पास गायें होंगी. मैं आपसे पूछता हूँ कि आप गायों को किस रूप में देखते हैं. क्या आप उनको माता मानते हैं या फिर धनार्जन का स्रोत मात्र समझते हैं? गायों के प्रति हमारी सोंच में पिछले कुछ दशकों में निश्चित रूप से फर्क आया है. अब हम गायों को माता नहीं मानते बल्कि धनोपार्जन के साधनों में से एक मानते हैं. गायों के बच्चे मर जाएँ तो जबरन सूई चुभोकर दूध दूहते हैं भले ही इससे गायों को कितना ही दर्द क्यों न हो या गायों के स्वास्थ्य पर दूरगामी प्रभाव ही क्यों न पड़े. गायें अगर दूध देना बंद कर दें तो मुझे नहीं लगता कि हम एक दिन भी उसे अपने खूंटे पर रखेंगे और हम उनको छोड़ देंगे भटकने के लिए, तिल-तिल कर मरने के लिए. भला ये कैसी गोभक्ति है? कई पशुपालक पटना जैसे शहरों में प्रत्येक दोपहर में दुधारू गायों को भी सड़कों पर छोड़ देते हैं जूठन और अपशिष्ट खाने के लिए. उनसे पूछिए कि यह कैसी गोसेवा है? इनमें से कई गायें तो पोलीथिन खाकर मर भी जाती हैं.
मित्रों, जब गाय बच्चा देती है तो हम भगवान से मनाते रहते हैं कि बाछी हो बछड़ा नहीं हो क्योंकि अब खेती ट्रैक्टर से होती है बैलों से नहीं. फिर भी अगर बछड़ा हो ही गया तो एक-दो साल अपने पास रखकर हांक देते हैं. क्या हम फिर पता लगाते हैं कि उनका क्या हुआ? वे कसाइयों के हाथों पड़ गए या किसी ने उनको जहर तो नहीं दे दिया? देश के बहुत सारे ईलाकों में किसान इन छुट्टा सांडों से बेहद परेशान हैं क्योंकि वे उनकी सारी फसलें चट कर जाते हैं. पालना है तो इन नर शिशुओं को भी पालिए अन्यथा गौपालन ही छोड़ दीजिए. हमने अपने बचपन में देखा है कि जब तक बैलों से खेती होती थी यही बैल महादेव के रूप में पूजित थे और आज यही बैल नोएडा-गाजियाबाद-दिल्ली के चौक-चौराहों पर जमा रहते हैं और अक्सर इनके पैरों से होकर कोई-न-कोई वाहन गुजर जाता है और फिर ये बेचारे रिसते घावों और सड़ते अंगों की अंतहीन पीड़ा झेलने को विवश होते हैं. कभी आपने इनकी आँखों से लगातार बहते हुए आंसुओं को देखा है,समझा है?
मित्रों, यह कैसा पुण्य है? आज के अर्थप्रधान युग में गोपालन पुण्य नहीं पाप है और इसे हमने और हमारे लालच ने पापकर्म बना दिया है.
मित्रों, कई बार तो इन छुट्टा बछड़ों को हिन्दू ही पकड़ लेते हैं और कसाइयों के हाथों बेच देते हैं. कई बार ग्रामीण पशु हाटों पर हम देखते हैं कि यादव जी, सिंह जी या महतो जी गाय खरीदने आते है ट्रक लेकर. परन्तु उनमें से कई वास्तव में कसाइयों के एजेंट होते हैं और आगे जाकर ट्रक और जानवर कसाइयों को सौंप देते हैं. अब आप ही बताईए कि क्या गोतस्करी के लिए अकेले मुसलमान जिम्मेदार हैं? क्या इसके लिए हम हिन्दू भी दोषी नहीं हैं?
मित्रों, मौका मिलते ही हम गोतस्करों पर हाथ साफ़ करने लगते हैं. कई बार तो उनको जान से भी मार देते हैं लेकिन क्या इससे तस्करी रूक जाएगी? जब तक हम अपनी सोंच नहीं बदलेंगे, गायों को वास्तव में गौमाता नहीं मानेंगे और बछड़ों को अपने हाल पर मरने के लिए छोड़ना नहीं बंद करेंगे, फिर से बैलों से खेती करना शुरू नहीं करेंगे गौतस्करों को मारने-मात्र से तस्करी रूकनेवाली नहीं है. सोंचिएगा.
मित्रों, हमें एक और बात भेजे में उतार लेनी होगी कि हर मुसलमान गौ तस्कर नहीं होता कुछ गौपालक भी होते हैं. जब मेरे पिताजी पटना कॉलेज में पढ़ते थे तो साठ के दशक में पटना कॉलेज में इतिहास के प्रोफ़ेसर थे सैयद हसन अस्करी. आप चाहें तो गूगल पर भी उनको सर्च कर सकते हैं. मध्यकालीन भारत के जाने-माने विद्वान. वे विशुद्ध शाकाहारी थे और उन्होंने कई दर्जन गाय पाल रखी थी और पूरा वेतन गायों पर ही खर्च कर डालते थे. गायों से उन्हें बेहद प्यार था. साइकिल से कॉलेज आते भी करियर पर कटहल के पत्ते लेकर आते और रास्ते में जहाँ भी गाय दिख जाए खिलाने लगते. मुझे तो लगता है कि आज के माहौल में वे बेचारे भी कहीं भीड़ का शिकार हो जाते.

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