सोमवार, 18 अक्तूबर 2021

महंगाई की मार बेसुध सरकार

मित्रों, महंगाई एक ऐसी चीज है, जो कभी खबरों से बाहर नहीं होती। कभी इसके बढ़ने की खबर है, तो कभी-कभी घटने की हालाँकि ऐसा कम ही होता है। समय साक्षी है कि महंगाई ने इस देश में कई बार सरकारें भी गिरा दी हैं। हालांकि, आजकल के हालात देखकर यकीन करना मुश्किल है कि ऐसा भी होता होगा। मित्रों, महंगाई के मोर्चे पर पिछले कुछ दिनों में आई खबरों पर नजर डालें, तो क्या दिखता है? सरकारी आंकड़ों के अनुसार सितंबर में खुदरा महंगाई की दर पांच महीने में सबसे नीचे आ गई है, जो त्योहारी सीजन में अच्छी खबर मानी जानी चाहिए। लेकिन अगर हम जनसामान्य से बात करें तो निर्धन और माध्यम वर्ग बढती महंगाई से काफी परेशान है. एक तरफ केंद्र सरकार टाटा समूह को राहत दे रही है वहीँ पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस महँगी करके गरीबों की मुट्ठी से पैसे निकाल रही है. ज्ञातव्य हो कि एयर इंडिया पर 31 अगस्त तक कुल 61,562 करोड़ बकाया था। टाटा संस 15,300 करोड़ की जिम्मेदारी लेगी और बाकी 46,262 करोड़ एआईएएचएल को हस्तांतरित किया जाएगा अर्थात ये पैसे सरकार अपने पास से चुकाएगी। मित्रों, सरकार के पास टाटा को राहत पहुँचाने के लिए पैसे हैं, वेदांता के हेयर कट के लिए ४६ हजार करोड़ रूपये हैं लेकिन आम जनता के लिए नहीं हैं? अगर हम सरकार की भी मानें तो वस्तुओं और सेवाओं के दाम घटे नहीं हैं बल्कि उनके दाम बढ़ने की रफ़्तार घटी है. सेवा से याद आया कि आज की तारीख में शिक्षा और स्वास्थ्य पर बढ़ता खर्च भी लोगों को कम तकलीफ नहीं दे रहा है. निजी विद्यालयों और अस्पतालों की मनमानी कोरोना से परेशान आम आदमी को कंगाल करने पर तुली है. एक बच्चे को बारहवीं करवाने में आज १० से १५ लाख रूपये का खर्च आता है जबकि सरकारी विद्यालय सफेद हाथी बनकर रह गए हैं. इसी प्रकार निजी अस्पताल भी लोगों को लूट रहे हैं. सवाल उठता है कि इन दो क्षेत्रों के लिए कोई रेगुलेटरी क्यों नहीं है जो इनकी फीस और चार्जेज पर नियंत्रण रखता? मित्रों, अब समाज के विभिन्न वर्गों पर महंगाई के प्रभावों पर बात करेंगे. सबसे पहले श्रमवीरों की बात. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि प्राइवेट फैक्ट्रियों में काम करनेवाले अधिकतर मजदूरों को रोजाना १२ घंटे काम करने पर भी १०-१५ हजार से ज्यादा नहीं मिलता. अभी एक लीटर सरसों तेल 210 रुपए का है. कुछ महीने पहले इसका भाव 120 रुपए लीटर था. रसोई गैस का सिलेंडर अब 1,050 रुपए का हो गया है. फूलगोभी 100 रुपए किलो तो टमाटर 60 रुपए और प्याज़ 50 रुपए. पेट्रोल ११० और डीजल भी १०० के पार है. जिससे आने वाले दिनों में महंगाई और बढ़ेगी. लेकिन राजनीतिक दलों के लिए ये कोई मुद्दा ही नहीं है. कोई भी महंगाई पर चर्चा नहीं करता. पहले पांच हज़ार रुपए में राशन आराम से आ जाता था, लेकिन अब इतने पैसे में कुछ नहीं होता. प्राइवेट नौकरी में तनख़्वाह बहुत मामूली बढ़ती है. लिहाज़ा घर खर्च चलाने के लिए कई तरह के जोड़ घटाव वाला गणित करना पड़ता है. सच तो यह है कि इस बार अधिकतर मजदूर दुर्गा पूजा में घर के लोगों के लिए कपड़ा तक नहीं ख़रीद सके. बच्चे घर से ऑनलाइन क्लास कर रहे हैं, लेकिन स्कूल है जो ट्यूशन फ़ीस के अलावा भी कई तरह की फ़ीस वसूल रहा है. दुर्भाग्यवश ये भी मुद्दा नहीं बन रहा. इतनी महँगी पढ़ाई पूरी करने के बाद जब सरकारी नौकरी और घर के आस-पास काम नहीं मिलता तभी नौबत परदेश में मजदूरी काम करने तक आ जाती है. अधिकतर मजदूर किराए के एक कमरे में रहते हैं. ज़रूरत के सामान के नाम पर उनके पास एक चारपाई, पंखा, चंद बर्तन और कुछ कपड़े होते हैं. घर-परिवार से दूर रहने के बावजूद जानलेवा महंगाई के कारण उनकी सिर्फ जान बच रही है पैसा नहीं बच रहा. मित्रों, सच तो यह है कि मांग नहीं होने से न सिर्फ क्रेता बल्कि दुकानदार भी परेशान हैं. पहले बीजेपी जब विपक्ष में थी तो ज़ोर-शोर से महंगाई पर कांग्रेस पार्टी को घेरती थी, लेकिन मोदी सरकार के ख़िलाफ़ कांग्रेस पार्टी महंगाई को आज तक मुद्दा नहीं बना सकी. यही वजह है कि आम आदमी की कोई नहीं सुन रहा और मीडिया में केवल सरकार का गुणगान चल रहा है.गरीबों को उज्ज्वला योजना में गैस सिलेंडर मिला. तब वे नहीं जानते थे कि इसे भरवाने में इतना पैसा लगेगा. अब महंगाई इतनी अधिक है कि वे फिर से लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनाने लगे हैं. त्रों, झुलसाती महंगाई ने किसानों को भी कहीं का नहीं छोड़ा है. पिछले कुछ सालों में खेती के लिए ज़रूरी चीज़ों के दाम बहुत बढ़ गए हैं. खाद की क़ीमत पहले की तुलना में दोगुनी हो चुकी है. अब आप 100 बीघा के जोतहर (मालिक) भी हैं, तो महंगाई के कारण सारी ज़मीन पर खेती नहीं करा सकते. ज़मीन परती (ख़ाली) रह जाती है. खाद, बीज, कीटनाशक, पशुओं का चारा, डीज़ल सबकी क़ीमत बढ़ चुकी है. सरकार को किसानों के दर्द से कोई सरोकार नहीं है. ५०० रूपये मासिक में आजकल होता क्या है? अब किसानों को नून-रोटी खाने के लिए भी सोचना पड़ रहा है. तेल-घी की तो बात ही नहीं है. मित्रों, उधर जिन लोगों ने छोटे-मोटे स्कूल खोल रखे थे उनकी हालत भी कोई अच्छी नहीं है। कोविड महामारी के चलते स्कूल बंद हो गया. गैस के दाम बढ़ गए तो लोग दिन भर के लिए सब्ज़ी एक ही बार बनाकर ख़र्च कम करने की कोशिश कर रहे हैं. हरी सब्ज़ी खाना भी कम कर दिया है. कई परिवार तो कोरोना में आमदनी घटने या पूरी तरह से बंद हो जाने चलते पहले से ही इतने लाचार हो चुके हैं कि बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर दिया और उस पर जानलेवा महंगाई की मार. लोग अपने बेटे और बेटी को पोषण वाला खाना भी नहीं दे पा रहे. उनका जीवन स्तर बहुत नीचे आ गया है. समाज में भ्रष्टाचार बढ़ा है क्योंकि लोग ज़रूरतें पूरी करने के लिए आय का ग़लत ज़रिया ढूंढ रहे हैं. मित्रों, सच्चाई तो यह है कि सत्ता पक्ष अराजक हो गया है और आम लोग 'एकाकी' होकर सोचने लगे हैं. मोबाईल और इन्टरनेट ने उनको और भी समाज से काट कर रख दिया है. बढ़ती महंगाई से आदमी तनाव में है, लेकिन वो करे भी तो क्या करे? आम आदमी ने हालात से समझौता कर लिया है. मोदी सरकार आखिरी उम्मीद थी लेकिन अब कोई उम्मीद नजर नहीं आती. मित्रों, रही बात सरकार की तो उसे हम इतना तो कह ही सकते हैं कि तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है उधर जम्हूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है ,नवाबी है लगी है होड़ सी देखो अमीरी औ गरीबी में ये गांधीवाद के ढांचे की बुनियादी खराबी है तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है

कोई टिप्पणी नहीं: