गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

अनशन तोड़ना अन्ना का सराहनीय कदम

मित्रों,कोई भी आन्दोलन खड़ा करना और फिर उसे सफलतापूर्वक संचालित करना कोई बच्चों का खेल नहीं होता.कांग्रेस गाँधी के पहले भी थी.उसके पास गाँधी से भी कहीं ज्यादा योग्य नेता भी थे लेकिन वे लोग लाख कोशिश करके भी ऐसा आन्दोलन खड़ा नहीं कर पाए जिसे सही परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय कहा जा सकता हो.गाँधी ने १९२० में असहयोग आन्दोलन शुरू करने से पहले मुस्लिम लीग को मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि दल स्वीकार करने की महान भूल करते हुए असहयोग आन्दोलन को खिलाफत आन्दोलन से जोड़ दिया था.जैसे ही तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा सत्ता पर काबिज हुआ मुसलमान लोग कट लिए और केरल में तो हिन्दुओं के खिलाफ दंगा-फसाद भी शुरू कर दिया.इसी बीच गोरखपुर में चौरी-चौरा की दुखद घटना हो गयी और गाँधी को १२ फरवरी,१९२२ को न चाहते हुए भी अपनी सारी विश्वसनीयता को दांव पर लगाते हुए असहयोग आन्दोलन को असमय बिना किसी परिणति तक पहुंचे हुए ही वापस  ले लेना पड़ा.कुछ यही हाल १९३० के सविनय अवज्ञा आन्दोलन का भी हुआ.पहले तो १९३१ में गाँधी-इरविन समझौते के बाद उन्होंने आन्दोलन को स्थगित कर दिया.फिर द्वितीय गोलमेज सम्मलेन की विफलता के बाद फिर से आन्दोलन शुरू किया परन्तु इस बार आन्दोलन में वो खनक नहीं थी आने पाई जो इसके पहले भाग में थी.कारण यह था कि इस बार इसमें जनभागीदारी काफी कम थी.किसी भी देश-प्रदेश की जनता की संघर्ष की क्षमता सीमित होती है.वो लगातार अनंत काल तक संघर्ष नहीं कर सकती.हरेक की घर-गृहस्थी भी होती है और उसे भी देखना होता है.इसलिए गांधीजी ने समझदारी का परिचय देते हुए अप्रैल,१९३४ में आन्दोलन को वापस ले लिया.
                                मित्रों,कुछ इसी तरह की स्थिति १९४२ के भारत छोडो आन्दोलन के दौरान भी रही.धीरे-धीरे इसका भी प्रभाव कम होता गया और अंत में सितम्बर १९४२ के बाद यह आन्दोलन भूमिगत होकर रह गया.दिसंबर,१९४३ आते-आते भूमिगत क्रांतिकारियों की गतिविधियाँ भी समाप्तप्राय हो गयी.हाँ,लेकिन गाँधी के साथ एक बात और भी थी.वे जब आन्दोलन नहीं कर रहे होते थे तब सामाजिक-रचनात्मक कार्य कर रहे होते थे.इससे समाज में नई चेतना का प्रसार तो होता ही था नए लोगों को भी कांग्रेस के साथ जोड़ा जाता था.जहाँ तक गाँधी के आंदोलनों में मुसलमानों की भागीदारी का प्रश्न है तो इस मामले में गाँधी भी भाग्यशाली नहीं थे और तब मुस्लिम लीग गाहे-बेगाहे इस बात का ढिंढोरा पीटती रहती थी कि कांग्रेस सिर्फ हिन्दुओं की पार्टी है और इस प्रकार एक सांप्रदायिक संगठन है.
                             मित्रों,इस समय अन्ना के आन्दोलन के सन्दर्भ में कुछ यही काम गाँधी की विरासत का दावा करनेवाली कांग्रेस पार्टी कर रही है.टीम अन्ना के लाख प्रयासों के बाबजूद कांग्रेसी प्रोपेगेंडे ने असर दिखाया और इस बार मुसलमान आन्दोलन से दूर ही रहे.साथ ही,दूसरी आम जनता की भी इस तीसरी बार हो रहे अन्ना के अनशन में काफी कम भागीदारी देखी गयी.कहाँ रह गयी कमी?शायद कमी रह गयी टीम अन्ना की रणनीति में.मेरे मतानुसार पहली कमी तो यह थी कि टीम अन्ना ने आन्दोलन के लिए गलत समय का चयन कर लिया.इस समय संसद में लोकपाल पर बहस चल रही है और पूरे देश की निगाहें उसी पर टिकी हुई हैं ऐसे में लोगों से यह उम्मीद कर लेना कि वे संसद पर पूरी तरह से अविश्वास प्रकट करते हुए अन्ना के समर्थन में सड़कों पर आ जाएँगे बेमानी थी.दूसरी कमी रही आन्दोलन के लिए स्थान चयन में.अन्ना ने अपनी और जनता की सुविधाओं का ख्याल करते हुए दिल्ली के बजाये मुम्बई को आन्दोलन का केंद्र बनाने का फैसला कर लिया.वे भूल गए कि आन्दोलन सुविधाओं को ध्यान में रखकर नहीं छेड़े जाते हैं बल्कि इसके लिए तो जनभावनाओं का उभार चाहिए होता है.दिल्ली और मुम्बई के लोगों के मिजाज में ही मौलिक अंतर है.मुम्बई एक बेहद व्यस्त शहर है.वहां के लोग इतने अधिक स्वयंसीमित होते हैं कि उनकी दिनचर्या पर २६-११ से भी कोई फर्क नहीं पड़ता.वहीं दिल्ली के लोगों के दिलों के किसी कोने में देशभक्ति भी बसती है.साथ ही,यहाँ का जीवन उतना व्यस्त भी नहीं है.११-१२ बजे दुकानों का खुलना दिल्ली के लिए आमबात है.इसलिए रामलीला मैदान चंद मिनटों में ही खचाखच भर जाता है चाहे आह्वान करनेवाला रामदेव हों या अन्ना हजारे.हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि रामलीला मैदान में जमा लोगों में बहुत बड़ा हिस्सा दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों से आनेवाले लोगों का भी होता है जैसे मध्य प्रदेश,उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा, गुजरात, राजस्थान, उत्तराखंड,झारखण्ड इत्यादि.जंगे आजादी में भी चाहे असहयोग आन्दोलन हो या सविनय अवज्ञा आन्दोलन या फिर भारत छोड़ो आन्दोलन उस समय भी इन्हीं क्षेत्रों में आंदोलनों का असर ज्यादा रहा था.दक्षिण भारत तो अंत तक लगभग निष्क्रिय बना रहा था.साथ ही,दिल्ली हमेशा से भारतीय संप्रभुता की प्रतीक भी रही है इसलिए लगभग सारे आन्दोलनकारी दिल्ली चलो का नारा देते हैं.
                   मित्रों,कोई भी आन्दोलन जनभागीदारी से ही सफल और विफल होती है.अन्ना कहते भी हैं कि समर्थकों की भीड़ से ही उन्हें भूखे रहकर भी ऊर्जा मिलती है.कुछ सरकारी और कांग्रेसी षड्यंत्रों के चलते और  कुछ टीम अन्ना द्वारा आन्दोलन के लिए गलत वक्त और गलत स्थान चुनने के चलते भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का तीसरा चरण दुर्भाग्यवश सफल नहीं हो पाया.कोई बात नहीं ऐसा तो गाँधी के साथ भी हुआ था.अच्छा रहेगा कि टीम अन्ना भी गाँधी की तरह ही खाली समय में यानि दो आंदोलनों या आन्दोलन के दो चरणों के मध्यांतर में कोई सामाजिक-रचनात्मक कार्यक्रम का सञ्चालन करे.इससे दो फायदे होंगे-एक तो देश व समाज में नई चेतना आएगी और दूसरी इससे उनके आन्दोलन से नए-नए लोगों के निष्ठापूर्वक जुड़ने से संचित ऊर्जा में बढ़ोत्तरी होगी.मैं टीम अन्ना और अन्ना हजारे द्वारा फ़िलहाल आन्दोलन वापस लेने के निर्णय का स्वागत करता हूँ क्योंकि जोश जरुरी तो है ही लेकिन उससे कम आवश्यक होश भी नहीं है.आप लोगों के बीच जाईये,उनके दुःख-दर्द में भागीदार बनिए,कोई निर्माणात्मक कार्यक्रम चलाईये;फिर जब लगे कि आपने आन्दोलन के लिए आवश्यक ऊर्जा अर्जित कर ली है तो फिर से आन्दोलन का शंखनाद करिए.याद रखिए,कभी-कभी जोरदार टक्कर मारने के लिए पीछे भी हटना पड़ता है.जय हिंद,वन्दे मातरम.                           

रविवार, 25 दिसंबर 2011

गरीबी जाति नहीं देखती जनाब


मित्रों,भारत में जाति का क्या स्थान है इससे आप भी भली-भांति परिचित होंगे.हमारे कुछ पढ़े-लिखे मित्र भी जाति नाम परमेश्वर में विश्वास रखते हैं.हमारे एक पत्रकार मित्र जो यादव जाति से आते हैं किसी से परिचित होने पर सबसे पहले उसकी जाति पूछते हैं.एक बार उन्होंने पटना से मुजफ्फरपुर तक पदयात्रा की योजना बनाई.तब मुझसे पूछा कि हाजीपुर से मुजफ्फरपुर के बीच सड़क किनारे यादवों के कितने गाँव हैं और तब मैं उनकी जातिभक्ति से हतप्रभ रह गया.यही वे लोग होते हैं जो सड़क पर पड़े घायल की तब तक मदद नहीं करते जब तक उन्हें इस बात की तसल्ली न हो जाए कि दम तोड़ रहा व्यक्ति उनकी ही जाति से है.ऐसे लोग ढूँढने पर बड़ी जातियों में भी बड़ी आसानी से मिल जाएँगे.
                  मित्रों,जहाँ तक मेरा मानना है कि व्यक्ति की जाति सिर्फ तभी देखनी चाहिए जब बेटे-बेटी की शादी करनी हो वरना २४ घंटे,सोते-जागते,उठते-बैठते जाति के बारे में सोंचना अमानवीय तो है ही मूर्खतापूर्ण भी है.ये तो हो गई आम जनता की बात लेकिन हम उनका क्या करें जो विभिन्न जातियों और धर्मों के बीच तनाव की ही खाते हैं.आपने एकदम ठीक समझा है मैं बात कर रहा हूँ उन नेताओं की जो गरीब और गरीब तथा वंचित और वंचित और इस तरह इन्सान और इन्सान के बीच में फर्क करते हैं.
           दोस्तों,गरीबी,जहालत और बेबसी ये ऐसे शह हैं जो कभी जाति-जाति और धर्म-धर्म के बीच भेदभाव नहीं करते.ये तो उतनी ही संजीदगी के साथ सवर्ण हिन्दुओं पर भी नमूदार हो जाते हैं जितनी संजीदगी के साथ अन्य जाति और धर्मवालों पर.फिर अगर हम गरीबों के बीच जाति और धर्म के नाम पर सुविधाएँ और आरक्षण देने में भादभाव करते हैं तो हमसे बड़ा काईयाँ और कोई हो ही नहीं सकता.
         मित्रों,अभी कुछ ही दिनों पहले देश के अग्रणी दलित उद्यमियों ने एक मेले का आयोजन किया शायद मुम्बई में.वहां उन्होंने बताया कि वे लोग अपनी फर्मों और कारखानों में ५०% सीटें दलितों के लिए आरक्षित रखते हैं और बाँकी ५०% अन्य सारी बड़ी-छोटी जातियों के लिए;आखिर गरीबी तो उनमें भी है न.क्या हमारी सरकार और हमारे राजनेताओं को भी इन दलित उद्यमियों से शिक्षा लेने की आवश्यकता नहीं है?ये दलित उद्यमी कोई रामविलास पासवान के परिवार से नहीं हैं और न हो चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा हुए हैं.इन्होंने गरीबी में जन्म लिया और गरीबी में ही पले-बढ़े.फिर अपनी बुद्धि और बाहुबल से गरीबी से लड़कर उसे पराजित किया और आज सफलता के शिखर पर जा पहुंचे हैं.लेकिन ये लोग नहीं भूले हैं गरीबी के दर्द को जो अपने आपमें सबसे बड़ी बीमारी है.अगर हम इनकी तुलना गरीबी से उठकर आए राजनेताओं से करें तो सिवाय निराशा के कुछ भी हाथ नहीं आएगा.लालू-रामविलास-मुलायम-मायावती जैसे बहुत-से राजनेता हैं जो वास्तव में गुदड़ी के लाल हैं लेकिन सफलता पाते ही,अमीर बनते ही ये अपने गरीबी धर्म को भूल गए और जाति-धर्म की राजनीति में खोकर रह गए.
                     मित्रों,गरीब सिर्फ गरीब होता है;उसकी कोई जाति नहीं होती.अभाव उसका भाई होता है,दुःख उसका पिता और जहालत उसकी माँ.बेबसी और भूख ही उसके भाई-बन्धु होते हैं.मैंने अपने गाँव में कई ऐसे राजपूत-ब्राह्मण देखे हैं जिनके पास पहनने के लिए ढंग का कपड़ा तक नहीं है.जाकर उनकी मजबूरी से पूछिए कि उसकी क्या जाति है?जाकर उनके परिजनों के फटे पांवों और खाली पेटों से पूछिए कि उसका मजहब क्या है?यक़ीनन वो राजपूत-ब्राह्मण-यादव-दलित या मुसलमान नहीं बताएँगे बल्कि अपनी जाति और धर्म दोनों का नाम सिर्फ और सिर्फ गरीबी बताएँगे.मैंने अगर दलितों के घर में गरीबी के कारण भैस बेचने पर लोगों को मातम मनाते देखा है तो मैंने बड़ी जातिवालों के घर में भी बेटी की शादी में इकलौता बैल बेचने के बाद दो-दो दिनों तक चूल्हे को ठंडा रहते हुए भी देखा है.क्या इन दोनों परिवारों की मजबूरी की,उनके आंसुओं की कोई जाति है?क्या इन दोनों घरों में पसरे मातमी सन्नाटे का कोई मजहब है?खुद मेरे चचेरे चाचा को लम्बे समय तक अपनी माँ के पेटीकोट को लुंगी बनाकर पहनना पड़ा और पढ़ाई भी बीच में ही छोडनी पड़ी.क्या मेरे उन चाचा की दीनता और हीनता को किसी खास जाति या धर्म की दीनता या हीनता का नाम देना अनुचित नहीं होगा?मेरे उन्हीं चाचा की पत्नी और बच्चों के कपड़ों पर लगे पैबन्दों की क्या कोई जाति हो सकती या कोई मजहब हो सकता है?पहले भले ही विभिन्न जातियों में गरीबी का अनुपात काफी अलग रहा हो अब लम्बे समय से चले आ रहे जाति-धर्म आधारित आरक्षण के बाद स्थिति बहुत ज्यादा अलग नहीं रह गयी है.इस बात का गवाह सिर्फ एक मैं ही नहीं हूँ बल्कि सरकारी अमलों द्वारा निर्मित गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीनेवालों की सूची भी चीख-चीखकर यही कह रही है कि गरीबों की और गरीबी की कोई जाति नहीं होती,कोई धर्म नहीं होता.
          दोस्तों,अंत में मैं सत्ता पक्ष और विपक्ष के सभी नेताओं से विनम्र निवेदन करता हूँ कि वे कृपया इंसानियत को जातियों और धर्मों में विभाजित न करें.जब गरीबी ने कभी इंसानों और इंसानों के बीच अंतर नहीं किया तो वे कौन होते हैं ऐसा करनेवाले?गरीबी अपने-आपमें ही बहुत बड़ा ईश्वरीय मजाक होती है इसलिए कृपया वे इस क्रूर मजाक का और भी मजाक नहीं बनाएँ.आरक्षण देना हो या कोई और सुविधा देनी हो दीजिए,शौक से दीजिए परन्तु सुविधा दीजिए सिर्फ गरीबी देखकर,गरीबों की पहचान करके;न कि उसकी जाति और धर्म देखकर क्योंकि इस तरह तो बहुत-से ऐसे लोग सुख की उस रौशनी और अवसर से वंचित रह जाएँगे जिन पर उनका भी वास्तविक हक़ है और फिर पीढ़ी-दर-पीढ़ी गरीबी उनके लिए घर में जबरदस्ती घुस आए मेहमान की तरह अड्डा जमा लेगी.         

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

मांगा था लोकपाल मिला मरा हुआ साँप

मित्रों,क्या आपके साथ कभी आपके किसी अपने ने विश्वासघात किया है?यक़ीनन किया है मियां.वर्तमान में देश को चलानेवाले नेता भी तो कोई गैर नहीं हैं,अपने ही हैं.धोखा देने की क्या गजब की क्षमता है इनकी?एक-एक मुँह में सैंकड़ों जुबान रखते हैं ये लोग.आज ६१-६२ सालों से ये लोग जनता को यह झूठा विश्वास दिलाने में लगे हैं कि देश में लोकतंत्र है.ऐसा लोकतंत्र जिसमें लोक की नहीं चलती,उनकी बिलकुल भी नहीं सुनी जाती बल्कि यह लोकतंत्र तो ऐसा लोकतंत्र है जैसा कि नेता चाहते हैं.यह नेताओं का,नेताओं के लिए और नेताओं के द्वारा लोकतंत्र है.हम चुनाव-दर-चुनाव धोखा खा रहे हैं.हम वास्तव में चुनावों में अपना प्रतिनिधि नहीं चुनते हैं बल्कि हालत तो ऐसी हो गयी हैं कि मानो हम बकरियां हैं और प्रत्येक चुनाव में हम अपने ही हाथों अपने कसाई का चुनाव करते हैं:-वो बेदर्दी से सर काटे 'आमिर' और मैं कहूं उनसे,हुजुर आहिस्ता-आहिस्ता जनाब आहिस्ता-आहिस्ता.
          मित्रों,अब हम लोकपाल के मुद्दे को ही लें जिसके चलते इस जिस्म में बहते खून को भी जमा देनेवाली सर्दी में भी केंद्र सरकार को पसीने आ रहे हैं.सरकार ने अप्रैल में बिल ड्राफ्टिंग कमिटी बनाई और अंत में अपनी मर्जी का बकवास बिल बनाकर संसद के आगे रख दिया.फिर वह बिल विचारार्थ स्टैंडिंग कमिटी में गयी और अब जब अंतिम रूप में पेश की गयी हैं तब पता चला है कि यह तो खोदा पहाड़ और निकली चुहिया भी नहीं बल्कि मरा हुआ साँप निकला;वो भी विषहीन और दंतहीन.देश ने माँगा था एक ऐसा हथियार जिसे हाथ में लेकर देशवासी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ सकें लेकिन थमाया तो झुनझुना थमा दिया.बस बजाते रहिए और छोटे बच्चे की तरह खुश होते रहिए.बिल बनाने वाली स्टैंडिंग कमिटी में लोग भी कैसे-कैसे थे किसी से छुपा हुआ नहीं है.इनमें से कोई है घोटाला विशेषज्ञ तो कोई जातिवादी राजनीति का प्रणेता है.
           मित्रों,यह कैसा लोकपाल है जो न तो किसी भ्रष्टाचारी के विरुद्ध स्वतः कोई कदम ही उठा सकता है और न तो खुद जाँच ही कर सकता है.फिर क्या करेगा देश ऐसा पोस्टमास्टरनुमा लोकपाल लेकर?अगर ५५ हजार लोग चाहिए ५५ लाख कर्मचारियों पर नजर रखने के लिए तो बहाल करिए.किसने रोका है आपको बहाल करने से?आप ५५ लाख लोगों को तो देश को लूटने के लिए बहाल कर सकते हैं लेकिन उस लूट को रोकने के लिए ५५ हजार को नहीं बहाल कर सकते?क्या सरकार यह बताएगी कि दो-ढाई सौ सीवीसी कर्मी भला कैसे इन ५५ लाख कर्मचारियों पर नियंत्रण रखेंगे?साथ ही इस बिल में यह प्रावधान भी कर दिया गया है कि भ्रष्टाचार में आरोपित लोगों को सरकार मुफ्त में २ सालों तक कानूनी सहायता देगी.क्या इस तरह मिटेगा भ्रष्टाचार?साथ ही निजी कंपनियों को भी इसमें कई प्रकार की राहत दे दी गयी है.क्या इस तरह से कम होगा भ्रष्टाचार?इस बिल में यह भी प्रावधान किया गया है कि राज्यों में लोकायुक्त राज्य पुलिस से मामलों की जाँच करवाएगा.जो प्रदेश पुलिस खुद ही भ्रष्टाचार का अड्डा है वो भला कैसे भ्रष्टाचार मिटाने में कैसे सहायक हो सकती है?क्या इस तरह से मिटेगा भ्रष्टाचार?बिल में लोकपाल में कम-से-कम ५०% से अधिक आरक्षण का प्रावधान किया गया है.इस तरह तो ९ में से कम-से-कम ५ पद आरक्षित हो जाएँगे.क्या यह उच्चतम न्यायालय के आरक्षण सम्बन्धी निर्णय के विपरीत नहीं है?साथ ही इसमें संविधान का घोर उल्लंघन करते हुए धर्म के आधार पर आरक्षण दे दिया गया है.ऐसे में अगर इस बिल को सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित कर दिया तब लोकपाल सम्बन्धी इस पूरी जद्दोजहद का और इस बिल का क्या होगा?
               मित्रों,राजमाता,त्यागमूर्ति सोनिया जी का कहना है कि उन्होंने जो लोकपाल दिया है वह बहुत सशक्त है;वाकई बहुत सशक्त है.उसको एक कार्यालय चलाने का अधिकार दिया गया है जिसमें काम करनेवाले चपरासियों पर उसका ही रोबदाब चलेगा.चाहे जितना पानी पीए,उन्हें बाजार भेजकर चाहे जितना खाना मंगवाए और जब जी चाहे लघुशंका और दीर्घशंका से भी हो आवे.हाँ,वो अपनी मर्जी से किसी भी भ्रष्टाचारी के विरूद्ध न तो कोई जाँच ही कर सकता है और न ही जाँच शुरू करवा सकता है.बहुत ज्यादा अधिकार दे दिया है इन्होंने लोकपाल को;इतनी अधिक मनमानी करने की अनुमति तो इन्होंने प्रधानमंत्री को भी नहीं दी है;अब और कितना अधिकार चाहिए?सही तो कहा है इन्होंने,वो बेचारा अर्थशास्त्री तो इनसे पूछे बिना पाखाना-पेशाब करने भी नहीं जा पाता है.
               मित्रों,जहाँ तक लोकपाल की नियुक्ति का प्रश्न है तो सोनिया-राहुल जी भला कैसे नियुक्ति समिति में सरकारी बहुमत नहीं रहने दें?कल को अगर कोई अपने पालतू की जगह दूसरा आदमी लोकपाल बन जाता है तो फिर उन्हीं को भीतर कर देगा.आखिर ये लोग भी इन्सान हैं,नेता हैं;इनके हाथों से भी सजा होने लायक गबन-घोटाला हो सकता है और क्या पता कि हो भी चुका हो.ऐसे में ये लोग भला कैसे जेल जाने का जोखिम ले सकते हैं?भला कैसे ये लोग अपने ही गले की नाप का फंदा बना कर अपनी ही गर्दनों में उनके भीतर डाल दें?इसलिए तो लोकपाल को निलंबित करने या हटाने का अधिकार भी इनलोगों ने अपने ही सुरक्षित हाथों में रखा है.
                  मित्रों,इन विश्वासघातियों ने देश को लूटने में पहले से ही आरक्षण दे रखा है और अब इसे रोकनेवाली संस्था में भी आरक्षण दिया जा रहा है जिससे कि उनकी जाति-धर्म के लोगों द्वारा की जानेवाली लूट में बाधा न आने पाए.अब आगे लोकपाल के मुद्दे का और मुद्दे पर क्या होगा कुछ कहा नहीं जा सकता.इस मामले में देश फिर से अप्रैल २०१० में आकर खड़ा हो गया है.अन्ना अनशन तो जरुर करेंगे,शायद सरकार फिर से झुकती हुई नजर भी आएगी और फिर से देश से कोई वादा भी कर देगी लेकिन पूरी हरगिज नहीं करेगी.जनता जिसे लोकतंत्र में वास्तविक मालिक कहा जाता है भविष्य में सशक्त लोकपाल की मांग का भविष्य भी उसी के रूख पर निर्भर करेगा.शायद जनता रूपी कुत्ते के आगे अगले कुछ ही दिनों में खाद्य सुरक्षा गारंटी और अल्पसंख्यक आरक्षण के नाम की रोटी फेंक दी जाएगी और शायद उसके लालच में आकर आकर जनता एक बार फिर कांग्रेस को वोट दे देगी.आपको अपनी बेबकूफी पर कितना यकीन है यह तो आप ही बेहतर जानते होंगे लेकिन सोनिया-राहुल को तो आपकी मूर्खता पर अटूट विश्वास है.तभी तो वे लोकपाल के मामले में अपनी मक्कारी पर इतराते हुए दंभ भर रहे हैं कि पिछले सवा सौ सालों में (इसे अगर संशोधित कर पिछले ६४ सालों में कहा जाए और आजादी के बाद के वर्षों की ही गणना की जाए तो बेहतर होगा) तेरे जैसे लाखों आए,लाखों ने हमको आँख दिखाए,
रहा न नामोनिशान रे अन्ना,
तू क्या कर पाएगा हमारा नुकसान रे अन्ना,
तू क्या कर पाएगा हमारा नुकसान.
वैसे इस पूरे लोकपाल प्रकरण से एक बात तो निश्चित हो ही गयी है कि जनता के लिए सत्ता को बदल देना आसान रहा है और रहेगा भी परन्तु व्यवस्था बदलना आज भी नामुमकिन की हद तक मुश्किल है और आगे भी बना रहेगा.          

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

आह दिल्ली वाह दिल्ली

मित्रों,वर्ष २००२ के १२ सितम्बर से पहले मैंने दिल्ली को केवल सुना था देखा नहीं था.मैंने दिल्ली को सुना था अपने से उम्र में बड़े मामा लोगों के मुंह से और अपने उन हमउम्र दोस्तों की जुबानी जो तब कमाने के लिए दिल्ली में रहने लगे थे.कोई हमें मकान मालिक या पड़ोसी की बेटी से अपने अवैध मुहब्बत की दास्तान सुनाता तो कोई बताता कि दिल्ली में कैसे पैसा कमाया जाता है तो कोई वीर रस के मूर्धन्य कवियों को कई प्रकाशवर्ष पीछे छोड़ते हुए बताता कि उसने बिहारी कहने पर कैसे किसी स्थानीय व्यक्ति की पिटाई कर दी.कुल मिलाकर मुझे लगने लगा कि दिल्ली के लोग बिहारियों से बहुत डरते हैं.लेकिन जब मैंने १२ सितम्बर,२००२ को दिल्ली की धरती पर अपने कदम रखे तो पाया कि वे सबके सब झूठ बोल रहे थे.
               मित्रों,इससे पहले ११ सितम्बर को महनार से मेरी विदाई की गयी आरती उतारकर और ललाट पर विजय तिलक लगाकर;मैं आईएएस बनने का सपना आखों में लेकर जो रवाना हो रहा था.इस अवसर पर मेरी मकान मालकिन ने मुझसे मजाक करते हुए कहा भी कि तुम दिल्ली जाकर बदल जाओगे और शायद वापस आओ तो एक से भले दो होकर.तब मैंने भी अपने स्वभावानुरूप जवाब जड़ दिया था कि मैं दिल्ली बदल जाने के लिए नहीं जा रहा हूँ बल्कि दिल्ली को ही बदल देने के लिए जा रहा हूँ.परन्तु अंत में न तो मेरा दावा ही सत्य सिद्ध हुआ और न ही उनकी आशंका ही सच्चाई के धरातल पर उतर पाई.
           मित्रों,नई दिल्ली जंक्शन पर उतरकर हमारा सबसे पहले सामना हुआ रिक्शेवाले से जिसने कुल बीस कदम दूर बस स्टॉप तक हमारा सामान ले चलने के लिए हमसे २० रूपये ऐंठ लिए.तब देश में वाजपेयी की सरकार थी और बीस रूपया बहुत हुआ करता था.जब हम खानपुर में बस से उतरे तो झमाझम वर्षा हो रही थी और सड़क पर रिक्शेवाले नजर भी नहीं आ रहे थे.बाद में मैंने जाना कि वहां रिक्शा चलाने पर प्रतिबन्ध लगा हुआ था.किसी तरह एक ऑटो रिजर्व करके हम गंतव्य मकान तक यानि सुरेश के निवास पर पहुंचे.सुरेश मेरे बड़े जीजाजी के मित्र थे,ग्रामीण भी थे और भतीजे भी.फिर शुरू हुई ढंग का डेरा खोजने के लिए भागदौड़.तब मैंने एक अच्छी बात यह देखी कि सभी प्राइवेट बसों पर लिखा हुआ रहता था कि कौन-सी बस किस-किस इलाके से होकर गुजरेगी.लेकिन मेरे बड़े जीजाजी को न जाने क्यों उन पर लिखे पर विश्वास ही नहीं था.वे बिना पूछे बसों में चढ़ते ही नहीं थे.इसी दौरान एक बार हम किंग्जवे कैंप से खानपुर के लिए लौट रहे थे.जिस बस में हम चढ़े वो केवल सराय काले खान तक के लिए थी.उतरने के बाद अँधेरा हो जाने के कारण सुरेश और जीजाजी की समझ में ही नहीं आ रहा था कि खानपुर की बस सड़क के इस पार से मिलेगी या उस पार से.फिर उन्होंने मेरे मना करने पर भी सड़क पार की और एक बस में जिस पर खानपुर लिखा हुआ था सवार हो गए.कंडक्टर से खानपुर का तीन टिकट माँगा तो उसने बिना कुछ कहे-सुने १०-१० के तीन टिकट थमा दिए.बस के थोड़ी दूर चलने के बाद ही मुझे लगा कि बस तो यमुना पार जा रही है.फिर हमने बस रूकवाई और पैसे वापस मांगे लेकिन उस कंडक्टर ने बड़ी बेहयाई से हमारी अज्ञानता की हँसी उड़ाते हुए यह कहकर पैसे लौटाने से मना कर दिया कि हमने तो नहीं कहा था तुमको बस में चढ़ने के लिए.तब हमें अपने बिहार की भी याद आई क्योंकि बिहार में छोटे बच्चे को भी आप कहने का रिवाज है.लेकिन दिल्ली तो जैसे आप कहना जानती ही नहीं थी,बाप को भी तुम और बेटे को भी तुम.इसी दौरान मैंने एक और अजीब बात जिंदगी में पहली बार देखी वो यह कि दिल्ली में पैसा लेकर पानी पिलाया जाता था.
          मित्रों,करीब एक सप्ताह तक बसों में जमकर ठगाने के बाद डेरे का इंतजाम भी हो गया.ठगाने की बात मैंने इसलिए कही क्योंकि हमें तब यह पता नहीं था कि जहाँ हमें जाना है वह जगह वहां से कितनी दूर है और वहां का किराया कितना है.कंडक्टर हमारे बातचीत करने के लहजे से ही समझ जाता था कि कबूतर इस शहर के लिए नया है.फिर तो उसको जितने का जी में आता उतने का टिकट काट देता.हमारा डेरा ठीक किया था त्रिभुवन ने जो इन दिनों आई.आई.एम. इंदौर में पढ़ रहा है.वो उन दिनों किरोड़ीमल कॉलेज में मेरे दूर के भांजे उमाशंकर का जूनियर हुआ करता था.जब हम चार-पाँच दिन रह लिए तब एक लफुआनुमा युवक मोटा चश्मा लगाकर प्रकट हुआ और हमसे हमारा परिचय पूछने लगा.उसके साथ भाड़ा तय हुआ १७०० रू. लेकिन उसने हमसे २२०० रूपये मांगे जो मैंने देने से ही मना कर दिया.तब भी मेरी नजर दलाली लेना और देना दोनों अनैतिक थे.फिर उसने कहा कि अगर मकान मालिक या मकान मालिक का कोई आदमी तुमसे यह पूछे कि तुम इस कमरे में कबसे रह रहे हो तो तुम उसी दिन से बता देना जिस दिन तुमसे पूछ जाए.लेकिन महीनों तक कोई नहीं आया और इस तरह वह व्यक्ति कई महीने का किराया अपनी जेब में डालता रहा.वह एक कथित प्रोपर्टी डीलर था.इससे पहले मैंने कभी इस जीव का नाम सुना भी नहीं था अलबत्ता दलाल तो मेरे गाँव और शहर में भी थे.वह प्रोपर्टी डीलर जिसका नाम मुकेश था और जो विवाहित भी था लौज में एक कमरे को हमेशा खाली रखता था.कभी-कभी सप्ताह में एक बार तो कभी-कभी दो बार वो लड़की लाता.फिर वे और उसके पाँच-छः दोस्त बारी-बारी उसके साथ उस कोनेवाले ९ नंबर के कमरे में सेक्स करते.कई बार तो लड़की नवविवाहिता भी होती.मुझे छात्रों ने बताया कि दिल्ली में सहपाठी लड़कियों को फँसाना बड़ा आसान था.बस एक बाईक खरीद लो लडकियाँ खुद ही फँस जाएंगी.मेरा भांजा उमा भी न जाने कैसे प्रेम में गिर गया और अपने ही मकान मालिक की बेटी को साथ में लेकर गाँव पहुँच गया.कुछ यही हाल मेरे लॉज के अन्य दोस्तों का भी था.सबके सब जोड़ियाँ बना चुके थे.तन्हा था तो सिर्फ मैं.एक बात और दिल्ली की लड़कियों के लिए लड़कों के साथ दोस्ती या सेक्स सिर्फ पार्टटाइम जॉब की तरह था.अगर लड़के ने इसे फुलटाईमर बनाने की यानि शादी करने की कोशिश की तो ज्यादा सम्भावना यही होती थी कि दोस्ती ही टूट जाए.
           मित्रों,इस तरह मेरे दिन मजे में बीतने लगे.मेरी हमेशा से एक आदत रही है कि मैं सबेरे सोता हूँ और सबेरे जगता भी हूँ.कुछ दिनों तक तो सबकुछ सामान्य रहा लेकिन एक दिन ज्यों ही मैंने बल्ब ऑफ़ किया पड़ोस के कमरे से हास्यमिश्रित स्वर में आवाज आने लगी कि अब हम समझे कि बिहार क्यों पिछड़ा हुआ है.व्यंग्य करने वाला बंगाली था और नाम था स्वरुप दत्ता.तबसे मैंने बल्ब ऑफ़ करना ही छोड़ दिया और जलता हुआ छोड़कर ही मुँह ढककर सोने लगा.इसके बाद भी कई बार सड़कों पर,बसों में मुझे बिहारी कहकर संबोधित किया गया.कभी चुपचाप अपमान के घूँट पीकर रह जाता तो कई बार मारपीट की नौबत भी आ जाती.इसी कारण किंग्जवे कैम्प चौक पर एक किराना दुकानदार से हाथापाई भी कर ली और उसे पीटा भी.जब मुझे कमलानगर,९जी में रहते हुए कई महीने हो गए तब एक दिन विनय जो मेरे ही जिले का रहनेवाला था और त्रिभुवन अपने कॉलेज किरोड़ीमल से एक कागज पर ब्रजकिशोर सिंह,फ्यूचर आई.ए.एस. प्रिंट करके ले आए और उसे मेरी किवाड़ पर चिपका दिया.हो सकता है कि मेरी नाकामियों पर आंसू बहाता हुआ वह पोस्टर अब भी उस किवाड़ पर चिपका हुआ हो.

          मित्रों,फिर मैंने बाराखम्बा रोड स्थित राउज आई.ए.एस. स्टडी सर्किल में नामांकन करवाया और बड़े ही जतन से अपने सपनों में हकीकत के रंग भरने लगा.यहाँ भी गैर बिहारी छात्र-छात्राएं हम बिहारियों को हिकारत भरी निगाहों से देखते.शायद यही वो कारण था जिसके चलते मैंने जमकर मेहनत की.मैं एक मिनट भी जाया नहीं करता था.आते-जाते बसों में भी नोट्स देखता रहता.इसी बीच कोचिंग में टेस्ट होना शुरू हो गया.इतिहास के पहले टेस्ट में मुझे ५० में ३७ अंक आए थे लेकिन दूसरे टेस्ट में तो कमाल ही हो गया.बतौर शिक्षक ओमेन्द्र सिंह मेरे सिर्फ पांच उत्तर ही गलत थे.मैं टेस्ट में प्रथम आया था.उस दिन मेरी कक्षा के बिहारी छात्रों की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था.सबने मुझे अपने कन्धों पर उठा लिया.बाद में भी यह सिलसिला बना रहा.सामान्य अध्ययन के टेस्ट में भी मैं एक नए रिकार्ड बनाता हुआ प्रथम आया.मेरे प्रथम होने की घोषणा खान सर ने कुछ इस तरह से की-प्रथम आए हैं ब्रह्मकिशोर सिंह.मैंने फिर हस्तक्षेप करके अपना नाम सुधरवाया.बाद में साथ में पढनेवाले यूपी और राजस्थान वालों से हमारा पंगा भी हुआ.उनलोगों को मेरा यानि एक बिहारी का प्रथम आना रास जो नहीं आ रहा था.वे मेरे अभिन्न मित्र बन चुके अविनाश उर्फ़ मराठा (यह नाम उसे कोचिंग में भी हमने दिया था) पर मुझसे दोस्ती तोड़ने के लिए दबाव बनाने लगे लेकिन खुदा के फजल से हमारी दोस्ती आज भी कायम है.कोचिंग के अंतिम दिन हम सबकी आँखों में आंसू थे.मराठा तब तक हमारे साथ पढनेवाली एक लड़की से अपना दिल तोड़वाकर महाराष्ट्र वापस जा चुका था.कोंचिंग ने मुझे कई अच्छे मित्र दिए जिनमें से कुछ तो दिल्ली के भी थे.दिल्ली वासी मनीष,अमित और प्रवीण तब तक मेरे गहरे दोस्त बन चुके थे.मनीष जनकपुरी का जाट था और अमित शर्मा और प्रवीण धीमान मौजपुर में रहते थे.तीनों मस्तमौला थे और दोस्तों के लिए कुछ भी कर गुजरनेवाले भी.
           मित्रों,इसी बीच मेरी दूध विक्रेता संजीव विश्नोई से भी गहरी छनने लगी.संजीव एक हाजिर जवाब तो थे ही बड़े ही सुरीले कलाकार भी थे.चूंकि मैं उनसे शुद्ध हिंदी में बात करता था इसलिए महीनों बाद उन्हें पता चला कि मैं एक बिहारी हूँ वो भी तब जब मैंने एक दिन अपने घर पर उनके एस.टी.डी. फोन से बात की.मुझे कई बार उनके और उनकी पत्नी के बीच घरेलू विवाद को सुलझाने का सुअवसर भी मिला.बाद में उन्होंने मुझे अपने द्वारा गाए गए भजनों के कई कैसेट भी दिए.उनकी डी.एम.एस. की दुकान थी.कोई जब उनसे पूछने आता कि क्या यह मदर डेयरी है तो वे बड़े ही नाटकीय तरीके से उत्तर देते कि यह फादर डेयरी है मदर डेयरी तो बगल में है और फिर एक साथ कई ठहाके फिंजाओं में गूंजने लगते.साथ ही कमलानगर में अख़बारों की एजेंसी चलानेवाले बिल्ले और जैन साहब से भी मेरी गहरी मित्रता हो गयी.मल्कागंज वासी अख़बार वेंडर धर्म सिंह तो जैसे मेरे परिवार के सदस्य ही हो गए.यही हाल डाकिया विजय का भी था.
           मित्रों,वर्ष २००३ की दिवाली के समय मेरी यूपीएससी की प्रधान परीक्षा चल रही थी.सिर्फ अंतिम दो पेपर बाँकी थे कि मुझे डेंगू हो गया.रात में सोया तो अपने ही कमरे में लेकिन जब जगा तो अस्पताल में और वो भी चार दिनों के बाद.मेरे साथ लॉज में रहनेवाले विद्यार्थियों ने मुझे अस्पताल में भरती करवाया फिर मेरे मंझले जीजाजी के फुफेरे भाई अजय को सूचित किया.जान तो बच गयी लेकिन आईएएस बनने का सपना टूट चुका था.आँखों में सपने के टूटे हुए किरमिचों के चुभने का दर्द था.वहां उपस्थित मेरे सभी शुभचिंतकों की आँखें भरी हुई थीं.एक तरफ उन्हें मेरे जीवित बच जाने की ख़ुशी हो रही थी तो उनके मन में मेरे सपने के टूटने का अहसास भी था.मैं पहला मोर्चा जीतकर अंतिम लड़ाई को हार गया था.दरअसल डेंगू ने मेरे दिमाग पर भी बुरा असर डाला था.अब मैं पढ़ी हुई बात को ज्यादा समय तक याद नहीं रख पाता था.बाद में पड़ोसी से परेशान होकर डेरा बदला.यह नया पड़ोसी अभय दूबे जो गोरखपुर का था रात में तेज आवाज में गाना सुनता था जिससे मैं सो नहीं पाता था.अभय ने अपनी मोटर साईकिल घर भेज दिया और चोरी की एफ.आई.आर. दर्ज करवा कर बीमा का पैसा खा गया.वो अपने कमरे में लड़कियां लाता और कभी-कभी रात में उनके साथ हमबिस्तर भी होता.हमने उसे रात में गाना नहीं बजाने के लिए कई बार समझाया लेकिन वो नहीं समझा.अंत में मारपीट हुई जिसमें मेरे मित्र मनोज,एल.एल.बी. को चोट भी आई और फिर हमने आशियाना बदल दिया.अब हम आ गाए घंटाघर के पास.सारा सामान रिक्शा पर उमा और उसके मित्रों ने ढो दिया था.यहाँ मेरे साथ रहने के लिए मराठा भी आया लेकिन एक ही महीने बाद अलग भाग गया जिससे आगे २ सालों तक मुझे अकेले फ़्लैट का किराया ३५०० रू. मासिक भरना पड़ गया.यहाँ आकर मकान मालिक पी.के. अग्रवाल से दोस्ती हुई और दोस्ती हुई उनके स्टाफ पंकज से.घंटों मैं उनलोगों से बातचीत करता रहता.पंकज बहुत ही दिलचस्प इन्सान था.उसकी अंग्रेजी अच्छी थी.जब भी उसके घर पर कुम्हरे की सब्जी बनती तो वो जरुर इसका जिक्र मुझसे करता वह भी सीना तानकर यह कहते हुए कि आज मैंने सीताफल की सब्जी खाई है.साथ ही जब एक दिन उसने मुझे बताया कि वो कभी जिभिया (स्टील की या प्लास्टिक की पत्ती से जीभ साफ़ करना) नहीं करता है तब मुझे घोर आश्चर्य हुआ.उसने यह भी बताया कि यहाँ पर सभी नाख़ून से ही खखोरकर जीभ साफ़ कर लिया करते हैं.यहाँ तक कि मैंने भी बाद में पाया कि जिभिया वहां की दुकानों में बिकता ही नहीं था.जहाँ तक अग्रवाल साहब का सवाल है तो वे ऊंचे दर्जे के फेंकू और कंजूस थे.दुकान में बातें करते-करते सो जाना और ग्राहकों से जबरन बात करने की कोशिश करना उनका शगल था.वे बड़े ही नाटकीयतापूर्ण तरीके से बताते कि मैं जब ब्रजकिशोर सिंह,आई.ए.एस. यानि मेरे चेंबर में मुझसे मिलने जाएँगे तो किस तरह दरवाजे को लात से मारकर खोलेंगे.
           मित्रों,मेरे बगल में एक बूढी आंटी भी रहती थी चंद्रावल रोड,१५२९ में.उन्होंने मुझे परदेश में माँ का प्यार दिया.अगाध स्नेह था उनका मुझपर.जब भी मैं उनके पास होता तो मुझ पर मानो प्रेम की बरसात होती रहती.मुझसे भी जहाँ तक बना मैंने उनकी सेवा की.वे अपने एक गूंगे बेटे और पति के साथ वहां रहती थीं.छोटे बेटे की ज्वेलरी की घंटाघर के पास ही बहुत बड़ी दुकान थी मगर वो इन लोगों से अलग अशोक विहार में फ़्लैट खरीदकर रहता था.अंत में २००५ की यू.पी.एस.सी. प्रधान परीक्षा में भी असफल घोषित कर दिए जाने के बाद मैंने नोएडा स्थित माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में नामांकन करवा लिया और दिल्ली को हमेशा के लिए छोड़ दिया.एक महीने तक तो नोएडा से आना-जाना किया लेकिन इसमें समय की बहुत बर्बादी होती थी.इसलिए नोएडा के सेक्टर २० में ही जहाँ उस समय विश्वविद्यालय का नोएडा परिसर अवस्थित था डेरा ले लिया.मुँह अँधेरे ही सामान को ट्रक पर लदवाया.उस दिन शायद २ अगस्त की तारीख थी.अब दिल्ली हमेशा के लिए मुझसे छूट जानेवाली थी.मैंने चलते वक़्त आंटी को प्रणाम किया और ट्रक में जाकर बैठ गया.आंटी फूट-फूटकर रो रही थीं.तब तक अंकल राजाराम पुरी भी दुनिया को अलविदा कर चुके थे.मैंने अपना सामान ट्रक पर लोड करवाया और चल पड़ा.वे दूर तक जाते हुए ट्रक को देखती रहीं और रोती रहीं.बाद में जब भी दिल्ली आता तो सिर्फ उनसे मिलने के लिए.फिर यह सिलसिला कम होता गया और अंत में बंद भी हो गया.अभी पिछले साल यहाँ हाजीपुर से फोन करने पर उनके छोटे बेटे ने बताया कि उसका गूंगा भाई भी अब इस दुनिया में नहीं है.दुर्भाग्यवश उसका नंबर भी बदल गया है जिससे मैं अब यह जान पाने में असमर्थ हूँ कि आंटी जीवित भी हैं या नहीं और अगर जीवित हैं तो कहाँ पर हैं और किस हाल में हैं.  

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

कौन है अन्ना की जान का दुश्मन?

