मित्रों, सरविन्द नाम था उनका। वे मेरे चचेरे साले थे। उम्र ४० के आसपास थी। मोटरसाइकिल चलाना उनका पैशन था। उन्होंने मोटरसाइकिल से ही अपने गाँव कुबतपुर जो महनार के पास है से कोलकाता तक का सफ़र तय किया था और वो भी एक बार नहीं बल्कि कई-कई बार। वो भी बेदाग़, बिना किसी दुर्घटना के। परन्तु २५ अप्रैल,२०१२ को जब वे अपने गाँव कुबतपुर से 15-२० किलोमीटर दूर पानापुर दिलावरपुर के लिए निकले तो फिर घर वापस नहीं लौट सके और पानापुर चौक पर ही भीषण दुर्घटना का शिकार हो गए। घर पर जब उनके घायल होने की सूचना पहुँची तो जैसे पूरे परिवार पर वज्रपात ही हो गया। वे सात-सात भाइयों वाले परिवार के मालिक थे और सबसे कमाऊ पूत भी। प्राथमिक उपचार के बाद प्रखंड अस्पताल,बिदुपुर द्वारा उन्हें पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल रेफर कर दिया गया। एम्बुलेंस में भी परिजनों के बीच विचार-विनिमय हुआ कि कहाँ भर्ती करवाना ठीक रहेगा-राजेश्वर नर्सिंग होम में अथवा पीएमसीएच में? उनके दोनों चचेरे भाई रोहित और राहुल उसे राजेश्वर नर्सिंग होम ले जाना चाह रहे थे लेकिन उनके सगे भाई-बहन ही इस प्रस्ताव पर चुप्पी साधे रहे, रहस्यमय चुप्पी। अंततः उन्हें पीएमसीएच के इमरजेंसी वार्ड में भर्ती करवा दिया गया। तब तक उनके सगे चाचा जय बहादुर सिंह जो बेऊर जेल पटना में डॉक्टर हैं भी पीएमसीएच आ चुके थे और आ चुके थे उनके पिताजी के फुफेरे भाई पूर्व पुलिस महानिरीक्षक रवीन्द्र कुमार सिंह भी। जोर-शोर से ईलाज चला लेकिन होनी के आगे किसकी चली है? उन्होंने किसी तरह रात काटी परन्तु अगला दिन नहीं कट सका। दोपहर में उन्हें जब अल्ट्रासाऊंड के लिए ले जाया जा रहा था भी उन्होंने बातें करते-करते ही दम तोड़ दिया। तब शायद अपराह्न के ३ बज रहे थे।
मित्रों, उसके बाद उनकी लाश के साथ जो कुछ भी किया गया वह मानवता को शर्मसार करनेवाला था। लाश को उठाकर पोस्टमार्टम कक्ष के बाहर फेंक दिया गया। तब तक ४ बज चुके थे और पोस्टमार्टम करनेवाला डॉक्टर चम्पत हो चुका था। तभी मुझे मेरी पत्नी विजेता जो इस समय मायके में है,ने फोन पर रोते हुए बताया कि अब सरविन्द भैया इस दुनिया में नहीं है। उसने मुझे एक नंबर दिया और कहा कि रौशन से बात कर लीजिए क्योंकि लाश को बाहर ही छोड़ दिया गया है। यह मेरे लिए दोहरा आघात था। मैं शोकमिश्रित क्रोध से भर गया। मैंने अपने एक मित्र मनोज को फोन मिलाया जो इन दिनों दैनिक जागरण,पटना का आउटपुट हेड है। उसने कुछ करने का आश्वासन दिया लेकिन शायद चाहकर भी कुछ कर नहीं सका। प्रेसवालों के साथ और खासकर डेस्कवालों के साथ अक्सर ऐसा होता है। रौशन का कहना था कि अगर पटना के जिलाधिकारी से पैरवी हो जाए तो पोस्टमार्टम इस समय भी हो सकता है परन्तु मैं तो यह भी नहीं जानता था कि उस समय पटना का डीएम था कौन। इस बीच मैंने स्वास्थ्य मंत्री श्री अश्विनी चौबे से उनके सरकारी मोबाईल पर संपर्क करने का प्रयास किया लेकिन उनका मोबाईल 'मुन्दहूँ आँख कतहूँ कछु नाहीं' की तर्ज पर बंद था। फिर उनके निवास-स्थान पर फोन मिलाया तब फोन उठानेवाले शख्स से पता चला मंत्रीजी अभी मुख्यमंत्री की सेवा-यात्रा में उनके साथ हैं लेकिन उनका फोन क्यों बंद था उसे पता नहीं था। शायद फोन चालू रखने से जनता की सेवा में बाधा आती होगी। मुझे मंत्री पर काफी गुस्सा आ रहा था कि जब मंत्री ही सरकारी फोन पर बात करना पसंद नहीं करेंगे तो फिर अधकारी क्यों अपने सरकारी नंबर को चालू रखें? तब तक मेरे सगे साले रौशन ने वहाँ उपस्थित दिनेश डोम को ५०० रू. घूस देकर लाश को भीतर फ्रीजर में रखने के लिए राजी कर लिया था। इस तरह सरविन्द भैया की लाश सड़ने और कुत्ते-बिल्लियों-चूहों का ग्रास बनने बच गई। मैंने उसे भी मनोज का मोबाईल नंबर दे दिया और सोने का प्रयास करने लगा लेकिन नींद का आँखों में नामोनिशान भी नहीं था। हालाँकि उनसे मेरा परिचय बहुत पुराना नहीं था। १० महीने पहले ही तो मेरी शादी हुई थी। उनकी पहली पत्नी कई साल पहले आत्महत्या कर चुकी थी। उनके दो बेटे थे जो अब युवावस्था की दहलीज पर दस्तक दे रहे थे। उन्होंने दो-तीन महीने पहले ही दूसरी शादी की थी जिसे हम गन्धर्व-विवाह की श्रेणी में रख सकते हैं। उनकी दूसरी पत्नी भी तब तक जमशेदपुर से कुबतपुर के लिए रवाना हो चुकी थी।
मित्रों,अभी सबकुछ जला देने को उद्धत नए दिन का सूरज ठीक से आसमान में दृष्टिगोचर भी नहीं हुआ था कि फिर से मेरा मोबाईल घनघना उठा। रौशन पीएमसीएच में आ चुका था और उसे दिनेश डोम ने बताया था कि पहले पुलिसिया कार्रवाई होगी फिर पोस्टमार्टम संभव हो सकेगा। पुलिस का नाम सुनते ही वह किसी भी आम बिहारी की तरह बुरी तरह से घबरा गया। चूँकि मनोज रातभर प्रेस में जगा रहता है इसलिए मैंने उसे फोन करना मुनासिब तो नहीं समझा फिर भी चूँकि और कोई उपाय था भी नहीं इसलिए उसे फोन करना ही पड़ा। उसकी बातों से मुझे कोई स्पष्टता या निश्चितता का पुट नहीं मिल पाया तब मैंने मामले को सीधे अपने हाथों में लेते हुए "आपरेशन पोस्टमार्टम" की शुरुआत की। आखिर मैं भी तो पत्रकार ही था। भले ही इन दिनों किसी अख़बार या चैनल की गुलामी में नहीं था लेकिन ब्लॉग की आजादी-भरी दुनिया का एक नामचीन हस्ताक्षर तो था ही। मेरे आलेख तब तक पूरे भारत के लगभग सभी हिंदी अख़बारों में प्रकाशित हो चुके थे और भारत के सबसे बड़े अख़बार दैनिक जागरण में तो दर्जनों बार। सबसे पहले मैंने रौशन से पीएमसीएच की दीवार पर उल्लिखित पीरबहोर थाना का नंबर लिया और नंबर मिलाया। मोबाइल किसी ने उठाया नहीं तब लैंडलाइन डायल किया। पहले तो जिस व्यक्ति ने फोन उठाया उसने टालने की भरसक कोशिश की परन्तु मेरी आक्रामकता के चलते टाल नहीं सका। उसने एपी यादव का नंबर दिया और बताया कि इनसे संपर्क किया जाए यही पीएमसीएच जाते हैं। साथ ही उसने पीएमसीएच के फोरेंसिक विभाग के प्रभारी डॉ. आरकेपी सिंह का भी नंबर दिया। मैंने बारी-बारी से दोनों महापुरुषों का नंबर मिलाया। यादव जी ने कहा कि डॉक्टर से काम शुरू करने के लिए कहिए बशर्ते वे आ गए हों;अगरचे वे ११ बजे से पहले तो आएँगे नहीं,हालाँकि उनकी ड्यूटी १० बजे ही शुरू हो जाती है। मैंने उनसे पूछा कि डॉक्टर की छोडिए आप कब तक अस्पताल पहुच रहे हैं? उन्होंने बड़े ही मीठे स्वर में बताया कि वैसे तो उनकी ड्यूटी भी १० बजे ही शुरू होती है लेकिन वे आज मेरी खातिर कुछ पहले ही आ जाएँगे।
मित्रों,दूसरे महानुभाव ने फोन नहीं उठाया। तब मैंने इंटरनेट से उस पीएमसीएच के निदेशक डॉ. ओपी चौधरी का नंबर निकाला जिसकी गिनती कभी भारत के सर्वश्रेष्ठ अस्पतालों में होती थी। उनसे जब डॉ. सिंह द्वारा फोन नहीं उठाने की शिकायत की तो उन्होंने यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया कि फोरेंसिक विभाग उनके अधिकार-क्षेत्र में नहीं आता। तब तक श्री यादव आकर सवा नौ बजे ही अपने कक्ष में विराज चुके थे। मैंने उनको पहले ही मृतक का नाम और पता लिखवा दिया था। मेरे साला रौशन फिर भी वर्दी से डर रहा था और इसलिए उसने मुझे एक बार फिर से यादवजी से बात करने को कहा। तब मैंने यादवजी से फोन पर पूछा कि अगर इजाजत हो तो अपने साले को भीतर भेज दूँ। वे बेचारे शायद पुलिस की नौकरी में अपवाद थे इसलिए बिना कोई पैसा लिए ही कागजी कार्रवाई पूरी कर दी। तब तक पोस्टमार्टम में होनेवाली देरी के लिए पुलिस को दोषी ठहरनेवाला दिनेश डोम चुप्पी लगा गया था। थाना पीरबहोर, यादव जी और डॉ. चौधरी तीनों ने मुझसे पूछा था कि क्या डोम आ गया है। उन्होंने यह भी बताया था कि उसका नाम योगेन्द्र है और वह सुल्तानगंज मजार पर रहता है। अभी तक हम दिनेश को ही पोस्टमार्टम का डोम समझ रहे थे जबकि वह इमरजेंसी वार्ड का डोम था। मैंने डॉ. सिंह को फिर से फोन लगाया। तब तक साढ़े दस बज चुके थे। इस बार उन्होंने फोन उठाया और मुझ पर ही फट पड़े। जनाब को शिकायत थी कि मैं उनको तंग कर रहा था। इसे ही तो कहते है कूदे बैल न कूदे तंगी। बदले में जब मैं भी डबल नाराज हो गया तो उन्होंने आश्वासन दिया कि वे ११ बजे अस्पताल जरूर पहुँच जाएँगे। उनका मानना था कि ११ बजे से ही उनकी ड्यूटी शुरू होती है। उन्होंने भी योगेन्द्र डोम के बारे में पूछा। सौभाग्यवश या दुर्भाग्यवश क्या कहूँ समझ में नहीं आता उस दिन डॉ. सिंह सिर्फ १५ मिनट ही लेट थे और तब तक योगेन्द्र डोम भी आ चुका था। लेकिन अब एक नई समस्या सिर पर थी। योगेन्द्र डोम लाश के पोस्टमार्टम में डॉक्टर की सहायता करने के ऐवज में २००० रू. की रिश्वत मांग रहा था। खैर, किसी तरह एक बार फिर बिना मुझे संज्ञान में लिए रौशन ने १५०० में मामला तय किया। मुझे नहीं पता की कि इस १५०० रू. में डॉ. सिंह की भी हिस्सेदारी थी या नहीं और अगर थी तो कितनी थी? रौशन ने पिछले २० घंटे से कुछ भी खाया-पीया नहीं था इसलिए पोस्टमार्टम होते ही १२ बजे वह घर के लिए रवाना हो गया।
मित्रों,यही कोई सात-आठ दिन के बाद फिर से रौशन का फोन आया कि पोस्टमार्टम की रिपोर्ट चाहिए,कहाँ से और कैसे मिलेगी? तब तक मैं ससुराल से मातमपुर्सी करके वापस आ गया था। पहले तो मैंने पीएमसीएच के अधीक्षक डॉ. चौधरी को फोन मिलाया लेकिन जब उन्होंने फोन नहीं उठाया तब डॉ. आरकेपी सिंह को फोन किया। शाम का समय था और डॉ. सिंह उस समय महावीर मंदिर में पूजा-अर्चना कर रहे थे। फिर भी उन्होंने फोन उठाया और जानकारी दी कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट पीरबहोर थाना से मिलेगा। जब मैंने पीरबहोर थाने में फोन लगाया तो टेलीफोन उठानेवाले महाशय ने बताया कि कल ११ बजे थाने में आकर मो.शमीम से मिल लीजिए। कल होकर जब रौशन शमीम जी से मिला तो उन्होंने उसे ८-१० दिन बाद आने के लिए कहा।
मित्रों, दस दिनों के बाद अचानक दोपहर ११ बजे रौशन का फोन आया कि चिंटू भैया चिलचिलाती धूप में पीरबहोर थाना के गेट पर खड़े हैं और दरबान उन्हें भीतर नहीं जाने दे रहा। मैंने उससे चिंटू भैया का नंबर लिया और उसे खुद थाने पर जाने के लिए कहा। तब तक मैंने चिंटू भैया जो मृतक सरविन्द भैया के छोटे भाई हैं को फोन लगाया और उन्हें दरबान को फोन देने के लिए और उससे उसका नाम पूछने के लिए कहा। दरबार ने फोन लिया ही नहीं और उन्हें भीतर जाने की अनुमति दे दी। तब तक रौशन भी थाना में पहुँच चुका था। रजिस्टर देखकर शमीम ने बताया कि रिपोर्ट आ गयी है लेकिन उससे उसने ३०० रू. की रिश्वत भी मांगी और कहा कि अगर वे लोग ३०० रू. दे देते हैं तो उन्हें पोस्टमार्टम रिपोर्ट का फोटोस्टेट करवाने की अनुमति दे दी जाएगी। मूल प्रमाण-पत्र लेना है तो विधवा द्वारा आवेदन लिखवा कर लाईए और साथ में देसरी थाना के स्टाफ को भी लेकर आईए। मेरे सालों ने जब रिश्वत मांगे जाने का विरोध किया तब दर कम कर दी गयी और १५० रू. यह कहकर माँगा गया कि इससे कम में तो काम नहीं होगा। परन्तु वे लोग तैयार नहीं हुए और मुझे फोन किया। मैंने फिर थाने के नंबर पर फोन किया और फोन उठानेवाले से रिश्वत मांगने पर अपनी नाराज़गी जताई। फिर तो उन वक़्त के मारों को प्रॉपर चैनल से आने के लिए कहा गया। बाद में कथित प्रॉपर चैनल से जाकर उन्होंने पीरबहोर थाने से पोस्टमार्टम प्रमाण-पत्र और बिहार के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल पीएमसीएच से मृत्यु प्रमाण-पत्र प्राप्त कर लिया।
मित्रों,इस प्रकार यहाँ पर आकर यह पोस्टमार्टम-कथा समाप्त हुई लेकिन इस पूरे घटनाक्रम ने मेरे जमीर को हिला कर रख दिया है। हमारा तंत्र कितना संवेदनहीन हो गया है? आज तक अगर मानवता ने विकास की अनगिनत सीढियों को पार किया है तो सिर्फ इसलिए कि मानव मानव के काम आता रहा है। लेकिन आज हालत क्या हैं? आज मानव मानव का ही खून चूस रहा है। पुलिस से लेकर स्वास्थ्यकर्मी तक सभी मृतक के अर्द्धमृत परिजन को लूटने में लगे हैं। आदमी जब तक जीवित रहता है तब तक तो उसका भ्रष्टाचार से रोजाना साबका पड़ता ही है मरने के बाद भी यह मुआ भ्रष्टाचार उसका पीछा नहीं छोड़ता। जब राजधानी पटना के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल और राजधानी के ही एक पुलिस स्टेशन में इस तरह खुलेआम रिश्वत का खेल चल रहा है तो बाँकी बिहार की स्थिति का तो महज अनुमान ही लगाया जा सकता है। इस पूरे घटनाक्रम में सबसे बड़ी बात तो यह रही कि मेरे यानि एक मीडियाकर्मी के हस्तक्षेप करने के बाद भी घूस मांगी गयी और दुस्साहसपूर्वक ली भी गयी। इस स्थिति में फँसे आम आदमी की क्या हालत होती होगी इसके बारे में उनको भी बेहतर पता होगा जिनको इस स्थिति से गुजरना पड़ा है। फर्ज कीजिए कि अगर दिवंगत काफी गरीब पृष्ठभूमि से है माधव और घिस्सू की तरह तो फिर उसका क्या होता होगा?क्या उसकी लाश को यूं ही सड़ने के लिए छोड़ नहीं दिया जाता होगा और फिर पोस्टमार्टम में अनावश्यक देरी नहीं की जाती होगी? शायद इसलिए भी लोग कई बार लाश लेने ही नहीं जाते होंगे या फिर लाश को लावारिश छोड़कर अस्पताल से फरार हो जाते होंगे?यूँ तो नीतीश सरकार में मुख्यमंत्री को छोड़कर (न जाने क्यों मुख्यमंत्री ने अपना मोबाइल नंबर जनता को नहीं दिया है?) सभी मंत्रियों को सरकारी मोबाइल नंबर दिया गया है लेकिन जब वह नंबर बंद रहे तो जनता कहाँ जाए और क्या करे? फिर मृतक के परिजन जब अस्पतालों में तोड़-फोड़ पर उतारू हो जाते हैं तो डॉक्टर ही हड़ताल पर चले जाते हैं। बिहार में आज ही डॉक्टरों की ऐसी ही एक हड़ताल समाप्त हुई है। हालाँकि ऐसा होना नहीं चाहिए लेकिन ऐसा होता रहता है और आगे भी शायद होता रहेगा। पुलिसवालों को क्या कहा जाए? ये बेचारे तो लोकमान्य तिलक से भी एक कदम आगे के क्रान्तिकारी हैं। तिलक स्वतंत्रता को जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे और ये लोग रिश्वत लेने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। वर्दी न हुई रिश्वत लेने का अधिकार-पत्र हो गया। दारोगा यानि दो रोकर या फिर गाकर मगर दो जरूर। इनके हाथों में लाठी भी है और बंदूक भी और किसी को भी बेवजह अन्दर कर देने का विशेषाधिकार तो इनके पास है ही। सरकार चाहे जितने भी सपने देख ले ये लोग पीपुल्स फ्रेंडली बन ही नहीं सकते। ये लोग तो राक्षसों से भी गए-गुजरे हैं। पाँच साल पहले इसी पुलिस ने वैशाली जिले के राजापाकर थाने के ढेलफोड़वा कांड में मृतक १० अभागों की लाशों को गंगा में बिना जलाए ही बहा दिया था और अंत्येष्टि-राशि हजम कर गयी थी। तब से आज तक उसी गंगा में न जाने कितना पानी बह चुका है लेकिन इस पुलिस का चाल और चरित्र नहीं बदला। यह तब भी रक्तपायी थी और आज भी रक्तपायी है। वास्तव में सिर्फ पुलिस या स्वास्थ्य-विभाग ही नहीं बल्कि हमारा पूरा का पूरा तंत्र ही रक्तपायी है और लगातार जनता का खून चूस रहा है। जब तक व्यवस्था नहीं बदलती हमारा यह तंत्र इसी तरह निर्ममतापूर्वक हमारा रुधिर पीता रहेगा और हम न चाहते हुए भी उसे अपना खून पिलाते रहेंगे। अंत में मैं आप मित्रों के लिए भगवान से प्रार्थना करूंगा कि आपके घर में कभी किसी की अकालमृत्यु नहीं हो और आपको कभी पोस्टमार्टम के झमेले से नहीं गुजरना पड़े। बिहार में तो हरगिज नहीं।
मित्रों, उसके बाद उनकी लाश के साथ जो कुछ भी किया गया वह मानवता को शर्मसार करनेवाला था। लाश को उठाकर पोस्टमार्टम कक्ष के बाहर फेंक दिया गया। तब तक ४ बज चुके थे और पोस्टमार्टम करनेवाला डॉक्टर चम्पत हो चुका था। तभी मुझे मेरी पत्नी विजेता जो इस समय मायके में है,ने फोन पर रोते हुए बताया कि अब सरविन्द भैया इस दुनिया में नहीं है। उसने मुझे एक नंबर दिया और कहा कि रौशन से बात कर लीजिए क्योंकि लाश को बाहर ही छोड़ दिया गया है। यह मेरे लिए दोहरा आघात था। मैं शोकमिश्रित क्रोध से भर गया। मैंने अपने एक मित्र मनोज को फोन मिलाया जो इन दिनों दैनिक जागरण,पटना का आउटपुट हेड है। उसने कुछ करने का आश्वासन दिया लेकिन शायद चाहकर भी कुछ कर नहीं सका। प्रेसवालों के साथ और खासकर डेस्कवालों के साथ अक्सर ऐसा होता है। रौशन का कहना था कि अगर पटना के जिलाधिकारी से पैरवी हो जाए तो पोस्टमार्टम इस समय भी हो सकता है परन्तु मैं तो यह भी नहीं जानता था कि उस समय पटना का डीएम था कौन। इस बीच मैंने स्वास्थ्य मंत्री श्री अश्विनी चौबे से उनके सरकारी मोबाईल पर संपर्क करने का प्रयास किया लेकिन उनका मोबाईल 'मुन्दहूँ आँख कतहूँ कछु नाहीं' की तर्ज पर बंद था। फिर उनके निवास-स्थान पर फोन मिलाया तब फोन उठानेवाले शख्स से पता चला मंत्रीजी अभी मुख्यमंत्री की सेवा-यात्रा में उनके साथ हैं लेकिन उनका फोन क्यों बंद था उसे पता नहीं था। शायद फोन चालू रखने से जनता की सेवा में बाधा आती होगी। मुझे मंत्री पर काफी गुस्सा आ रहा था कि जब मंत्री ही सरकारी फोन पर बात करना पसंद नहीं करेंगे तो फिर अधकारी क्यों अपने सरकारी नंबर को चालू रखें? तब तक मेरे सगे साले रौशन ने वहाँ उपस्थित दिनेश डोम को ५०० रू. घूस देकर लाश को भीतर फ्रीजर में रखने के लिए राजी कर लिया था। इस तरह सरविन्द भैया की लाश सड़ने और कुत्ते-बिल्लियों-चूहों का ग्रास बनने बच गई। मैंने उसे भी मनोज का मोबाईल नंबर दे दिया और सोने का प्रयास करने लगा लेकिन नींद का आँखों में नामोनिशान भी नहीं था। हालाँकि उनसे मेरा परिचय बहुत पुराना नहीं था। १० महीने पहले ही तो मेरी शादी हुई थी। उनकी पहली पत्नी कई साल पहले आत्महत्या कर चुकी थी। उनके दो बेटे थे जो अब युवावस्था की दहलीज पर दस्तक दे रहे थे। उन्होंने दो-तीन महीने पहले ही दूसरी शादी की थी जिसे हम गन्धर्व-विवाह की श्रेणी में रख सकते हैं। उनकी दूसरी पत्नी भी तब तक जमशेदपुर से कुबतपुर के लिए रवाना हो चुकी थी।
मित्रों,अभी सबकुछ जला देने को उद्धत नए दिन का सूरज ठीक से आसमान में दृष्टिगोचर भी नहीं हुआ था कि फिर से मेरा मोबाईल घनघना उठा। रौशन पीएमसीएच में आ चुका था और उसे दिनेश डोम ने बताया था कि पहले पुलिसिया कार्रवाई होगी फिर पोस्टमार्टम संभव हो सकेगा। पुलिस का नाम सुनते ही वह किसी भी आम बिहारी की तरह बुरी तरह से घबरा गया। चूँकि मनोज रातभर प्रेस में जगा रहता है इसलिए मैंने उसे फोन करना मुनासिब तो नहीं समझा फिर भी चूँकि और कोई उपाय था भी नहीं इसलिए उसे फोन करना ही पड़ा। उसकी बातों से मुझे कोई स्पष्टता या निश्चितता का पुट नहीं मिल पाया तब मैंने मामले को सीधे अपने हाथों में लेते हुए "आपरेशन पोस्टमार्टम" की शुरुआत की। आखिर मैं भी तो पत्रकार ही था। भले ही इन दिनों किसी अख़बार या चैनल की गुलामी में नहीं था लेकिन ब्लॉग की आजादी-भरी दुनिया का एक नामचीन हस्ताक्षर तो था ही। मेरे आलेख तब तक पूरे भारत के लगभग सभी हिंदी अख़बारों में प्रकाशित हो चुके थे और भारत के सबसे बड़े अख़बार दैनिक जागरण में तो दर्जनों बार। सबसे पहले मैंने रौशन से पीएमसीएच की दीवार पर उल्लिखित पीरबहोर थाना का नंबर लिया और नंबर मिलाया। मोबाइल किसी ने उठाया नहीं तब लैंडलाइन डायल किया। पहले तो जिस व्यक्ति ने फोन उठाया उसने टालने की भरसक कोशिश की परन्तु मेरी आक्रामकता के चलते टाल नहीं सका। उसने एपी यादव का नंबर दिया और बताया कि इनसे संपर्क किया जाए यही पीएमसीएच जाते हैं। साथ ही उसने पीएमसीएच के फोरेंसिक विभाग के प्रभारी डॉ. आरकेपी सिंह का भी नंबर दिया। मैंने बारी-बारी से दोनों महापुरुषों का नंबर मिलाया। यादव जी ने कहा कि डॉक्टर से काम शुरू करने के लिए कहिए बशर्ते वे आ गए हों;अगरचे वे ११ बजे से पहले तो आएँगे नहीं,हालाँकि उनकी ड्यूटी १० बजे ही शुरू हो जाती है। मैंने उनसे पूछा कि डॉक्टर की छोडिए आप कब तक अस्पताल पहुच रहे हैं? उन्होंने बड़े ही मीठे स्वर में बताया कि वैसे तो उनकी ड्यूटी भी १० बजे ही शुरू होती है लेकिन वे आज मेरी खातिर कुछ पहले ही आ जाएँगे।
मित्रों,दूसरे महानुभाव ने फोन नहीं उठाया। तब मैंने इंटरनेट से उस पीएमसीएच के निदेशक डॉ. ओपी चौधरी का नंबर निकाला जिसकी गिनती कभी भारत के सर्वश्रेष्ठ अस्पतालों में होती थी। उनसे जब डॉ. सिंह द्वारा फोन नहीं उठाने की शिकायत की तो उन्होंने यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया कि फोरेंसिक विभाग उनके अधिकार-क्षेत्र में नहीं आता। तब तक श्री यादव आकर सवा नौ बजे ही अपने कक्ष में विराज चुके थे। मैंने उनको पहले ही मृतक का नाम और पता लिखवा दिया था। मेरे साला रौशन फिर भी वर्दी से डर रहा था और इसलिए उसने मुझे एक बार फिर से यादवजी से बात करने को कहा। तब मैंने यादवजी से फोन पर पूछा कि अगर इजाजत हो तो अपने साले को भीतर भेज दूँ। वे बेचारे शायद पुलिस की नौकरी में अपवाद थे इसलिए बिना कोई पैसा लिए ही कागजी कार्रवाई पूरी कर दी। तब तक पोस्टमार्टम में होनेवाली देरी के लिए पुलिस को दोषी ठहरनेवाला दिनेश डोम चुप्पी लगा गया था। थाना पीरबहोर, यादव जी और डॉ. चौधरी तीनों ने मुझसे पूछा था कि क्या डोम आ गया है। उन्होंने यह भी बताया था कि उसका नाम योगेन्द्र है और वह सुल्तानगंज मजार पर रहता है। अभी तक हम दिनेश को ही पोस्टमार्टम का डोम समझ रहे थे जबकि वह इमरजेंसी वार्ड का डोम था। मैंने डॉ. सिंह को फिर से फोन लगाया। तब तक साढ़े दस बज चुके थे। इस बार उन्होंने फोन उठाया और मुझ पर ही फट पड़े। जनाब को शिकायत थी कि मैं उनको तंग कर रहा था। इसे ही तो कहते है कूदे बैल न कूदे तंगी। बदले में जब मैं भी डबल नाराज हो गया तो उन्होंने आश्वासन दिया कि वे ११ बजे अस्पताल जरूर पहुँच जाएँगे। उनका मानना था कि ११ बजे से ही उनकी ड्यूटी शुरू होती है। उन्होंने भी योगेन्द्र डोम के बारे में पूछा। सौभाग्यवश या दुर्भाग्यवश क्या कहूँ समझ में नहीं आता उस दिन डॉ. सिंह सिर्फ १५ मिनट ही लेट थे और तब तक योगेन्द्र डोम भी आ चुका था। लेकिन अब एक नई समस्या सिर पर थी। योगेन्द्र डोम लाश के पोस्टमार्टम में डॉक्टर की सहायता करने के ऐवज में २००० रू. की रिश्वत मांग रहा था। खैर, किसी तरह एक बार फिर बिना मुझे संज्ञान में लिए रौशन ने १५०० में मामला तय किया। मुझे नहीं पता की कि इस १५०० रू. में डॉ. सिंह की भी हिस्सेदारी थी या नहीं और अगर थी तो कितनी थी? रौशन ने पिछले २० घंटे से कुछ भी खाया-पीया नहीं था इसलिए पोस्टमार्टम होते ही १२ बजे वह घर के लिए रवाना हो गया।
मित्रों,यही कोई सात-आठ दिन के बाद फिर से रौशन का फोन आया कि पोस्टमार्टम की रिपोर्ट चाहिए,कहाँ से और कैसे मिलेगी? तब तक मैं ससुराल से मातमपुर्सी करके वापस आ गया था। पहले तो मैंने पीएमसीएच के अधीक्षक डॉ. चौधरी को फोन मिलाया लेकिन जब उन्होंने फोन नहीं उठाया तब डॉ. आरकेपी सिंह को फोन किया। शाम का समय था और डॉ. सिंह उस समय महावीर मंदिर में पूजा-अर्चना कर रहे थे। फिर भी उन्होंने फोन उठाया और जानकारी दी कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट पीरबहोर थाना से मिलेगा। जब मैंने पीरबहोर थाने में फोन लगाया तो टेलीफोन उठानेवाले महाशय ने बताया कि कल ११ बजे थाने में आकर मो.शमीम से मिल लीजिए। कल होकर जब रौशन शमीम जी से मिला तो उन्होंने उसे ८-१० दिन बाद आने के लिए कहा।
मित्रों, दस दिनों के बाद अचानक दोपहर ११ बजे रौशन का फोन आया कि चिंटू भैया चिलचिलाती धूप में पीरबहोर थाना के गेट पर खड़े हैं और दरबान उन्हें भीतर नहीं जाने दे रहा। मैंने उससे चिंटू भैया का नंबर लिया और उसे खुद थाने पर जाने के लिए कहा। तब तक मैंने चिंटू भैया जो मृतक सरविन्द भैया के छोटे भाई हैं को फोन लगाया और उन्हें दरबान को फोन देने के लिए और उससे उसका नाम पूछने के लिए कहा। दरबार ने फोन लिया ही नहीं और उन्हें भीतर जाने की अनुमति दे दी। तब तक रौशन भी थाना में पहुँच चुका था। रजिस्टर देखकर शमीम ने बताया कि रिपोर्ट आ गयी है लेकिन उससे उसने ३०० रू. की रिश्वत भी मांगी और कहा कि अगर वे लोग ३०० रू. दे देते हैं तो उन्हें पोस्टमार्टम रिपोर्ट का फोटोस्टेट करवाने की अनुमति दे दी जाएगी। मूल प्रमाण-पत्र लेना है तो विधवा द्वारा आवेदन लिखवा कर लाईए और साथ में देसरी थाना के स्टाफ को भी लेकर आईए। मेरे सालों ने जब रिश्वत मांगे जाने का विरोध किया तब दर कम कर दी गयी और १५० रू. यह कहकर माँगा गया कि इससे कम में तो काम नहीं होगा। परन्तु वे लोग तैयार नहीं हुए और मुझे फोन किया। मैंने फिर थाने के नंबर पर फोन किया और फोन उठानेवाले से रिश्वत मांगने पर अपनी नाराज़गी जताई। फिर तो उन वक़्त के मारों को प्रॉपर चैनल से आने के लिए कहा गया। बाद में कथित प्रॉपर चैनल से जाकर उन्होंने पीरबहोर थाने से पोस्टमार्टम प्रमाण-पत्र और बिहार के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल पीएमसीएच से मृत्यु प्रमाण-पत्र प्राप्त कर लिया।
