सोमवार, 31 अक्टूबर 2011

भारत माता के सच्चे लाल थे श्रीलाल

मित्रों,मैं स्व.श्रीलाल शुक्ल जी से कभी नहीं मिला,फिर भी उनसे मेरा परिचय काफी गहरा था.हमारे परिचय का आधार थी उनकी सिर्फ एक रचना.मेरे लिए यह रचना सिर्फ एक रचना मात्र नहीं है.वह बदलते भारत का इतिहास भी है,वर्तमान भी और भविष्य भी.हुआ यूं कि वर्ष १९९५ में मैंने विविध भारती पर नाट्य तरंग सुनना आरम्भ किया.तभी सप्ताह में एक दिन श्रीलाल जी के उस उपन्यास का धारावाहिक प्रसारण शुरू हुआ जिसका कि मैंने ऊपर जिक्र किया है.उपन्यास राग दरबारी मुझे सचमुच राग दरबारी में निबद्ध कोई संगीत रचना-जैसी लगी.सुनना शुरू किया तो बस सुनता ही चला गया.जब इसके प्रसारण का समय आता तब सारे कामकाज छोड़कर छत पर चला जाता बगल में रेडियो दबाए.तब विविध-भारती शोर्ट वेव पर पकड़ती थी और प्रसारण का अविच्छिन्न आनंद लेने के लिए बार-बार मीटर को खिसकाना पड़ता था.आवाज भी इतनी कम आती और इस तरह घर्घर नाद के साथ आती कि रेडियो से कानों को सटाकर रखना पड़ता था.
           मित्रों,बहुत जल्दी रुप्पन,रंगनाथ,वैद्यजी और छोटे पहलवान जैसे मेरे अपने गाँव के किरदार बन गए.शिवपालगंज का वर्णन जैसे मेरे गाँव जगन्नाथपुर का रोजनामचा था.कितना गहरा व्यंग्य है रागदरबारी में हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर?!अंततः पहले रेडियो पर यह उपन्यास समाप्त हुआ और बाद में लेखकों से परिचित करवानेवाले इस कार्यक्रम की आवृत्ति को घटाकर दैनिक से साप्ताहिक कर दिया गया.हालाँकि मुझे रेडियो पर राग दरबारी को पूरा-का-पूरा सुनाने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका था लेकिन मन जैसे अतृप्त-सा रह गया था.फिर मैंने २००२ में अपने दिल्ली प्रवास के दौरान यह उपन्यास ख़रीदा और खाना-पीना और पेशाब के वेग तक को रोककर एक ही बैठक में पढ़ गया.मन को लगा जैसे उसने वर्षों बाद अमृत का स्वाद चखा हो.फिर तो इस उपन्यास को कई-कई बार पढ़ा.हालाँकि मैंने इससे पहले प्रेमचंद और रेणु को भी पढ़ा था.प्रेमचंद में तो व्यवस्था पर यह व्यंग्य सिरे से गायब था;रेणु के मैला आँचल में व्यंग्य था पर सिर्फ यथार्थ की सतह को छूता हुआ-सा.अपनी तरह का पहला उपन्यास राग दरबारी सिर्फ उपन्यास नहीं था भ्रष्ट तंत्र में तब्दील हो चुके भारतीय लोकतंत्र को आईना दिखाता एक अश्लील यथार्थ था,सत्य था.भारतीय लोकतंत्र का जो वर्णन इस उपन्यास में है,जिस तरह का वर्णन श्रीलाल जी ने इस उपन्यास में एक गाँव के बारे में किया है कमोबेश वही सब तो बड़े फलक पर प्रादेशिक और राष्ट्रीय राजनीति में इन दिनों घटित हो रहा है.बहुत-से गांवों में तब भी ऐसा हो रहा था और बहुत-से गांवों में ऐसा होने वाला था.इस दृष्टि से श्रीलाल जी साहित्यकार के अतिरिक्त एक भविष्यद्रष्टा भी थे.
                   मित्रों,मैंने जहाँ तक हिंदी साहित्य को पढ़ा है उसके आधार पर बेहिचक यह कह सकता हूँ कि श्रीलाल जी के उपन्यास राग दरबारी ने उस समय एक शून्य को भरने का काम किया था जो शून्य प्रेमचंद के गोदान के बाद से ही बना हुआ था.प्रेमचंद गोदान में भविष्य के भारतीय लोकतंत्र की जिस तस्वीर को देख सकने में असमर्थ रहे थे और रेणु ने जिसे मैला आँचल में थोड़ा-थोड़ा देखा था चाहे इसका कारण कुछ भी रहा हो;को श्रीलाल जी ने खूब देखा और उसका उतनी ही बखूबी के साथ वर्णन भी किया.रागदरबारी की एक-एक पंक्ति जैसे किसी माला का एक-एक मोती है.इसकी एक भी पंक्ति को आप हटा नहीं सकते;बदल भी नहीं सकते.इस उपन्यास को पढ़ते हुए मुझे ऐसा लगा कि जैसे श्रीलाल जी ने मेरे गाँव में चुपके से आकर नित्य-प्रतिदिन घटनेवाली घटनाओं की वीडियो रिकार्डिंग कर ली है.एक-एक दृश्य सच से भी ज्यादा सच्चा.सत्य को देखता हर कोई है,महसूस भी हर कोई करता है लेकिन लिख हर कोई नहीं पता.हर किसी के पास न तो लिखने लायक सघन अनुभूति होती है और न ही उन अनुभूतियों को कोरे कागज पर उकेर सकनेवाले शब्द.
                  मित्रों,यूं तो तंत्र के खिलाफ लिखना ही बड़ी बात है परन्तु उससे भी बड़ी बात है भ्रष्ट हो चुके उस तंत्र का अहम हिस्सा रहते हुए उसके विरुद्ध लिखना.आज भी बहुत-से आई.ए.एस.-आई.पी.एस. अधिकारी ऐसे हैं जो व्यवस्था से क्षुब्ध हैं और जिनकी लेखनी में कशिश भी है लेकिन वो जिगर नहीं है जो श्रीलाल जी के पास था.बतौर मुक्तिबोध अभिव्यक्ति के खतरों को उठा सकनेवाला जिगर.आज श्रीलाल जी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन मेरा उनसे और भारतीय राजनीति की विद्रूपताओं से परिचय करवानेवाली पुस्तक राग दरबारी अब भी मौजूद है मेरी आलमारी में उनकी ही तरह एक अल्हड और मस्तमौला मुस्कराहट बिखेरती हुई.आश्चर्य होता है कि हिंदी साहित्याकाश में धवल नक्षत्र इस पुस्तक के लिए उन्हें पहले ज्ञानपीठ क्यों नहीं दिया गया?ज्ञानपीठ वालों को पुरस्कार देने की तब सूझी जब माता सरस्वती का यह मानस पुत्र विदाई की बेला में पहुँच चुका था?!आखिर हम भारतीयों को यूं ही लेटलतीफ तो नहीं कहा जाता!श्रीलाल जी आज हमारे बीच नहीं हैं.मेरे पास तो उनकी स्मृतियाँ भी शेष नहीं है.प्रत्यक्ष परिचय का अवसर ही जो नहीं मिला.लेकिन शेष हैं उनकी रचनाएँ,उनके शब्द जो चीख-चीखकर उनकी निडर रचनाधर्मिता से हमें परिचित करवा रही हैं.दुर्भाग्यवश राग दरबारी समय के गुजरने के साथ-साथ पहले से भी ज्यादा सामयिक बनता जा रहा है.भ्रष्टाचार और भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ इन दिनों जो जनाक्रोश उभर रहा है उसे देखते हुए मैं आप सभी भारतीयों के साथ आशा करता हूँ कि निकट-भविष्य में इसकी सामयिकता पूरी तरह से समाप्त हो जाएगी और तब यह साहित्य की श्रेणी से हटकर इतिहास की पुस्तक बनकर रह जाएगी.आमीन!!!   

