रविवार, 28 अगस्त 2011

मैं अन्ना हूँ और रहूँगा

मित्रों,जबसे होश संभाला प्रत्येक चुनाव के बाद यह सुनते-सुनते मेरे कान पक गए कि यह मेरी या हमारी नहीं बल्कि जनता की जीत है लेकिन वास्तविकता हमेशा कुछ और ही रही.नेता जीतते-हारते रहे और जनता सिर्फ हारती रही.बार-बार उसने व्यवस्थापक को बदला परन्तु व्यवस्था को नहीं बदल सकी.भ्रष्टाचार सर्वव्यापी बना रहा और न सिर्फ बना रहा वरन उसकी मात्रा और घनत्व में उत्तरोत्तर तीव्र वृद्धि भी होती रही.कहते हैं कि हर पाप का एक न एक दिन अंत होता है.आम जनता भ्रष्टाचार से उब चुकी थी परन्तु कोई निदान नजर नहीं आ रहा था.
      मित्रों,ऐसे में एक ७४ साल का बूढा राष्ट्रीय मंच पर आया.उसके पास भौतिकता के नाम पर तो कुछ भी नहीं था;था तो अंतिम दम तक लड़ने का अद्भुत जीवट.उसने भ्रष्टाचार की समस्या के खिलाफ कोरी आवाज ही नहीं उठाई बल्कि उसका समाधान भी प्रस्तुत किया और केंद्र सरकार से मांग की कि वो उसकी टीम द्वारा तैयार किए गए जनलोकपाल कानून को लागू करे.जाहिर है कोई भी ऐसी सरकार जिसे अब तक की सबसे भ्रष्ट और निकम्मी केंद्र सरकार का गैरसरकारी ख़िताब मिल चुका हो,क्यों कर मानने जाती?उसे तो लग रहा था कि बुड्ढा सठिया गया है,जब जनता साथ नहीं देगी तो झक मारकर खुद ही बैठ जाएगा.लेकिन ऐसा हुआ नहीं.राजनेताओं की फूट डालने की तमाम कोशिशों को नाकाफी सिद्ध करते हुए जब जनता सड़क पर उतरी तो बस इतिहास ही बन गया.
          मित्रों,कभी चर्चिल ने हमारे राष्ट्रपिता को अधनंगा फकीर मात्र समझने की भूल की थी.कुछ उसी तरह की गलती वर्तमान केंद्र सरकार भी कर गयी.उसे आम जनता के मन में भ्रष्टाचार के प्रति पल रहे असंतोष का अनुमान नहीं था.तभी तो उसने भीतर-ही-भीतर जन-जन के ह्रदय-सम्राट बन चुके अन्ना को गिरफ्तार करने और गरियाने की हिमाकत कर दी.खैर,अब जो हुआ सो हुआ;जीत तो आखिर आम आदमी की ही हुई.लेकिन क्या हमारी लड़ाई पूरी हो गयी है?क्या हमने मुकम्मल जीत हासिल कर ली है?नहीं,बिल्कुल भी नहीं.मैं मानता हूँ कि यह जीत कोई छोटी जीत नहीं है.अब तक नेता जीतते और जनता हारती आ रही थी,पहली बार जनता जीती है और नेता हारे हैं.फिर भी अगर हम भारत के सम्पूर्ण परिदृश्य पर दृष्टिपात करें तो पाएँगे कि इस जीत के द्वारा हमने कुछ ज्यादा हासिल नहीं किया है.अभी हमें देखना है कि संसद कहाँ तक हमारे जनलोकपाल को लागू करती है.साथ ही अभी तो हमें बहुत सारे परिवर्तनों में सक्रिय योगदान देना है.हमें न्यायपालिका की लेटलतीफी को ख़त्म करना है,समाप्त करनी है अमीरी और गरीबी के बीच लगातार बढती जा रही है खाई को.कोई हक़ नहीं है किसी को ऐसे मुल्क में ४०० करोड़ या ४००० करोड़ रूपये का एक अदद घर बनाने का जिस मुल्क के ८०% लोग अधनंगे और अधपेट हों.अभी हमें बचानी है भ्रष्ट सत्ताधीशों से अपने किसानों की जमीनें,निबटना है गिरती कृषि-उत्पादकता से और रोकना है वायु,ध्वनि और जल-प्रदूषण के फैलते जहरीले पंजों को.इसके लिए हमें जीत को अपना स्वभाव तो बनाना ही पड़ेगा.साथ ही हार से उपजनेवाली अवसादमयी निराशा से भी बचना होगा.तो आईये मित्रों हम अपनी आगे की लडाई के लिए तैयारी शुरू  करें,अपनी अगली प्रस्थान-यात्रा पर अग्रसर होवें.यह जरुरी नहीं है कि हर बार और हमारी हर लडाई का अन्ना ही नेतृत्व करें.मुझे यकीन ही नहीं विश्वास भी है कि हमने अपनी टोपियों और टी-शर्ट्स पर जो मैं अन्ना हूँ का नारा लिखवाया है वह महज दिखावे के लिए नहीं है;बल्कि हम सभी सचमुच अन्ना हैं और अन्ना रहेंगे और---------तभी हमारा भारत सही मायनों में अतुल्य भारत बन पाएगा.

