मित्रों, जबसे अपना देश आजाद हुआ है तभी से विभिन्न राज्यों में तरह-तरह के राजनैतिक समीकरण बनते-बिगड़ते रहे हैं और देश की चुनावी राजनीति में दलितों की भूमिका महत्वपूर्ण होती गई है. खासकर उत्तर भारत में काशीराम और मायावती के पदार्पण के बाद से दलित जिसकी तरफ होते हैं विजयश्री उसी को मिलती है. ऐसे में स्वाभाविक है कि विभिन्न दल लगातार दलितों को अपने पक्ष में करने के प्रयास करते रहते हैं.
मित्रों, कुछ विघ्नसंतोषियों का शुरू से ही यह प्रयास रहा है कि दलितों को बांकी हिन्दुओं से किस प्रकार अलग-थलग करके उसका राजनैतिक लाभ उठाया जाए. प्रारंभ में वामपंथियों ने साहित्य में एक अलग धारा दलित साहित्य के नाम से बनाने और बहाने का प्रयास किया. इस धारा के लोग लगातार यह साबित करने में लगे रहते थे कि सवर्णों ने दलितों पर बेईन्तहा जुल्म ढाहे हैं. पता नहीं इस धारा के लोग कौन-सा इतिहास पढ़कर आए थे. उन लेखकों में कई सारे मुसलमान भी थे जो बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बने हुए थे. मैं पूछता हूँ कि ११९२ ई. के बाद से जब देश की बागडोर मुसलमानों के हाथों में चली गयी तो न जाने सवर्णों ने कब जुल्म किया? वो बेचारे तो खुद ही जुल्म के शिकार थे. वर्तमान में पाकिस्तान में जो दलितों के साथ हो रहा है क्या उसके लिए भी सवर्ण ही जिम्मेदार हैं? समाज में छुआछुत का प्रचलन जरूर था लेकिन वह उस युग की सीमा थी,युगधर्म था. जैसे-जैसे आधुनिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ यह कम होता गया और अब कहीं पर भी इसका नामोनिशान नहीं है.
मित्रों, मध्य प्रदेश,पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान से जरूर अभी भी ऐसी इक्का-दुक्का घटनाओं की खबरें आती रहती हैं जिन्हें दुर्भाग्यपूर्ण कहा जा सकता है. जैसे दलित को घोड़े पर चढ़ने से रोकना, बारात को रोक देना आदि. लेकिन इसके साथ ही ऐसी ख़बरें भी आती हैं जिनमें किसी राजपूत या जाट ने अपनी घोड़ी पर बिठा कर गाँव के दलित की बेटी के बारात निकलवाई तथापि मीडिया में ऐसी ख़बरों को दबा दिया जाता है. जहाँ तक मंदिरों में पूजा करने का सवाल है तो अब किसी भी मंदिर में दलितों को पूजा करने से रोका नहीं जाता बल्कि बिहार में तो बड़े-बड़े मंदिरों में दलितों को ही मुख्य पुजारी बना दिया गया है.
मित्रों, दुर्भाग्यवश आपसी रंजिश में घटित हिंसक घटनाओं को भी मीडिया और नेताओं द्वारा जातीय बना दिया जाता है. मीडिया में इन दिनों यह ट्रेंड भी देखने को मिलता है कि जब भी दलितों का झगडा पिछड़ों या सवर्णों से होता है तो मीडिया और कथित दलित राजनेता उसे तुरंत लपक लेते हैं लेकिन जब मुसलमान दलितों के खिलाफ हिंसा करते हैं तब मामले को दबाने की कोशिश की जाती है. कुछ ऐसा ही प्रयास अभी पाकिस्तान और बांग्लादेश से भारत आए हिन्दुओं को लेकर भी किया जा रहा है.
मित्रों, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि जब हमारे देश का बंटवारा हुआ तब जो हिन्दू पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान में रह गए लगभग वे सारे-के-सारे दलित थे. उन पर १९४७ से ही वहां के मुसलमान भयंकर अत्याचार कर रहे हैं. वहां उनको कोई कानूनी या राजनैतिक संरक्षण प्राप्त नहीं है. उल्टे मुसलमानों ने जब जी चाहा उनकी बालिग-नाबालिग लड़कियों को उठा लिया और जबरन उनका धर्म बदलकर शादी कर दी. वहां की पुलिस और अदालत भी अपहर्ताओं का ही साथ देती है इसलिए बेचारे दलित हिन्दू के पास मन मसोसकर रह जाने और अंत में भारत आने के सिवा और कोई उपाय शेष नहीं रह जाता. और जब भारत सरकार ने इन हिन्दुओं को भारत की नागरिकता देने की ठानी है तो कई दलित नेता भी बेवजह इसका विरोध करते हैं. आश्चर्य होता है कि मायावती और चंद्रशेखर रावण जैसे राजनेता जिनकी पूरी राजनीति दलितों पर आधारित है वे लोग कैसे इस कानून का विरोध कर सकते हैं? तो क्या उनका दलित प्रेम ढोंग मात्र नहीं है? आखिर क्यों रामविलास पासवान को टिकट बांटते समय अपने परिवार से बाहर का कोई दलित दिखाई नहीं देता?
मित्रों, पिछले कुछ सालों से मैं देख रहा हूँ कि ओवैसी भी दलित-दलित की रट लगाए हुए है और डीएम समीकरण यहाँ दलित-मुसलमान समीकरण की बात कर रहा है लेकिन वो भी सीएए का विरोध कर रहा है. तो क्या दलित इतने मूर्ख हैं या अन्धे हैं कि उनको यह सब नहीं दिख रहा? क्या दलित देख नहीं रहे कि किस तरह दलितों की देवी से मायवती दौलत की देवी बन बैठी जबकि दलित वहीँ के वहीँ खड़े रह गए? दलितों और गरीबों की राजनीति करनेवाले लालू, रामविलास पासवान आज किस तरह पैसों के ढेर पर बैठे हैं क्या दलितों को दिख नहीं रहा? भारत के दलितों को देखना चाहिए और समझना चाहिए कि हिन्दू समाज से अलग होकर पाकिस्तान में ही रूक जाने का क्या दुष्परिणाम वहां के दलितों को झेलना पड़ा जैसे पानी से अलग हो जाने पर मछली को झेलना पड़ता है? उनका हित खुद को हिन्दू समाज से अलग समझने में नहीं है बल्कि उसके साथ चलने में है. एकता में ही बल है और जब भी हिन्दू बंटेगा तो कटेगा और फिर घटेगा चाहे वो पाकिस्तान हो या भारत या बांग्लादेश. दलित हमारे हिन्दू समाज के सम्मानित और आवश्यक अंग हैं और हमें ख़ुशी है कि आजादी के बाद से उन्होंने काफी प्रगति भी की है. बिहार में ऐसे हजारों गाँव हैं जिनके मुखिया आज दलित हैं. आज दलितों के पास कार, बाईक क्या नहीं है? आज बहुत सारे हमारे दलित भाई तो बड़े-बड़े उद्योगपति भी हैं.
मित्रों, कुछ विघ्नसंतोषियों का शुरू से ही यह प्रयास रहा है कि दलितों को बांकी हिन्दुओं से किस प्रकार अलग-थलग करके उसका राजनैतिक लाभ उठाया जाए. प्रारंभ में वामपंथियों ने साहित्य में एक अलग धारा दलित साहित्य के नाम से बनाने और बहाने का प्रयास किया. इस धारा के लोग लगातार यह साबित करने में लगे रहते थे कि सवर्णों ने दलितों पर बेईन्तहा जुल्म ढाहे हैं. पता नहीं इस धारा के लोग कौन-सा इतिहास पढ़कर आए थे. उन लेखकों में कई सारे मुसलमान भी थे जो बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बने हुए थे. मैं पूछता हूँ कि ११९२ ई. के बाद से जब देश की बागडोर मुसलमानों के हाथों में चली गयी तो न जाने सवर्णों ने कब जुल्म किया? वो बेचारे तो खुद ही जुल्म के शिकार थे. वर्तमान में पाकिस्तान में जो दलितों के साथ हो रहा है क्या उसके लिए भी सवर्ण ही जिम्मेदार हैं? समाज में छुआछुत का प्रचलन जरूर था लेकिन वह उस युग की सीमा थी,युगधर्म था. जैसे-जैसे आधुनिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ यह कम होता गया और अब कहीं पर भी इसका नामोनिशान नहीं है.
मित्रों, मध्य प्रदेश,पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान से जरूर अभी भी ऐसी इक्का-दुक्का घटनाओं की खबरें आती रहती हैं जिन्हें दुर्भाग्यपूर्ण कहा जा सकता है. जैसे दलित को घोड़े पर चढ़ने से रोकना, बारात को रोक देना आदि. लेकिन इसके साथ ही ऐसी ख़बरें भी आती हैं जिनमें किसी राजपूत या जाट ने अपनी घोड़ी पर बिठा कर गाँव के दलित की बेटी के बारात निकलवाई तथापि मीडिया में ऐसी ख़बरों को दबा दिया जाता है. जहाँ तक मंदिरों में पूजा करने का सवाल है तो अब किसी भी मंदिर में दलितों को पूजा करने से रोका नहीं जाता बल्कि बिहार में तो बड़े-बड़े मंदिरों में दलितों को ही मुख्य पुजारी बना दिया गया है.