मित्रों,हर अच्छे-बुरे आदमी का विरोध होता है,प्रत्येक उचित-अनुचित बात की निंदा भी की जाती है;अन्ना का भी हुआ और हो रहा है.लोकतंत्र का तो मतलब ही है विरोध करने की आजादी लेकिन यह आजादी तभी तक देय है जब तक कि विरोध अहिंसक हो.लोकतंत्र में विरोध का एकमात्र मतलब होता है तर्क द्वारा मतभिन्नता प्रदर्शित करना,अपने विचारों के माध्यम से विरोधी पर दबाव बनाना.विरोध का यह मतलब हरगिज नहीं होता कि जिससे आप सहमत नहीं हैं उसकी हत्या ही कर दें.परन्तु लोकतंत्र के ढाई-तीन सौ सालों के इतिहास में लिंकन,केनेडी,मार्टिन लूथर किंग,ओल्फ पाल्मे,अनवर सादात,इंदिरा गाँधी,राजीव गाँधी,प्रेमदास,जयवर्धने,शेख मुजीब,बुरहानुद्दीन रब्बानी जैसे सैंकड़ों ऐसे जननेता रहे हैं जिनकी संसार के अलग-अलग हिस्सों में समय-समय पर उनके धुर विरोधियों ने हत्या कर दी.
               मित्रों,इन छोटी-सी सूची में मैंने महात्मा गाँधी को इसलिए स्थान नहीं दिया क्योंकि वे इन सबमें विशिष्ट थे.गाँधी ने कभी हिंसा को उचित नहीं माना और अहिंसा के बल पर ही मानव इतिहास के सबसे रक्तरंजित कालखंड में दुनिया की सबसे शक्तिशाली सत्ता से सफलतापूर्वक लोहा लिया.गाँधी के बारे में कभी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी कि उनकी हत्या भी हो सकती है.गाँधी ने यह जानते हुए भी कि उनसे विचारधारात्मक मतभेद रखनेवाले लोग उनके खून के प्यासे हो रहे हैं कभी सरकारी सुरक्षा स्वीकार नहीं की.वे हमेशा लोगों से बेख़ौफ़ होकर मिलते रहे जिसका फायदा उठाया उन लोगों ने जो उनकी हत्या करना चाहते थे.गाँधी की हत्या से देश को कितना नुकसान हुआ आज हम इसका अच्छी तरह से मूल्यांकन कर सकते हैं.अगर हम सिर्फ सोंचने के लिए भी सोंचें तो अगर गाँधी की हत्या नहीं हुई होती तो शायद वर्तमान भारत की हालत इतनी बुरी नहीं होती.
                मित्रों,दुर्भाग्यवश आज भारत फिर से उसी प्रस्थान बिंदु पर आ खड़ा हुआ है जहाँ वह ३० जनवरी,१९४८ को खड़ा था.दिल्ली पुलिस और इंटेलिजेंस ब्यूरो को ऐसी सूचनाएं मिल रही हैं कि कुछ अज्ञात लोग और संगठन देश के शुद्धिकरण में लगे अन्ना हजारे की हत्या की साजिश रच रहे हैं.अन्ना भी गाँधी की ही तरह अत्यंत सरल हैं और हर किसी को उपलब्ध हैं.ऐसे में कोई भी व्यक्ति भीड़ का हिस्सा बनकर उनके निकट पहुँच कर उन पर जानलेवा हमला कर सकता है.दिल्ली पुलिस को इस आशय का एक गुमनाम पत्र मिला है जिसमें धमकी दी गयी हैं कि अगर अन्ना ने अपनी गतिविधियों पर विराम नहीं लगाया तो ५०० युवाओं का ग्रुप उन पर एचआईवी संक्रमित सूईयों द्वारा रामलीला मैदान में प्रस्तावित अनशन के समय हमला कर सकता है.उधर सरकारी ख़ुफ़िया एजेंसी इंटेलिजेंस ब्यूरो के अनुसार आईएसआई ने भी अन्ना की हत्या की साजिश रची है और इस पापकर्म को अंजाम तक पहुँचाने की जिम्मेदारी सौंपी है पाकिस्तान के सबसे खतरनाक आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के मुखिया मौलाना मसूद अजहर को.यह वही मौलाना अजहर है जिसको कंधार विमान अपहरण के समय यात्रियों के बदले रिहा किया गया था.इसी तरह के कुछ और भी संकेत मिले हैं जिनसे पता चलता है कि अन्ना की जान को वास्तव में खतरा है.
                मित्रों,हो सकता है कि इस तरह के संकेत और ख़ुफ़िया चेतावनियाँ पूरी तरह से पुख्ता नहीं हों लेकिन हमारा देश अभी इस स्थिति में नहीं है कि वह अन्ना की जान को लेकर किसी भी तरह का जोखिम उठाए.अन्ना की जिंदगी अनमोल है क्योंकि देश की आजादी के बाद पहली बार हमारे देश को ऐसा नेतृत्व मिला है जिसके जुझारूपन और दृढ़ता के चलते भारतवासियों में व्यवस्था-परिवर्तन की उम्मीद जगी है.इसलिए टीम अन्ना और सरकार को अन्ना की अचूक सुरक्षा-व्यवस्था के लिए प्रयास करने चाहिए.साथ ही बेशक उनकी सुरक्षा-व्यवस्था बढ़ाई जानी चाहिए लेकिन इस बात का ख्याल रखते हुए कि इससे अन्ना को जनसाधारण के साथ सीधा संपर्क कायम करने में बाधा उत्पन्न नहीं हो.साथ ही हम सवा अरब भारतीयों की ओर से देश के भीतर और बाहर स्थित अन्ना और भारतवर्ष के दुश्मनों को यह भी बता देना चाहते हैं कि अब तक भारत की जो जनता सो रही थी अब वो जाग गयी है और अब पवित्र भारतभूमि से भ्रष्टाचार को मिटने से कोई भी नहीं रोक सकता,चाहे अन्ना हमारे समक्ष सशरीर उपस्थित रहें या न रहें.

रविवार, 11 दिसंबर 2011

अंगुलीमाल बना महावीर की धरती वैशाली का समाज


मित्रों,एक समय जब मैं वर्ष २००७ से २००८ तक दैनिक हिंदुस्तान,पटना के प्रादेशिक डेस्क पर काम कर रहा था तब अख़बार के वैशाली संस्करण में कुछ एक ही तरह की घटनाओं को लेकर छपनेवाली ख़बरों को लेकर परेशान रहा करता था.न जाने क्यों वैशाली संस्करण में रोजाना कुछ इस तरह की ख़बरें छपा करती थीं-पाँच बच्चों की माँ प्रेमी के साथ भागी,शिष्य को लेकर ट्यूशन शिक्षक फरार,प्रेमी के साथ कोर्ट में उपस्थित हुई नाबालिग छात्रा आदि.डेस्क के मेरे सहकर्मी खासकर महेंद्र झा मुझ पर हँसते कि ऐसा क्यों हो रहा है कि लड़कियों और महिलाओं के भागने की घटनाएँ पूरे राज्य में सबसे ज्यादा आपके जिले में ही घट रही हैं.उस समय सिवान से सियार द्वारा काट खाने,छपरा से फर्जीवाड़ा कर रजिस्ट्री करवाने और खगड़िया से अस्पतालों में सर्पदंश की दवा अनुपलब्धता की ख़बरें भी रोज ही आया करती थीं.लेकिन दुर्भाग्यवश हमारे बीच सबसे ज्यादा हंसी का पात्र बनता था मैं और मेरा वैशाली जिला.खैर,इसमें दोष हाजीपुर ब्यूरो का भी नहीं था.जब जिले में अक्सर इस तरह की घटनाएँ घटित होती थीं तभी तो वह पटना मुख्यालय को भेजता था.
              मित्रों,वक़्त गुजरा और आज दिसंबर,२०११ चल रहा है.इन दिनों मैं एक बार फिर से परेशान हूँ अपने जिले में रोज-रोज घटनेवाली कुछ एक ही तरह की घटनाओं को लेकर.अब अख़बारों में वैध-अवैध प्रेम में घर छोड़कर भागने की ख़बरें नहीं आ रही बल्कि अब तो गणतंत्र की जननी वैशाली में तेजी से पसरते गनतंत्र की ख़बरें रोज-रोज आ रही हैं.लगता है जैसे हमारे जिले में इंसानों का नहीं बल्कि सिर्फ दरिंदों का निवास हो गया है.कुछ उदाहरण पेशे खिदमत है-पहली घटना ६ दिसंबर की है.बारात लगाने में हुए विवाद में पातेपुर थाने के बाजितपुर गाँव में लड़की का चाचा मदनमोहन मिश्र एक गाड़ी चालक टुनटुन राय की गोली मारकर हत्या कर देता है और हत्यारे लाश लेकर भी भाग जाते हैं.हद तो यह है कि हमारी काबिल पुलिस घटना के बाद ४८ घंटा बीत जाने के बाद भी इस मामले में कोई गिरफ़्तारी नहीं कर पाई है.फिर दूसरी स्तब्ध कर देनेवाली घटना को अंजाम दिया जाता है ७ दिसंबर को.इस घटना में सराय थाने के इनायतपुर प्रबोधी गाँव के दबंग और पूर्व मुखिया के बेटे एक वृद्ध धोबिन को कपड़ा धुलाई का मेहनताना मांगने पर गालियाँ देने लगते हैं.स्वाभाविक तौर पर उसका बेटा इसे बर्दाश्त नहीं कर पाता और विरोध करने लगता है.फिर तो उस गुड्डू रजक नामक युवक की अखिलेश सिंह,मिथिलेश सिंह और मनोज सिंह वगैरह के द्वारा इतनी बेरहमी से धुलाई की जाती है कि गाँव के वर्तमान मुखिया और जिला पार्षद को उसकी बेबस माँ की गुहार पर हस्तक्षेप करना पड़ता है.जान बचने के लाख प्रयासों के बावजूद सदर अस्पताल के बेड पर वह मातृभक्त दम तोड़ देता है.बाद में जनता द्वारा दबाव बनाने पर ही उसका पोस्टमार्टम संभव हो पाता है.अभी मातृभक्त गुड्डू की चिता की आग ठंडी भी नहीं पड़ी थी कि ७ दिसंबर की रात को ही तीसरी मानवता को शर्मसार कर देने वाली घटना भी घट जाती है.थाना वही है सराय जहाँ कभी पूरी दुनिया को करूणा और अहिंसा का अमर सन्देश देने वाले वैशाली के ही बेटे,अंतिम जैन तीर्थंकर भगवान महावीर ने रिजुपलिका नदी के तट पर ज्ञान प्राप्त किया था.इस बार यमदूतों के भी रोंगटे खड़े कर देनेवाली घटना का गवाह बनता है सराय थाने का धरहरा गाँव.गाँव का एक दबंग मल्लाह परिवार जो अतिपिछड़े वर्ग से आता है गाँव के एक ब्राह्मण अशोक पांडे पर दबाव डालता है कि वो अपनी बेटी जूली का विवाह उसके लम्पट बेटे ज्योति सहनी के साथ कर दे.जैसा कि इस तरह के मामलों में होना चाहिए लड़की का पिता कमजोर होने पर भी ऐसा करने से इंकार कर देता है.फिर तो ७ दिसंबर की कोहरे भरी रात में उसकी नाबालिग बेटी को हथियारों के बल पर सहनी परिवार घर में से उठा लेता है और उसकी हत्या करके लाश को पास के ही बगीचे में पेड़ से लटका देता है.गाँव के जिस किसी की नजर लाश पर पड़ती है उसका मन इस जघन्य कृत्य पर भिनभिना उठता है.हत्या करने से पहले घटना में शामिल २ दर्जन दरिंदों ने उस मासूम के साथ बलात्कार भी किया था या नहीं अभी स्पष्ट नहीं है.
             मित्रों,अभी-अभी अख़बार हाथ में आया है और अबोध जूली की नृशंस हत्या का यह समाचार पढ़ते ही मैं खुद के वैशाली जिले का होने को लेकर बहुत ही शर्मिंदा महसूस करने लगा हूँ.मैं डर रहा हूँ कि क्या कल फिर से मुझे अख़बार में अपने जिले में घटित इस तरह की घटना का समाचार पढना पड़ेगा?छिः,मैंने कैसे जिले में जन्म लिया है जिसका इतिहास तो गौरवमय है लेकिन वर्तमान कलंकित!!!जहाँ रोज-रोज इंसानों की पशुता उजागर हो रही है.जहाँ मानवता की और मानवों की जान की कौड़ी जितनी भी कीमत नहीं.मैं सोंचता हूँ कि मैं ऐसे बिगड़ते माहौल में कब तक अपनी निर्मल मनुष्यता की रक्षा कर पाऊँगा?वैशाली पुलिस की तो बात ही नहीं करिए.उसकी मनमानी कार्यप्रणाली और बेईमानी का ही तो यह प्रतिफल है कि पूरे वैशाली जिले में जिसकी लाठी उसकी भैंस की कहावत सत्य साबित हो रही है.पूरे जिले के सभी थानों में सिर्फ और सिर्फ पैसे और पैसेवालों का बोलबाला है.शौक से हत्या करिए और थाने में उड़ेलकर पैसा दे दीजिए और फिर निश्चिन्त हो जाईए;आपका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएगा.तो क्या भविष्य में जिले के शरीफों की बहू-बेटियों को दबंग घर से उठा लिया करेंगे?क्या इसी तरह गुड्डू रजक नामक दलित मातृभक्त शहीद होता रहेगा??क्या इसी तरह हमें रोजाना बारात में गोली चलने से निर्दोष टुनटुन रायों की मौत की ख़बरें पढनी पड़ेगी???हमारा २१वीं सदी का समाज यह किस दिशा में अग्रसर हो गया है????क्या हमारी महान सभ्यता और संस्कृति सही दिशा में अग्रसर है?????हम जानते हैं कि वक़्त की और समाज की अपनी एक दिशा होती है,गति होती है.लेकिन जब दिशा और गति दोनों गलत हो जाए तो धरती पर रेंगनेवाला क्षुद्र कीड़ा इन्सान करे भी तो क्या करे?जब कोई पथभ्रष्ट समाज उसकी नेक सलाह को किसी पागल का प्रलाप समझकर अनसुना कर दे तब कोई पथप्रदर्शक सुकरात कर भी क्या सकता है सिवाय............?!अरे डरिए मत!मैं कोई सुकरात नहीं हूँ जो निराश होकर जहर पी लूँगा.मैं तो आल्हा-ऊदल का वंशज हूँ और मैं संघर्ष करूंगा,समझाता रहूँगा लोगों को और समाज को अंतिम साँस तक,रक्त की अंतिम बूँद के शरीर में शेष रहने तक;चाहे अंत में सफलता हाथ लगे या असफलता.न दैन्यं न पलायनम!
(मित्रों,यह लेख मैंने ९ दिसंबर को ही लिख लिया था.इस बीच वही हुआ है जिसका मुझे डर था.कल यानि १० दिसंबर को मेरे जिले के जुडावनपुर थाने के राघोपुर गाँव में जगदीश राय नामक वृद्ध की रस्सी से बांधकर चार नरपशुओं ने पिटाई कर दी जिससे घटनास्थल पर ही उनकी मौत हो गयी.साथ ही सच यह भी है कि मूल लेख में वर्णित तीनों मामलों में वैशाली पुलिस न तो अभी तक कोई गिरफ़्तारी ही कर पाई है और न ही अब तक टुनटुन राय का शव ही बरामद कर सकी है.एक सूचना और जो वैशाली पुलिस से ही सम्बद्ध है कि मेरे पडोसी और वैशाली पुलिस के जवान बालेश्वर साह ने अब चोरी की बिजली से मोटर चलाना भी शुरू कर दिया है.साथ ही अब उसके टेंट में रोजाना शाम में गाँजा का धुंआ भी उड़ने लगा है.)

