सोमवार, 3 अक्टूबर 2011

राज्यपाल हैं कि आदेशपाल

मित्रों,हमारे पूर्वज कह गए हैं कि अपने मन से जानिए पराए मन का हाल.कहने का तात्पर्य यह है कि जो जैसा होता है उसे पूरी दुनिया वैसी ही जान पड़ती है.चूंकि हमारे संविधान निर्माता भोले थे,ईमानदार थे और सच्चे थे इसलिए वे संविधान में यह सोंचकर कई ऐसे प्रावधान कर गए जिनका संचालन और निर्वहन पदासीन व्यक्ति की नैतिक स्थिति पर निर्भर करता है.हमारे उन भोलेभाले पूर्वजों की भावनात्मक गलती का नतीजा है राज्यपाल का पद,उसकी नियुक्ति की प्रक्रिया और उसके विवेकाधिकार.राज्यपाल का पद बहुत ही पुराना है.यह पद मौर्य-काल में भी था और इसी नाम से था.बाद के कालखंडों में भी यह पद बना रहा सिर्फ इसका नाम बदलता रहा.अंग्रेजों के समय इन्हें गवर्नर कहा गया और इनको असीमित विवेकाधिकार दिए गए.उस समय चूंकि अधिकतर गवर्नर लॉर्ड सभा के सदस्य भी होते थे इसलिए इस पदधारी को गाँव-गिराम के लोग लाट-गवरनर कहने लगे.तब हमारे देश में अंग्रेजों का स्वेच्छाचारी शासन था;राज्यों में चुनी हुई सरकारें नहीं होती थीं;गवर्नर ही प्रादेशिक शासन का सर्वेसर्वा होता था.
                मित्रों,शासकों का शारीरिक रंग बदला,हमें आजादी मिली लेकिन हमें आजादी नहीं मिल पाई इन लाट-गड़बड़ नरों से.हालाँकि सारे राज्यपाल नर ही नहीं हैं;इनमें से कुछ नारियां भी हैं.वही गवर्नर लगभग उन्हीं विवेकधिकारों से युक्त होकर राज्यों की राजधानियों में बने रहे;अंग्रेजी में तो नाम तक वही बना रहा.हाँ,हिंदी में अवश्य उन्हें राज्यपाल कहा जाने लगा.
              मित्रों,यह बात आप भी जानते हैं कि राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है और उन्हें हटाने का भी अधिकार सिर्फ उसी को है.वास्तव में भारतीय संविधान में राष्ट्रपति एक रबर स्टाम्प यथा बुरा मत देखो,बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो पद है जो केंद्र सरकार की सिफारिशों पर सिर्फ मंजूरी देने की औपचारिकता का निर्वहन करता है.यही कारण है कि केंद्र सरकार किसी भी ऐरे गैरे नत्थू खैरे को किसी भी राज्य का राज्यपाल बना डालती है.वर्तमान भारत में यह प्रवृत्ति जोरों पर है कि कांग्रेस आलाकमान का कोई चहेता अगर लोकसभा चुनाव हार जाए तो उसे राज्यपाल बना दो.इस तरह हारे को हरिनाम वाले व्यक्ति को राज्यपाल बनाने के अतिरिक्त लाभ हैं.वह आदमी जो चुनाव हारने के चलते अन्दर से टूटा-फूटा होता है राज्यपाल बन जाने पर केंद्र के इशारों पर कुछ ज्यादा ही नृत्य करने लगता है.वैसे भी आजकल लगभग सारे के सारे राज्यपाल केंद्र में सत्ताधारी  दल के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता ही होने लगे हैं.चूँकि राज्य सरकारें चाहे उन्हें कितना भी प्रचंड बहुमत  क्यों न प्राप्त हो इन्हें हटा नहीं सकती हैं;ये कभी-कभी नंगा नृत्य भी करने लगते हैं.वैसे अब केंद्र के कलेजे में इतना दम रहा नहीं कि वो विपक्षी दल की राज्य सरकार को बर्खास्त कर किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दे इसलिए राज्यपालों को उसने विपक्षी दल की राज्य सरकारों को छोटी-मोटी शैतानी द्वारा परेशान करने का काम सौंप रखा है.
                  मित्रों,बिहार के वर्तमान राज्यपाल देवानंद कुंअर को ही लें.ये महानुभाव बिहार विश्वविद्यालय अधिनियम,१९७६ को पूरी तरह से दरकिनार करते हुए अपनी मर्जी के व्यक्ति को विभिन्न विश्वविद्यालयों में कुलपति बनाने पर तुले हैं जबकि नियमानुसार इन्हें ऐसा राज्य सरकार की सहमति से ही करना है.इन पर कुलपतियों की नियुक्ति में करोड़ों रूपये बनाने का आरोप भी भाई लोग लगा रहे हैं जो अगर सच भी हो तो किसी भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए.आखिर लालच आहा लपलप किसके मन में नहीं होता?अगर यह सच है तो हो यह भी सकता है कि इस वसूली में से केंद्रीय नेतृत्व को भी हिस्सेदारी मिलती हो.
                   मित्रों,इन दिनों गुजरात की राज्यपाल डॉ. हरबंश दीक्षित अपनी मर्जी की लोकायुत नियुक्त करने के कुछ ऐसे ही मिलते-जुलते मामले को लेकर चर्चा में हैं.प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों हो रहा है कि राज्यपाल जिनका संधिविच्छेद राज्य+पाल होता है केंद्र सरकार के आदेशपाल की तरह व्यवहार करने लगे हैं?जवाब है संविधान निर्माताओं का अपनी अगली पीढ़ी में अटूट विश्वास (इसे वर्तमान सन्दर्भ में अन्धविश्वास भी कह सकते हैं) के कारण हमें ऐसे दिन देखने पड़ रहे हैं.संविधान को बनाने वाले ईमानदार और तपःपूत थे इसलिए उन्हें लगा कि आगे भी भारत का नेतृत्व ईमानदार हाथों में ही रहेगा.लेकिन ऐसा हुआ नहीं;होना भी नहीं चाहिए था.सपने देखने का मतलब यह हरगिज नहीं है कि कोई किसी भी तरह का सपना देख डाले.
                मित्रों,मैं कभी भी यह नहीं चाहूँगा कि चूँकि यह पद विवादस्पद हो चुका है इसलिए इस पद को ही समाप्त कर दिया जाए क्योंकि मैं मानता हूँ कि भारत की एकता और अखंडता की रक्षा के लिए राज्यपाल का पद एक आवश्यक कड़ी है.हालाँकि इस पद की गरिमा की स्थिति शोचनीय है फिर भी ऐसा भी नहीं है कि इस अतिमहत्वपूर्ण संवैधानिक पद की गरिमा की रक्षा का कोई उपाय शेष रह ही नहीं गया हो.उपाय हैं,ईलाज भी है बशर्ते केंद्र सरकार के जिगर में उन्हें लागू करने का जीवट हो.केंद्र को चाहिए कि संविधान में संशोधन कर राज्यपालों की नियुक्ति की प्रक्रिया को पारदर्शी और निष्पक्ष बनाए.राज्यपालों की नियुक्ति एक ऐसी कमिटी करे जिसमें प्रधानमंत्री,विपक्ष के नेता और भारत के प्रधान न्यायाधीश शामिल हों.इस कमिटी में किसी भी तरह सरकार अथवा सरकारी दल का बहुमत न हो.इसी कमिटी को उन्हें हटाने की सिफारिश करने का अधिकार भी दिया जाए.कदाचित ऐसी व्यवस्था होने पर इस गरिमामय पद की गरिमा की रक्षा संभव हो जाए.मैं राज्यपाल की नियुक्ति प्रक्रिया के मामले में सरकारिया आयोग की सिफारिशों से पूरी तरह से सहमत नहीं हूँ कि इस मामले में राज्य सरकारों से भी राय ली जानी चाहिए.       
             

कोई टिप्पणी नहीं: