मित्रों,देखते-देखते चार साल बीत गए। चाहे समय अच्छा हो या बुरा बीत ही जाता है। 4 साल पहले मुलायम परिवार ने बड़ी चालाकी से यूपी की जनता को उल्लू बनाया था। भदेशी बाप की जगह विदेश में जबरन पढ़ाए गए बेटे को आगे कर चुनाव लड़ा गया और जीता भी गया। काठ की हाँड़ी बार-बार नहीं चढ़ती लेकिन अपने देश में कुछ भी संभव है।
मित्रों,हम बुद्धिहीनों को जैसी आशंका थी ठीक उसी तरह से समाजवाद के नाम पर 4 साल तक शासन चलाया गया। लगा जैसे हम जार्ज ओरवेल के उपन्यास द एनिमल फार्म का जीवंत मंचन देख रहे हों। कहने का मतलब कि समाज के शासन के नाम पर परिवार का शासन लादा गया ठीक उसी तरह से जैसे द एनिमल फार्म में कहा गया कि सारे जानवर समान हैं लेकिन सूअर उनमें ज्यादा समान (श्रेष्ठ) हैं और सूअरों में भी नेपोलियन नाम का सूअर सबसे ज्यादा समान है।
मित्रों,मुझे तो पिछले पाँच साल के अकललेश (अखिलेश) के शासन और उससे पहले उनके पिता के शासन में कोई फर्क महसूस नहीं हुआ। वही जातिवाद, वही पार्टीवाद,वही अराजकता,वही नमाजवाद और वही गुंडाराज। अंतर बस इतना है कि पहले जहाँ मुलायम परिवार एकजुट था वहीं अब टूटता हुआ दिख रहा है। चार साल पहले हमें आश्चर्य होता था जब रामगोपाल और शिवपाल अखिलेश को मंच से माननीय मुख्यमंत्री कहकर संबोधित करते थे। हमारे बिहार में कहावत है कि लड़िका मालिक बूढ़ दरबान,ममला चले साँझ-बिहान। यद्यपि मेरे कहने का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि योग्यता और उम्र में अनिवार्य रूप से समानुपातिक संबंध होता है लेकिन मुझे अकललेश की योग्यता पर हमेशा से संदेह रहा है।
मित्रों,फिर भी मैं अकललेश की कोई गलती नहीं मानता क्योंकि जिस पार्टी या परिवार के एजेंडे में वास्तविक तौर पर विकास और सुशासन कभी रहा ही नहीं हो उसका कोई सदस्य प्रदेश को सुख-शांति और विकास दे भी कैसे सकता है? आज से चार साल पहले आश्चर्य मुझे अकललेश की जीत पर नहीं हुआ था बल्कि यूपी की महान जनता के बुद्धि-विवेक पर हुआ था। आखिर किस उम्मीद में और क्या सोंचकर वहाँ की जनता ने नमाजवादी (समाजवादी) पार्टी को वोट दिया था? ऐसा नहीं था कि यूपी में समाजवादी पार्टी पहली बार सत्ता में आई थी। हमने तब भी अपने आलेख द्वारा वहाँ की जनता को सचेत किया था कि माया-मुलायम की पार्टी को चुनने में क्या-क्या खतरे हैं लेकिन वहाँ कि जनता ने हमारी बातों पर ठीक उसी तरह कान नहीं दिया था जैसे कि पिछले साल के बिहार चुनावों में बिहार की जनता ने नहीं दिया।
मित्रों,हालाँकि जाहिर तौर पर मुलायम परिवार में सत्ता-संघर्ष अपने शिखर पर है फिर भी मेरा दिल मान नहीं रहा कि हम जो देख रहे हैं वही सच है। आज भी हमें लग रहा है कि जो हमें दिखाया जा रहा है वह यथार्थ नहीं छलावा है और कोरा छलावा है। संदेह होता है कि मुल्लायम (मुलायम) परिवार पिछली बार की तरह इस बार भी नाटक द्वारा यूपी की जनता को धोखा तो नहीं देना चाहती है? पिछले 4 साल गवाह हैं कि सरकार का चेहरा बदलने चरित्र नहीं बदल जाता,चाल नहीं बदल जाती फिर मुलायम को तो जनता पहले भी देख चुकी है। फिलहाल तो यूपी की जनता को यही कहा जा सकता है कि यूपी के भैया तू सोये मत जईहअ,पसीना के कमईया मुफत न गमईहअ.....। माया-मुलायम औ खूनी पंजा से बच के भैया।
