मित्रों,जर्मन तानाशाह हिटलर का नाम कानों में पड़ते ही उससे जुडी सबसे पहली बात जो हमारे जेहन में आती है वो है उसके द्वारा किया गया यहूदियों का लोमहर्षक संहार.उसके द्वारा लगाए गए यातना-शिविरों से जीवित बच गए कई लोगों ने अपना जो अनुभव बयां किया और विजेता मित्र देशों के सैनिकों ने जो कुछ अपनी नंगी आँखों से देखा;वीभत्स और जुगुप्सा रसों की चरम अभिव्यक्ति कर सकने में परम सक्षम है.द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह स्वाभाविक था कि लगभग पूरी दुनिया में यहूदियों के प्रति सहानुभूति की लहर दौड़ पड़े.परिणामस्वरूप १४ मई,१९४८ को इंग्लैण्ड और संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल पर एक स्वतंत्र यहूदी इस्राईल राष्ट्र की फिलिस्तीन की पवित्र भूमि पर स्थापना की गयी.यह स्थापना अरबों के सख्त विरोध के बाबजूद तो की ही गयी थी साथ ही इस उम्मीद पर की गयी थी कि फिलिस्तीन में यहूदी और मुसलमान एक-दूसरे के अधिकारों का सम्मान करते हुए विकास के पथ पर हँसी-ख़ुशी अग्रसर हो सकेंगे.लेकिन ऐसा हो न सका.अरब देशों ने एकजुट होकर इस्राईल पर उसका नामोनिशान मिटा देने के ध्येय से १९४८,१९६७ और १९७३ में तीन बार भीषण आक्रमण किया और मुँह की खाते रहे.नतीजतन इस्राईल ने फिलिस्तीन के बचे हुए लगभग सारे अरब प्रदेशों पर अधिकार कर लिया.साथ ही,प्रत्येक यहूदी के मन में यह धारणा घर कर गयी कि मुसलमान कभी उसके स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार कर ही नहीं सकते.
मित्रों,यह बेहद बिडम्बनापूर्ण और दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन यहूदियों पर द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान घोर अमानुषिक अत्याचार किए गए वही यहूदी इस्राईल की स्थापना के बाद अरब अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों की घोर अवहेलना करने लगे.कितने आश्चर्य का विषय है कि जर्मनी की यातना शिविरों की चीखों और आँसुओं से जन्मा यह देश स्वयं वर्तमान विश्व का मानवाधिकारों का सबसे बड़ा उल्लंघनकर्ता बन गया है.वैसे तो इस्राईल द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन के सैंकड़ों या उससे भी अधिक ऐसे मामले हैं जिनका जिक्र यहाँ किया जा सकता है परन्तु वर्तमान में जो वाकया सबसे ज्यादा चर्चा में है वो है पश्चिमी तट के अर्रबा निवासी खादर अदनान का.खादर अदनान अपने गृहनगर अर्रबा में बेकरी चलाता है.३३-३४ साल का है.उसे पहली बार १९९९ में इस्राईली सैनिकों ने गिरफ्तार किया था और तब से कुल मिलकर उसके साथ ऐसा नौ बार हो चुका है.अब तक उसे ६ सालों से भी ज्यादा जेलों में बिताने पड़े हैं.अंतिम बार १७ दिसंबर २०११ को अर्द्धरात्रि के बाद उसे उसके घर से उठा लिया गया.न तो कभी उसका गुनाह ही बताया गया और न ही जेल में कोई मानवोचित सुविधा ही दी गयी.अदनान ने जब पाया कि मौखिक विरोध का कोई असर दिख नहीं रहा तो बैठ गया आमरण अनशन पर जो २१ फरवरी तक यानि ६६ दिनों तक जारी रहा.अदनान की मांग थी कि इस्राईल उसे यातना देना और मारना-पीटना बंद करे.अदनान पर उसकी पिछली गिरफ्तारियों की ही तरह अब तक औपचारिक रूप से कोई आरोप नहीं लगाया गया है.उसे बस जुबानी शांति और व्यवस्था के लिए खतरा बताया गया है जिसका कोई मतलब नहीं है.खादर की यह भी मांग थी कि या तो उस पर मुकदमा चलाया जाए या फिर रिहा किया जाए.बाद में जब पूरे फिलिस्तीन में अदनान के समर्थन में सांकेतिक भूख हड़ताल और प्रदर्शन होने लगे तथा दूसरे अरब-मुस्लिम कैदी भी अनशन पर बैठ गए तब जाकर इस्राईल की नींद खुली और उसने उसकी प्रशासनिक हिरासत को लगातार दूसरा विस्तार नहीं देने की घोषणा कर दी.
