मित्रों,जब भारत के संविधान का निर्माण हो रहा था तब संविधान-निर्माताओं के समक्ष भी यह प्रश्न उठा था कि नवोदित राष्ट्र भारत के लिए कौन-सी शासन-प्रणाली अच्छी रहेगी। काफी विचार-विमर्श के बाद स्थायित्व पर उत्तरदायित्व को वरीयता दी गई और इंग्लैंड की तर्ज पर संसदीय शासन-प्रणाली को स्वीकार कर लिया गया। हमारे संविधान-निर्माता तपःपूत थे और स्वतंत्रता-आंदोलन की देन थे इसलिए उन्होंने सोंचा कि उनके उत्तराधिकारी/वंशज भी उनकी ही तरह नेक विचारों वाले होंगे और यहीं पर वे वह गलती कर गए जिसका खामियाजा आज पूरे भारतवर्ष को भुगतना पड़ रहा है।
मित्रों,आज की तारीख में खासकर छोटे-छोटे राज्यों में सरकारों का स्थायित्व इतनी बड़ी समस्या बन गई है कि झारखंड जैसे खनिज-संपदा से धनी राज्य का विकास भी अवरूद्ध पड़ गया है। आज राज्यों और केंद्र में भी अवसरवादी और अपवित्र गठबंधन किए जा रहे हैं जिससे राज्यों और देश को लाभ के स्थान पर सिर्फ घाटा होता है। तेजी से राजनीति का स्थानीयकरण और भूमिपुत्रकरण हो रहा है। प्रदेशों में छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों का तेजी से उभार हो रहा है और राष्ट्रीय दलों का वोट-बैंक उतनी ही तेजी से छिज रहा है। जितने जिले उतने दल। आज केंद्र में कई-कई दर्जन दल मिलकर सरकार बनाने लायक बहुमत जुटा पा रहे हैं जो किसी भी तरह भारतीय लोकतंत्र और भारत के हित में नहीं है। प्रत्येक चुनाव के बाद सांसदों,विधायकों,जिला पार्षदों और नगर पार्षदों की खरीद-बिक्री शुरू हो जाती है। लाखों-करोड़ों खर्च कर पहले तो उम्मीदवार चुनाव जीतता है और फिर जनता को धोखा देते हुए खुद को लाखों-करोड़ों में बेच देता है। अगर यह केंद्र सरकार के स्थायित्व की समस्या नहीं होती तो शायद ए.राजा जैसे विश्व-रिकार्डधारी घोटालेबाज भी पैदा नहीं हुए होते। चूँकि चुनाव लड़ना काफी खर्चीला हो चुका है और चुनावों के बाद भी जनप्रतिनिधियों को बिना खरीदे सरकार बनाना लगभग असंभव होता है इसलिए प्रत्येक दल को अपना-अपना धनपति रखना पड़ता है। परिणामस्वरूप जनप्रतिनिधियों को चुननेवाली आम जनता दिन-प्रतिदिन हाशिए पर चलती चली जा रही है और सरकारों को पैसे के रिमोट से चला रहे है पूँजीपति।
मित्रों,आज हमारी केंद्र सरकार अपने अस्तित्व और स्थायित्व को लेकर इतनी परेशान या आश्वस्त (?) है कि वह आम जनता को ही भूलती जा रही है और भूलती जा रही है देशहित को और लगातार जनविरोधी और देशविरोधी कदम उठाती जा रही है। उसे पता है कि तिकड़म के बल पर वह हर बार सरकार को बचा लेगी और बहुमत का जुगाड़ कर ही लेगी फिर जनता या देश जाए तेल बेचने तो जाए। आज देश की जनता के समक्ष सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह सीधे-सीधे प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को नहीं चुनती है। वह चुनती है विधायक या सांसद को और हमारे विधायक या सांसद या छोटे क्षेत्रीय दल हैं कि आसानी से पैसों या पद के लालच में आकर बिक जा रहे हैं। आज विधायिका कानून बनाने का मंच रह नहीं गई है,वह बनकर रह गई है जनप्रतिनिधियों के खरीद-फरोख्त का मछली-बाजार। आज वहाँ कानून नहीं बनते सिर्फ सरकारें बनाई और बचाई जाती हैं जो बहुत ही दुःखद स्थिति है। आम-जनता के दुःख-दारिद्रय की,भ्रष्टाचार की,न्याय में देरी की,भारत की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा की चिंता आज न तो हमारे जनप्रतिनिधियों को ही है और न इसके परिणामस्वरूप हमारी सरकारों को ही।
मित्रों,भारतीय लोकतंत्र के स्तर में नित आ रही गिरावट को रोकने का मेरी समझ से बस एक ही उपाय शेष रह गया है कि भारत में संसदीय शासन-प्रणाली का अविलंब परित्याग कर अध्यक्षीय शासन-प्रणाली का वरण किया जाए। राष्ट्रपति का चुनाव अमेरिका की तरह सीधे जनता करे और चुनाव के दूसरे चरण में फ्रांस की तरह पहले चरण में सर्वाधिक मत पाने वाले सिर्फ दो उम्मीदवार ही मैदान में रहें और उनमें से जिसको भी 50% से ज्यादा मतदाताओं के मत प्राप्त हों उसे विजयी घोषित किया जाए। अमेरिका की तरह यह जरूरी नहीं कि राष्ट्रपति के बदलते ही बहुत-सारे सरकारी अधिकारियों को भी बदल दिया जाए। राष्ट्रपति संसद के प्रति जिम्मेदार नहीं हो मगर संसद को उसको महाभियोग द्वारा हटाने का अधिकार जरूर प्राप्त हो। इसी तर्ज पर राज्यों में राज्यपालों को सीधे जनता द्वारा चुना जाना चाहिए और उसको भी विधानसभा के प्रति जिम्मेदारी से मुक्त रखना चाहिए मगर विधानसभा को जरूर उसको हटाने का अधिकार दिया जाना चाहिए।
मित्रों,वास्तव में हमारे द्वारा चुने गए हमारे प्रतिनिधि इस लायक रह ही नहीं गए हैं कि हम अपना भविष्य आँख मूंदकर उनके हाथों में सौंप दें। अध्यक्षीय शासन-प्रणाली में अगर राष्ट्रपति या राज्यपाल गलत करेगा तो जनता उसको सीधे-सीधे ही नकार देगी और इस प्रकार शासक और शासित के बीच बिचौलियों (सांसदों व विधायकों) की भूमिका भी स्वतः काफी कम हो जाएगी। दो मिनट के लिए कल्पनाभर करके तो देखिए कि एक तरफ राहुल गाँधी हों और दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी या अरविन्द केजरीवाल और इनमें से किसी एक को पूरे भारत की जनता सीधे-सीधे वोट देकर चुने तो क्या समाँ बंधेगा? कहना न होगा कि उस स्थिति में राहुल गांधी या कोई भी युवराज इस तरह देश के ज्वलंत मुद्दों पर चुप्पी साधे नहीं रह सकता उसको अपनी भावी योजनाओं से देश की जनता को अवगत करवाना ही पड़ता अन्यथा देश की जनता उसे सीधे-सीधे नकार देती। इसमें कोई संदेह की गुंजाईश ही नहीं है कि भारत में जनप्रतिनिधियों द्वारा प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री चुनने की व्यवस्था पूरी तरह से असफल सिद्ध हो चुकी है इसलिए इसके स्थान पर जनता को सीधे अपना राष्ट्रपति/राज्यपाल चुनने का अधिकार देना ही पड़ेगा और प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के पदों को समाप्त करना ही पड़ेगा तभी भारत में लोक का विश्वास बचेगा,तंत्र में सुधार आएगा और लोकतंत्र बचेगा।
मित्रों,आज की तारीख में खासकर छोटे-छोटे राज्यों में सरकारों का स्थायित्व इतनी बड़ी समस्या बन गई है कि झारखंड जैसे खनिज-संपदा से धनी राज्य का विकास भी अवरूद्ध पड़ गया है। आज राज्यों और केंद्र में भी अवसरवादी और अपवित्र गठबंधन किए जा रहे हैं जिससे राज्यों और देश को लाभ के स्थान पर सिर्फ घाटा होता है। तेजी से राजनीति का स्थानीयकरण और भूमिपुत्रकरण हो रहा है। प्रदेशों में छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों का तेजी से उभार हो रहा है और राष्ट्रीय दलों का वोट-बैंक उतनी ही तेजी से छिज रहा है। जितने जिले उतने दल। आज केंद्र में कई-कई दर्जन दल मिलकर सरकार बनाने लायक बहुमत जुटा पा रहे हैं जो किसी भी तरह भारतीय लोकतंत्र और भारत के हित में नहीं है। प्रत्येक चुनाव के बाद सांसदों,विधायकों,जिला पार्षदों और नगर पार्षदों की खरीद-बिक्री शुरू हो जाती है। लाखों-करोड़ों खर्च कर पहले तो उम्मीदवार चुनाव जीतता है और फिर जनता को धोखा देते हुए खुद को लाखों-करोड़ों में बेच देता है। अगर यह केंद्र सरकार के स्थायित्व की समस्या नहीं होती तो शायद ए.राजा जैसे विश्व-रिकार्डधारी घोटालेबाज भी पैदा नहीं हुए होते। चूँकि चुनाव लड़ना काफी खर्चीला हो चुका है और चुनावों के बाद भी जनप्रतिनिधियों को बिना खरीदे सरकार बनाना लगभग असंभव होता है इसलिए प्रत्येक दल को अपना-अपना धनपति रखना पड़ता है। परिणामस्वरूप जनप्रतिनिधियों को चुननेवाली आम जनता दिन-प्रतिदिन हाशिए पर चलती चली जा रही है और सरकारों को पैसे के रिमोट से चला रहे है पूँजीपति।
