क्या हम जिस तरह जी रहे हैं, वह सही है। क्या इसे ही जीना कहते हैं? जीवन के बहाव में बहते जाना तो जीना नहीं हो सकता। कभी ग़ालिब ने कहा था
आ के इस दुनिया में ग़ालिब और क्या हम कर गए,
पैदा हुए शादी हुई बूढे हुए और मर गए।
मेरे अनुसार तो यह जीना नहीं है। जीना है परिस्थियों से लड़ना और बदल जाने के लिए बाध्य कर देना। आपकी क्या राय है।
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