मित्रों,मालूम हो कि इस्राईल में अभी तक संविधान की स्थापना नहीं हो पाई है और न्यायालय द्वारा समय-समय पर दी गए निर्णयों जिनको वे लोग बुनियादी कानून कहते हैं के आधार पर शासन चलाया जाता है.न तो वहां के नागरिकों को औपचारिक रूप से मौलिक अधिकार ही प्राप्त हैं और न ही मानव अधिकार ही क्योंकि संविधान है ही नहीं और संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार घोषणा को वहां का सर्वोच्च न्यायालय कई वर्ष पहले अवैध घोषित कर चुका है.सैन्यादेश १९५१ के तहत इस्राईल प्रशासन किसी को भी ६ महीने के लिए प्रशासनिक हिरासत के तहत जेल में कैद रख सकता है और इस हिरासत को अनिश्चित काल तक प्रत्येक ६ महीने पर बढ़ा भी सकता है.इस तरह इस्राईल दुनिया के उन कुछेक देशों में से है जहाँ यातना और मानवाधिकारों के उल्लंघन को वैधानिक मान्यता मिली हुई है.जिस देश में इस तरह की सैद्धांतिक कानूनी व्यवस्था हो वहां मानवाधिकारों की क्या व्यावहारिक स्थिति हो सकती है;सहज ही समझा जा सकता है.यह तथ्य भी किसी से छिपा हुआ नहीं है कि इस काले कानून का प्रयोग इस्राईल का प्रशासन केवल अल्पसंख्यक मुसलमानों के खिलाफ ही करता है.
मित्रों,वैसे तो भारत में भी बहुत-से ऐसे कैदी हैं जिनकी पूरी-की-पूरी उम्र ही विचाराधीन कैदी के रूप में निकल गयी लेकिन हमारे यहाँ ऐसा किसी खास धर्म या जाति के खिलाफ जानबूझकर नहीं किया जाता.खादर अदनान एक अकेला ऐसा अरब नहीं है जिसको ज़िन्दगी के कई अमूल्य सालों तक बेवजह बिना कोई कारण बताए इस्राईली जेलों में रखा गया.अभी भी सैंकड़ों निर्द्होश अरब इस्राईली जेलों में अमानुषिक यंत्रणाओं को झेलते हुए अपनी रिहाई का इन्तजार कर रहे हैं.ऐसा भी नहीं है कि दुनिया में या संयुक्त राष्ट्र संघ में इसके खिलाफ आवाज नहीं उठती लेकिन वो नक्कारखाने की तूती बनकर रह जाती है क्योंकि इस्राईल के खिलाफ किसी भी तरह के प्रस्ताव को अमेरिका वीटो लगाकर निष्प्रभावी बना देता है.न जाने क्यों उसे ईरान और ईराक में मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन तो दिखाई देता है लेकिन इस्राईल का जिक्र होते ही वो एकाएक बापू का बन्दर बन जाता है.समय साक्षी है कि एक समय इसी तरह की तुष्टिकरण की नीति पर इंग्लैंड उस जर्मन तानाशाह हिटलर के मामले में चल रहा था जिसका जिक्र मैंने इस आलेख के प्रारंभ में किया है और जिसका परिणाम था;जैसा कि आप सब भी जानते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध.समय अपने आपको दोहराता है और कितनी बेशर्मी से दोहराता है कि जो समुदाय एक समय यंत्रणाओं का सबसे बड़ा भोक्ता था आज सबसे बड़ा कर्ता बन बैठा है.
मित्रों,जब विरोध और सुधार के सारे मार्ग बंद हो जाते हैं तब बचता है गांधीवाद.खादर अदनान ने इसका बड़ी ही खूबसूरती से प्रयोग भी किया है और सारे उन अरबों को एक नई राह भी दिखा दी है कि कतिपय परिस्थितियों में सत्य और अहिंसा से ज्यादा प्रभावी पंथ कोई और नहीं होता.अरबों को चाहिए कि वे खून-खराबी बंद करें और सत्याग्रह की नीति का निष्ठापूर्वक अनुशरण करें.उन्हें अपनी लडाई खुद ही लड़नी होगी.अरब देशों के शासक अपने निहित स्वार्थों के चलते अमेरिका के हुक्म के गुलाम बन चुके हैं और उनकी कोई मदद नहीं करने वाले.वे अपने हित में उनका उपयोग करते आ रहे हैं और करते रहेंगे.जब गांधीवाद २०वीं शताब्दी में दुनियाभर पर शासन करनेवाले अंग्रेजों को झुका सकता है तो वर्तमान २१वीं सदी में अमेरिका और इस्राईल को क्यों नहीं?अगर उनका संकल्प दृढ रहा और विश्वास सच्चा रहा तो वह दिन दूर नहीं कि जर्मन यातना शिविरों में जन्म लेनेवाला देश इस्राईल बहुत जल्दी अपने क्षेत्राधिकार में चल रहे अगणित अघोषित यातना शिविरों (जेलों) को बंद करने के लिए बाध्य हो जाएगा.अंत में दुनियाभर के स्वतंत्रताप्रेमियों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि वे अपने-अपने देश में इस्राईल द्वारा मानवाधिकारों के धृष्टतापूर्ण उल्लंघन के विरुद्ध आवाज उठाएँ और अपनी-अपनी सरकारों पर दबाव बनाएँ जिससे कि वे इस्राईल पर वैश्विक मंचों के साथ-साथ कूटनीतिक वैकल्पिक मार्गों द्वारा भी दबाव बनाने को बाध्य हो जाएँ.