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

कि खूने दिल में डुबो ली है ऊंगलियाँ मैंने

मित्रों,हमारे देश में लोकतंत्र की ट्रेन एक अजीब मोड़ पर आकर फँस गयी है.हमारी जनमोहिनी-मनमोहिनी केंद्र सरकार चाहती है कि ट्रेन उसकी मर्जी से उसके द्वारा बनाई हुई पटरी पर दौड़े.लेकिन अगर ट्रेन उस पटरी पर गयी तो दुर्घटना निश्चित है.मुश्किल यह है देश के शुभेच्छु विपक्षी दल,टीम अन्ना और जनता उसे बार-बार ऐसा करने से रोकना चाहते हैं लेकिन सरकार है कि किसी की सुनने को तैयार ही नहीं है.उसका तो बस इतना ही मानना और कहना है कि देश की ट्रेन को जनता ने उसे पांच साल के लिए सौंपी है.अब वो उसको अप लाईन पर चलाए,डाऊन लाईन पर दौड़ाए या लूप लाईन पर भगाए या फिर बंगाल की खाड़ी में गिरा दे;कोई कौन होता है उसे टोकने और रोकनेवाला?इन मूर्खों की जमात को यह नहीं दिख रहा कि जो भी आदमी उसके जैसी पागल चालकवाली ट्रेन में सवार है उसे अपने जान और माल की चिंता तो होगी ही.
                मित्रों,पिछले सालों में हम समाचार पत्रों में यह खबर अक्सर पढ़ते आ रहे हैं कि हमारा पड़ोसी मुल्क चीन गूगल,फेसबुक आदि सामाजिक वेबसाईटों पर आने वाली सामग्री पर नियंत्रण करना चाहता है.चीन को ऐसा करना शोभा भी देता है क्योंकि वहां एकदलीय शासन है,तानाशाही है और वस्तु उत्पादन से लेकर विचारोत्पादन तक प्रत्येक राजनीतिक और सामाजिक गतिविधि पर सरकार का पूर्ण या यथासंभव नियंत्रण है.लेकिन क्या ऐसा प्रयास करने की सोंचना भी भारत सरकार के लिए शोभनीय है?क्या भारत में भी चीन की ही तरह एकदलीय शासन और तानाशाही है?कम-से-कम सैद्धांतिक और संवैधानिक रूप से तो ऐसा बिलकुल भी नहीं है.फिर हमारी सरकार हमारी सोंच पर,हमारी विचार शक्ति पर कैसे प्रतिबन्ध लगा सकती है?हम गूगल,फेसबुक या किसी अन्य वेबसाईट पर कोई शौक से नहीं लिखते हैं बल्कि ऐसा करना हमारी मजबूरी है.हम भी चाहते हैं कि हमारे विचार मुख्यधारा के समाचार-पत्रों में प्रकाशित हों लेकिन उन पर तो चंद पूंजीपतियों का कब्ज़ा है जो सरकार के खिलाफ कुछ भी छापने से डरते हैं.वे सब-के-सब सरकारी विज्ञापन की बीन की धुन पर बहरे,अंधे और गूंगे बनकर नाच रहे हैं.ऐसे में हम सामाजिक वेबसाईट्स पर नहीं लिखें तो कहाँ लिखें?सरकार अगर यह सोंचती है कि लोकतंत्र की ट्रेन को वह शौक से दुर्घटनाग्रस्त करा देगी और हम सब कुछ भगवान भरोसे छोड़कर मुंह ताकते रहेंगे तो उसे या तो इस अगहन पूणिमा के दिन प्राथमिक उपचार के तौर पर ठंडा ठंडा कूल कूल नवरत्न तेल के तालाब में डुबकी लगानी चाहिए और अगर फिर भी उसकी मानसिक स्थिति में सुधार नहीं हो तो उसके सभी मंत्रियों को सामूहिक रूप से मानसिक चिकित्सालय में बिना कोई देरी किए भर्ती हो जाना चाहिए.हमारी केंद्र सरकार आखिर यह कैसे भूल गयी कि हमारी भारतमाता कभी बंध्या नहीं हो सकती.भारतभूमि उससे उत्कट प्रेम करनेवाले वीरों से न तो कभी खाली रही है और न ही आगे कभी खाली ही होनेवाली है.इसलिए जब भी कोई सरकार देश को बेचने का अथवा देशहित को अपने लोभ और लालच के प्रदूषित जल में विसर्जित कर देने का प्रयास करेगी तो जान हथेली पर लेकर घूमनेवाले बच्चे,नौजवान और बूढ़े देश की लक्ष्मीबाई सदृश बेटियों सहित उसका और उसके प्रत्येक कदम का विरोध करने को उतावले हो उठेंगे.
               मित्रों,जहाँ तक मैंने पढ़ा है लोकतंत्र का मतलब ही होता है सहअस्तित्व और विरोधियों का और उनके विचारों का सम्मान.अगर हमारी सरकार सामाजिक साईटों को सरकारी बंदूकों या सत्ता की बेलगाम ताकत का भय दिखाकर झुका लेने में सफल हो जाती है तो फिर लोकतंत्र तो हमारे देश में अपने अर्थ ही खो देगा.अगर जनता अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र नहीं होगी तो फिर क्या मतलब रह जाएगा ऐसी दिखावटी और अर्थहीन स्वतंत्रता का?कहीं हमारी वर्तमान सरकार भारतीय लोकतंत्र को फासीवादी और नाजीवादी अंधकूप में धकेलने के चक्कर में तो नहीं है?सनद रहे कि इस सरकार की सूत्रधार सोनिया गाँधी की जन्मभूमि इटली में भी कभी फासीवाद लोकतंत्र की सीढियों पर चढ़कर ही सत्ता के शिखर पर पहुंचा था.तो कहीं सरकार की जनसामान्य के विचारों पर जंजीर डालने की कोशिश के पीछे सोनिया गाँधी का इटालियन मुसोलिनीवादी संस्कार तो नहीं काम कर रहा?
              मित्रों,कांग्रेस की वर्तमान सरकार की वर्ष २००४ से ही कोशिश रही है कि देश की जनता को बांटकर रखा जाए और फिर भ्रष्टाचार के माध्यम से छककर सत्ता की मलाई चाभी जाए.हिन्दू जनमानस को तो पहले ही जातीय राजनीति द्वारा बांटा जा चुका है इन दिनों आरक्षण की विभाजक दीवार हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच खड़ी करने का कुत्सित प्रयास चल रहा है.इन सबके बावजूद जनता के सभी तबकों के बीच सरकार की छवि में चुनाव जिताने के लायक सुधार नहीं हो पा रहा है.शायद इसलिए झुंझलाकर,घबराकर,हड़बड़ाकर,नाराज होकर,नासाज़ होकर और सत्ता के मद्यपान से मदमस्त होकर हमारी आम आदमी की अमीरपरस्त सरकार आम आदमी के विचारों पर ही ताला जड़ने का प्रयास करने लगी है.अगर सरकार सोशल वेबसाईट्स के संचालकों को भ्रष्टाचार के कीचड़ से सने अपने गंदे पैरों में झुका भी लेती है तो भी हम देशभक्त और आजादी के मतवाले उसकी देशविरोधी-जनविरोधी नीतियों के प्रति अपना विरोध दर्ज करने के लिए नए विकल्प तलाश लेंगे.वैसे वर्तमान वैश्विक ग्राम में कोई भी सरकार चाहे वो चीन की हो या भारत की विचारों की अभिव्यक्ति पर प्रभावी रोक नहीं लगा सकी है और न ही लगा सकती है फिर यह चमचा शिरोमणि कपिल सिब्बल किस बंजर खेत का आलू है?बतौर फैज़-"मताए लौहो कलम छीन गई,तो क्या गम है/कि खूने दिल में डुबो ली है उंगलियाँ मैंने/जबान पे मुहर लगी है,तो क्या कि रख दी है/हर एक हल्का-ए-जंजीर में जबाँ मैंने."      
           