शनिवार, 29 अक्टूबर 2011

क्या यही है श्री श्री के जीने की कला

मित्रों,जब मैं सातवीं कक्षा में पढ़ता था तब पड़ोसी गाँव बासुदेवपुर चंदेल में यज्ञ का आयोजन किया गया.बड़े-बड़े,भारी शरीर वाले साधु-संतों का जमावड़ा लगा.चूंकि हम विद्यार्थी स्वयंसेवक भी थे इसलिए हमारे पास उनकी दिनचर्या के बारे में काफी निकट से जानने का भरपूर मौका था.वे लोग मलाई तलवे में लगाते और खाते भी थे.सेब,अनार,संतरा और दूध तो वे लोग जितना एक सप्ताह में हजम कर गए आज महंगाई के इस युग में सोंचकर भी आश्चर्य होता है.आश्चर्य उस समय भी हुआ था उनका रहन-सहन देखकर क्योंकि तब तक मेरा पाला सिर्फ भुक्खड़ सन्यासियों से ही पड़ा था.उन कथित साधु-संतों का सिर्फ शरीर ही भीमाकार नहीं था उनका नाम तो शरीर से कहीं ज्यादा भारी-भरकम था.श्री श्री १००८ वेदांती जी महाराज,श्री श्री १०८ लक्ष्मण जी महाराज इत्यादि.नाम के पहले इतने श्री लगाने का क्या मतलब या उद्देश्य हो सकता है इसका दुरुपयोग करने वाले ही जानें.मेरी समझ में तो यह तब भी नहीं आया था और आज भी नहीं आ रहा है.हमने इनमें से कुछ के नामों को अपनी समझ से सुधार कर कुछ यूं कर दिया था-श्री श्री ४२० मलाईचाभक,सेबठूंसक,दूधपीवक भूकंपधारी जी महाराज आदि.
             मित्रों,इन्हीं एक से ज्यादा श्री धारण करनेवाले सन्यासियों में से एक हैं श्री श्री रविशंकर जी.इन्होने अपने नाम में बस एक ही फालतू श्री लगा रखा है.ये श्रीमान ज़िन्दगी जीने को एक कला मानते हैं और लोगों को उसी की शिक्षा देने का दावा भी करते हैं.ये श्रीमान खुद तो गृहस्थाश्रम से भाग खड़े हुए और ये बताते हैं कि गृहस्थों को कैसे जीना चाहिए.इनके द्वारा दीक्षित गृहस्थ भी कोई आम गृहस्थ नहीं होए.वे होते हैं बड़े-बड़े धनपति जो इनको मोटी दक्षिणा दे सकने में सक्षम होते हैं.पूछना चाहें तो आप भी मेरी तरह इनसे पूछ सकते हैं कि इन्होंने कलात्मकता से जी गयी पूरी जिंदगी में कितने गरीबों को जीना सिखाया?क्या गरीबों की ज़िन्दगी ज़िन्दगी नहीं होती?क्या वे जीवन को जीते नहीं है?बस किसी तरह झेल लेते हैं जबरदस्ती लाद दी गयी जिम्मेदारी की तरह?मैं तो समझता हूँ कि अगर श्री श्री अपने कलात्मक ज्ञान द्वारा गरीबों को बताते कि इस महंगाई में दाल-सब्जी कैसे थाली में लाई जाए या फिर कैसे भूखे रहकर भी शरीर को स्वस्थ रखा जाए तो उनका हम गरीबों पर बड़ा उपकार होता.लेकिन वे साधारण संत तो हैं नहीं कि आम आदमी को जीना सिखाएंगे.वे तो हाई-फाई संत हैं जिनके शिष्यों में देश के बड़े-बड़े नेता और अमीर होते हैं जो अक्सर अपच के रोगी भी होते हैं.
                    मित्रों,आप भी मेरे साथ जरा सोंचिए कि कोई किसी को अगर जीना सिखाएगा तो क्या सिखाएगा?यही न कि गिलास के भरे हुए भाग को देखो खाली को नहीं.कठिनाइयों,विसंगतियों से युद्ध करो,मैदान छोड़कर भागो नहीं.लेकिन श्री श्री स्वयं क्या कर रहे हैं?वे भारतवासियों को बता रहे हैं कि लोकपाल आने से भ्रष्टाचार मिटनेवाला नहीं है इसलिए अपने तत्संबंधी प्रयासों को बीच मंझधार में ही छोड़ दो.खुद तो श्री श्री भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई आन्दोलन छेड़ते नहीं परन्तु पहुँच जरुर जाते हैं चंद मिनटों के लिए मंच साझा करने के लिए और अब श्रीमान गन्दी हवा छोड़कर बनी बनाई हवा को ख़राब करने में लग गए हैं.ऐसा करने से उनको क्या लाभ हो जाएगा या हुआ है या भ्रष्टाचार से आजिज जनता को जीने में क्या प्रेरणा मिलेगी;वही जानें?क्या किसी आन्दोलन से लकड़बग्घे की तरह लाभ उठाकर उसकी पीठ में छुरा घोंप देना उनके जीने की कला के अंतर्गत आता है?
              मित्रों,मुझे जहाँ तक लगता है कि संस्था या ट्रस्ट चलनेवाले श्री श्री सहित लगभग सारे सफेदपोश इस बात की आशंका से डर रहे हैं कि केंद्र सरकार के खिलाफ आवाज उठाने पर सरकार कहीं उनकी संस्था के खातों की जाँच न शुरू कर दे और जो नहीं डरे हैं;आप भी देख ही रहे हैं कि वे कैसे फजीहत झेल रहे हैं.गलती किससे नहीं होती?चाहे आर्ट ऑफ़ लिविंग सिखानेवाला श्वेतवस्त्रधारी हो या योग सिखानेवाला केसरिया कपड़ाधारी या और कोई;गलती सभी करते हैं.अच्छा होगा कि जिन्होंने आर्थिक अपराध या करवंचना की हो खुद जनता के समक्ष आकर अपनी गलती मान लें और भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज बुलंद कर या न्यायालय द्वारा दी गयी सजा काटकर प्रायश्चित करें.धृष्टता के लिए कृपया क्षमा कर दीजिएगा श्री श्री जी यहाँ मैं आपको जीना नहीं सिखा रहा हूँ.वो तो शायद आप मुझसे बेहतर जानते हैं.मैं तो आपको केवल यह बता रहा हूँ कि जीना सिखाया कैसे जाता है.जो बात दूसरों को सिखाईए पहले खुद उस पर अमल करिए तभी बातों में तासीर पैदा होती है वरना बात पर उपदेश कुशल बहुतेरे तक ही जाकर अटक जाती है.

बुधवार, 26 अक्टूबर 2011

शिखंडी नहीं अर्जुन है टीम अन्ना

मित्रों,जबसे हिसार लोकसभा उपचुनाव में अन्ना टीम ने कांग्रेस उम्मीदवार को वोट नहीं देने की अपील की है भ्रष्टाचार समर्थक पार्टियों के नेताओं और उनके चमचा पत्रकारों के खाना-ए-दिल में शोर बरपा है.कारण इसके अलावे और कुछ नहीं हो सकता कि इन धूर्त लोगों को अपने पांव तले से राजनीतिक जमीन खिसकती हुई मालूम हो रही है.झूठ और भय का जो तिलिस्म इन्होंने बरसों-बरस से कायम कर रहा था अब टूटने लगा है.इनमें से कोई अन्ना टीम को राह से भटका हुआ बता रहा है तो कोई सीधे-सीधे अन्ना टीम के कांग्रेस को वोट नहीं देने की अपील करने के नैतिक अधिकार को ही कटघरे में खड़ा करने में जुटा है.
          मित्रों,अन्ना टीम ने जो कुछ भी हिसार में किया वो बिलकुल सही था.कहीं कुछ भी गलत नहीं था उनकी कथनी और करनी में.अन्ना टीम भारत के प्रबुद्ध समाज के अतिप्रबुद्ध लोगों द्वारा निर्मित है और हम उनसे कम-से-कम यह उम्मीद तो नहीं ही कर सकते हैं कि जब भारतमाता का भ्रष्टाचारियों के हाथों सरेआम चीर-हरण हो रहा हो तब वे उसी तरह मूकदर्शक बने रहें जैसे कभी साम्राज्ञी और कुलवधू द्रौपदी के चीरहरण के समय भीष्म,द्रोणादि महावीर बने रहे थे.अब तक कांग्रेस का जनलोकपाल और भ्रष्टाचार के मामले में जो टालू,चालू और शंकालू रवैया रहा है उसे देखते हुए उस पर जन लोकपाल के लिए लगातार दबाव बनाए रखते हुए बढ़ाते रहना चाहिए.कुछ लोग टीम अन्ना के हिसार में काम करने के तरीके की तुलना महाभारत के शिखंडी के कृत्य से कर रहे हैं.उनका ऐसा करना और कहना तथ्यात्मक रूप से सही नहीं है.महाभारत के युद्ध में छिपकर वाण शिखंडी ने नहीं चलाया था बल्कि महान धनुर्धर अर्जुन ने चलाया था.छिपकर वाण तो मर्यादापुरुषोत्तम राम को भी चलाना पड़ा था बालि पर और उनका ऐसा करना तत्कालीन परिस्थितियों में अनुचित भी नहीं था.
                मित्रों,मैं मानता हूँ कि हिसार उपचुनाव में टीम अन्ना सीधे-सीधे अपना उम्मीदवार उतार भी सकती थी.ऐसा करना असंभव नहीं था लेकिन आसान भी नहीं था.चुनाव लड़ने के लिए सबसे पहले जरूरी होता है पार्टी संगठन,फिर पैसा और अंत में एकनिष्ठ उम्मीदवार.आप जानते हैं कि इनमें से पहले दोनों तत्त्व अन्ना टीम के पास नहीं है.पार्टी संगठन बनाने में कम जटिलता नहीं है.इस अविश्वास और अनास्था के युग में क्या पता कौन पार्टी में ऊंचा पद प्राप्त कर लेने के बाद आस्तीन का सांप निकल जाए.स्वामी अग्निवेश का उदहारण हमारी आँखों के सामने है.हम यह भी जानते हैं कि आधुनिक युग में चुनाव पैसों के बल पर लड़े और जीते जाते हैं.जाहिर है अन्ना टीम को पैसा प्राप्त करने के लिए कई तरह के नापाक समझौते;अपवित्र उद्देश्य वाले लोगों के साथ-साथ अपने मूल्यों व सिद्धांतों के साथ भी करने पड़ते.अंत में बारी आती है ईमानदार उम्मीदवार की तो आप भी जानते हैं कि अब तक ऐसी कोई मशीन बनी नहीं है जिससे किसी व्यक्ति की ईमानदारी का शत-प्रतिशत प्रामाणिक परीक्षण किया जा सके.समाज में रंगे सियारों की कोई कमी नहीं है और इस मामले में भी टीम अन्ना धोखा खा सकती है.यहाँ आप जेपी के साथ १९७७ और उसके बाद के वर्षों में जो कुछ हुआ को याद कर सकते हैं.
                  मित्रों,इसलिए देश,काल और परिस्थितियों को मद्देनजर रखते हुए टीम अन्ना ने जो कुछ भी किया वह पूरी तरह से सही है.अगर बाहर से ही फूँक मारने से कालिख उड़ जाए तो क्या जरुरत है काजल की कोठरी में उतरने की?अन्ना द्वारा वोट न देने की अपील करने मात्र से ही अगर सरकार दबाव में आ जाती है अथवा दबाव में नहीं आने पर चुनाव हार जाती है तो बिना चुनाव लड़े सरकार के खिलाफ में प्रचार करने से अच्छा कोई विकल्प हो ही नहीं सकता-हर्रे लगे न फिटकिरी रंग भी चोखा होए.एक बात और.अगर अन्ना टीम बाजाप्ता पार्टी गठित करके चुनाव लड़ती है तो वही लोग जो अभी उसकी तुलना शिखंडी से कर रहे हैं सीधे-सीधे यह आरोप लगेंगे कि हम न कहते थे कि इनलोगों का छिपा हुआ राजनीतिक एजेंडा है.
              मित्रों,टीम अन्ना की अपील का हिसार के मतदाताओं पर जो कुछ असर हुआ.उससे आप सभी वाकिफ हैं.उनकी अपील में जो असर है उसे पैदा करने के लिए खुद सरकार भी कम दोषी नहीं है.सरकार और कांग्रेस पार्टी का भ्रष्टाचार के प्रति रवैया हमेशा से संदिग्ध रहा है.उसकी नीयत अभी भी साफ़ नहीं है.अच्छा होता कि ये लोग अन्ना टीम के इक़बाल को मिटाने का प्रयास करने के बजाए भ्रष्टाचार को मिटाने पर ध्यान केन्द्रित करते तब जनता को भी यह यकीन हो जाता कि दाल तो काली नहीं ही है,दाल में कुछ काला भी नहीं है.अंत में कांग्रेस पार्टी से एक अपील-अब से भी संभल जाओ कांग्रेसवालों तुम्हारी बरबादियों के मशवरे हैं आसमानों में,नहीं संभले मिट जाओगे अगले चुनावों में;तुम्हारी दास्ताँ तक न मिलेगी दास्तानों में.शुक्रिया,शुक्रिया.        
                    

रविवार, 23 अक्टूबर 2011

लोकतंत्र,पूंजीवादी नैतिकता और हम

मित्रों,इन दिनों पूरी दुनिया में जनाक्रोश का तूफ़ान आया हुआ है.बारी-बारी से दुनिया के विभिन्न देशों में तानाशाही शासन का अंत हो रहा है.हर जगह जनता बेरोजगारी,महंगाई और सबसे बढ़कर आर्थिक गैरबराबरी से परेशान है.खैर तानाशाहों का अंत हमेशा से इसी तरह होता आया है.इतिहास बार-बार अपने को दोहराता रहता है परन्तु तानाशाह सबक नहीं लेते और फिर वही होता है जो इन परिस्थितियों में होना चाहिए.लेकिन इस बार जनाक्रोश के बबंडर की चपेट में सिर्फ तानाशाही शासन वाले देश ही नहीं हैं बल्कि वे देश भी इसकी जद में हैं जो दुनियाभर में मानवाधिकारों और लोकतंत्र के तथाकथित ठेकेदार बने फिरते हैं.दुनिया में लोकतंत्र के सबसे बड़े झंडाबरदार और दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका में भी इन दिनों बढ़ती बेरोजगारी,महंगाई और गैरबराबरी से क्षुब्ध जनता पूंजीवाद के सबसे बड़े प्रतीक वाल स्ट्रीट पर कब्ज़ा करने की मुहिम चला रही है.जनता नाराज है कि अमीरपरस्त सरकारी नीतियों के चलते वे गरीब होते जा रहे हैं और उनकी खून-पसीने की कमाई हड़प जानेवाले बैंक धनवान.दुनिया की मात्र ४% जनसंख्या की बदौलत दुनिया की २४% आय पर कब्ज़ा रखनेवाले अमेरिका की आतंरिक स्थिति भी पूंजीवाद की बिडंबनाओं के चलते कमोबेश ऐसी ही है.जहाँ वहां की करीब आधी राष्ट्रीय आय पर सबसे ऊपर के २०% लोगों का कब्ज़ा है वहीँ सबसे गरीब १५% जनसंख्या की राष्ट्रीय आय में सिर्फ ३.४% की हिस्सेदारी है.इतना ही नहीं सबसे ऊपर के १% लोगों का देश की आमदनी के १८% पर गरीबों के दिलों को खटकने वाला अधिकार है.परिणाम आम जनता मुफलिसी की जिंदगी जीने को बाध्य है वहीँ वहाँ के अमीर अपना पैसा कहाँ खर्च करें;की समस्या से जूझ रहे हैं.यूरोप में भी कमोबेश सारी सरकारें कॉरपोरेट जगत के ईशारों पर नृत्य करने में मग्न हैं.ऐसा क्यों हुआ और कैसे हुआ?1860 के दशक तक जब अब्राहम लिंकन अमेरिका के राष्ट्रपति थे;तो प्रजातंत्र जनता का,जनता द्वारा और जनता के लिए शासन हुआ करता था.फिर यह विकृत्ति कैसे आ गयी कि कॉरपोरेट जगत परदे के पीछे से कथित लोकतान्त्रिक सरकारों का सूत्रधार बन बैठा.
                     मित्रों,समस्या लोकतंत्र में नहीं है;समस्या है लोकतंत्र के बदलते स्वरुप में.पूंजीवाद तो हमेशा से मुनाफा आधारित व्यवस्था रही है.इस व्यवस्था में धन का केन्द्रीकरण होने की प्रवृत्ति पहले भी थी.हाँ,इतना जरुर था कि पहले पूँजीपतियों के सीने में दिल भी होता था और यह बात भारत सहित पूरी दुनिया के लिए सत्य थी.तब के पूंजीपति दोनों हाथ उलीचिए यही सयानो काम में यकीन करते थे.अपने देश में टाटा और बिरला ने अनगिनत मंदिरों,धर्मशालाओं और अस्पतालों का निर्माण कराया.इन्हें कभी इस बात की जरुरत महसूस नहीं हुई कि वे मुकेश अम्बानी की तरह हजारों करोड़ रूपये के मकान में रहें और वो भी उस देश में जहाँ की ८०% जनसँख्या दाने-दाने को मोहताज हो.आजाद भारत के प्रारंभिक दशकों में देश के तकनीकी विकास में टाटा परिवार के योगदान को हम कभी नहीं भूल सकते और अगर ऐसा करते हैं तो निश्चित रूप से कृतघ्न कहे जाएँगे.
           मित्रों,वक़्त बदला और साथ-साथ हमारे जीवन मूल्य भी बदलते गए.उपभोक्तावाद ने पूंजीपतियों को सामाजिक सरोकार से दूर कर दिया और तब कार्ल मार्क्स की प्रसिद्द उक्ति कि पूँजी हृदयहीन होती है सचमुच चरितार्थ होने लगी.पूंजीपति समाज से तो कट ही गए लालच में अंधे होकर धनबल के बल पर सरकारी नीतियों को भी प्रभावित करने लगे.अगर ऐसा नहीं होता तो आज २जी स्पेक्ट्रम घोटाले में भारत की कई प्रमुख कंपनियों के उच्चाधिकारी तिहाड़ जेल की शोभा बढ़ा रहे नहीं होते.
         मित्रों,लोकतान्त्रिक देशों के राजनीतिक दलों का स्वाभाव और चरित्र भी पिछले दशकों में तेजी से बदला है.पार्टी फंड में पहले भी पैसों की जरुरत होती थी लेकिन तब जमीर बेचकर पैसा जमा करने का रिवाज नहीं था.आज करप्शन पार्टी के उपनाम से कुख्यात हो चुकी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने कभी पार्टी फंड में चवन्निया कार्यकर्ताओं से २५-२५ पैसे करके जमा करवाया था.तब उसके नेता रेलवे के थर्ड क्लास में सफ़र किया करते थे.वायुयान के कैटल क्लास में सफ़र के बारे में भी कल्पना तक तब उनके लिए दूर की कौड़ी थी.हालांकि,तब भी जमनालाल बजाज और धनश्याम दास बिरला ने कई बार पार्टी फंड में अपना अहम् योगदान दिया था लेकिन उनकी मंशा इसके बदले आर्थिक लाभ प्राप्त करने की कतई नहीं थी.आज की स्थिति इसके बिलकुल उलट है.आज का कॉरपोरेट जगत अगर किसी पार्टी के कोष में १ रूपया देता है तो उसकी मंशा बदले में १०० रूपया पाने की होती है.आज देश की चिंता तो न तो जनप्रतिनिधि नेताओं को ही है और न ही पूँजी पर कब्ज़ा जमाए पूंजीपतियों को ही.
               मित्रों,हम देखते हैं कि चुनाव जो किसी भी लोकतंत्र की बुनियाद होते हैं दिन-ब-दिन महंगे होते जा रहे हैं.कहीं-न-कहीं इसके पीछे पार्टी फंडिंग का बढ़ता जोर तो है ही जनता भी कम दोषी नहीं है.जनता हमेशा प्रत्येक चुनाव में तात्कालिक लाभ के चक्कर में रहती है.वह सोंचती है कि अभी जो मिलता है ले लो बाद का क्या ठिकाना कि क्या हो और क्या नहीं हो.परिणाम यह निकलता है कि चुनावों में धड़ल्ले से पैसे,सामान और शराब बांटे जाते हैं.लालच में अंधी होकर जनता मतदान करती है और भ्रष्ट तत्व चुनाव जीत जाते हैं.हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी भारत के इसी वैशाली से जहाँ मैं इन दिनों रहता हूँ;१९३७ में दीपनारायण सिंह जैसे फक्कड़ ने चुनाव जीता था और वो भी बिहार के धनाढ्यों में अग्रणी श्यामनंदन सहाय को हराकर.तब भी पैसे बांटे गए थे,शराब की बोतलें बाँटीं गयी थीं लेकिन धनबल हार गया था और जनबल की जीत हुई थी.आज ऐसा क्यों नहीं होता?कारण है अविश्वास और समाज में धनबल का बढ़ता महत्व.जनता को अब किसी के भी ऊपर विश्वास ही नहीं रह गया है.धूर्त लोग बगुला भगत बनकर,खुद को गरीब का बेटा कहकर चुनाव जीत जाते हैं और फिर भूल जाते हैं अपने गरीब मतदाताओं को.ऐसे में जनता यह देखती है कि उसे कौन कितना पैसा देता है.वह अपने वोटों की नीलामी करती है और जो सबसे ऊंची बोली लगाता है;जीत जाता है.बाद में लूटते तो सभी हैं-कोऊ नृप होए हमें का हानि.आज जो लोग भी चुनाव जीतते हैं;लगता है जैसे सत्य निष्ठा की नहीं बेईमानी की शपथ लेते हैं.परन्तु इनके राजनीतिक पूर्वज ऐसे नहीं थे.तब के सामाजिक मूल्य और थे और अब और हो गए हैं.तब जनसेवा और ईमानदारी का समाज में महत्त्व था;आज महत्त्व है सिर्फ पैसों का.पैसों के लिए आज का आदमी कुछ भी कर गुजरता है.अब कुछ भी पाप नहीं है,सब पुण्य है और उन पुण्यों में सबसे बड़ा पुण्य है येन केन प्रकारेण पैसा बनाना.
          मित्रों.हम भी वही कर रहे हैं यानि किसी-न-किसी तरह पैसा बना रहे हैं,राजनेता भी वही कर रहे हैं और कॉरपोरेट जगत भी वही कर रहा है.अंतर सिर्फ इतना है कि नेताओं और पूंजीपतियों के हाथों में ज्यादा शक्ति है,संसाधन है इसलिए वे ज्यादा पैसा बना रहे हैं और हमारे हाथों में कम शक्ति और संसाधन है इसलिए हम कम पैसा बना पा रहे हैं.सरकारी तंत्र में ऊपर से नीचे तक जो भ्रष्टाचार का व्यापार चल रहा है उसे कौन चला रहा है?हमहीं न!दिन-रात घूस लेनेवाले अधिकारी-कर्मचारी,नेता और पूंजीपति कोई आसमान से अवतरित नहीं हुए हैं बल्कि वे हमारे बीच से ही हैं.जिस तरह शरीर की सबसे छोटी इकाई कोशिका होती है उसी तरह लोकतान्त्रिक शासन की सबसे छोटी इकाई हम हैं.जब कोशिका में विकृति आती है तो कैंसर हो जाता है और जब जनता में विकृत्ति आती है तब?तब लोकतंत्र जनता का,जनता द्वारा और जनता के लिए शासन नहीं रहकर पूंजीपतियों का,पूंजीपतियों द्वारा और पूंजीपतियों के लिए शासन बनकर रह जाता है.इसलिए अगर कहीं सुधार की आवश्यकता है तो हमारी सोंच,हमारे विचारों और हमारे मूल्यों में.यह काम दुनिया की कोई भी सरकार कोई भी सख्त-से-सख्त कानून बनाकर नहीं कर सकती.यह हमहीं कर सकते हैं केवल हम और हम शायद इसके लिए तैयार ही नहीं हैं.हमारी यह आदत बन गयी है कि हम दूसरों पर ऊंगली उठाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं,अपने अन्दर नहीं झांकते.बंधु;यह आत्मालोचना का समय है.अगर हम आत्मालोचन नहीं करेंगे,अपने-आप में सुधर नहीं करेंगे तो एक गद्दाफी के मारे जाने के बाद दूसरा गद्दाफी शासन में आ जाएगा;एक मनमोहन चुनाव हारेगा और उसकी जगह कोई और नहीं बल्कि दूसरा मनमोहन बदले हुए नाम और सूरत के साथ आ जाएगा.हम ठगे जाते रहेंगे और हमें कोई और ठग भी नहीं रहा होगा,हमारा अंतर्मन और हमारी अंतरात्मा खुद हमारे ही हाथों ठगे जाते रहेंगे;चाहे शासन साम्यवादी होगा या पूंजीवादी या फिर मिश्रित;वस्तुस्थिति में कोई अंतर नहीं होगा.
                    

शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

निराशा ने बनाया नन्हा ब्लॉगर

kapilमित्रों,आजादी के बाद से ही सरकार घोषणाएं करती हैं,कानून भी बनती है और फिर सबकुछ भूल जाती है.वह कानून कैसे लागू होगा अथवा उसका कहाँ तक पालन हो रहा है;की बिलकुल भी चिंता नहीं की जाती.ताजा उदाहरण खुद मेरे घर से है.मेरे भांजों को जबसे जीजाजी का दिल्ली स्थानांतरण हुआ है,केंद्रीय विद्यालय में नामांकन का इंतजार है.इस बीच जीजाजी ने लगभग हरेक राजनीतिक दल का दरवाजा खटखटा,अधिकारीयों के दरों पर मत्था टेका लेकिन परिणाम कुछ भी नहीं निकला.हारकर मेरे भांजों ने केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री को पत्र लिखकर अपनी व्यथा-कथा से परिचित कराया.श्री कपिल सिब्बल ने पत्रोत्तर में उसे पत्र लेकर समीपस्थ केंद्रीय विद्यालय के प्राचार्य से मिलने की सलाह दी.वे दोनों उक्त पत्र को लेकर प्राचार्य से मिले भी परन्तु उन्हें एक बार फिर से टका-सा जवाब मिला.प्राचार्य महोदय ने ऐंठते हुए साफ़ तौर पर कहा कि वो किसी भी कीमत पर नामांकन नहीं लेंगे.यह स्थिति भारत की राजधानी दिल्ली के एक सरकारी स्कूल की है और तब है जब पूरे भारत में १४ साल से कम उम्र के बच्चों को शिक्षा का अधिकार प्राप्त है.अंततः निराशा ने वेदना को जन्म दिया और वेदना ने शब्दों का रूप धर लिया.तब जन्म हुआ एक नए ब्लॉग का और एक नन्हे मासूम ब्लॉगर का.ब्लॉग का नाम है सच्चाई और पता है-http://www.sachchai.blogspot.com और मेरे १३ वर्षीय ब्लॉगर भांजे का नाम है कौशिक राज.यहाँ मैं उसके पहले ब्लॉगपोस्ट जिसमें उसने अपनी व्यथा का वर्णन किया है प्रस्तुत कर रहा हूँ-

शिक्षा का अधिकार है या शिक्षा छीनने का अधिकार है

कहने के लिए तो देश में शिक्षा का अधिकार लागू है पर असलियत में इसकी बहुत भयावह स्थिति है।इसका एक उदाहरण मैं खुद हूँ।मैं और मेरा छोटा भाई पिछले एक साल से केन्द्रीय विद्यालय में नामांकन के लिए प्रयासरत हैं लेकिन आज तक हमारे हाथ सिवाय असफलता के कुछ नहीं लगा है।मेरे पिताजी सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय, सरदार पटेल भवन, नई दिल्ली में कार्यरत हैं।मेरे पिताजी को पिछले एक साल से केन्द्रीय विद्यालय में नामांकन के नाम पर परेशान किया जा रहा है।के॰वि॰ का बस एक ही नियम है-कोई सीट खाली नहीं है।
इस बार नामांकन के लिए मेरे पिताजी के॰वि॰ संगठन के उच्चाधिकारी और साथ-साथ कपिल सिब्बल-मानव संसाधन विकास मंत्री की चिठ्ठी आर॰के॰ पुरम सेक्टर-2 के प्राचार्य के यहाँ ले गए।हद तो तब हो गई जब प्राचार्य ने उन दोनों चिठ्ठी को भी यह कह कर नकार दिया कि आप चाहे मंत्री की चिठ्ठी लाएँ या प्रधानमंत्री की लेकिन नामांकन नहीं होगा तो नहीं होगा।तो क्या अब यह हाल हो गया कि एक विद्यालय के प्राचार्य की हैसियत भारत सरकार से भी ऊपर हो गई?प्राचार्य महोदय की बातों को सुनकर तो ऐसा लग रहा था जैसे हम किसी विद्यालय के प्राचार्य से नहीं बल्कि भारतीय संविधान के निर्माता अथवा सरकार के मुखिया से बात कर रहे हैं।
इस संदर्भ में हमने मंत्री जी के कार्यालय से भी बात की लेकिन वहाँ से हमें जवाब मिला कि हम आप की कोई मदद नहीं कर सकते।तो क्या आम आदमी की मदद करने का मंत्री जी का यही नजरिया है कि बस एक चिठ्ठी दे दी और हो गई सारी जिम्मेदारी पूरी।अगर के॰वि॰ संगठन के उच्चाधिकारी और मंत्री जी अपने ही घर यानी के॰वि॰ में नामांकन नहीं करा सकते तो फिर देश को कोई जरूरत नहीं है ऐसे कमजोर और गैरजिम्मेदार मंत्रिमंडल और संगठन की।सरकार को के॰वि॰ संगठन को विघटित कर देना चाहिए क्योंकि ऐसा कोई भी संगठन जो देश के काम नहीं आ सकता पर एक पैसा भी खर्च करना पाप है।वैसे भी केन्द्र में आज तक ऐसी कोई भी सरकार नहीं आई है जो आम जनता के बारे में सोचे।ये सरकार भी कुछ गलत नहीं कर रही है बस इसी रिवाज को आगे बढ़ा रही है।