मित्रों,यह बेहद बिडम्बनापूर्ण और दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन यहूदियों पर द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान घोर अमानुषिक अत्याचार किए गए वही यहूदी इस्राईल की स्थापना के बाद अरब अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों की घोर अवहेलना करने लगे.कितने आश्चर्य का विषय है कि जर्मनी की यातना शिविरों की चीखों और आँसुओं से जन्मा यह देश स्वयं वर्तमान विश्व का मानवाधिकारों का सबसे बड़ा उल्लंघनकर्ता बन गया है.वैसे तो इस्राईल द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन के सैंकड़ों या उससे भी अधिक ऐसे मामले हैं जिनका जिक्र यहाँ किया जा सकता है परन्तु वर्तमान में जो वाकया सबसे ज्यादा चर्चा में है वो है पश्चिमी तट के अर्रबा निवासी खादर अदनान का.खादर अदनान अपने गृहनगर अर्रबा में बेकरी चलाता है.३३-३४ साल का है.उसे पहली बार १९९९ में इस्राईली सैनिकों ने गिरफ्तार किया था और तब से कुल मिलकर उसके साथ ऐसा नौ बार हो चुका है.अब तक उसे ६ सालों से भी ज्यादा जेलों में बिताने पड़े हैं.अंतिम बार १७ दिसंबर २०११ को अर्द्धरात्रि के बाद उसे उसके घर से उठा लिया गया.न तो कभी उसका गुनाह ही बताया गया और न ही जेल में कोई मानवोचित सुविधा ही दी गयी.अदनान ने जब पाया कि मौखिक विरोध का कोई असर दिख नहीं रहा तो बैठ गया आमरण अनशन पर जो २१ फरवरी तक यानि ६६ दिनों तक जारी रहा.अदनान की मांग थी कि इस्राईल उसे यातना देना और मारना-पीटना बंद करे.अदनान पर उसकी पिछली गिरफ्तारियों की ही तरह अब तक औपचारिक रूप से कोई आरोप नहीं लगाया गया है.उसे बस जुबानी शांति और व्यवस्था के लिए खतरा बताया गया है जिसका कोई मतलब नहीं है.खादर की यह भी मांग थी कि या तो उस पर मुकदमा चलाया जाए या फिर रिहा किया जाए.बाद में जब पूरे फिलिस्तीन में अदनान के समर्थन में सांकेतिक भूख हड़ताल और प्रदर्शन होने लगे तथा दूसरे अरब-मुस्लिम कैदी भी अनशन पर बैठ गए तब जाकर इस्राईल की नींद खुली और उसने उसकी प्रशासनिक हिरासत को लगातार दूसरा विस्तार नहीं देने की घोषणा कर दी.
मित्रों,मालूम हो कि इस्राईल में अभी तक संविधान की स्थापना नहीं हो पाई है और न्यायालय द्वारा समय-समय पर दी गए निर्णयों जिनको वे लोग बुनियादी कानून कहते हैं के आधार पर शासन चलाया जाता है.न तो वहां के नागरिकों को औपचारिक रूप से मौलिक अधिकार ही प्राप्त हैं और न ही मानव अधिकार ही क्योंकि संविधान है ही नहीं और संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार घोषणा को वहां का सर्वोच्च न्यायालय कई वर्ष पहले अवैध घोषित कर चुका है.सैन्यादेश १९५१ के तहत इस्राईल प्रशासन किसी को भी ६ महीने के लिए प्रशासनिक हिरासत के तहत जेल में कैद रख सकता है और इस हिरासत को अनिश्चित काल तक प्रत्येक ६ महीने पर बढ़ा भी सकता है.इस तरह इस्राईल दुनिया के उन कुछेक देशों में से है जहाँ यातना और मानवाधिकारों के उल्लंघन को वैधानिक मान्यता मिली हुई है.जिस देश में इस तरह की सैद्धांतिक कानूनी व्यवस्था हो वहां मानवाधिकारों की क्या व्यावहारिक स्थिति हो सकती है;सहज ही समझा जा सकता है.यह तथ्य भी किसी से छिपा हुआ नहीं है कि इस काले कानून का प्रयोग इस्राईल का प्रशासन केवल अल्पसंख्यक मुसलमानों के खिलाफ ही करता है.
मित्रों,वैसे तो भारत में भी बहुत-से ऐसे कैदी हैं जिनकी पूरी-की-पूरी उम्र ही विचाराधीन कैदी के रूप में निकल गयी लेकिन हमारे यहाँ ऐसा किसी खास धर्म या जाति के खिलाफ जानबूझकर नहीं किया जाता.खादर अदनान एक अकेला ऐसा अरब नहीं है जिसको ज़िन्दगी के कई अमूल्य सालों तक बेवजह बिना कोई कारण बताए इस्राईली जेलों में रखा गया.अभी भी सैंकड़ों निर्द्होश अरब इस्राईली जेलों में अमानुषिक यंत्रणाओं को झेलते हुए अपनी रिहाई का इन्तजार कर रहे हैं.ऐसा भी नहीं है कि दुनिया में या संयुक्त राष्ट्र संघ में इसके खिलाफ आवाज नहीं उठती लेकिन वो नक्कारखाने की तूती बनकर रह जाती है क्योंकि इस्राईल के खिलाफ किसी भी तरह के प्रस्ताव को अमेरिका वीटो लगाकर निष्प्रभावी बना देता है.न जाने क्यों उसे ईरान और ईराक में मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन तो दिखाई देता है लेकिन इस्राईल का जिक्र होते ही वो एकाएक बापू का बन्दर बन जाता है.समय साक्षी है कि एक समय इसी तरह की तुष्टिकरण की नीति पर इंग्लैंड उस जर्मन तानाशाह हिटलर के मामले में चल रहा था जिसका जिक्र मैंने इस आलेख के प्रारंभ में किया है और जिसका परिणाम था;जैसा कि आप सब भी जानते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध.समय अपने आपको दोहराता है और कितनी बेशर्मी से दोहराता है कि जो समुदाय एक समय यंत्रणाओं का सबसे बड़ा भोक्ता था आज सबसे बड़ा कर्ता बन बैठा है.
मित्रों,जब विरोध और सुधार के सारे मार्ग बंद हो जाते हैं तब बचता है गांधीवाद.खादर अदनान ने इसका बड़ी ही खूबसूरती से प्रयोग भी किया है और सारे उन अरबों को एक नई राह भी दिखा दी है कि कतिपय परिस्थितियों में सत्य और अहिंसा से ज्यादा प्रभावी पंथ कोई और नहीं होता.अरबों को चाहिए कि वे खून-खराबी बंद करें और सत्याग्रह की नीति का निष्ठापूर्वक अनुशरण करें.उन्हें अपनी लडाई खुद ही लड़नी होगी.अरब देशों के शासक अपने निहित स्वार्थों के चलते अमेरिका के हुक्म के गुलाम बन चुके हैं और उनकी कोई मदद नहीं करने वाले.वे अपने हित में उनका उपयोग करते आ रहे हैं और करते रहेंगे.जब गांधीवाद २०वीं शताब्दी में दुनियाभर पर शासन करनेवाले अंग्रेजों को झुका सकता है तो वर्तमान २१वीं सदी में अमेरिका और इस्राईल को क्यों नहीं?अगर उनका संकल्प दृढ रहा और विश्वास सच्चा रहा तो वह दिन दूर नहीं कि जर्मन यातना शिविरों में जन्म लेनेवाला देश इस्राईल बहुत जल्दी अपने क्षेत्राधिकार में चल रहे अगणित अघोषित यातना शिविरों (जेलों) को बंद करने के लिए बाध्य हो जाएगा.अंत में दुनियाभर के स्वतंत्रताप्रेमियों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि वे अपने-अपने देश में इस्राईल द्वारा मानवाधिकारों के धृष्टतापूर्ण उल्लंघन के विरुद्ध आवाज उठाएँ और अपनी-अपनी सरकारों पर दबाव बनाएँ जिससे कि वे इस्राईल पर वैश्विक मंचों के साथ-साथ कूटनीतिक वैकल्पिक मार्गों द्वारा भी दबाव बनाने को बाध्य हो जाएँ.