मंगलवार, 25 जून 2019

मोदी, राष्ट्रवाद और दम तोड़ते बच्चे


मित्रों, आपको याद होगा कि मोदी जी ने २०१४ के लोकसभा चुनावों के भाषण में कहा था कि उनके समय में चलता है नहीं चलेगा और वे हर क्षेत्र में ऐसे इंतजाम करेंगे जिससे वही हो जो होना चाहिए. परन्तु हम देखते हैं कि मोदी जी के शासन के दूसरे कार्यकाल में भी वही सब हो रहा है जो मनमोहन सिंह के समय में हो रहा था. शासकों का वही ऐश-मौज और जनता के दुखों के प्रति वही अक्षम्य संवेदनहीनता.
मित्रों, बचपन में मैंने केनोपनिषद में एक बोध कथा पढ़ी थी कि एक बार लम्बे युद्ध के बाद देवताओं ने दानवों पर विजय प्राप्त की.  उस विजय से देवताओं को अहंकार हो गया । वे समझने लगे कि यह उनकी ही विजय है। उनकी ही महिमा है और वे अपने कर्तव्यों को भूलकर मौज-मस्ती में डूब गए. यह देखकर वह (ब्रह्म) उनके सामने प्रादुर्भूत हुआ और वे (देवता) उसको न जान सके कि ‘यह यक्ष कौन है’
तब उन्होंने (देवों ने) अग्नि से कहा कि, ‘हे जातवेद ! इसे जानो कि यह यक्ष कौन है’ । अग्नि ने कहा – ‘बहुत अच्छा’. अग्नि यक्ष के समीप गया । उसने अग्नि से पूछा – ‘तू कौन है’ ? अग्नि ने कहा – ‘मैं अग्नि हूँ, मैं ही जातवेदा हूँ’. ‘ऐसे तुझ अग्नि में क्या सामर्थ्य है ?’ अग्नि ने कहा – ‘इस पृथ्वी में जो कुछ भी है उसे जलाकर भस्म कर सकता हूँ’. तब यक्ष ने एक तिनका रखकर कहा कि ‘इसे जला’ । अपनी सारी शक्ति लगाकर भी उस तिनके को जलाने में समर्थ न होकर वह लौट गया । वह उस यक्ष को जानने में समर्थ न हो सका.  तब उन्होंने ( देवताओं ने) वायु से कहा – ‘हे वायु ! इसे जानो कि यह यक्ष कौन है’ । वायु ने कहा – ‘बहुत अच्छा’. वायु यक्ष के समीप गया । उसने वायु से पूछा – ‘तू कौन है’ । वायु ने कहा – ‘मैं वायु हूँ, मैं ही मातरिश्वा हूँ’. ‘ऐसे तुझ वायु में क्या सामर्थ्य है’ ? वायु ने कहा – ‘इस पृथ्वी में जो कुछ भी है उसे उड़ा सकता हूँ’.
तब यक्ष ने एक तिनका रखकर कहा कि ‘इसे उड़ा’। अपनी सारी शक्ति लगाकर भी उस तिनके को उड़ाने में समर्थ न होकर वह लौट गया। इस प्रकार वह उस यक्ष को जानने में समर्थ न हो सका. 
तब उन्होंने (देवताओं ने) इन्द्र से कहा – ‘हे मघवन् ! इसे जानो कि यह यक्ष कौन है’ । इन्द्र ने कहा – ‘बहुत अच्छा’ । वह यक्ष के समीप गया । उसके सामने यक्ष अन्तर्धान हो गया.
वह इन्द्र उसी आकाश में अतिशय शोभायुक्त स्त्री, हेमवती उमा के पास आ पहुँचा, और उनसे पूछा कि ‘यह यक्ष कौन था’. उसने स्पष्ट कहा – ‘ब्रह्म है’ । ‘उस ब्रह्म की ही विजय में तुम इस प्रकार महिमान्वित हुए हो’ । तब से ही इन्द्र ने यह जाना कि ‘यह ब्रह्म ही है जो सारी शक्तियों का मूल है.'
मित्रों, मुझे लगता है कि कुछ ऐसी ही स्थिति इन दिनों मोदी सरकार की है. मोदी और उनके साथी यह भूल गए हैं कि लोकतंत्र में जनता ही ब्रह्म है और जनता ने उनकी जीत में अपनी जीत को देखा तभी उनको यह प्रचंड जीत मिली है. एक तरह बिहार में बच्चे मर रहे हैं और दूसरी तरफ मोदी पांच सितारा होटल में पार्टी कर रहे हैं. क्या इससे भी बड़ी कोई संवेदनहीनता हो सकती है? क्या सभी चौक-चौराहों और रेलवे स्टेशनों पर १००-१०० फीट ऊंचा तिरंगा फहरा देने मात्र से देश की सारी समस्याएँ दूर हो जाएंगी. मैंने बचपन में देखा है कि जब श्रीमती इन्दिरा गाँधी का शासन था तब सरकारी स्कूल में पढाई का स्तर गजब का था. इसी तरह सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था भी बहुत अच्छी थी. आज सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की हालत क्या है और क्यों है  और इसमें सुधार लाना किसकी जिम्मेदारी है? क्या सबकुछ निजी क्षेत्र के हाथों सौंप देने से देश की जनता का भला हो जाएगा? मैंने खुद भी अनुभव किया है कि निजी क्षेत्र को सिर्फ लाभ से मतलब होता है नैतिकता के लिए उसके पास कोई जगह नहीं होती. कार्ल मार्क्स ने जो कहा था कि पूँजी हृदयहीन होती है कोई गलत नहीं कहा था. ऐसी स्थिति में मोदी कैसे देश को पूँजी यानि निजी क्षेत्र के कदमों में डालकर कह सकते हैं कि अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों.
मित्रों, सबसे दुखद स्थिति तो यह है कि जिस बिहार ने मोदी के एक आह्वान पर ४० में से ३९ सीटें उनके झोले में डाल दिया उसी बिहार के बच्चे समुचित व्यवस्था के बिना दम तोड़ते रहे और मोदी जी के मुंह से सहानुभूति के एक शब्द तक न फूटे. मोदी जी होंगे आप दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति लेकिन शक्तिशाली तो बगदादी भी है और लादेन भी था. हमने तो आपको राम समझ के वोट किया था. वही राम जिसके लिए प्रजा का सुख ही अपना सुख था और प्रजा का हित ही अपना हित था. जिसका सबकुछ प्रजा का था जिसका सबकुछ प्रजा थी. आप खुद ही निर्णय लीजिए मोदी जी कि आपको क्या बनना है राम या बगदादी. भूलिएगा नहीं कि देव जनता आपके पतंग को एक चुनाव में आसमान दिखा सकती है तो दूसरे चुनाव में जमीन भी सूंघा सकती है.

