मित्रों, बात पुरानी है. १९९४-९५ की. उन दिनों मैं कटिहार जिले के कोढ़ा प्रखंड के फुलवरिया में रहता था और अपनी पुश्तैनी जमीन पर खेती करवाता था. उन दिनों मेरे चचेरे नाना जी कैलाश बाबू की जमीन एक पास के ही गाँव का मुसलमान जोता करता था. नाम था मोहम्मद इस्राईल. अक्सर वो मेरे पास भी बैठ जाया करता था. बातचीत के दौरान ही उसने बताया था कि वो बंगलादेशी मुसलमान है और हाल ही में वहां आया है. उसने यह भी बताया कि धीरे-धीरे उसने अपने पूरे खानदान सारे चाचा, मामा, मौसा, बहनों और बहनोईयों को भी कोढ़ा बुला लिया है. उन दिनों वहां के एनएच ३१ के किनारे के गड्ढों में बहुत सारी झोपड़ियाँ बन रही थीं और वे सारी बंगलादेशी घुसपैठियों की थीं. उस समय मैं कई बार कोढ़ा से बस द्वारा कटिहार गया था और देखा था कि सड़क किनारे बहुत-सी मस्जिदें बन चुकी थीं और बन रही थीं.
मित्रों, उस समय भाजपा और उसके आनुषंगिक संगठन बंगादेशी घुसपैठ को लेकर काफी मुखर और उग्र हुआ करते थे. लेकिन इसे राजनीति की माया कहें या सत्ता का लालच आजकल भाजपा के बिहारी नेताओं की जुबान ही नहीं खुलती. बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल यू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार बार-बार कह रहे हैं कि बिहार में एनआरसी यानि नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजनशिप को लागू नहीं किया जाएगा लेकिन बिहार भाजपा जो उनकी सरकार में शामिल है के लोगों की तो जैसे जुबान ही सिल गई है मानों मो. इस्राईल समेत सारे बांग्लादेशी घुसपैठी बिहार छोड़कर चले गए हों.
मित्रों, विभिन्न संस्थाओं एवं मीडिया के मोटे अनुमान के मुताबिक़, भारत में दस करोड़ से भी ज्यादा बंगलादेशी घुसपैठिए बस गए हैं और इनमें से ८० प्रतिशत सिर्फ बिहार,बंगाल,असम और झारखण्ड में हैं. एक अनुमान के अनुसार सिर्फ बिहार में १ करोड़ से ज्यादा बंगलादेशी हैं. 2006 में चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल में ऑपरेशन क्लीन भी चलाया था. 23 फरवरी 2006 तक अभियान चला और 13 लाख नाम काटे गए. हालांकि चुनाव आयोग फिर भी पूरी तरह संतुष्ट नहीं था और उसने केजे राव की अगुवाई में मतदाता सूची की समीक्षा के लिए अपनी टीम भेजी. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन राज्य सचिव अनिल विश्वास ने कहा था, उन्हें सैकड़ों पर्यवेक्षक भेजने दीजिए, अब कोई भी क़दम हमें जीतने से नहीं रोक सकता. इस बयान से अंदाज़ा लगाया गया कि माकपा को अपने समर्पित वोट बैंक पर कितना भरोसा रहा है. राजनीतिक पंडितों का मानना है कि वाममोर्चा के सत्ता में आने के समय से ही मुस्लिम घुसपैठियों को वोटर बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गई. उस समय ममता बनर्जी इस मुद्दे पर काफी मुखर थी और उन्होंने कहा था कि राज्य में दो करोड़ बोगस वोटर हैं. पर अब ममता मुख्यमंत्री बनने के बाद एनआरसी विरोधी हो गई हैं क्योंकि उन्हें भी सिर्फ बंगाल की कुर्सी दिख रही है देश दिखाई नहीं दे रहा.
मित्रों, 1991 की जनगणना में सा़फ दिखा कि असम एवं पूर्वोत्तर के राज्यों के साथ-साथ पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती ज़िलों की जनसंख्या भी कितनी तेज़ी से बढ़ी. एक मोटे अनुमान के मुताबिक़, प. बंगाल के सीमावर्ती ज़िलों के क़रीब 17 प्रतिशत वोटर घुसपैठिए हैं, जो कम से कम 56 विधानसभा सीटों पर हार-जीत का निर्णय करते हैं, जबकि असम की 32 प्रतिशत विधानसभा सीटों पर वे निर्णायक हालत में हैं. असम में भी मुसलमानों की आबादी 1951 में 24.68 प्रतिशत से 2001 में 30.91 प्रतिशत हो गई, जबकि इस अवधि में भारत के मुसलमानों की आबादी 9.91 से बढ़कर 13.42 प्रतिशत हो गई. 1991 की जनगणना के मुताबिक़, इसी दौरान बंगाल के पश्चिम दिनाजपुर, मालदा, वीरभूम और मुर्शिदाबाद की आबादी क्रमशः 36.75, 47.49, 33.06 और 61.39 प्रतिशत की दर से बढ़ी. सीमावर्ती ज़िलों में हिंदुओं एवं मुसलमानों की आबादी में वृद्धि का बेहिसाब अनुपात घुसपैठ की ख़तरनाक समस्या की ओर इशारा करता है. 1993 में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री ने भी लोकसभा में स्वीकार था कि 1981 से लेकर 1991 तक यानी 10 सालों में ही बंगाल में हिंदुओं की आबादी 20 प्रतिशत की दर से बढ़ी, तो मुसलमानों की आबादी में 38.8 फीसदी का इज़ा़फा हुआ. 1947 में बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी 29.17 प्रतिशत थी, जो 2001 में घटकर 2.5 प्रतिशत रह गई. सबूत तमाम तरह के हैं. 4 अगस्त, 1991 को बांग्लादेश के मॉर्निंग सन अख़बार में छपी रिपोर्ट के मुताबिक़, एक करोड़ बांग्लादेशी देश से लापता हैं. छह मई 1997 में संसद में दिए बयान में तत्कालीन गृह मंत्री इंद्रजीत गुप्ता ने भी स्वीकार किया था कि देश में एक करोड़ बांग्लादेशी हैं।
मित्रों, 2001 की जनगणना के मुताबिक़, भारत में बांग्लादेशी घुसपैठियों की संख्या 1.5 करोड़ थी. सीमा प्रबंधन पर बने टास्क फोर्स की रिपोर्ट के मुताबिक़, हर महीने तीन लाख बांग्लादेशियों के भारत में घुसने का अनुमान है. केवल दिल्ली में 13 लाख बांग्लादेशियों के होने की बात कही जाती है, हालांकि अधिकृत आंकड़ा चार लाख से कम ही बताता है. भारत-बांग्लादेश सीमा का गहन दौरा करने वाले लेखक वी के शशिकुमार ने इंडियन डिफेंस रिव्यू (4 अगस्त, 2009) में छपे अपने लेख में बताया कि किस तरह दलालों का गिरोह घुसपैठ कराने से लेकर भारतीय राशनकार्ड और वोटर पहचानपत्र बनवाने तक में मदद करता है. दक्षिण दिनाजपुर के हिली गांव में भारत-बांग्लादेश सीमा पर कुछ दीवारें बनाई गई हैं, कोई नहीं जानता कि इन्हें किसने बनाया है, पर यह समझने में मुश्किल नहीं है कि यह तस्करों के गिरोह की करतूत है. वहां सुबह से शाम तक तस्करी और घुसपैठ जारी रहती है. घुसपैठिए ज़्यादा से ज़्यादा गर्भवती महिलाओं को सीमा पार कराते हैं और उन्हें किसी भारतीय अस्पताल में प्रसव कराकर उसे जन्मजात भारतीय नागरिकता दिलवा देते हैं. इस काम में दलाल और उनके भारतीय रिश्तेदार भी मदद करते हैं. मालूम हो कि सीमा के क़रीब रहने वाले लोगों में परंपरागत रूप से अब भी शादी-ब्याह का रिश्ता चलता है. यही नहीं, कुंआरी लड़कियों को बिहार, उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे राज्यों में दुल्हनों के तौर पर बेच दिया जाता है. कई दलाल तो शादी कर उन्हें कोठे पर पहुंचा देते हैं. सीमा से लगी ज़मीन की ऊंची क़ीमतों से भी साबित होता है कि घुसपैठ एवं तस्करी को स्व-रोज़गार का कितना बड़ा साधन बना लिया गया है. इतना ही नहीं,14 जुलाई, 2002 को संसद में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने एक सवाल के जवाब में बताया था कि भारत में 10 करोड़ 20 लाख 53 हज़ार 950 अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं. इनमें से केवल बंगाल में ही ३ करोड़ हैं. इलीगल इमिग्रेशन फॉम बांग्लादेश टू इंडिया : द इमर्जिंग कन्फिल्क्ट के लेखक चंदन मित्रा ने पुस्तक में पश्चिम बंगाल के साथ असम में भी बांग्लादेशी घुसपैठियों से जुड़ी गतिविधियों एवं कार्रवाइयों का पूरा ब्यौरा दिया है. वह लिखते हैं, सच कहें तो पश्चिम बंगाल बांग्लादेशी घुसपैठियों का पसंदीदा राज्य बन गया है. 2003 में मुर्शिदाबाद ज़िले के मुर्शिदाबाद-जियागंज इलाक़े के नागरिकों को बहुउद्देशीय राष्ट्रीय पहचानपत्र देने के लिए केंद्र सरकार द्वारा पायलट प्रोजेक्ट के लिए चुना गया. इसमें भारतीय नागरिकों और ग़ैर-नागरिकों की पहचान तय करनी थी. हालांकि अंतिम रिपोर्ट अभी सौंपी जानी है, पर अंतरिम रिपोर्ट में चौंकाने वाला खुलासा हुआ. इस प्रोजेक्ट के दायरे में आने वाले 2,55,000 लोगों में से केवल 24,000 यानी 9.4 प्रतिशत लोगों के पास भारतीय नागरिकता साबित करने के लिए कम से कम एक दस्तावेज़ था. 90.6 प्रतिशत या 2,31,000 लोग निर्धारित 13 दस्तावेज़ों में से एक भी नहीं पेश कर पाए. आख़िर में इन्हें संदिग्ध नागरिकता की श्रेणी में डालकर छोड़ दिया गया.
मित्रों, यहाँ हम आपको बता दें कि असम के मंगलदोई संसदीय क्षेत्र में 1979 में हुए उपचुनाव में महज दो साल के दरम्यान 70 हजार मुस्लिम मतदाता बढऩे के बाद पहली बार देश में बांग्लादेशी घुसपैठ का मामला प्रकाश में आया था, लेकिन बिहार के लिए भी यह कोई नया मुद्दा नहीं है। 1980 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक बालाजी देवरस बिहार दौरे पर आए थे। तब समस्तीपुर की सभा में पूर्णिया एवं किशनगंज के स्वयंसेवकों ने उन्हें इसकी जानकारी दी थी. इसके बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के महामंत्री की हैसियत से सुशील कुमार मोदी ने सीमांचल के जिलों का सघन दौरा किया था। उन्होंने 1983 में गुवाहाटी हाईकोर्ट के सामने जजेज फील्ड और इसके कुछ दिनों बाद पूर्णिया में बांग्लादेशी घुसपैठ के खिलाफ प्रदर्शन का नेतृत्व भी किया था। तब मुद्दे की गंभीरता को देखते हुए उन्होंने इस पर-'क्या बिहार भी असम बनेगा' पुस्तक भी लिखी थी। इसके बाद पूर्व विधान पार्षद और भाजपा नेता हरेंद्र प्रताप ने भी सीमांचल के इलाके में 1961 से लेकर 1991 की जनगणना के आंकड़ों के आधार बांग्लादेशी घुसपैठ की समस्या को लेकर 'बिहार पर मंडराता खतरा' नाम से किताब लिखी, जिसका 2006 में विमोचन करने भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह पटना आए थे। 1985 के बाद हर चुनाव बिहार में भाजपा के लिए बांग्लादेशी घुसपैठियों का मामला एक मुद्दा रहा है। इसी के बल पर पार्टी को इस इलाके में हर चुनाव में सफलता भी मिलती रही है। कटिहार लोकसभा सीट से भाजपा के निखिल चौधरी के 1999, 2004 और 2009 में लगातार चुनाव जीतने, पूर्णियां 1998 में भाजपा के जयकृष्ण मंडल और 2004 और 2009 में उदय सिंह की जीत तथा अररिया में 98 में रामजी ऋषिदेव, 2004 में सुखदेव पासवान और 2009 में भाजपा के प्रदीप सिंह की जीत के पीछे कहीं न कहीं यह मुद्दा भी कारण रहा है। पार्टी नेताओं की राय है कि इस इलाके में मुस्लिम जनसंख्या में तेजी से हो रही वृद्धि का प्रमुख कारण बांग्लादेशी घुसपैठ है। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह का अभी भी कहना है कि बांग्लादेशी घुसपैठ की समस्या केवल असम तक सीमित नहीं है। पश्चिम बंगाल और बिहार भी इससे अछूते नहीं हैं। इसे जाति और धर्म से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए।
मित्रों, अगर हम 1991 की बिहार की जनगणना पर एक नजर डालें तो उस समय बिहार में हिन्दू आबादी 82.77 प्रतिशत थी और मुस्लिम आबादी 11.02 प्रतिशत. परन्तु 2011 की जनगणना के अनुसार हिन्दू आबादी 79.79 प्रतिशत रह गई और मुस्लिम आबादी 14.22 प्रतिशत हो गई. मतलब कि मुस्लिम आबादी 3.02 प्रतिशत बढ़ गई और हिन्दू आबादी उसी अनुपात में घट गई. बिहार के सीमावर्ती जिलों में अररिया में 1971 में मुस्लिम आबादी 36.52 प्रतिशत थी जो 2011 में मुस्लिम आबादी 42.94 प्रतिशत हो गई अर्थात मुस्लिम आबादी में 6.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई. इसी तरह कटिहार में 1971 में मुस्लिम आबादी 36.58 प्रतिशत थी जो 2011 में बढ़कर 44.46 प्रतिशत हो गई अर्थात मुस्लिम आबादी में वृद्धि 7.88 प्रतिशत की रही. इसी प्रकार पूर्णिया जिले में 1971 में मुस्लिम आबादी 31.93 प्रतिशत थी जो 2011 में बढ़कर 38.46 प्रतिशत हो गई यानि मुस्लिम आबादी में वृद्धि 6.53 प्रतिशत रही जो किसी भी तरह से सामान्य नहीं कही जा सकती।
मित्रों, स्वयं संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछली जनगणना में बांग्लादेश से एक करोड़ लोग गायब हैं। सवाल उठता है कि आखिर ये लोग गए कहाँ? इनको धरती निगल गई या आसमान खा गया. अगर मुसलमानों ने १९४७ में अपने लिए अलग देश नहीं लिया होता तब तो कोई बात नहीं थी लेकिन जब उनको धार्मिक आधार पर अलग देश दे दिया गया है तब भारत क्यों घुसपैठ की समस्या को झेले? इस समस्या का सबसे दुखद पहलू तो यह है कि बिहार और बंगाल के जो नेता विपक्ष में होते हुए कभी बांग्लादेशी घुसपैठियों को तत्काल निकाल-बाहर करने की मांग कर रहे थे इन दिनों वही सत्ता के लालच में एनआरसी का मुखर विरोध कर हिन्दू मतदाताओं और देशहित के साथ धोखा कर रहे हैं जिन्होंने उनको पहली बार जब से सत्ता में आए थे तब वोट दिया था. यह कितनी बड़ी विडंबना है कि अब जब वे नेता सत्ता में काबिज हो गए हैं तब उनको हिन्दुओं की भावनाओं से कुछ भी लेना-देना नहीं है और उनके लिए मुस्लिम वोट ही सबकुछ हो गया? यहाँ तक कि बिहार में भाजपा भी नीतीश कुमार के मिथ्या प्रलापों के आगे मूकदर्शक बनी बैठी है जो हिन्दुओं की एकमात्र पार्टी है. बिहार के मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि बिहार में एनआरसी लागू नहीं होना चाहिए? मैं उनसे पूछता हूँ क्यों नहीं होना चाहिए? क्या वे ऐसा दावे के साथ कह सकते हैं कि बिहार में कोई बांग्लादेशी घुसपैठी नहीं है? अगर उनको अपने ऊपर और अपने महाभ्रष्ट तंत्र के ऊपर इतना ही भरोसा है तो क्यों नहीं वे बिहार में एनआरसी लागू करके दूध का दूध और पानी का पानी हो जाने देते हैं (हालाँकि अभी एनआरसी अभी आई नहीं है)? आखिर इस समस्या पर किताब लिखनेवाले सुशील कुमार मोदी कुछ बोल क्यों नहीं रहे? क्या इस ठण्ड में उनको भी पाला मार गया है?
मित्रों, उस समय भाजपा और उसके आनुषंगिक संगठन बंगादेशी घुसपैठ को लेकर काफी मुखर और उग्र हुआ करते थे. लेकिन इसे राजनीति की माया कहें या सत्ता का लालच आजकल भाजपा के बिहारी नेताओं की जुबान ही नहीं खुलती. बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल यू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार बार-बार कह रहे हैं कि बिहार में एनआरसी यानि नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजनशिप को लागू नहीं किया जाएगा लेकिन बिहार भाजपा जो उनकी सरकार में शामिल है के लोगों की तो जैसे जुबान ही सिल गई है मानों मो. इस्राईल समेत सारे बांग्लादेशी घुसपैठी बिहार छोड़कर चले गए हों.
मित्रों, विभिन्न संस्थाओं एवं मीडिया के मोटे अनुमान के मुताबिक़, भारत में दस करोड़ से भी ज्यादा बंगलादेशी घुसपैठिए बस गए हैं और इनमें से ८० प्रतिशत सिर्फ बिहार,बंगाल,असम और झारखण्ड में हैं. एक अनुमान के अनुसार सिर्फ बिहार में १ करोड़ से ज्यादा बंगलादेशी हैं. 2006 में चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल में ऑपरेशन क्लीन भी चलाया था. 23 फरवरी 2006 तक अभियान चला और 13 लाख नाम काटे गए. हालांकि चुनाव आयोग फिर भी पूरी तरह संतुष्ट नहीं था और उसने केजे राव की अगुवाई में मतदाता सूची की समीक्षा के लिए अपनी टीम भेजी. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन राज्य सचिव अनिल विश्वास ने कहा था, उन्हें सैकड़ों पर्यवेक्षक भेजने दीजिए, अब कोई भी क़दम हमें जीतने से नहीं रोक सकता. इस बयान से अंदाज़ा लगाया गया कि माकपा को अपने समर्पित वोट बैंक पर कितना भरोसा रहा है. राजनीतिक पंडितों का मानना है कि वाममोर्चा के सत्ता में आने के समय से ही मुस्लिम घुसपैठियों को वोटर बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गई. उस समय ममता बनर्जी इस मुद्दे पर काफी मुखर थी और उन्होंने कहा था कि राज्य में दो करोड़ बोगस वोटर हैं. पर अब ममता मुख्यमंत्री बनने के बाद एनआरसी विरोधी हो गई हैं क्योंकि उन्हें भी सिर्फ बंगाल की कुर्सी दिख रही है देश दिखाई नहीं दे रहा.
मित्रों, 1991 की जनगणना में सा़फ दिखा कि असम एवं पूर्वोत्तर के राज्यों के साथ-साथ पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती ज़िलों की जनसंख्या भी कितनी तेज़ी से बढ़ी. एक मोटे अनुमान के मुताबिक़, प. बंगाल के सीमावर्ती ज़िलों के क़रीब 17 प्रतिशत वोटर घुसपैठिए हैं, जो कम से कम 56 विधानसभा सीटों पर हार-जीत का निर्णय करते हैं, जबकि असम की 32 प्रतिशत विधानसभा सीटों पर वे निर्णायक हालत में हैं. असम में भी मुसलमानों की आबादी 1951 में 24.68 प्रतिशत से 2001 में 30.91 प्रतिशत हो गई, जबकि इस अवधि में भारत के मुसलमानों की आबादी 9.91 से बढ़कर 13.42 प्रतिशत हो गई. 1991 की जनगणना के मुताबिक़, इसी दौरान बंगाल के पश्चिम दिनाजपुर, मालदा, वीरभूम और मुर्शिदाबाद की आबादी क्रमशः 36.75, 47.49, 33.06 और 61.39 प्रतिशत की दर से बढ़ी. सीमावर्ती ज़िलों में हिंदुओं एवं मुसलमानों की आबादी में वृद्धि का बेहिसाब अनुपात घुसपैठ की ख़तरनाक समस्या की ओर इशारा करता है. 1993 में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री ने भी लोकसभा में स्वीकार था कि 1981 से लेकर 1991 तक यानी 10 सालों में ही बंगाल में हिंदुओं की आबादी 20 प्रतिशत की दर से बढ़ी, तो मुसलमानों की आबादी में 38.8 फीसदी का इज़ा़फा हुआ. 1947 में बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी 29.17 प्रतिशत थी, जो 2001 में घटकर 2.5 प्रतिशत रह गई. सबूत तमाम तरह के हैं. 4 अगस्त, 1991 को बांग्लादेश के मॉर्निंग सन अख़बार में छपी रिपोर्ट के मुताबिक़, एक करोड़ बांग्लादेशी देश से लापता हैं. छह मई 1997 में संसद में दिए बयान में तत्कालीन गृह मंत्री इंद्रजीत गुप्ता ने भी स्वीकार किया था कि देश में एक करोड़ बांग्लादेशी हैं।
मित्रों, 2001 की जनगणना के मुताबिक़, भारत में बांग्लादेशी घुसपैठियों की संख्या 1.5 करोड़ थी. सीमा प्रबंधन पर बने टास्क फोर्स की रिपोर्ट के मुताबिक़, हर महीने तीन लाख बांग्लादेशियों के भारत में घुसने का अनुमान है. केवल दिल्ली में 13 लाख बांग्लादेशियों के होने की बात कही जाती है, हालांकि अधिकृत आंकड़ा चार लाख से कम ही बताता है. भारत-बांग्लादेश सीमा का गहन दौरा करने वाले लेखक वी के शशिकुमार ने इंडियन डिफेंस रिव्यू (4 अगस्त, 2009) में छपे अपने लेख में बताया कि किस तरह दलालों का गिरोह घुसपैठ कराने से लेकर भारतीय राशनकार्ड और वोटर पहचानपत्र बनवाने तक में मदद करता है. दक्षिण दिनाजपुर के हिली गांव में भारत-बांग्लादेश सीमा पर कुछ दीवारें बनाई गई हैं, कोई नहीं जानता कि इन्हें किसने बनाया है, पर यह समझने में मुश्किल नहीं है कि यह तस्करों के गिरोह की करतूत है. वहां सुबह से शाम तक तस्करी और घुसपैठ जारी रहती है. घुसपैठिए ज़्यादा से ज़्यादा गर्भवती महिलाओं को सीमा पार कराते हैं और उन्हें किसी भारतीय अस्पताल में प्रसव कराकर उसे जन्मजात भारतीय नागरिकता दिलवा देते हैं. इस काम में दलाल और उनके भारतीय रिश्तेदार भी मदद करते हैं. मालूम हो कि सीमा के क़रीब रहने वाले लोगों में परंपरागत रूप से अब भी शादी-ब्याह का रिश्ता चलता है. यही नहीं, कुंआरी लड़कियों को बिहार, उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे राज्यों में दुल्हनों के तौर पर बेच दिया जाता है. कई दलाल तो शादी कर उन्हें कोठे पर पहुंचा देते हैं. सीमा से लगी ज़मीन की ऊंची क़ीमतों से भी साबित होता है कि घुसपैठ एवं तस्करी को स्व-रोज़गार का कितना बड़ा साधन बना लिया गया है. इतना ही नहीं,14 जुलाई, 2002 को संसद में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने एक सवाल के जवाब में बताया था कि भारत में 10 करोड़ 20 लाख 53 हज़ार 950 अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं. इनमें से केवल बंगाल में ही ३ करोड़ हैं. इलीगल इमिग्रेशन फॉम बांग्लादेश टू इंडिया : द इमर्जिंग कन्फिल्क्ट के लेखक चंदन मित्रा ने पुस्तक में पश्चिम बंगाल के साथ असम में भी बांग्लादेशी घुसपैठियों से जुड़ी गतिविधियों एवं कार्रवाइयों का पूरा ब्यौरा दिया है. वह लिखते हैं, सच कहें तो पश्चिम बंगाल बांग्लादेशी घुसपैठियों का पसंदीदा राज्य बन गया है. 2003 में मुर्शिदाबाद ज़िले के मुर्शिदाबाद-जियागंज इलाक़े के नागरिकों को बहुउद्देशीय राष्ट्रीय पहचानपत्र देने के लिए केंद्र सरकार द्वारा पायलट प्रोजेक्ट के लिए चुना गया. इसमें भारतीय नागरिकों और ग़ैर-नागरिकों की पहचान तय करनी थी. हालांकि अंतिम रिपोर्ट अभी सौंपी जानी है, पर अंतरिम रिपोर्ट में चौंकाने वाला खुलासा हुआ. इस प्रोजेक्ट के दायरे में आने वाले 2,55,000 लोगों में से केवल 24,000 यानी 9.4 प्रतिशत लोगों के पास भारतीय नागरिकता साबित करने के लिए कम से कम एक दस्तावेज़ था. 90.6 प्रतिशत या 2,31,000 लोग निर्धारित 13 दस्तावेज़ों में से एक भी नहीं पेश कर पाए. आख़िर में इन्हें संदिग्ध नागरिकता की श्रेणी में डालकर छोड़ दिया गया.
मित्रों, यहाँ हम आपको बता दें कि असम के मंगलदोई संसदीय क्षेत्र में 1979 में हुए उपचुनाव में महज दो साल के दरम्यान 70 हजार मुस्लिम मतदाता बढऩे के बाद पहली बार देश में बांग्लादेशी घुसपैठ का मामला प्रकाश में आया था, लेकिन बिहार के लिए भी यह कोई नया मुद्दा नहीं है। 1980 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक बालाजी देवरस बिहार दौरे पर आए थे। तब समस्तीपुर की सभा में पूर्णिया एवं किशनगंज के स्वयंसेवकों ने उन्हें इसकी जानकारी दी थी. इसके बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के महामंत्री की हैसियत से सुशील कुमार मोदी ने सीमांचल के जिलों का सघन दौरा किया था। उन्होंने 1983 में गुवाहाटी हाईकोर्ट के सामने जजेज फील्ड और इसके कुछ दिनों बाद पूर्णिया में बांग्लादेशी घुसपैठ के खिलाफ प्रदर्शन का नेतृत्व भी किया था। तब मुद्दे की गंभीरता को देखते हुए उन्होंने इस पर-'क्या बिहार भी असम बनेगा' पुस्तक भी लिखी थी। इसके बाद पूर्व विधान पार्षद और भाजपा नेता हरेंद्र प्रताप ने भी सीमांचल के इलाके में 1961 से लेकर 1991 की जनगणना के आंकड़ों के आधार बांग्लादेशी घुसपैठ की समस्या को लेकर 'बिहार पर मंडराता खतरा' नाम से किताब लिखी, जिसका 2006 में विमोचन करने भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह पटना आए थे। 1985 के बाद हर चुनाव बिहार में भाजपा के लिए बांग्लादेशी घुसपैठियों का मामला एक मुद्दा रहा है। इसी के बल पर पार्टी को इस इलाके में हर चुनाव में सफलता भी मिलती रही है। कटिहार लोकसभा सीट से भाजपा के निखिल चौधरी के 1999, 2004 और 2009 में लगातार चुनाव जीतने, पूर्णियां 1998 में भाजपा के जयकृष्ण मंडल और 2004 और 2009 में उदय सिंह की जीत तथा अररिया में 98 में रामजी ऋषिदेव, 2004 में सुखदेव पासवान और 2009 में भाजपा के प्रदीप सिंह की जीत के पीछे कहीं न कहीं यह मुद्दा भी कारण रहा है। पार्टी नेताओं की राय है कि इस इलाके में मुस्लिम जनसंख्या में तेजी से हो रही वृद्धि का प्रमुख कारण बांग्लादेशी घुसपैठ है। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह का अभी भी कहना है कि बांग्लादेशी घुसपैठ की समस्या केवल असम तक सीमित नहीं है। पश्चिम बंगाल और बिहार भी इससे अछूते नहीं हैं। इसे जाति और धर्म से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए।
