मित्रों,अभी कल ही चीन ने भारत को सलाह दी है कि भारत अपने विकास पर ध्यान दे और चीन क्या कर रहा है इस बात से पूरी तरह से आँखें बंद कर ले. कुछ इसी तरह की सलाह कभी नेहरु को भी दी गयी थी और नेहरु ने आँख मूंदकर इसे मान भी लिया था. परिणाम यह हुआ कि भारत को शर्मनाक पराजय का सामना तो करना ही पड़ा हजारों वर्ग किलोमीटर जमीन से भी हमेशा के लिए हाथ धोना पड़ा. खता एक व्यक्ति ने की लेकिन सजा पूरे देश को मिली और आज भी मिल रही है.
मित्रों,शायद चीन मोदी को भी नेहरु और आज के भारत को तब का भारत समझ रहा है. सच्चाई तो यह है कि आज अगर मोदी नेहरु बनना भी चाहेंगे तो हम उनको कदापि बनने नहीं देंगे. वैसे मुझे नहीं लगता कि मोदी नेहरु बनने की सपने में भी सोंच सकते हैं. वैसे चीन की तिलमिलाहट यह दर्शाती है कि वो भारत की सैन्य तैयारियों से परेशान है और यह भी दर्शाती है कि इस समय मोदी वही सबकुछ कर रहे हैं जो तब नेहरु को करना चाहिए था.
मित्रों,इन दिनों तिलमिलाए हुए वे लोग भी हैं जो खुद को चीन का मानस-पुत्र मानते हैं. माओ ऐसे बुद्धिजीवियों के खून में बहता है. इनको शहरी नक्सली भी कहा जा सकता है. जब-जब भारत के सुरक्षा-बलों पर हमला होता है तो ये बाग़-बाग़ हो उठते हैं.
मित्रों,मैं हमेशा से अपने ब्लॉग के माध्यम से कहता रहा हूँ कि देश के लिए सीमापार आतंकवाद से भी बड़ी समस्या माओवादी हिंसा है. क्या यह सिर्फ एक संयोग-मात्र है कि कल ही माओ के देश ने भारत को सलाहरुपी धमकी दी और कल ही माओवादी हमला हो गया? संयोग तो तमिलनाडु के हवाईयात्री किसानों का प्रदर्शन भी नहीं था. आज चीन एक आर्थिक महाशक्ति है. उसके पास हमारे देश के जयचंदों और मान सिंहों को खरीदने के लिए अपार पैसा है और हमारे आज के भारत में सबसे सस्ता अगर कुछ मिलता है तो वो ईमान है. पूरी-की-पूरी पिछली सरकार ही गद्दारों की थी. वैसे गद्दार आपको मीडिया में भी खूब मिलेंगे,एक को ढूंढो तो हजार. विश्वविद्यालयों में भी मिलेंगे किस डे और बीफ डे मनाते हुए. एनजीओ खोलकर बैठे हुए भी मिलेंगे. इनका मानना है कि रूपये पर कहाँ लिखा होता है कि यह देश को बेचकर कमाया गया है. मोदी सरकार को चाहिए कि इन घुनों की संपत्तियों की गहराई से जाँच करवाए जिससे इनकी समझ में आ जाए कि हर पैसे पर लिखा होता है कि यह पैसा खून-पसीने की कमाई है और यह पैसा देश और ईमान को बेचकर कमाया गया है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि १९६२ में भी कई बुद्धिजीवी ऐसे थे जिन्होंने चीन के भारत पर हमले को उचित माना था.
मित्रों,भारत सरकार और भारत को यह समझना होगा कि जब तक इन शहरी माओवादियों पर प्रभावी कार्रवाई नहीं होती जंगल में छिपे माओवादियों की कमर टूटनी मुश्किल है. माओवाद की जड़ जंगल में नहीं बल्कि जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों में है, नकली किसान आन्दोलन को बहुत ही क्रान्तिकारी साबित करनेवाले टीवी चैनलों में है,कविता कृष्णन जैसे शिक्षकों,अरुंधती जैसे लेखकों,केजरीवाल जैसे नेताओं के दिमाग में है. जड़ पर प्रहार होगा तो पेड़ खुद ही सूख जाएगा.
मित्रों,शायद चीन मोदी को भी नेहरु और आज के भारत को तब का भारत समझ रहा है. सच्चाई तो यह है कि आज अगर मोदी नेहरु बनना भी चाहेंगे तो हम उनको कदापि बनने नहीं देंगे. वैसे मुझे नहीं लगता कि मोदी नेहरु बनने की सपने में भी सोंच सकते हैं. वैसे चीन की तिलमिलाहट यह दर्शाती है कि वो भारत की सैन्य तैयारियों से परेशान है और यह भी दर्शाती है कि इस समय मोदी वही सबकुछ कर रहे हैं जो तब नेहरु को करना चाहिए था.
मित्रों,इन दिनों तिलमिलाए हुए वे लोग भी हैं जो खुद को चीन का मानस-पुत्र मानते हैं. माओ ऐसे बुद्धिजीवियों के खून में बहता है. इनको शहरी नक्सली भी कहा जा सकता है. जब-जब भारत के सुरक्षा-बलों पर हमला होता है तो ये बाग़-बाग़ हो उठते हैं.
मित्रों,मैं हमेशा से अपने ब्लॉग के माध्यम से कहता रहा हूँ कि देश के लिए सीमापार आतंकवाद से भी बड़ी समस्या माओवादी हिंसा है. क्या यह सिर्फ एक संयोग-मात्र है कि कल ही माओ के देश ने भारत को सलाहरुपी धमकी दी और कल ही माओवादी हमला हो गया? संयोग तो तमिलनाडु के हवाईयात्री किसानों का प्रदर्शन भी नहीं था. आज चीन एक आर्थिक महाशक्ति है. उसके पास हमारे देश के जयचंदों और मान सिंहों को खरीदने के लिए अपार पैसा है और हमारे आज के भारत में सबसे सस्ता अगर कुछ मिलता है तो वो ईमान है. पूरी-की-पूरी पिछली सरकार ही गद्दारों की थी. वैसे गद्दार आपको मीडिया में भी खूब मिलेंगे,एक को ढूंढो तो हजार. विश्वविद्यालयों में भी मिलेंगे किस डे और बीफ डे मनाते हुए. एनजीओ खोलकर बैठे हुए भी मिलेंगे. इनका मानना है कि रूपये पर कहाँ लिखा होता है कि यह देश को बेचकर कमाया गया है. मोदी सरकार को चाहिए कि इन घुनों की संपत्तियों की गहराई से जाँच करवाए जिससे इनकी समझ में आ जाए कि हर पैसे पर लिखा होता है कि यह पैसा खून-पसीने की कमाई है और यह पैसा देश और ईमान को बेचकर कमाया गया है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि १९६२ में भी कई बुद्धिजीवी ऐसे थे जिन्होंने चीन के भारत पर हमले को उचित माना था.
मित्रों,भारत सरकार और भारत को यह समझना होगा कि जब तक इन शहरी माओवादियों पर प्रभावी कार्रवाई नहीं होती जंगल में छिपे माओवादियों की कमर टूटनी मुश्किल है. माओवाद की जड़ जंगल में नहीं बल्कि जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों में है, नकली किसान आन्दोलन को बहुत ही क्रान्तिकारी साबित करनेवाले टीवी चैनलों में है,कविता कृष्णन जैसे शिक्षकों,अरुंधती जैसे लेखकों,केजरीवाल जैसे नेताओं के दिमाग में है. जड़ पर प्रहार होगा तो पेड़ खुद ही सूख जाएगा.