मंगलवार, 18 जून 2019

साहेब, मौसम और गुलाम


मित्रों, आप सोंच रहे होंगे कि क्या उटपटांग शीर्षक लगाया है मैंने. साहेब हैं तो बीवी भी होनी चाहिए. लेकिन इसमें मेरा कोई दोष नहीं. साहेब की बीवी है मगर नहीं है तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ? साहेब, बीवी और गुलाम में बीवी साहेब के घर में रहती थी लेकिन यहाँ बीवी उनके साथ नहीं रहती. दोनों में दशकों से भेंट तक नहीं हुई. साहेब बीवी के बदले मौसम से काम चला रहे हैं.
मित्रों, ७०-८० के दशक में ही जब हम विज्ञान प्रगति पढ़कर विज्ञान की प्रगति करवा रहे थे तब पढने को मिलता था कि भविष्य बड़ा भयावह होनेवाला है. जलवायु परिवर्तन के कारण उन स्थानों पर सूखा पड़ेगा जहाँ बाढ़ आती है और उन स्थानों पर बाढ़ आएगी जहाँ मौसम सूखा रहता है. नदियों के ग्लेशियर सूख जाएँगे और गंगा-यमुना समेत सारी नदियाँ खुद पानी के लिए तरसेंगी. जब जल पुरुष राजेंद्र सिंह राजस्थान में हरियाली ला रहे थे तब देश के नेता वोटों की फसल काट रहे थे. अब जबकि भविष्यवाणी किसी तोतेवाले पंडित के बदले वैज्ञानिकों ने की थी तो मौसम ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया है. पूरा बिहार जो एक समय अप्रैल के महीने से ही बरसात से सराबोर रहता था इन दिनों भयंकर लू की चपेट में है और दर्जनों लोग रोजाना सिर्फ लू से मर रहे हैं. हैण्ड पम्प सूख गए हैं. तालाबों और कुँओं को तो हमने वर्षों पहले ही सुखा दिया. हैण्ड पम्प और नलकूप के आगे उनकी क्या बिसात मगर सरकार यह भूल गयी कि हैण्ड पम्प जमीन से सिर्फ पानी निकालना जानते हैं रिचार्ज नहीं कर सकते.
मित्रों, अब जबकि लगभग पूरे देश में त्राहिमाम की स्थिति है तब साहेब ने एक वक्तव्य जारी करके पूरे भारत के ग्राम प्रधानों को निर्देश दिया है कि बरसात के पानी को जमा करने का इंतजाम किया जाए. इधर साहेब ने वक्तव्य दिया और उधर पानी जमा हो गया. उन सारे तालाबों का क्षण भर में पुनरूद्धार हो गया जिनमें जलकुम्भी ने अड्डा जमा लिया है और उन सारे तालाबों का अतिक्रमण भी समाप्त हो गया जिनमें मिटटी भर-भर के सरकारी दफ्तर और घर बना दिए गए हैं. साहेब इसी तरह से काम करते हैं और कहते भी हैं कि मोदी है तो मुमकिन है. पता नहीं यहाँ मुमकिन से उनका तात्पर्य है क्या आबादी या बर्बादी?
मित्रों, आबादी से याद आया कि भारत के लिए आबादी भी बहुत सारी बरबादियों का कारण है. ऐसा नहीं है साहेब को यह पता नहीं है लेकिन साहेब इस तरफ से आँखें पूरी तरह से बंद किए हुए हैं और उनलोगों को अपनी तरफ करने में लगे हुए हैं जो आबादी बढाने में सबसे ज्यादा योगदान कर रहे हैं. लगता है कि साहेब को मौसम की नहीं सिर्फ चुनावी मौसम की चिंता है.
मित्रों, हमारा क्या है हम तो ठहरे गुलाम और हमारा काम तो सिर्फ सिर हिलाना है और वो भी हाँ के स्वर में. नहीं में हिलाना भी चाहें तो नहीं हिला सकते क्योंकि साहेब को सम्मोहिनी विद्या आती है. तथापि मुझे पर्यावरणविदों की भविष्यवाणियों से चिंता हो रही है जो कहते हैं कि भविष्य में गरीब लोग जलवायु-परिवर्तन से उत्पन्न अकाल की स्थिति में अनाज और पानी नहीं खरीद पाएँगे और मर जाएँगे. इसी तरह अभी बिहार में जिनके पास कूलर और एसी है उनका लू क्या बिगड़ ले रही है लेकिन जो गरीब हैं वे मर रहे हैं और लू और मस्तिष्क ज्वर से केवल वही मर रहे हैं. ऐसे में अगर गुलामों को अपनी जान बचानी है तो जल-संरक्षण को जनांदोलन का रूप देना होगा और इसके लिए एक नहीं लाखों राजेंद्र सिंह की जरुरत होगी. क्योंकि पानी नहीं होगा तो पीयोगे क्या और खेती कैसे करोगे और खेती नहीं होगी तो खाओगे क्या? साहेब का क्या है अभी ग्राम-प्रधानों से आह्वान किया है और मानसून के आते ही भूल जाएंगे. फिर तो वे विमान और हेलीकाप्टर से बाढ़ग्रस्त ईलाकों का हवाई-सर्वेक्षण करेंगे. हर साल यही तो होता है.

रविवार, 16 जून 2019

बर्बाद बिहार है नीतीशे कुमार हैं-२


मित्रों, यकीन मानिए मैं कभी भी नहीं चाहता कि बिहार की कुव्यवस्था पर कुछ लिखूं. जब भी मैंने ऐसा किया है बड़े ही भारी मन से किया है और आज मैं जिन हालातों में लिखने बैठा हूँ मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मेरा दिल जार-जार रो रहा है. और सिर्फ मेरा दिल ही नहीं रो रहा बल्कि मेरे साथ पूरा भारत रो रहा है.
मित्रों, आप समझ गए होंगे कि मैं बात कर रहा हूँ बिहार में रोजाना समुचित चिकित्सा के अभाव में दम तोड़ रहे छोटे-मासूम बच्चों की. पिछले कई सालों से इस मौसम में बिहार के मुजफ्फरपुर और उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में एक अनजान बीमारी से सैकड़ों की संख्या में छोटे-छोटे बच्चों की अकाल मृत्यु होती रही है. पिछले साल तक गोरखपुर में भी इस बीमारी का प्रकोप देखा गया लेकिन इस साल जागरूकता और सघन टीकाकरण अभियान के कारण उत्तर प्रदेश की स्थिति बेहतर है जबकि बिहार की हालत आपलोगों के सामने है. मैं कई बार कह चुका हूँ कि बिहार में अंधों और बहरों का शासन है जो गजब के बडबोले हैं.
मित्रों, मुझे ऐसा भी लगता है कि मंगल पांडे जी जो बिहार के स्वास्थ्य मंत्री हैं पिछले हफ़्तों में पार्टी का काम कन्धों पर होने के चलते विभाग के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं. इन दिनों वे झारखण्ड के पार्टी प्रभारी थे और स्वाभाविक है कि लोकसभा चुनावों के चलते उनके ऊपर झारखण्ड में ज्यादा-से-ज्यादा सीते जीतने का दबाव रहा होगा. लेकिन चुनाव संपन्न हुए भी अब एक महीना बीतने पर है और उनको चुनावी मोड से अब तक बाहर आ जाना चाहिए था और अपने विभाग के काम-काज पर भी ध्यान देना चाहिए था. सरकार चाहती तो जैसे ही इस रहस्यमय बीमारी का प्रकोप शुरू हुआ एम्स के टॉप चिकित्सकों को बच्चों के ईलाज में लगा देती. अगर सरकार उन माँ-बाप के बच्चों की जीवन-रक्षा के प्रति थोड़ी-सी भी गंभीर होती तो बच्चों को एयर एम्बुलेंस से दिल्ली और अन्य महानगरों में स्थित बड़े अस्पतालों में स्थानांतरित कर देती. अगर मंगल पांडे जी थोड़े-से भी संवेदनशील होते तो उनके काफिले को बच्चे का एम्बुलेंस रोककर पास न कराया गया होता.
मित्रों, मैं नहीं बता सकता कि उन माता-पिताओं पर इस समय क्या गुजर रही होगी जिन्होंने अपने नौनिहाल खोए हैं. भगवान न करें कि किसी के साथ भी ऐसा हो. मैं सरकार से सवाल पूछना चाहता हूँ कि अगर मंत्रियों के बच्चों को यही बीमारी हुई होती तब भी क्या सरकार का व्यवहार वही होता जो अभी है? क्या सरकार इसी प्रकार से उदासीन होती?
मित्रों, मुझे याद है कि जब यूपीए सरकार में इस्पात मंत्री रहते हुए रामविलास पासवान जी पटना में बीमार हो गए थे तब दो-दो एयर एम्बुलेंस उनको लेने पहुंचे थे. तो क्या राजा की जान बहुत कीमती होती है और प्रजा की जान की कीमत जानवरों की जान से भी कम कीमत की होती है? साथ ही मैं नरेन्द्र मोदी जी से सवाल पूछना चाहता हूँ कि बिहार की जनता ने आपको ४० की ४० सीटों पर सीधा उम्मीदवार मानते हुए ३९ सीटें दे दीं क्या यही दिन देखने के लिए? अगर यही मौतें गुजरात में होती तो भी क्या आप चुप्पी साधे रहते और ११वें दिन केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री को भेजते?
मित्रों, अब मैं रवीश कुमार जी पर व्यंग्य नहीं करूंगा. बहुत व्यंग्य कर लिया उन पर अब तो परिस्थितियां हम पर व्यंग्य कर रही हैं, अट्टहास कर रही हैं कि देख तू जिनका समर्थक है वे राजनेता क्या कर रहे हैं? वे हमसे जैसे पूछ रही है कि बता क्या इस तरह की अक्षम्य संवेदनहीनता को ही राष्ट्रवाद कहते हैं. अंत में मैं नीतीश कुमार जी को कुछ नहीं कहना चाहूँगा क्योंकि उनको न तो बिहार से और न ही बिहार की जनता से कोई मतलब रह गया है उनको तो बस धारा ३७० और ३ तलाक से मतलब है लेकिन मैं मंगल पांडे जी से जरूर यह कहना चाहूँगा कि कम-से-कम आपने इस बात का तो ख्याल रखा होता कि आपके नाम का एक महापुरुष भारत के इतिहास में पहले भी हुआ है. मंगल भैया कम-से-कम अपने नाम की तो ईज्जत कर लिए होते.

बुधवार, 12 जून 2019

बर्बाद बिहार है नीतिशे कुमार हैं-१


मित्रों, साल २०१५ के बिहार विधान-सभा चुनाव का प्रचार चल रहा था. नीतीश जी लालू जी की गोद में बैठे थे और एनडीटीवी के रवीश कुमार जी पूरे बिहार में घूम-घूम कर जनता से पूछ रहे थे और उसके आधार पर दावा कर रहे थे कि बिहार में बारहमासी बहार है जो नीतीश कुमार के कारण है.
मित्रों, वक़्त बदला, हालात बदले यहाँ तक कि नीतीश जी ने पार्टनर भी बदल लिया मतलब सबकुछ बदला बस नहीं बदला तो बिहार की फूटी तक़दीर. इस आलेख में जो इस शृंखला की पहली कड़ी है हम सिर्फ नीतीश जी के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान का विश्लेषण करेंगे.
मित्रों, आपको भी पता होगा कि अपने नीतीश जी घनघोर ईमानदार हैं इतने कि हम उनको इस मामले में चरम आदरणीय अरविन्द केजरीवाल जी का गुरु भी कह सकते हैं. नीतीश ने मुख्यमंत्री बनते ही निगरानी विभाग का पुनर्गठन किया और आदेश दिया कि ताबड़तोड़ छापे मारो. फिर तो जैसे रिश्वतखोरों की शामत ही आ गयी. सबसे ज्यादा चपेट में आए पुलिसवाले, भू राजस्व और शिक्षा विभाग वाले क्योंकि हमेशा से इनमें ही ज्यादा भ्रष्टाचार है. पहले लोगों में को सिर्फ निलंबित करके छोड़ दिया जाता था लेकिन देखा गया कि वही आदमी दोबारा और कई बार तो तिबारा घूस लेते हुए पकड़ा गया. इसी बीच बक्सर के किसी जिलाधिकारी ने रिश्वतखोरों को सीधे बर्खास्त करने की परंपरा को जन्म दिया और इसके बाद जो भी घूस लेता हुआ पकड़ा गया उसे सीधे बर्खास्त कर दिया जाने लगा.
मित्रों, इसी बीच वर्ष २००६-०७ में मेरे चचेरे मामा राजेश्वर प्रसाद सिंह जो उस समय वैशाली जिले के जन्दाहा प्रखंड के नाडी गाँव के मध्य विद्यालय के प्रधानाध्यापक थे भी रिश्वत लेते रंगे हाथों पकडे गए. मुझे लगा अब राम राज्य आकर रहेगा क्योंकि मैं जानता था कि मेरे मामा दशकों से बहुत बड़े रिश्वतखोर थे. मामा पहले निलंबित और बाद में बर्खास्त भी किये गए. लेकिन इस बार जब मैं ननिहाल गया तो पाया कि मामा जी काफी खुश हैं. पता लगा कि वे पटना उच्च न्यायालय से मुकदमा जीत गए हैं और उनका पेंशन तो बहाल हो ही गया है साथ ही सेवानिवृत्ति लाभ की राशि भी सूद सहित मिली है वो भी ८० लाख. मैं सुनकर स्तब्ध था. जो व्यक्ति रंगे हाथों घूस लेता हुआ पकड़ा गया हो वो बरी कैसे हो सकता है. तो क्या नीतीश जी की सरकार में जितने भी लोग रंगे हाथों घूस लेते हुए पकडे गए हैं वे सब बारी-बारी से चुपके-चुपके कोर्ट से बरी होते जा रहे हैं? प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या? मेरे मामा खुद ही प्रमाण हैं.
मित्रों, नीतीश जी के बारे में कभी लालू जी ने कहा था कि इसके पेट में भी दांत है. मुझे लगता है कि पेट के अतिरिक्त नीतीश जी के हाथी की तरह दो और भी दांत हैं जो सिर्फ दिखाने के काम आते हैं. अब मैं मुखतिब होना चाहूँगा रवीश जी की तरफ और उनको बताना चाहूँगा कि बिहार में सचमुच बहार है. जैसा कि आपने देखा कि बिहार में भ्रष्टाचारियों की बहार है. आगे और भी प्रकार के बहारों की हम आपको सैर करवाएंगे. आओ हुजुर तुमको बहारों में ले चलूँ दिल झूम जाए ऐसे नजारों में ले चलूँ....