शनिवार, 27 अगस्त 2011

क्या अन्ना की मौत चाहती है केंद्र सरकार?

मित्रों,जैसा कि मैं पहले ही अर्ज कर चुका हूँ कि हम स्वतंत्रता सेनानियों का पाला इस बार लोमड़ियों से पड़ा है.आज अन्ना के अनशन का ११वां दिन है लेकिन सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल कानून लाने और पास कराने को लेकर बिलकुल भी संजीदा नहीं दिख रही.उसे इस बात की जरा-सी भी चिंता नहीं है कि अगर अनशन की शरशैय्या पर लेटे अन्ना की मौत हो गई तो क्या होगा?सरकार शायद यह सोंचती है कि देश की जनता अन्ना की मौत को हल्के में लेगी और जल्दी ही अन्ना और भ्रष्टाचार को इस तरह भूल जाएगी जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो.
                   मित्रों,कुछ इसी तरह का भ्रम सरकार को अन्ना की गिरफ़्तारी को लेकर भी था.उसे लग रहा था कि वह अन्ना को भी बाबा रामदेव की तरह गिरफ्तार कर जबरन महाराष्ट्र भेज देगी और देश में आदमी के जुबान खोलने की बात तो दूर रही दिल्ली की गली का कुत्ता भी नहीं भूंकेगा.परन्तु उसकी ग़लतफ़हमी को हम भारत के लोगों ने किस तरह दूर कर दिया अब यह इतिहास का विषय है.यह समय ही इतिहास बनाने और बनते हुए देखने का है.आज कांग्रेस के युवराज,भारत के राष्ट्रीय तोता राहुल बबुआ ने भी इतिहास बनाया.अन्ना का आदर करते हुए उन्हें गालियाँ भी दीं जिसे वे फुर्सत से लिखकर लाए थे और उनके आन्दोलन को कथित भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक बता दिया जबकि हमलोग यह अच्छी तरह से जानते हैं कि अन्ना का पूरी तरह से अहिंसक आन्दोलन अगर किसी के लिए खतरनाक है तो वे हैं सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचारी.पूरी की पूरी केंद्र सरकार के रूख में पिछले ११ दिनों में अगर कोई परिवर्तन आया है तो वो यह है कि अब वो अन्ना को ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार में डूबा हुआ नहीं मानती है और उनका अपमान करने के बदले सम्मान करने लगी है.वो और उसके युवराज एक तरफ तो कहते हैं कि हम अन्ना द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़े जा रहे जंग का सम्मान करते हैं परन्तु अन्ना की किसी भी ऐसी मांग को मानेंगे भी नहीं जिससे भ्रष्टाचार को किंचित भी क्षति पहुँचती हो.
                                     मित्रों,इस सरकार ने अन्ना को पड़ोसी देश पाकिस्तान समझ लिया है जिसके साथ सालोंभर खुले और सौहार्दपूर्ण माहौल में बातचीत चलती रहती है और नतीजा कुछ भी नहीं निकलता.अगर सरकार आमरण अनशन पर बैठे हुए अन्ना के साथ इस तरह की बातचीत करना चाहती है तो इसका साफ़ मतलब है कि अन्ना जियें या मरें इससे उसका कुछ भी लेना-देना नहीं है.वैसे भी मरता कौन नहीं है?जो आया है उसे एक-न-एक दिन जाना ही है.अन्ना की जिंदगी तो कुछेक राजनेताओं को छोड़कर पूरे देश के लिए एक मिसाल रही ही है और अगर वर्तमान अनशन के दौरान उनकी मौत हो जाती है तो मौत भी मिसाल बन जाएगी.अब शायद ऐसा अवश्यम्भावी है.केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी के रूख से नहीं लगता कि उन्हें भ्रष्टाचार को समाप्त करने की कोई जल्दीबाजी है.बल्कि ४२ साल तक इस विधेयक के लटके रहने के बावजूद उन्हें तो यही लगता है कि हमें किसी तरह की जल्दीबाजी नहीं करनी चाहिए.
              मित्रों,क्या आपने कभी यह सोंचा है कि अगर राहुल गांधी के अनुसार समाज के लिए खतरनाक बन चुके अन्ना की अनशन के दौरान मौत हो जाती है तो देश की क्या हालत हो सकती है?वैसे अभी तो यह परिकल्पनात्मक प्रश्न है लेकिन इतना तो निश्चित है कि तब जो कुछ भी देश में होगा उसकी कांग्रेसियों के पूर्वजों ने भी कल्पना नहीं की होगी.सबकुछ अप्रत्याशित होगा.जनता तब महात्मा गांधी पथ को छोड़कर शिवाजी मार्ग पर आ जाएगी और शासन की बागडोर भ्रष्ट राजनेताओं के हाथों से सीधे अपने हाथों में ले लेगी.तब न तो लोकतंत्र का कथित प्रहरी संसद रहेगा और न ही संसद की दुहाई देनेवाले भ्रष्टाचारी सत्ता में रह जाएँगे;कहाँ रहेंगे या रहेंगे भी कि नहीं कह नहीं सकता.

शनिवार, 20 अगस्त 2011

अन्ना+मीडिया+जनता=क्रांति?


मित्रों,भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रही हमारी जंग अब बेहद रोमांचक और संवेदनशील मोड़ पर पहुँच गयी है.शुरू में सख्ती दिखाने के बाद अब तक की सबसे भ्रष्ट केंद्र सरकार फिर से हमले की मुद्रा में है.उसके सारे दांव उल्टे पड़ते दिख रहे हैं और उसे थूककर चाटने जैसा काम करना पड़ा है फिर भी उसकी थेथरई नहीं गयी है.अन्ना रामलीला मैदान में ससम्मान पहुंचा दिए गए हैं जबकि दो दिन पहले तक कांग्रेस के मंत्री उन्हें पागल और भ्रष्ट बता रहे थे.लेकिन अब भी शायद उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि न तो संविधान सबसे ऊपर है और न ही संसद;बल्कि सबसे ऊपर अगर कोई है तो वह है जनता जो जब चाहे देश के हरेक चौक को तहरीर चौक बना दे.उसकी ताकत के आगे होश्नी मुबारक की तोप फायर होना भूल जाती है तो अल असद के विमान उड़ान भरने से मना कर देते हैं;देर बस उनके जागने की होती है.
                                                मित्रों,ये क्षण हमारे लिए बड़े ही हर्ष और गौरव के क्षण हैं क्योंकि यही वे क्षण हैं जब हमारे देश की आम जनता जागती हुई दिख रही है.हालाँकि ये क्षण ३७ साल के बेहद लम्बे ईन्तजार के बाद आए हैं.दोनों जागरण में बड़ा मौलिक फर्क है.तब आन्दोलन छिड़ा था देश की सत्ता बदलने के लिए और वर्तमान भारत चाहता है व्यवस्था को बदलना.सत्ता में कौन रहता है और कौन आता-जाता है से कोई सरोकार नहीं;बस व्यवस्था बदलनी चाहिए और सुधरनी चाहिए.कहते हैं कि जब अँधेरा गहराने लगे तब यह समझना चाहिए कि सबेरा अब दूर नहीं.
 .              मित्रों,भारत के आसमान पर इस समय महाघोटालों के काले व डरावने बादल छाए हुए हैं.भारतीय लोकतंत्र का कारवां इस समय भ्रष्टाचार की एक लम्बी अँधेरी गुफा में आकर फंस गया है और इससे बाहर निकालने की जिम्मेदारी हम जनता पर है.हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि हमारा मुकाबला लोमड़ियों से है और वे (कोंग्रेस और उसके मंत्री) हमारा मनोबल तोड़ने के लिए,हमारे उत्साह को कम करने के लिए और हमारे बीच फूट डालने के लिए रोज-रोज नए-नए पैतरे चलने वाले हैं.हमारे अरमानों को पूरा करनेवाले जनलोकपाल विधेयक को चालू सत्र में लाने से  बचने के लिए उन्होंने चालें चलनी शुरू भी कर दी हैं.आगे सबकुछ हमारे ऊपर निर्भर करता है,हमारी संघर्ष-क्षमता पर निर्भर करता है.हमें इस कांग्रेस पार्टी के इन शातिर लोगों पर लगातार दबाव बनाए रखना होगा और इस तरह से बनाए रखना होगा कि वह उत्तरोत्तर बढ़ता ही चला जाए.इसके लिए चाहे जेल भरना पड़े या कुछ भी और करना पड़े तो हमें करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा.मैं समझता हूँ कि ऐसा गांधीवादी-मार्ग से ही संभव है और कोई मार्ग नहीं है.
                       मित्रों,जब कोई त्यागी महात्मा,मीडिया और जनता किसी अच्छे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एकजुट होकर प्रयास करते हैं तो मेरी केमिस्ट्री तो यही कहती है कि क्रांति होती है लेकिन ऐसा तभी होता है जब उत्प्रेरक के रूप में अदम्य उत्साह भी मौजूद हो.अब हमें देखना है कि सामने वाले की,सैय्याद की बाजुओं में कितना दम है;हमें अपनी ताकत का बखूबी अंदाजा है इसलिए तो हम उनसे कह रहे है कि-
खींच कर लाई है सब को कत्ल होने की उम्मीद,
आशिकों का जमघट आज कूंचा-ए-कातिल में है ।
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है ।।

सोमवार, 15 अगस्त 2011

यलगार हो,आक्रमण

मित्रों,आज १५ अगस्त है;१५ अगस्त २०११ यानि हमारी झूठी आजादी की ६४वीं सालगिरह.आपने शायद जागने के बाद एक या दो रूपये में कागज का तिरंगा ख़रीदा होगा और उसे लहराते हुए अपने आपको धन्य मान लिया होगा कि आप आजाद हैं.लेकिन क्या आप सचमुच आजाद हैं?क्या आपसे हमारा लोकतंत्र (भ्रष्टतंत्र) कदम-कदम पर जीवित रहने की कीमत नहीं वसूल कर रहा है?क्या आपका काम बिना घूस दिए हो जा रहा है?क्या आप यह गारंटी दे सकते हैं कि आपका राशन कार्ड,आपका ड्राइविंग लाइसेंस या घर की होल्डिंग के कागजात या फिर बिजली के कनेक्शन का  कागज बिना कोई घूस लिए बना दिया गया है?अगर नहीं,तो फिर आप मजबूर हैं सरकारी तंत्र की मनमर्जी मानने को और उस पर चलने को भी.फिर आप आजाद कहाँ हैं और कैसे हैं?क्या कोई मजबूर व्यक्ति आजाद हो सकता है?
            मित्रों,अभी थोड़ी ही देर में भारत की सबसे भ्रष्ट सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह ऐतिहासिक लाल किले पर झंडा फहराएंगे और उन्हीं नापाक हाथों से फहराएंगे जिन हाथों से उन्होंने घोटालेबाजों को घोटाला करने की पूरी आजादी दी,जिन हाथों से उन्होंने न जाने कितने कलमाड़ी,राजा,पवार और थामस को विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर बिठाया है.फिर वे हम देशवासियों को उसी मुखारविंद से चने के झाड़ पर चढ़ाएंगे अथवा अपनी मजबूरी का रोना रोते हुए कहेंगे कि सिर्फ आप ही गुलाम नहीं हैं मैं भी गुलाम हूँ,मजबूर हूँ;कठपुतली हूँ जिसके द्वारा झूठ बोलकर वे अब तक अनगिनत भ्रष्टाचारियों का बचाव करते आ रहे हैं.वे कह सकते हैं कि मैं अगर गुलाम होकर भी खुश हूँ और अपने-आपको भाग्यशाली समझता हूँ तो फिर आप क्यों भ्रष्टाचार से आजादी चाहते हैं?वे अपने भाषण में संसद की सर्वोच्चता का गुणगान करेंगे और कहेंगे कि संसद (और सरकार) अगर देश को रसातल में धंसा दें तो भी आपको कोई हक़ नहीं है उसे बचाने या निकालने का प्रयास करने का क्योंकि स्वयं संविधान ने उसे ऐसा करने का अधिकार दिया है.वे यह भी कह सकते हैं कि चूँकि धरना,अनशन आदि विरोध के गांधीवादी तरीके वर्तमान भारतीय लोकतंत्र में अलोकतांत्रिक हो गए हैं इसलिए महात्मा गाँधी वर्तमान सन्दर्भ में एक असामाजिक व्यक्ति थे और उनका अनुशरण करनेवाले सारे लोग ब्लैकमेलर हैं,अपराधी हैं.साथ ही भगत सिंह और उनके साथियों ने भी लाहौर जेल में जो कई महीने लम्बा अनशन किया था वह एक घोर आपराधिक कृत्य था;रेयर इन रेयरेस्ट था.अंग्रेजों ने उनकी मांगों को नहीं मानते हुए उनकी प्राणरक्षा के नाम पर उनके साथ जबरन भोजन कराने की जो जोर-जबरदस्ती की वह उस शासन का पुनीत कर्त्तव्य था,इसलिए अनुचित भी नहीं था.इसलिए हम काले अंग्रेजों को भी उनकी तरह ही यह अधिकार नैसर्गिक तरीके से प्राप्त है कि युगधर्म भ्रष्टाचार की रक्षा के लिए हम अन्ना को अनशन नहीं करने दें और अगर वे बात से समझाने से नहीं समझते हैं तो उनकी मांगों पर किसी भी तरह से विचार नहीं करते हुए हम उनके अनशन को क्रूरतापूर्वक तुडवाने का प्रयास करें जैसे भगत और उसके साथियों के साथ हमारे अंग्रेज भाइयों ने किया था (अत्याचारी-अत्याचारी सहोदर भाई).
           मित्रों,फिर आप माननीय प्रधानमंत्री जी के औपचारिकतावश किए गए उस बकवास पर खूब तालियाँ बजाएंगे और खूब जलेबी खायेंगे.यही होगी आपकी आज की दिनचर्या न?या फिर आप आज के दिन संकल्प लेंगे भ्रष्टाचार से आजादी के लिए चल रही लड़ाई में शामिल होने का,आधुनिक युग के वीर कुंवर सिंह अन्ना के बूढ़े हाथों को मजबूत करने का और अब तक की सबसे झूठी और बेईमान केंद्र सरकार को मजबूत लोकपाल वाला विधेयक लाने के लिए मजबूर कर देने का.आप जानते हैं कि अन्ना का इस आन्दोलन में कोई भी छिपा हुआ एजेंडा नहीं है.उनके आगे नाथ न पीछे पगहा है.वे निस्स्वार्थ भाव से हमारे लिए लड़ रहे हैं,हमारी आने वाली संततियों के लिए युद्ध के मैदान में उतरे हैं.तो क्या यह उचित होगा कि कोई हमारे भले के लिए अपनी जान की बाजी लगा दे और हम उसका नैतिक रूप से भी समर्थन न करें?नहीं न!तो मित्रों,आगे आईये और अन्ना के निर्देशों का पालन करिए और इस आजादी की दूसरी लडाई को सफल बनाईये.
यलगार हो,आक्रमण!!!!                                

रविवार, 7 अगस्त 2011

क्या सोनिया सचमुच बीमार हैं?