लोकपाल लाओ जमानत बचाओ

मित्रों,जब हम बचपने में थे तब हमारे घर के बड़े-बुजुर्ग हमें अक्सर गाँव के तालाब में नहाने से रोका करते थे.चूंकि मारने-डांटने का प्रभाव बच्चों के मन-मस्तिष्क पर बहुत ही कम देर तक रहता है इसलिए वे हमारे मन में विभिन्न मनगढ़ंत कहानियों के द्वारा भायारोपन कर दिया करते थे और उन कहानियों में सबसे प्रमुख कहानी थी पनडुब्बा की.उनका कहना था या यूं कहें कि मानना था कि जो लोग तालाब में डूबने से मर जाते हैं वे एक विशेष प्रकार के भूत बन जाते हैं जिनकों वे पनडुब्बा कहते थे.इन पनडुब्बों में जैसा कि वे बताते थे कि ऐसी प्रवृत्ति पाई जाती है कि जो भी तालाब में स्नान करने आए उसे भी डूबा दो,जिससे उनके संख्या बल में लगातार वृद्धि होती रहे.
           मित्रों,दुभाग्यवश भारत की सबसे पुरानी और गुजरते वक़्त में केंद्र में सत्ता में काबिज कांग्रेस या करप्शन पार्टी इन दिनों यही पनडुब्बा का खेल खेलने में मशगूल है.सच्चाई तो यह है कि भ्रटाचार में आकंठ डूबी हुई यह पार्टी भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी भी तरह के ठोस कदम उठाना ही नहीं चाह रही है;लेकिन वो उस प्रत्येक शख्स को भ्रष्ट ठहराने पर तुली हुई है जो भी भ्रष्टाचार के विरूद्ध आवाज उठा रहा है.यह वही पार्टी है जिसके मंत्री रामलीला मैदान में लोकतंत्र की हत्या होने से पहले बाबा रामदेव की चरण-वंदना करने में थक नहीं रहे थे और अब यह वही पार्टी है जो उसी बाबा को भ्रष्ट साबित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही.अन्ना टीम के साथ भी इन दिनों चरित्र-हनन का गन्दा खेल चाहू आहे.सबसे पहले सरदार को पकड़ो की नीति पर चलते हुए अन्ना हजारे पर दर्जनों बेबुनियाद आरोप लगाए गए और उन्हें देशद्रोही,सेना का भगोड़ा और आपादमस्तक भ्रष्टाचार में डूबा हुआ बताया गया.जब बाद में उनका सफ़ेद झूठ सामने आने लगा तब जितनी बेशर्मी से आरोप लगाए गए थे कहीं उससे भी ज्यादा बेहआई के साथ लगे हाथों माफ़ी भी मांग ली गयी.इस असफल प्रयास के बाद कीचड़ उछाला गया पहले शांतिभूषण एंड संस पर,फिर अरविन्द केजरीवाल की बेदाग छवि पर और आजकल बारी चल रही है क्रेन आई.पी.एस. किरण बेदी और युवा कवि डॉ. कुमार विश्वास की.हालाँकि,किरण बेदी पर जो आरोप लगे हैं और उन्होंने जवाब में जो स्पष्टीकरण दिए हैं उससे स्पष्ट है कि चाहे किरणजी की नीति सही नहीं रही हो,उनकी नीयत साफ़ है.किरण जी का तो सिर्फ साधन अपवित्र है कांग्रेस नेताओं का तो साधन और साध्य दोनों ही अशुद्ध है.
       मित्रों,कांग्रेस के साथ सबसे बड़ी परेशानी यह है कि वह यह नहीं समझ पा रही है कि भारत की जनता उससे और उसकी सरकार से चाहती क्या है.उसे लगता है कि भारत की जनता यह चाहती है कि जो भी भ्रष्टाचार के विरूद्ध आवाज उठाए उसे बारी-बारी से भ्रष्ट साबित कर दिया जाए.उसे यह समझ में नहीं आ रहा है कि आवाज उठानेवाला भ्रष्ट है या नहीं इससे आम आदमी का क्या लेना-देना.आम आदमी तो बस यह चाहता है कि उसको भ्रष्टाचार का दानव से किसी प्रकार छुटकारा मिले.इसलिए मैं देशहित में अपनी आदत के विपरीत जाकर कांग्रेस पार्टी को मुफ्त में यह कीमती सलाह देना चाहता हूँ कि वो पनडुब्बा और कीचड़ उछलने का कुत्सित खेल खेलना छोड़कर ऐसे ठोस कदम उठाना शुरू करे जिससे भ्रष्टाचार सचमुच में समाप्त हो सके.उसे प्रभावी लोकपाल को तो स्थापित करना ही चाहिए;साथ ही न्यायिक प्रक्रिया को भी तीव्रगामी बनाना चाहिए जिससे लोकपाल की पकड़ में आए भ्रष्टाचारियों को समय पर सजा हो सके और उनकी अवैध कमाई से जोड़ी गयी संपत्ति को भी समय रहते जब्त किया जा सके.अन्यथा दीवार पर लिखी हर ईबारत यही बता रही है कि सबसे पुरानी होने का दंभ भरने वाली यह ऐतिहासिक पार्टी सचमुच में इतिहास का हिस्सा बनकर रह जाएगी.अभी तो सिर्फ हिसार में ही इसकी जमानत जब्त हुई है आने वाले चुनावों में उसके लिए युवा भारत की एक-एक सीट पर जमानत बचाना मुश्किल हो जाएगा.

शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2011

राम का नाम बदनाम न करो

 मित्रों,राम नाम भारत का सबसे ज्यादा,सबसे बड़ा नेक नाम है.यही वह नाम है जो एक रामभक्त में महासागर को कूद कर सहज ही पार कर जाने की ताकत उत्पन्न कर देता है,यही वह नाम है जिसको लिख देने मात्र से पत्थर भी पानी में तैरने लगता है.परन्तु कितनी बड़ी बिडम्बना है कि आज राम के पवित्र नाम को उन्हीं के कुछ कथित भक्त बदनाम करने में लगे हैं.हिकारत की हद तो यह है कि उन्होंने अपने आतंकवादी संगठन का नाम भी श्रीराम सेना रख लिया है.
          मित्रों,राम की  सेना  कैसी   थी  और  उसमें  किस  तरह  के लोग  थे   इससे  हम  सभी  भली  भांति  परिचित  हैं.जहाँ  राम की  सेना  में भक्तराज हनुमान और विभीषण जैसे भक्त,जाम्बबान जैसे बुद्धिमान और सुग्रीव जैसे धीर और वीर थे;इस श्रीराम सेना में जिद्दी,सनकी,असहिष्णु,सांप्रदायिक और घोर हिंसावादी युवा भरे हुए हैं.
             मित्रों,कोसलपति श्रीराम ने कभी यह नहीं कहा कि अपने विरोधियों की हत्या कर दो या उनके साथ मार-पिटाई करो.वाल्मीकि रामायण में जो शम्बूक वध का प्रकरण है वह किसी भी तरह राम के मूल स्वभाव से मेल नहीं खाता और इसलिए और कई अन्य कारणों से भी विद्वान इस घटना को प्रक्षेपित मानते हैं.वैसे भी शास्त्रीय राम को जन-जन का राम वाल्मीकि ने नहीं बनाया वरन उन्हें जन-जन में श्रद्धेय और पूज्य बनाया तुलसी ने और तुलसी के राम दया के सागर हैं,कृपा के समुद्र हैं,क्षमा के जलनिधि हैं.तुलसी के राम शत्रुओं का आदर करते हैं.उनके यहाँ न तो मतभेद है,न ही मनभेद है.वे डंके की चोट पर घोषणा करते हैं की अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा,गावहीं श्रुति पुरान बुध बेदा.शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हुए राम ने परम अनुराग में भींगे हुए शब्दों में कहा है कि चाहे कोई किसी भी तरह से,सच्चे मन से उनका पूजन क्यों न करे वह उन्हें ही प्राप्त होता है.
          मित्रों,कलियुग में भगवद्भक्ति के प्रतीक रामकृष्ण परमहंस ने अलग-अलग मार्गों से ईश्वर की आराधना की थी और पाया था कि ईश्वर एक है;वह अनेक नहीं है.मैं मानता हूँ कि बाबर या मीर बांकी ने वास्तव में राम का मंदिर ही नहीं तोड़ा था बल्कि अपने अल्लाह को भी बेघर किया था.इस तरह एक आस्थावालों के ईबादतगाहों को तोड़कर और अपनी मर्जी के पूजा-स्थल का निर्माण कर सच्ची आराधना नहीं की जा सकती.ईश्वर का सबसे ज्यादा अंश जीवित प्राणियों और मानवों में हैं न कि ईंट-पत्थरों में.इसलिए ६ दिसंबर,1992 को राम की नगरी अयोध्या में जिस तरह राम की स्थापना के लिए उनके दूसरे घर को ढहा दिया गया उसे भी किसी भी मानवीय दृष्टिकोण से सही नहीं माना जा सकता.कम-से-कम तुलसी के या मेरे राम तो ऐसे घर में आकर वास नहीं करनेवाले हैं जो घर दूसरे लाखों लोगों की आस्था को आघात पहुंचाकर जबरन छीना गया हो.मेरे राम तो अकेले उनको राजा बनाने की घोषणा से भी प्रसन्न नहीं होते और कहते हैं कि जनमें एक संग सब भाई,भोजन सयन केलि लरिकाई;बिमल बंस यह अनुचित एकू,बंधू बिहाई बड़ेहिं अभिषेकू.मेरे राम का तो पूरा जीवन ही त्याग की एक अद्भुत कहानी है.समुद्र कभी अपनी मर्यादा भूल सकता है लेकिन मेरे राम कभी अपनी मर्यादा से बाहर नहीं जा सकते और उस मर्यादापुरुषोत्तम के नाम पर हिंसा,सर्वस्वहरण और मारकाट.फिर तो प्रश्न यह उठता है कि इन हिंसक और रक्तपिपासु आतंकवादी रामभक्तों के राम कौन-से राम हैं?क्या वे महाराज दिलीप और रघु के विमल वंश के बदले रावण के वंश में पैदा हुए हैं?लेकिन ऐसे किसी राम के बारे में तो कभी सुना भी नहीं गया.खुद तुलसी ने भी कभी मंदिर और मस्जिद के बीच कोई फर्क नहीं किया और रात्रि-विश्राम के लिए बाबरी मस्जिद का चुनाव किया-मांग के खईबो,मसीत में सोईबो.
             मित्रों,अभी परसों ही कुछ हिंसासक्त नरपशुओं ने प्रख्यात वकील प्रशांत भूषण पर उनके दफ्तर में घुसकर जानलेवा हमला कर दिया और पकड़े जाने पर खुद को श्रीराम सेना का स्थानीय अध्यक्ष (एरिया कमांडर) बताया.उनकी गुंडागर्दी यहीं तक नहीं रुकी उन्होंने कल पटियाला हाउस अदालत-परिसर में अन्ना के समर्थकों के साथ दुर्व्यवहार भी किया.क्या यह तरीका है राम के आदर्शों को प्रचारित और प्रसारित करने का कि जब किसी से मतभिन्नता की स्थिति उत्पन्न हो जाए तो उस पर जान से मार डालने का प्रयास करो?राम तो उदारता के वारिधि थे और हैं फिर क्यों कर रहे हो राम के नाम को बदनाम?तुम्हें किसने यह अधिकार दिया है कि चंद लम्पटों के आपराधिक गिरोह का नाम श्रीराम सेना रख लिया?मित्र,तुम्हारे इस तरह के कृत्यों से मेरे राम जो तुलसी के भी राम हैं प्रसन्न नहीं होने वाले.वे तो तुम पर तब अपनी अहैतुकी कृपा बरसाएंगे जब तुम उनके द्वारा स्थापित आदर्शों पर चलोगे.सत्य,दया,त्याग,क्षमा और धर्म के मार्ग पर चलोगे.राम ने भी शस्त्र उठाया था और प्रण भी किया था कि निसिचरहीन करौं मही कर उठाए पन कीन्ह;लेकिन अपने या अपने परिवार के लिए नहीं,मानवता और धर्म की रक्षा के लिए.अगर तुम किसी की किसी बात से मतभिन्नता रखते हो तो अपनी बात देश और समाज के आगे रखो.बन्धु,आधुनिक समाज तर्कों से चला करता है न कि लातों और घूसों से.अगर तुम्हारा युवा रक्त देश और समाज के लिए इतना ही उबाल खा रहा है तो अन्ना के मार्ग पर चलो,गाँधी के मार्ग पर चलो और अहिंसा द्वारा पवित्रतापूर्वक अपना पवित्र अभीष्ट प्राप्त करो.नीति और नीयत अगर साफ नहीं रखोगे तो न तो राम ही तुम्हें माफ़ कगेंगे और न थी मानवता ही तुम्हें कभी क्षमा करेगी.अंत में श्रीराम सेना के सदस्यों सहित सभी भारतीयों से एक बार फिर से मैं विनम्र निवेदन करता हूँ कि आपलोग कृपया राम का नाम बदनाम न करो.   