मित्रों, अगर हम 1991 की बिहार की जनगणना पर एक नजर डालें तो उस समय बिहार में हिन्दू आबादी 82.77 प्रतिशत थी और मुस्लिम आबादी 11.02 प्रतिशत. परन्तु 2011 की जनगणना के अनुसार हिन्दू आबादी 79.79 प्रतिशत रह गई और मुस्लिम आबादी 14.22 प्रतिशत हो गई. मतलब कि मुस्लिम आबादी 3.02 प्रतिशत बढ़ गई और हिन्दू आबादी उसी अनुपात में घट गई. बिहार के सीमावर्ती जिलों में अररिया में 1971 में मुस्लिम आबादी 36.52 प्रतिशत थी जो 2011 में मुस्लिम आबादी 42.94 प्रतिशत हो गई अर्थात मुस्लिम आबादी में 6.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई. इसी तरह कटिहार में 1971 में मुस्लिम आबादी 36.58 प्रतिशत थी जो 2011 में बढ़कर 44.46 प्रतिशत हो गई अर्थात मुस्लिम आबादी में वृद्धि 7.88 प्रतिशत की रही. इसी प्रकार पूर्णिया जिले में 1971 में मुस्लिम आबादी 31.93 प्रतिशत थी जो 2011 में बढ़कर 38.46 प्रतिशत हो गई यानि मुस्लिम आबादी में वृद्धि 6.53 प्रतिशत रही जो किसी भी तरह से सामान्य नहीं कही जा सकती।
मित्रों, स्वयं संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछली जनगणना में बांग्लादेश से एक करोड़ लोग गायब हैं। सवाल उठता है कि आखिर ये लोग गए कहाँ? इनको धरती निगल गई या आसमान खा गया. अगर मुसलमानों ने १९४७ में अपने लिए अलग देश नहीं लिया होता तब तो कोई बात नहीं थी लेकिन जब उनको धार्मिक आधार पर अलग देश दे दिया गया है तब भारत क्यों घुसपैठ की समस्या को झेले? इस समस्या का सबसे दुखद पहलू तो यह है कि बिहार और बंगाल के जो नेता विपक्ष में होते हुए कभी बांग्लादेशी घुसपैठियों को तत्काल निकाल-बाहर करने की मांग कर रहे थे इन दिनों वही सत्ता के लालच में एनआरसी का मुखर विरोध कर हिन्दू मतदाताओं और देशहित के साथ धोखा कर रहे हैं जिन्होंने उनको पहली बार जब से सत्ता में आए थे तब वोट दिया था. यह कितनी बड़ी विडंबना है कि अब जब वे नेता सत्ता में काबिज हो गए हैं तब उनको हिन्दुओं की भावनाओं से कुछ भी लेना-देना नहीं है और उनके लिए मुस्लिम वोट ही सबकुछ हो गया? यहाँ तक कि बिहार में भाजपा भी नीतीश कुमार के मिथ्या प्रलापों के आगे मूकदर्शक बनी बैठी है जो हिन्दुओं की एकमात्र पार्टी है. बिहार के मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि बिहार में एनआरसी लागू नहीं होना चाहिए? मैं उनसे पूछता हूँ क्यों नहीं होना चाहिए? क्या वे ऐसा दावे के साथ कह सकते हैं कि बिहार में कोई बांग्लादेशी घुसपैठी नहीं है? अगर उनको अपने ऊपर और अपने महाभ्रष्ट तंत्र के ऊपर इतना ही भरोसा है तो क्यों नहीं वे बिहार में एनआरसी लागू करके दूध का दूध और पानी का पानी हो जाने देते हैं (हालाँकि अभी एनआरसी अभी आई नहीं है)? आखिर इस समस्या पर किताब लिखनेवाले सुशील कुमार मोदी कुछ बोल क्यों नहीं रहे? क्या इस ठण्ड में उनको भी पाला मार गया है?
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