soniya

मित्रों,कुछ नादान कहते हैं कि मुम्बई की बरसात का कोई भरोसा नहीं है.यही बात कुछ लोग दिल्ली,कोलकाता या अपने गृहनगर के बारे में कहते हैं.बरसात का भरोसा नहीं है तो क्या हुआ;प्लास्टिक ले लो,छाता ले लो और अगर इस महंगाई में भी कुछ ज्यादा ही फालतू पैसे जेब में पड़े हैं तो रेनकोट ले लो.माना कि जलवायु-परिवर्तन के बाद बरसात और भी ज्यादा गैरजिम्मेदाराना रवैया अपनाने लगी है लेकिन आज के फैशन के युग में भरोसे के लायक है ही क्या?फिर बेचारी बरसात को ही क्यों अकेले दोषी ठहराया जाए?शेयर बाजार का सूचकांक,मुद्रास्फीति यहाँ तक कि महाबली अमेरिका की शाख का भी भरोसा नहीं.इस भ्रष्ट-युग में सब-के-सब छुई-मुई की तरह नाजुक और महाकवि नागार्जुन के दुखहरण मास्टर के मिजाज की तरह गैरभरोसेमंद हो गए हैं.लेकिन गिनीज बुक ऑफ़ यूनिवर्स रिकार्ड तो कुछ और ही कहता है.उसके अनुसार तो इस ब्रह्माण्ड में अगर कोई चीज सबसे कम भरोसेमंद है तो वह है भारतीय नेताओं का स्वास्थ्य.हमारे ज्यादातर नेताओं का स्वास्थ्य कृष्ण जन्मस्थान में जाने के बाद ख़राब हो जाता है.आपको शायद याद होगा कि लालूजी जब हजारों करोड़ का चारा हजम करने के बाद गरीब रथ (रिक्शा) पर सवार होकर जेल के दौरे पर गए थे तब उनको अचानक दिल की बीमारी हो गयी थी.बार-बार अस्पताल में भर्ती हुए;अस्पताल भी कोई ऐरा-गैरा नहीं;पांच सितारा.ईधर वे जेल से बाहर निकले और उधर उनके लाल-टमाटर सरीखे जिस्म से दिल की बीमारी भी रफूचक्कर हो गयी.मतलब यह कि उन्होंने यह बीमार होने का ड्रामा सिर्फ इसलिए किया था जिससे कि वे सी.बी.आई. रिमांड पर जाने से और यू.एन.विश्वास के हाथों से मुर्गा खाने से बच सकें.
          मित्रों,बाद में बिहार के कई अन्य नेता भी जब-जब जेल गए;बीमार पड़ गए और अस्पतालों में दरबार लगाने लगे.किसी को दिल की बीमारी हो गयी तो किसी का रक्तचाप हिचकोले खाने लगा.हाँ,नेताओं की बीमारी के मामले में अभी भी एक कमी बड़ी शिद्दत से महसूस की जा रही थी कि अबतक जेलयात्रा पर गए हमारे देश के किसी भी कर्णधार को दिमाग की बीमारी नहीं हुई थी.इस क्षेत्र में सूखा लम्बे समय तक चला.सौभाग्यवश अब जाकर समाप्त हुआ है और इसे ख़त्म करने के लिए भारत की सवा अरब गूंगी,बहरी और अंधी जनता की ओर साधुवाद के पात्र हैं भारत के सबसे बड़े खिलाडी सुरेश कलमाड़ी.इन बेचारे को हवालात में पहुँचते ही लॉन्ग टर्म मेमोरी लोंस की बीमारी हो गयी है.इन्हें बांकी तो सबकुछ याद है लेकिन सीडबल्यूजी घोटाला या उससे जुडी बातें बिलकुल भी याद नहीं है.यानि इनके सी.पी.यू. से सारी बातें डिलीट नहीं हुई है सिर्फ वही कुछ डिलीट हो गया है जिसका सम्बन्ध घोटाले से था.इससे पहले इस तरह की बीमारी पूरी दुनिया में न तो कभी सुनी गयी थी और न ही देखी ही गयी थी.जाहिर है इस नई बीमारी और इसके सब्जेक्ट (कलमाड़ी) पर गंभीरता से शोध करने की आवश्यकता है.
                  मित्रों,इन दिनों कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी भी कथित तौर पर गुप्त रूप से बीमार हो गयी हैं और उन्होंने कथित रूप से भारत के बजाए अमेरिका के चिकित्सकों पर विश्वास जताया है.उन्हें कौन-सी बीमारी थी और उसका ईलाज अतुल्य भारत में है भी या नहीं सब रहस्य के परदे में यत्नपूर्वक ढंककर रखा गया है.कहीं सोनिया जी को घोटालों के शोर के डर से कड़कड़हट की बीमारी तो नहीं हो गयी है.दरअसल कड़कड़हट की बीमारी हमारे गाँव में बिदेसिया के लौंडे को हुई थी जब वह सौतेली माँ का भावपूर्ण किरदार निभा रहा था.उसने अपने बिछावन के नीचे खपड़ा बिछा लिया था जिससे जब भी वो करवट लेता कड़कड़ की आवाज आती.उसने धन देकर वैद्य को भी अपनी ओर मिला लिया था जिससे उसने बीमारी का ईलाज उसके सौतेले बेटे की कलेजी खाना बता दिया था.खैर,इतना तो निश्चित है कि सोनिया जी जेल नहीं जाने जा रही हैं.यह सुअवसर अगर मिलेगा भी तो मनमोहन सिंह को क्योंकि सोनिया जी किसी भी जिम्मेदार पद पर नहीं हैं.वे तो उसी तरह सत्ता का निर्भय आनंद ले रही हैं जैसे १७६५ से १७७२ के बीच ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल में लिया था.शासन भी किया और उसकी जिम्मेदारी भी नहीं ली.अगर हम राजनीतिक दृष्टि से देखें तो उनके लिए इस समय बीमार हो जाना दो दृष्टियों से मुफीद था;पहला उनका पूरा परिवार इस खतरनाक समय में संसद में दिखने की शर्मिंदगी उठाने से बच गया और दूसरा देश के भोले-भाले लोगों का ध्यान भ्रष्टाचार और कमजोर लोकपाल से हटकर उनके स्वास्थ्य की ओर चला गया.उनकी रहस्यमय बीमारी की सच्चाई क्या है क्या कभी सामने आ भी पाएगा,शायद कभी नहीं!

बुधवार, 3 अगस्त 2011

उठो,जागो और युद्ध करो

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मित्रों,याद नहीं आ रहा कब भारत का संविधान पहली बार उल्टा था,शायद १९८५ में जब मेरी आयु यही कोई ८-९ साल की रही होगी.तब सबसे पहले नजर गयी थी प्रस्तावना पर जिसे वर्तमान कांग्रेस पार्टी के आदिपुरुष और मिजाज से ईसाई,संस्कृति से मुस्लमान और दुर्घटनावश जन्म से हिन्दू पं.जवाहरलाल नेहरु की अध्यक्षतावाली समिति ने तैयार किया था.मेरे द्वारा पढ़ी गयी प्रस्तावना के सबसे पहले शब्द थे हम भारत के लोग और अंतिम शब्द थे संविधान को आत्मार्पित करते हैं.आज भी प्रस्तावना जस की तस है.
         मित्रों,चाहे धार्मिक विधान हो,सामाजिक या राजनैतिक उसे बनाता व्यक्ति ही है;इन विधानों ने व्यक्ति को नहीं बनाया.इसलिए जब भी आवश्यकता हो जड़ता आने से पहले इन विधानों में परिवर्तन कर देना चाहिए.हमारे संविधान की प्रस्तावना भी कहती है कि यह संविधान जनता द्वारा निर्मित है और हमने इसे किसी और को नहीं बल्कि खुद को ही समर्पित किया है.इसका सीधा तात्पर्य है कि भारत में भारत की जनता सबसे ऊपर है न कि संविधान,संसद,कार्यपालिका या फिर न्यायपालिका.लेकिन इन दिनों हमारे देश के न भूतो न भविष्यति सबसे अकर्मण्य प्रधानमंत्री बार-बार संसद की सर्वोच्चता का बेसुरा राग आलाप रहे हैं.रिमोट संचालित मनमोहन सिंह का कहना है कि लोकपाल का जो भी करना होगा वह संसद करेगा न कि जनता.जाहिर है वे ऐसा इसलिए बक रहे हैं क्योंकि संसद में उन जैसे सफेदपोश बेईमान लोगों का बहुमत है.परन्तु अगर संसद को करना ही था तो उसने पिछले ६०-६१ सालों में क्यों नहीं किया?वह संसद जिसके एक तिहाई सदस्य हिस्ट्रीशीटर हों क्या कभी देश का भला सोंच सकता है?सुरेश कलमाड़ी और ए.राजा जैसे लोगों को अगर संसद की कार्यवाही में भाग लेने भी दिया जाए तो क्यों और कैसे उनसे इस देश की जनता यह उम्मीद रखे कि वे सदन में कदम रखते ही देश के अशुभचिन्तक से परमहितैषी बन जाएंगे?
      मित्रों,अभी-अभी कांग्रेस और उसकी सरकार ने लोक लेखा समिति की दुनिया के सबसे बड़े घोटाले से सम्बंधित रिपोर्ट को जिस तरह नकार दिया है और जिस तरह नोट के बदले वोट कांड पर लीपापोती की है;उससे तो यही सिद्ध होता है कि इन धूर्त लोगों का संसद में या उसकी गरिमा में किसी तरह का विश्वास नहीं है.ये तो बस किसी तरह देश में भ्रष्टाचार को बनाए रखने के लिए संसद और संविधान का रट्टा लगा रहे हैं.ये लोग अपने बहुमत के बल पर संसद का दुरुपयोग ही कर सकते हैं,सदुपयोग नहीं.इन लोगों ने पिछले ५३ सालों में सत्ता का सिर्फ दुरुपयोग किया है और अगर इन्हें सत्ता से हटाया नहीं गया तो आगे भी करते रहेंगे.आश्चर्य है कि ये धूर्त बार-बार उस संविधान की दुहाई देने में पिले हुए हैं जिसकी इन्होंने सैंकड़ों बार अपने क्षुद्र लाभ के लिए अवहेलना की है.अभी भी अन्ना हजारे को अनशन की अनुमति नहीं देकर ये कोई संविधानसम्मत काम नहीं कर रहे.कुछ भाई कह सकते हैं कि संसद का सत्र चलने के समय नई दिल्ली इलाके में प्रत्येक वर्ष निषेधाज्ञा लागू कर दी जाती है.अगर यह सच है तो भी यह व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का सरासर उल्लंघन है इसलिए यह परंपरा टूटनी चाहिए.