मित्रों,आज हमारी केंद्र सरकार अपने अस्तित्व और स्थायित्व को लेकर इतनी परेशान या आश्वस्त (?) है कि वह आम जनता को ही भूलती जा रही है और भूलती जा रही है देशहित को और लगातार जनविरोधी और देशविरोधी कदम उठाती जा रही है। उसे पता है कि तिकड़म के बल पर वह हर बार सरकार को बचा लेगी और बहुमत का जुगाड़ कर ही लेगी फिर जनता या देश जाए तेल बेचने तो जाए। आज देश की जनता के समक्ष सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह सीधे-सीधे प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को नहीं चुनती है। वह चुनती है विधायक या सांसद को और हमारे विधायक या सांसद या छोटे क्षेत्रीय दल हैं कि आसानी से पैसों या पद के लालच में आकर बिक जा रहे हैं। आज विधायिका कानून बनाने का मंच रह नहीं गई है,वह बनकर रह गई है जनप्रतिनिधियों के खरीद-फरोख्त का मछली-बाजार। आज वहाँ कानून नहीं बनते सिर्फ सरकारें बनाई और बचाई जाती हैं जो बहुत ही दुःखद स्थिति है। आम-जनता के दुःख-दारिद्रय की,भ्रष्टाचार की,न्याय में देरी की,भारत की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा की चिंता आज न तो हमारे जनप्रतिनिधियों को ही है और न इसके परिणामस्वरूप हमारी सरकारों को ही।
मित्रों,भारतीय लोकतंत्र के स्तर में नित आ रही गिरावट को रोकने का मेरी समझ से बस एक ही उपाय शेष रह गया है कि भारत में संसदीय शासन-प्रणाली का अविलंब परित्याग कर अध्यक्षीय शासन-प्रणाली का वरण किया जाए। राष्ट्रपति का चुनाव अमेरिका की तरह सीधे जनता करे और चुनाव के दूसरे चरण में फ्रांस की तरह पहले चरण में सर्वाधिक मत पाने वाले सिर्फ दो उम्मीदवार ही मैदान में रहें और उनमें से जिसको भी 50% से ज्यादा मतदाताओं के मत प्राप्त हों उसे विजयी घोषित किया जाए। अमेरिका की तरह यह जरूरी नहीं कि राष्ट्रपति के बदलते ही बहुत-सारे सरकारी अधिकारियों को भी बदल दिया जाए। राष्ट्रपति संसद के प्रति जिम्मेदार नहीं हो मगर संसद को उसको महाभियोग द्वारा हटाने का अधिकार जरूर प्राप्त हो। इसी तर्ज पर राज्यों में राज्यपालों को सीधे जनता द्वारा चुना जाना चाहिए और उसको भी विधानसभा के प्रति जिम्मेदारी से मुक्त रखना चाहिए मगर विधानसभा को जरूर उसको हटाने का अधिकार दिया जाना चाहिए।
मित्रों,वास्तव में हमारे द्वारा चुने गए हमारे प्रतिनिधि इस लायक रह ही नहीं गए हैं कि हम अपना भविष्य आँख मूंदकर उनके हाथों में सौंप दें। अध्यक्षीय शासन-प्रणाली में अगर राष्ट्रपति या राज्यपाल गलत करेगा तो जनता उसको सीधे-सीधे ही नकार देगी और इस प्रकार शासक और शासित के बीच बिचौलियों (सांसदों व विधायकों) की भूमिका भी स्वतः काफी कम हो जाएगी। दो मिनट के लिए कल्पनाभर करके तो देखिए कि एक तरफ राहुल गाँधी हों और दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी या अरविन्द केजरीवाल और इनमें से किसी एक को पूरे भारत की जनता सीधे-सीधे वोट देकर चुने तो क्या समाँ बंधेगा? कहना न होगा कि उस स्थिति में राहुल गांधी या कोई भी युवराज इस तरह देश के ज्वलंत मुद्दों पर चुप्पी साधे नहीं रह सकता उसको अपनी भावी योजनाओं से देश की जनता को अवगत करवाना ही पड़ता अन्यथा देश की जनता उसे सीधे-सीधे नकार देती। इसमें कोई संदेह की गुंजाईश ही नहीं है कि भारत में जनप्रतिनिधियों द्वारा प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री चुनने की व्यवस्था पूरी तरह से असफल सिद्ध हो चुकी है इसलिए इसके स्थान पर जनता को सीधे अपना राष्ट्रपति/राज्यपाल चुनने का अधिकार देना ही पड़ेगा और प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के पदों को समाप्त करना ही पड़ेगा तभी भारत में लोक का विश्वास बचेगा,तंत्र में सुधार आएगा और लोकतंत्र बचेगा।
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