मित्रों,इस प्रकार यहाँ पर आकर यह पोस्टमार्टम-कथा समाप्त हुई लेकिन इस पूरे घटनाक्रम ने मेरे जमीर को हिला कर रख दिया है। हमारा तंत्र कितना संवेदनहीन हो गया है? आज तक अगर मानवता ने विकास की अनगिनत सीढियों को पार किया है तो सिर्फ इसलिए कि मानव मानव के काम आता रहा है। लेकिन आज हालत क्या हैं? आज मानव मानव का ही खून चूस रहा है। पुलिस से लेकर स्वास्थ्यकर्मी तक सभी मृतक के अर्द्धमृत परिजन को लूटने में लगे हैं। आदमी जब तक जीवित रहता है तब तक तो उसका भ्रष्टाचार से रोजाना साबका पड़ता ही है मरने के बाद भी यह मुआ भ्रष्टाचार उसका पीछा नहीं छोड़ता। जब राजधानी पटना के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल और राजधानी के ही एक पुलिस स्टेशन में इस तरह खुलेआम रिश्वत का खेल चल रहा है तो बाँकी बिहार की स्थिति का तो महज अनुमान ही लगाया जा सकता है। इस पूरे घटनाक्रम में सबसे बड़ी बात तो यह रही कि मेरे यानि एक मीडियाकर्मी के हस्तक्षेप करने के बाद भी घूस मांगी गयी और दुस्साहसपूर्वक ली भी गयी। इस स्थिति में फँसे आम आदमी की क्या हालत होती होगी इसके बारे में उनको भी बेहतर पता होगा जिनको इस स्थिति से गुजरना पड़ा है। फर्ज कीजिए कि अगर दिवंगत काफी गरीब पृष्ठभूमि से है माधव और घिस्सू की तरह तो फिर उसका क्या होता होगा?क्या उसकी लाश को यूं ही सड़ने के लिए छोड़ नहीं दिया जाता होगा और फिर पोस्टमार्टम में अनावश्यक देरी नहीं की जाती होगी? शायद इसलिए भी लोग कई बार लाश लेने ही नहीं जाते होंगे या फिर लाश को लावारिश छोड़कर अस्पताल से फरार हो जाते होंगे?यूँ तो नीतीश सरकार में मुख्यमंत्री को छोड़कर (न जाने क्यों मुख्यमंत्री ने अपना मोबाइल नंबर जनता को नहीं दिया है?) सभी मंत्रियों को सरकारी मोबाइल नंबर दिया गया है लेकिन जब वह नंबर बंद रहे तो जनता कहाँ जाए और क्या करे? फिर मृतक के परिजन जब अस्पतालों में तोड़-फोड़ पर उतारू हो जाते हैं तो डॉक्टर ही हड़ताल पर चले जाते हैं। बिहार में आज ही डॉक्टरों की ऐसी ही एक हड़ताल समाप्त हुई है। हालाँकि ऐसा होना नहीं चाहिए लेकिन ऐसा होता रहता है और आगे भी शायद होता रहेगा। पुलिसवालों को क्या कहा जाए? ये बेचारे तो लोकमान्य तिलक से भी एक कदम आगे के क्रान्तिकारी हैं। तिलक स्वतंत्रता को जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे और ये लोग रिश्वत लेने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। वर्दी न हुई रिश्वत लेने का अधिकार-पत्र हो गया। दारोगा यानि दो रोकर या फिर गाकर मगर दो जरूर। इनके हाथों में लाठी भी है और बंदूक भी और किसी को भी बेवजह अन्दर कर देने का विशेषाधिकार तो इनके पास है ही। सरकार चाहे जितने भी सपने देख ले ये लोग पीपुल्स फ्रेंडली बन ही नहीं सकते। ये लोग तो राक्षसों से भी गए-गुजरे हैं। पाँच साल पहले इसी पुलिस ने वैशाली जिले के राजापाकर थाने के ढेलफोड़वा कांड में मृतक १० अभागों की लाशों को गंगा में बिना जलाए ही बहा दिया था और अंत्येष्टि-राशि हजम कर गयी थी। तब से आज तक उसी गंगा में न जाने कितना पानी बह चुका है लेकिन इस पुलिस का चाल और चरित्र नहीं बदला। यह तब भी रक्तपायी थी और आज भी रक्तपायी है। वास्तव में सिर्फ पुलिस या स्वास्थ्य-विभाग ही नहीं बल्कि हमारा पूरा का पूरा तंत्र ही रक्तपायी है और लगातार जनता का खून चूस रहा है। जब तक व्यवस्था नहीं बदलती हमारा यह तंत्र इसी तरह निर्ममतापूर्वक हमारा रुधिर पीता रहेगा और हम न चाहते हुए भी उसे अपना खून पिलाते रहेंगे। अंत में मैं आप मित्रों के लिए भगवान से प्रार्थना करूंगा कि आपके घर में कभी किसी की अकालमृत्यु नहीं हो और आपको कभी पोस्टमार्टम के झमेले से नहीं गुजरना पड़े। बिहार में तो हरगिज नहीं।