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

दुश्शासनों के भरोसे सुशासन

मित्रों,किसी भी व्यक्ति के जीवन में परिवारवालों के बाद सबसे महत्वपूर्ण स्थान होता है पड़ोसियों का.बतौर अटल बिहारी वाजपेयी आप मित्र बदल सकते हैं,शत्रु भी बदले जा सकते हैं लेकिन पड़ोसी नहीं बदले जा सकते.न जाने मैंने किस जनम में कौन-सा गंभीर पाप किया था जो दो-दो पुलिसकर्मी मेरे पड़ोसी बन गए हैं.दोनों बिहार पुलिस में सिपाही हैं.एक की गुंडागर्दी का तो मैं अपने पूर्ववर्ती लेख ''पुलिस वाला लुटेरा अथवा वर्दी वाला गुंडा'' में जिक्र भी कर चुका हूँ लेकिन मेरा नया पड़ोसी तो वर्दी का रोब झाड़ने के मामले में पहले का भी बाप है.
                    मित्रों,इस शख्स का नाम है बालेश्वर साह और हाजीपुर शहर से सटे जढुआ  नवादा का रहनेवाला है.उम्र यही कोई ४०-४५ साल होगी.उसके कुल छः बच्चे हैं.सबसे बड़ी बेटी तो सयानी भी हो चली है.इन दिनों वो हमारे रोड नंबर-२,संत कबीर नगर,जढुआ स्थित वर्तमान निवास के पड़ोस में घर बनवा रहा है.मेरी समझ में यह नहीं आता कि इन पुलिसकर्मियों के पास जिनका वेतन मुश्किल से ५ अंकों में पहुँचता है इतना पैसा कहाँ से आ जाता है कि ये हाजीपुर जैसे महंगे शहर में जमीन खरीदकर घर बनवा रहे हैं.यहाँ मैं आपको यह भी बता दूं कि मेरे मोहल्ले में ९०% घर वर्तमान या भूतपूर्व पुलिसकर्मियों के हैं.तो मैं बता रहा था कि मेरे पड़ोस में जो सिपाही जी के नाम से मशहूर व्यक्ति घर बनवा रहा है एकदम महामूर्ख है,दम्भी है,कामुक है,वर्दी के घमंड में फूला हुआ है,मनमौजी है और नशेड़ी भी है.उसकी दुष्टता से मेरा पहला परिचय तब हुआ जब वह मेरे पड़ोसी त्रिवेदी जी के दामाद को भूमिविवाद के दौरान रंडी की औलाद इत्यादि विशेषणों से विभूषित करने लगा.आप भी सोंच सकते हैं कि तब त्रिवेदी जी और उनके पूरे परिवारवालों के दिलों पर क्या गुजर रही होगी लेकिन उन्होंने जवाब तक नहीं दिया.पचासों लोग उसे ऐसा करने से मना कर रहे थे लेकिन वह बार-बार त्रिवेदी परिवार को मोहल्ला से भगा देने और जीना मुश्किल कर देने की धमकी दे रहा था.मैंने अपनी जिंदगी में न जाने कितने पुलिसवाले देखे हैं लेकिन आज तक इतना लम्पट और बदतमीज पुलिसवाला नहीं देखा.इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि फ़िलहाल उसकी पोस्टिंग एक लम्बे समय से हाजीपुर शहर में ही है.आश्चर्य है कि बिहार सरकार को शिवदीप लांडे जैसे ईमानदार पुलिस अधिकारियों की बदली करने की तो खूब सूझती है लेकिन इन भ्रष्ट,लम्पट और गुंडानुमा पुलिसवालों की बदली करने के बजाए उन्हें सालों तक गृह जिला में पोस्टिंग कैसे मिली रहती है?
                  मित्रों,टीम अन्ना के अनुसार जिस प्रकार निचले स्तर के अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा ही जनता ज्यादा प्रताड़ित होती है ठीक उसी तरह बिहार पुलिस या अन्य राज्यों की पुलिस के ये सिपाही,हवलदार और थानेदार ही होते हैं जो अपने पड़ोसियों सहित पूरे जनसमाज का जीना मुहाल किए रहते हैं.मेरा यह नया पड़ोसी दिन-रात मोबाईल फोन पर फुल वॉल्युम में ''लगाई दिहीं चोलिया के हूक राजाजी'' और ''ओही रे जगहिया दांती काट लिहलअ राजाजी'' जैसे अश्लील भोजपुरी गाने बजाता रहता है.फिर दिन ढलते ही उसका छोटा-सा टेंट मधुशाला में बदल जाता है और विभिन्न असामाजिक तत्व उसके साथ जाम छलकाते हैं.सत्र के अंत में पूरे मोहल्ले वालों को जमकर गलियां दी जाती हैं.इन असामाजिक तत्त्वों में से एक को तो मैं भली-भांति जानता भी हूँ जिसका नाम है संतोष पासवान.पास में ही संत कबीर नगर में ही उसका घर है और वो चोरी के कई मामलों में नामजद अभियुक्त भी रह चुका है.            
             मित्रों,इस प्रकार त्रिवेदी जी का परिवार इस पुलिसवाले से भले ही परेशान नहीं हुआ हो लेकिन हमलोग तो अच्छी मात्रा में रोजाना परेशान हो रहे हैं.हो भी क्यों नहीं घर में महिलाएँ तो हैं ही छोटे-छोटे बच्चे भी हैं?हमारे बच्चे इस पड़ोसी से क्या सीख लेंगे;आसानी से समझा जा सकता है?पूर्व के लेख ''पुलिस वाला लुटेरा अथवा वर्दी वाला गुंडा'' में वर्णित पप्पू यादव की तरह ही इस वर्दी वाले गुंडे ने भी साधिकार बिजली का टोंका फंसाकर चोरी की बिजली का उपयोग करना प्रारंभ कर दिया है.पप्पू यादव तो अब चोरी की बिजली से मोटर भी चला रहा है.मुझे घोर आश्चर्य हो रहा है कि एक तरफ बिहार राज्य विद्युत् बोर्ड लगातार बिजली महंगा करता जा रहा है वहीं इन चोर पुलिसकर्मियों के खिलाफ कोई कदम भी नहीं उठा रहा.इनके जैसे लोगों के चलते उसे जो रोजाना करीब ४ करोड़ रूपये का घाटा हो रहा है;उसे कौन भरेगा?हम जैसे शरीफ और कानूनप्रेमी ही न?हाँ,एक बात और है कि अगर इन वर्दीवालों के स्थान पर हमने टोंका फंसाया होता तो कब के हाजीपुर जेल की शोभा बढ़ा रहे होते.इसी को तो कहते हैं कि वो करें तो रासलीला और हम करें तो कैरेक्टर ढीला.
               मित्रों,देश की सीमा की रक्षा करते हैं सेना के जवान और लोगों के घरों की रक्षा करती है पुलिस.मुठभेड़ों में मरते दोनों ही हैं लेकिन जब एक सेना का जवान मरता है तब पूरा जनसमुदाय श्रद्धा से सिर झुका लेता है.लोगों में शोक की एक स्वतःस्फूर्त लहर-सी दौड़ जाती है.परन्तु जब एक पुलिसकर्मी मारा जाता है तब जनता शोकमग्न नहीं होती बल्कि खुश होती है.खुश होती है कि एक आदमीनुमा जानवर मर गया.खुश होती है कि उसे रोज-रोज नोचनेवाला,काट खाने वाला और उस पर बेवजह भौंकनेवाला कुत्ता मर गया.कितनी बिडम्बनापूर्ण स्थिति है कि जिस जनता के पैसे से इन पुलिसवालों का घर चलता है उससे वे सीधे मुंह बात तक नहीं करते,ईज्जत देने की तो बात ही दूर रही.दुर्भाग्यवश आपको कभी थाने में जाना पड़ा तो वहां आपको जमकर जलील किया जाएगा लेकिन दलालों को,जेबकतरों को,गुंडों को खूब ईज्जत दी जाएगी;उनकी सेवा की जाएगी.आज जुए का अड्डा चलानेवाला कल राज्य या शहर को चलाने लगता है तो दोषी कौन है?ये पुलिसवाले! आज लोगों की जेबों को काटनेवाला कल लोगों का गला काटने लगता है तो दोषी कौन है?? एक बार फिर से वही पुलिसवाले!! कल तक चकला चलानेवाला आज प्रदेश और देश की सरकार चलाने लगता है तो दोषी कौन है??? फिर से वही पुलिसवाले!!! कल तक शराब बेचनेवाला आज देश को बेचने लगता है तो दोषी कौन है???? फिर से वही पुलिसवाले,वही पुलिसवाले,वही पुलिसवाले!!!! और बिडम्बना यह है कि इन्हीं दुश्शासन सदृश पुलिसवालों के बल पर नीतीश कुमार राज्य में सुशासन लाना चाहते हैं.सुशासन बाबू पहले इन सिपाहियों को सुधारिए चोर तो खुद ही सुधर जाएँगे.