रविवार, 9 जून 2019

खतरे में उच्च शिक्षा का भविष्य


मित्रों, सर्वप्रथम मैं भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी को दोबारा भारत का प्रधानमंत्री चुने जाने पर बधाई देता हूँ. मैं उनका बहुत पुराना भक्त हूँ और इसलिए उनके प्रधानमंत्री रहते हुए जब देखता हूँ कि कई सारे क्षेत्रों में स्थिति चिंतनीय और दयनीय है तो मन गहरी व्यथा से भर जाता है. उदाहरण के लिए अभी-अभी एनएसएसओ की रिपोर्ट आई है कि देश में नौकरीपेशा लोगों की स्थिति दैनिक मजदूरों से भी ज्यादा खस्ता है. जहाँ दैनिक मजदूर रोजाना १००० रूपये कमा रहे हैं और फिर भी आसानी से उपलब्ध नहीं होते वहीँ शिक्षित बेरोजगारों की स्थिति पिछले पांच सालों में काफी ख़राब हो गयी है. आज पीएचडी धारक युवाओं को भी १०००० मासिक की नौकरी आसानी से नहीं मिल रही. और ऐसा आरोप सिर्फ विपक्ष लगा रहा होता तो गनीमत थी खुद एनएसएसओ जैसी प्रतिष्ठित सरकारी सर्वेक्षण एजेंसी ने अपनी रिपोर्ट में ऐसा कहा है.
मित्रों, सवाल उठता है कि इस स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है? सरकार अगर अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेगी तो कौन समझेगा? अब उच्च शिक्षा से सम्बंधित सरकारी आदेश को ही लें. पिछले साल मानव संसाधन मंत्रालय भारत सरकार ने राजपत्र जारी कर घोषणा की कि अब से कॉलेज प्राध्यापकों की नियुक्ति में यूजीसी नेट को मात्र ५ अंक का वजन मिलेगा जबकि पीएचडी को ३० अंक का वजन मिलेगा. सवाल उठता है कि फिर नेट का मतलब ही क्या रह गया? सरकार क्या समझती है कि नेट करना आसान है या पीएचडी करना? भारत में हर साल इतने सारे लोग शोध करते हैं फिर किसी को नोबेल क्यों नहीं मिलता? क्या भारत में शोध का मतलब कॉपी, कट, पेस्ट नहीं है? क्या भारत की डीम्ड यूनिवर्सिटीज पैसे लेकर पीएचडी की डिग्री नहीं बेच रही? क्या सरकारी यूनिवर्सिटीज में पीएचडी करने के लिए विभिन्न तरह की घूसखोरी नहीं चल रही जिसमें यौन-शोषण भी शामिल है?
मित्रों, मुझे याद आता है कि लालू जी के समय बिहार में व्याख्याताओं की बहाली हुई थी. कुल ३०० अंक की परीक्षा थी. मगर बेहद हास्यास्पद तरीके से इनमें से १०० अंक लिखित के और २०० अंक साक्षात्कार के रखे गए थे. फिर तो लालू के लगभग सारे विधायक और मंत्री यहाँ तक कि विधायक-मंत्रियों के साले-सालियाँ भी कॉलेज प्राध्यापक बन गए. मुझे लगता है कि पिछली मोदी सरकार के मानव संसाधन मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर जी ने भी अपने किसी साला-साली को फायदा पहुँचाने के लिए ही यह मनमाना कदम उठाया था.