मित्रों,हम बुद्धिहीनों को जैसी आशंका थी ठीक उसी तरह से समाजवाद के नाम पर 4 साल तक शासन चलाया गया। लगा जैसे हम जार्ज ओरवेल के उपन्यास द एनिमल फार्म का जीवंत मंचन देख रहे हों। कहने का मतलब कि समाज के शासन के नाम पर परिवार का शासन लादा गया ठीक उसी तरह से जैसे द एनिमल फार्म में कहा गया कि सारे जानवर समान हैं लेकिन सूअर उनमें ज्यादा समान (श्रेष्ठ) हैं और सूअरों में भी नेपोलियन नाम का सूअर सबसे ज्यादा समान है।
मित्रों,मुझे तो पिछले पाँच साल के अकललेश (अखिलेश) के शासन और उससे पहले उनके पिता के शासन में कोई फर्क महसूस नहीं हुआ। वही जातिवाद, वही पार्टीवाद,वही अराजकता,वही नमाजवाद और वही गुंडाराज। अंतर बस इतना है कि पहले जहाँ मुलायम परिवार एकजुट था वहीं अब टूटता हुआ दिख रहा है। चार साल पहले हमें आश्चर्य होता था जब रामगोपाल और शिवपाल अखिलेश को मंच से माननीय मुख्यमंत्री कहकर संबोधित करते थे। हमारे बिहार में कहावत है कि लड़िका मालिक बूढ़ दरबान,ममला चले साँझ-बिहान। यद्यपि मेरे कहने का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि योग्यता और उम्र में अनिवार्य रूप से समानुपातिक संबंध होता है लेकिन मुझे अकललेश की योग्यता पर हमेशा से संदेह रहा है।
मित्रों,फिर भी मैं अकललेश की कोई गलती नहीं मानता क्योंकि जिस पार्टी या परिवार के एजेंडे में वास्तविक तौर पर विकास और सुशासन कभी रहा ही नहीं हो उसका कोई सदस्य प्रदेश को सुख-शांति और विकास दे भी कैसे सकता है? आज से चार साल पहले आश्चर्य मुझे अकललेश की जीत पर नहीं हुआ था बल्कि यूपी की महान जनता के बुद्धि-विवेक पर हुआ था। आखिर किस उम्मीद में और क्या सोंचकर वहाँ की जनता ने नमाजवादी (समाजवादी) पार्टी को वोट दिया था? ऐसा नहीं था कि यूपी में समाजवादी पार्टी पहली बार सत्ता में आई थी। हमने तब भी अपने आलेख द्वारा वहाँ की जनता को सचेत किया था कि माया-मुलायम की पार्टी को चुनने में क्या-क्या खतरे हैं लेकिन वहाँ कि जनता ने हमारी बातों पर ठीक उसी तरह कान नहीं दिया था जैसे कि पिछले साल के बिहार चुनावों में बिहार की जनता ने नहीं दिया।
मित्रों,हालाँकि जाहिर तौर पर मुलायम परिवार में सत्ता-संघर्ष अपने शिखर पर है फिर भी मेरा दिल मान नहीं रहा कि हम जो देख रहे हैं वही सच है। आज भी हमें लग रहा है कि जो हमें दिखाया जा रहा है वह यथार्थ नहीं छलावा है और कोरा छलावा है। संदेह होता है कि मुल्लायम (मुलायम) परिवार पिछली बार की तरह इस बार भी नाटक द्वारा यूपी की जनता को धोखा तो नहीं देना चाहती है? पिछले 4 साल गवाह हैं कि सरकार का चेहरा बदलने चरित्र नहीं बदल जाता,चाल नहीं बदल जाती फिर मुलायम को तो जनता पहले भी देख चुकी है। फिलहाल तो यूपी की जनता को यही कहा जा सकता है कि यूपी के भैया तू सोये मत जईहअ,पसीना के कमईया मुफत न गमईहअ.....। माया-मुलायम औ खूनी पंजा से बच के भैया।
1 टिप्पणी:
बहुत ही उम्दा ..... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ... Thanks for sharing this!! :) :)
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