सोमवार, 10 अक्टूबर 2011

कहाँ तुम चले गए

मित्रों,न जाने क्यों आज मन काफी व्यथित है और क्रोधित भी.मन क्रोधित व व्यथित है दुनिया को चलानेवाले उस बेदिमागी खुदा पर.वह हमेशा अपनी मनमानी करते हुए अच्छे लोगों को जल्दी वापस बुला लेता है.क्या रहस्य है उसकी इस जल्दीबाजी का;यह खुद उस खुदा के अलावे और कोई जान भी तो नहीं सकता!
        मित्रों,अभी तो उसने ज़िन्दगी की साज़ पर गजल छेड़ी ही थी.अभी तो महफिले गजल अपने पूरे शबाब पर पहुची भी नहीं थी कि बंद हो गयी उसकी ऑंखें और अचानक रिक्त हो गया सांसों का कोष.वह गला जिससे नटराज श्रीकृष्ण की बांसुरी सरीखी मीठी और अच्छे-बुरे सबको मंत्रमुग्ध कर देने वाली आवाज निकलती थी अब कभी नहीं गाएगा.काश!मेरे पास टेलीविजन,इंटरनेट और अख़बार का साधन नहीं होता और मेरे कानों को कभी यह समाचार नहीं सुनना पड़ता कि रूहानी आवाज का जादूगर इस दुनिया से चुपचाप हम लोगों के लिए बिना कोई चिठ्ठी या सन्देश या अपना नया अता-पता छोड़े रुखसत हो चुका है;नहीं पढ़नी पड़ती मेरी आँखों को यह खबर कि अब हम उसे अपनी नंगी आँखों से जमीं पर अपने साथ-साथ,आस-पास,इर्द-गिर्द चहलकदमी करते हुए कभी नहीं देख पाएंगे.
           मित्रों,अपने होठों से छुए हुए गीतों की तरह ही जगजीत भी अमर हैं इसमें कोई संदेह नहीं.सदियों तक,युगों तक उनकी अमर आवाज हमें,हमारी आनेवाली पीढ़ियों को सुनने को मिलती रहेगी.जगजीत अपनी आवाज में दर्द के लिए जाने जाते हैं.उनकी आवाज में यह दर्द कोई खुदा की नियामत नहीं थी और न ही उन्हें किसी तरह की विरासत में ही मिली थी.बल्कि इसे उन्होंने दिलो-दिमाग पर कभी न भर सकनेवाले जख्म खाने के बाद प्राप्त किया था.जगजीत को आज गजलों और संगीत की दुनिया में जो बेताज बादशाह का असंदिग्ध दर्जा मिला हुआ है वह उन्होंने कठोर अभ्यास और संघर्ष के द्वारा पाया था.लगभग १५ सालों तक उन्हें अपने वजूद की कड़ी लडाई लड़नी पड़ी थी.
                     मित्रों,अपनी २१ साला इकलौती संतान की १९९० में अकाल मृत्यु के बाद कुछ समय के लिए जग को संगीत के माध्यम से जीत लेने वाले जगजीत ने चुप्पी भी साध ली थी.तब हमें लगा कि शायद ही अब फिर से हमें इन्हें सुनने का अवसर मिले.परन्तु इस महायोद्धा ने हर बार की तरह एक बार फिर क्रूर काल को ठेंगा दिखाते हुए पूरी शिद्दत से गाना शुरू कर दिया.इस बार एक नई कसक थी,एक अव्याख्येय दर्द था उसकी आवाज में.उसने गम को भुलाने के लिए अपनी इस पारी में जो दुर्भाग्यवश काफी छोटी रही और उनकी अंतिम पारी भी बन गयी है भजन भी जमकर गाए.जब दुनिया में जीने का कोई सहारा,कोई वजह शेष न रहे तो खुदा की कायनात का छोटा-सा हिस्सा कोई इन्सान अलावे इसके और कर भी क्या सकता है सिवाय उस सर्वशक्तिमान की शरण में जाने के?भगवान को भी शरण में आए इस सच्चे और बेहद ईमानदार बन्दे का साथ इतना भाया कि उन्होंने उसे हमेशा के लिए अपने पास रख लिया.अब जगजीत की सिर्फ यादें ही शेष हैं और शेष हैं उनके गाए हजारों लाजवाब गीतों और दिलकश गजलों का अमूल्य खजाना जो हर युग में उदास और घायल मानवता के जख्मों पर मरहम लगाता रहेगा और भावपूर्ण-निश्छल मुस्कान के साथ पूछता रहेगा कि इतना जो तुम मुस्कुरा रहे हो,क्या गम है जिसको छुपा रहे हो?

सोमवार, 3 अक्टूबर 2011

राज्यपाल हैं कि आदेशपाल

मित्रों,हमारे पूर्वज कह गए हैं कि अपने मन से जानिए पराए मन का हाल.कहने का तात्पर्य यह है कि जो जैसा होता है उसे पूरी दुनिया वैसी ही जान पड़ती है.चूंकि हमारे संविधान निर्माता भोले थे,ईमानदार थे और सच्चे थे इसलिए वे संविधान में यह सोंचकर कई ऐसे प्रावधान कर गए जिनका संचालन और निर्वहन पदासीन व्यक्ति की नैतिक स्थिति पर निर्भर करता है.हमारे उन भोलेभाले पूर्वजों की भावनात्मक गलती का नतीजा है राज्यपाल का पद,उसकी नियुक्ति की प्रक्रिया और उसके विवेकाधिकार.राज्यपाल का पद बहुत ही पुराना है.यह पद मौर्य-काल में भी था और इसी नाम से था.बाद के कालखंडों में भी यह पद बना रहा सिर्फ इसका नाम बदलता रहा.अंग्रेजों के समय इन्हें गवर्नर कहा गया और इनको असीमित विवेकाधिकार दिए गए.उस समय चूंकि अधिकतर गवर्नर लॉर्ड सभा के सदस्य भी होते थे इसलिए इस पदधारी को गाँव-गिराम के लोग लाट-गवरनर कहने लगे.तब हमारे देश में अंग्रेजों का स्वेच्छाचारी शासन था;राज्यों में चुनी हुई सरकारें नहीं होती थीं;गवर्नर ही प्रादेशिक शासन का सर्वेसर्वा होता था.
                मित्रों,शासकों का शारीरिक रंग बदला,हमें आजादी मिली लेकिन हमें आजादी नहीं मिल पाई इन लाट-गड़बड़ नरों से.हालाँकि सारे राज्यपाल नर ही नहीं हैं;इनमें से कुछ नारियां भी हैं.वही गवर्नर लगभग उन्हीं विवेकधिकारों से युक्त होकर राज्यों की राजधानियों में बने रहे;अंग्रेजी में तो नाम तक वही बना रहा.हाँ,हिंदी में अवश्य उन्हें राज्यपाल कहा जाने लगा.
              मित्रों,यह बात आप भी जानते हैं कि राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है और उन्हें हटाने का भी अधिकार सिर्फ उसी को है.वास्तव में भारतीय संविधान में राष्ट्रपति एक रबर स्टाम्प यथा बुरा मत देखो,बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो पद है जो केंद्र सरकार की सिफारिशों पर सिर्फ मंजूरी देने की औपचारिकता का निर्वहन करता है.यही कारण है कि केंद्र सरकार किसी भी ऐरे गैरे नत्थू खैरे को किसी भी राज्य का राज्यपाल बना डालती है.वर्तमान भारत में यह प्रवृत्ति जोरों पर है कि कांग्रेस आलाकमान का कोई चहेता अगर लोकसभा चुनाव हार जाए तो उसे राज्यपाल बना दो.इस तरह हारे को हरिनाम वाले व्यक्ति को राज्यपाल बनाने के अतिरिक्त लाभ हैं.वह आदमी जो चुनाव हारने के चलते अन्दर से टूटा-फूटा होता है राज्यपाल बन जाने पर केंद्र के इशारों पर कुछ ज्यादा ही नृत्य करने लगता है.वैसे भी आजकल लगभग सारे के सारे राज्यपाल केंद्र में सत्ताधारी  दल के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता ही होने लगे हैं.चूँकि राज्य सरकारें चाहे उन्हें कितना भी प्रचंड बहुमत  क्यों न प्राप्त हो इन्हें हटा नहीं सकती हैं;ये कभी-कभी नंगा नृत्य भी करने लगते हैं.वैसे अब केंद्र के कलेजे में इतना दम रहा नहीं कि वो विपक्षी दल की राज्य सरकार को बर्खास्त कर किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दे इसलिए राज्यपालों को उसने विपक्षी दल की राज्य सरकारों को छोटी-मोटी शैतानी द्वारा परेशान करने का काम सौंप रखा है.
                  मित्रों,बिहार के वर्तमान राज्यपाल देवानंद कुंअर को ही लें.ये महानुभाव बिहार विश्वविद्यालय अधिनियम,१९७६ को पूरी तरह से दरकिनार करते हुए अपनी मर्जी के व्यक्ति को विभिन्न विश्वविद्यालयों में कुलपति बनाने पर तुले हैं जबकि नियमानुसार इन्हें ऐसा राज्य सरकार की सहमति से ही करना है.इन पर कुलपतियों की नियुक्ति में करोड़ों रूपये बनाने का आरोप भी भाई लोग लगा रहे हैं जो अगर सच भी हो तो किसी भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए.आखिर लालच आहा लपलप किसके मन में नहीं होता?अगर यह सच है तो हो यह भी सकता है कि इस वसूली में से केंद्रीय नेतृत्व को भी हिस्सेदारी मिलती हो.
                   मित्रों,इन दिनों गुजरात की राज्यपाल डॉ. हरबंश दीक्षित अपनी मर्जी की लोकायुत नियुक्त करने के कुछ ऐसे ही मिलते-जुलते मामले को लेकर चर्चा में हैं.प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों हो रहा है कि राज्यपाल जिनका संधिविच्छेद राज्य+पाल होता है केंद्र सरकार के आदेशपाल की तरह व्यवहार करने लगे हैं?जवाब है संविधान निर्माताओं का अपनी अगली पीढ़ी में अटूट विश्वास (इसे वर्तमान सन्दर्भ में अन्धविश्वास भी कह सकते हैं) के कारण हमें ऐसे दिन देखने पड़ रहे हैं.संविधान को बनाने वाले ईमानदार और तपःपूत थे इसलिए उन्हें लगा कि आगे भी भारत का नेतृत्व ईमानदार हाथों में ही रहेगा.लेकिन ऐसा हुआ नहीं;होना भी नहीं चाहिए था.सपने देखने का मतलब यह हरगिज नहीं है कि कोई किसी भी तरह का सपना देख डाले.
                मित्रों,मैं कभी भी यह नहीं चाहूँगा कि चूँकि यह पद विवादस्पद हो चुका है इसलिए इस पद को ही समाप्त कर दिया जाए क्योंकि मैं मानता हूँ कि भारत की एकता और अखंडता की रक्षा के लिए राज्यपाल का पद एक आवश्यक कड़ी है.हालाँकि इस पद की गरिमा की स्थिति शोचनीय है फिर भी ऐसा भी नहीं है कि इस अतिमहत्वपूर्ण संवैधानिक पद की गरिमा की रक्षा का कोई उपाय शेष रह ही नहीं गया हो.उपाय हैं,ईलाज भी है बशर्ते केंद्र सरकार के जिगर में उन्हें लागू करने का जीवट हो.केंद्र को चाहिए कि संविधान में संशोधन कर राज्यपालों की नियुक्ति की प्रक्रिया को पारदर्शी और निष्पक्ष बनाए.राज्यपालों की नियुक्ति एक ऐसी कमिटी करे जिसमें प्रधानमंत्री,विपक्ष के नेता और भारत के प्रधान न्यायाधीश शामिल हों.इस कमिटी में किसी भी तरह सरकार अथवा सरकारी दल का बहुमत न हो.इसी कमिटी को उन्हें हटाने की सिफारिश करने का अधिकार भी दिया जाए.कदाचित ऐसी व्यवस्था होने पर इस गरिमामय पद की गरिमा की रक्षा संभव हो जाए.मैं राज्यपाल की नियुक्ति प्रक्रिया के मामले में सरकारिया आयोग की सिफारिशों से पूरी तरह से सहमत नहीं हूँ कि इस मामले में राज्य सरकारों से भी राय ली जानी चाहिए.