         मित्रों,उस महान संसद का मानसून-सत्र शुरू हो गया है जिसमें रूपए लेकर वोट देने की और बाद में जाँच के नाम पर लीपापोती कर देने की महान परंपरा रही है.मैं मानता हूँ कि संविधान ने संसद के कन्धों पर कानून बनाने की महती जिम्मेदारी डाली है और यह देखने का भार भी उसी पर छोड़ा है कि सरकार सही तरीके से काम कर रही है या नहीं परन्तु जब संसद अपने कर्तव्यों का सम्यक तरीके से निर्वहन नहीं कर पाए तब?तब क्या विकल्प बचता है देश और देश की जनता के सामने?क्या उसे उस प्रधानमंत्री के अनर्गल प्रलापों पर बिना किसी हिलहवाली के विश्वास कर लेना चाहिए जिसके मंत्री जेल में रहते हुए उस पर घोटालों में बराबर का भागीदार होने के आरोप लगा रहे हों या फिर जिस प्रधानमंत्री पर सी.ए.जी. जैसी महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था सी.डबल्यू.जी. घोटाले में शामिल होने और कान पर ढेला रखकर होने देने की रिपोर्ट दे रही हो?क्या उसे उस प्रधानमंत्री के कोरे आश्वासनों पर विश्वास कर लेना चाहिए जिसके नेतृत्व में विभिन्न विभागों में लाखों करोड़ों का घोटाला हो चुका हो?जब ये घोटाले हो रहे थे तब संसद कहाँ था और आज भी संसद इन मामलों में क्या कर रहा है?संविधान में पी.ए.सी. और नियंत्रक और महालेखाकार का प्रावधान क्यों किया गया है?क्या इसलिए कि कोई गन्दी और बहुमत में अंधी सरकार उनकी रिपोर्ट को बेहयायी से गंदे कूड़ेदान में फेंक दे?
         मित्रों,संसद और संविधान के ६१ साला इतिहास से स्पष्ट है कि ये संस्थाएं और व्यवस्थाएं भारत का कल्याण कर सकने में असफल रहीं है.अलबत्ता इनका दुरुपयोग करके बहुत-से टाई और खादीवाले जरूर अरब-खरब पति बन सकने में सफल रहे हैं.संसद में ऐसे गलत तत्व पहुँच रहे हैं जिनका देश और दिशहित से कुछ भी लेना-देना नहीं है.बल्कि अगर हम यह कहें कि संसद में इस तरह के लोगों का ही बहुमत हो गया है तो गलत नहीं होगा.जाहिर है अगर ऐसे लोग बहुमत में हैं तो सरकार भी वही गठित करेंगे और चलाएंगे भी वही.इसलिए अब समय आ गया है कि हम भारत के लोग जिन्होंने २६ नवम्बर,१९४९ को भारत के संविधान को आत्मार्पित किया था;पूरे संविधान को ही बदल दें.ऐसा कैसे होगा का उत्तर संविधान में नहीं गाँधी के दर्शन और जीवन में मिलेगा.हमें एकजुट होकर इसके लिए एक बार फिर करो या मरो आन्दोलन छेड़ना पड़ेगा और तब तक दम नहीं लेना होगा जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए.तो मित्रों,जागृत,उत्तिष्ठ,प्राप्यबरान्नीबोधत.