मित्रों, दुर्भाग्यवश आपसी रंजिश में घटित हिंसक घटनाओं को भी मीडिया और नेताओं द्वारा जातीय बना दिया जाता है. मीडिया में इन दिनों यह ट्रेंड भी देखने को मिलता है कि जब भी दलितों का झगडा पिछड़ों या सवर्णों से होता है तो मीडिया और कथित दलित राजनेता उसे तुरंत लपक लेते हैं लेकिन जब मुसलमान दलितों के खिलाफ हिंसा करते हैं तब मामले को दबाने की कोशिश की जाती है. कुछ ऐसा ही प्रयास अभी पाकिस्तान और बांग्लादेश से भारत आए हिन्दुओं को लेकर भी किया जा रहा है.
मित्रों, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि जब हमारे देश का बंटवारा हुआ तब जो हिन्दू पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान में रह गए लगभग वे सारे-के-सारे दलित थे. उन पर १९४७ से ही वहां के मुसलमान भयंकर अत्याचार कर रहे हैं. वहां उनको कोई कानूनी या राजनैतिक संरक्षण प्राप्त नहीं है. उल्टे मुसलमानों ने जब जी चाहा उनकी बालिग-नाबालिग लड़कियों को उठा लिया और जबरन उनका धर्म बदलकर शादी कर दी. वहां की पुलिस और अदालत भी अपहर्ताओं का ही साथ देती है इसलिए बेचारे दलित हिन्दू के पास मन मसोसकर रह जाने और अंत में भारत आने के सिवा और कोई उपाय शेष नहीं रह जाता. और जब भारत सरकार ने इन हिन्दुओं को भारत की नागरिकता देने की ठानी है तो कई दलित नेता भी बेवजह इसका विरोध करते हैं. आश्चर्य होता है कि मायावती और चंद्रशेखर रावण जैसे राजनेता जिनकी पूरी राजनीति दलितों पर आधारित है वे लोग कैसे इस कानून का विरोध कर सकते हैं? तो क्या उनका दलित प्रेम ढोंग मात्र नहीं है? आखिर क्यों रामविलास पासवान को टिकट बांटते समय अपने परिवार से बाहर का कोई दलित दिखाई नहीं देता?
मित्रों, पिछले कुछ सालों से मैं देख रहा हूँ कि ओवैसी भी दलित-दलित की रट लगाए हुए है और डीएम समीकरण यहाँ दलित-मुसलमान समीकरण की बात कर रहा है लेकिन वो भी सीएए का विरोध कर रहा है. तो क्या दलित इतने मूर्ख हैं या अन्धे हैं कि उनको यह सब नहीं दिख रहा? क्या दलित देख नहीं रहे कि किस तरह दलितों की देवी से मायवती दौलत की देवी बन बैठी जबकि दलित वहीँ के वहीँ खड़े रह गए? दलितों और गरीबों की राजनीति करनेवाले लालू, रामविलास पासवान आज किस तरह पैसों के ढेर पर बैठे हैं क्या दलितों को दिख नहीं रहा? भारत के दलितों को देखना चाहिए और समझना चाहिए कि हिन्दू समाज से अलग होकर पाकिस्तान में ही रूक जाने का क्या दुष्परिणाम वहां के दलितों को झेलना पड़ा जैसे पानी से अलग हो जाने पर मछली को झेलना पड़ता है? उनका हित खुद को हिन्दू समाज से अलग समझने में नहीं है बल्कि उसके साथ चलने में है. एकता में ही बल है और जब भी हिन्दू बंटेगा तो कटेगा और फिर घटेगा चाहे वो पाकिस्तान हो या भारत या बांग्लादेश. दलित हमारे हिन्दू समाज के सम्मानित और आवश्यक अंग हैं और हमें ख़ुशी है कि आजादी के बाद से उन्होंने काफी प्रगति भी की है. बिहार में ऐसे हजारों गाँव हैं जिनके मुखिया आज दलित हैं. आज दलितों के पास कार, बाईक क्या नहीं है? आज बहुत सारे हमारे दलित भाई तो बड़े-बड़े उद्योगपति भी हैं.
1 टिप्पणी:
जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (10-01-2019 ) को "विश्व हिन्दी दिवस की शुभकामनाएँ" (चर्चा अंक - 3576) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
अनीता लागुरी "अनु"
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