मित्रों, अब श्री जावड़ेकर मानव संसाधन विकास मंत्री नहीं रह गए हैं और नई सरकार में उनका स्थान हिंदी के जाने-माने साहित्यकार रमेश पोखरियाल निश्शंक जी ने ले लिया है. इसलिए मैं समझता हूँ कि अब उनसे निवेदन करना ही समीचीन होगा. मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि नेट उत्तीर्ण व्यक्ति अध्यापन के लिए ज्यादा उपयुक्त होगा या पीएचडी किया हुआ व्यक्ति. माना कि शोध भी पाठ्यक्रम का हिस्सा होता है लेकिन बहुत छोटा जबकि नेट किये हुए व्यक्ति के पास पूरे विषय का ज्ञान होता है अन्यथा वो नेट उत्तीर्ण ही नहीं कर पाएगा.
मित्रों, सरकार यदि उच्च शिक्षा का स्तर वास्तव में ऊँचा उठाना चाहती है तो आज के समय की मांग है कि पीएचडी और नेट दोनों को अनिवार्य करते हुए नेट की वैल्यू को पीएचडी से ज्यादा कर देना चाहिए क्योंकि नेट उत्तीर्ण व्यक्ति को पूरे विषय का ज्ञान होता है जबकि पीएचडी वाले व्यक्ति को केवल शोध का ज्ञान होता है और जब शिक्षक कक्षा में पढ़ाने जाता है तो उसे ९० प्रतिशत विषय और १० प्रतिशत शोध के बारे में ज्ञान देना होता है. भारत के युवाओं की दूसरी मांग यह है कि इसी राजपत्र में सरकार ने कहा है कि २०२१ से नेट उत्तीर्ण लोग सिर्फ कॉलेजों में नियुक्त हो पाएँगे विश्वविद्यालयों में नहीं. ऐसा करने का आधार क्या है? किसी भी सरकारी कदम का कोई तार्किक आधार तो होना चाहिए? क्या विश्वविद्यालयों में सिर्फ शोध की पढाई होती है विषय की पढाई नहीं होती?
मित्रों, अभी-अभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने कहा है कि मुझ पर इतना दबाव डालो कि मैं खुद अपने खिलाफ भी छापा मरवाने के लिए बाध्य हो जाऊं. सवाल उठता है कि क्या सरकार दबाव में आती भी है या फिर मोदी जी का ऐसा कहना सिर्फ जुमलेबाजी है? मैं समझता हूँ कि मेरे इस आलेख के बाद जो भारत के सारे युवाओं की मांग को धारण करता है मोदी जी के इस बयान की सच्चाई की परीक्षा भी हो जाएगी. हालाँकि मेरा आज भी विश्वास है कि मोदी है तो कुछ भी मुमकिन है.