शुक्रवार, 12 अगस्त 2022
नीतीश कुमार का मंकी पॉलिटिक्स
मित्रों, आज से ४० साल पहले जब हम सुनते थे कि अमेरिका-यूरोप में छोटी-छोटी बातों पर विवाह टूट जाता है तो हमें घोर आश्चर्य होता. जैसे अगर पति-पत्नी में से कोई एक खर्राटा लेता है, पति-पत्नी के पसंद के भोजन अलग-अलग हैं इत्यादि. फिर पति और पत्नी अलग. इस तरह एक-एक पुरुष या महिला पूरे जीवन में कई-कई शादियाँ कर चुके होते हैं.
मित्रों, आज जब हम बिहार के कथित समाजवादी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी की राजनीति को देखते हैं तब हमें यूरोप और अमेरिका में छोटी-छोटी बातों पर होनेवाले तलाकों पर आश्चर्य नहीं हो रहा क्योंकि यह आदमी तो कुर्सी पर बने रहने के लिए बार-बार जनमत का भी अपमान कर दे रहा है. इसके लिए जैसे गठबंधन और चुनाव बेमानी हो गए हैं. चुनाव किसी और के साथ मिलकर लड़ो और सरकार किसी और के साथ बना लो. शादी किसी और के साथ और सुहागरात किसी और के साथ. जिस देश में अटल जी ने अपनी सरकार एक वोट से गिरवा ली लेकिन खरीद-फरोख्त नहीं किया उसी देश में उनकी सहायता से बिहार की राजनीति में शून्य से शिखर तक की यात्रा करनेवाला व्यक्ति ऐसा कर रहा है.
मित्रों, जिन लोगों को लगता है कि नीतीश कुमार ने अचानक रामचंद्र प्रसाद सिंह से परेशान होकर यह कदम उठाया है तो उन लोगों को हम बताना चाहेंगे कि ऐसा हरगिज नहीं है. कुछ भी अचानक नहीं हुआ है बल्कि सबकुछ सुनियोजित था. दरअसल नीतीश कुमार की राजनीति ही इसी तरह की रही है. वे हमेशा एकसाथ दो नावों की सवारी करते रहे हैं. वो जब सरकार में भाजपा के साथ होते हैं तो राजद से मेलजोल बनाए रखते हैं और जब राजद के साथ होते हैं तो भाजपा के साथ. जब-जब उनको लगने लगता है कि अब गठबंधन का सहयोगी उनके ऊपर हावी होने लगा है तब-तब वो नाव बदल लेते हैं. फिर कुछ दिनों तक जब तक हनीमून पीरियड रहता है सबकुछ ठीक लगता है और उसके बाद फिर से वही गन्दा खेल . निकाह, तलाक, हलाला और फिर से निकाह. नीतीश अचानक कुछ भी नहीं करते. नीतीश पहले गठबंधन से भागने की योजना बनाते है फिर बहानों की तलाश करते हैं.
मित्रों, एक कहावत है कि लालचियों की बस्ती में ठग कभी भूखो नहीं मरते. बिहार में भी ऐसा ही हो रहा है. सत्ता किसे नहीं चाहिए? भले ही वो आधी सत्ता ही क्यों न हो सो जब भी नीतीश भाजपा या राजद की तरफ हाथ बढ़ाते हैं दोनों लपक लेते हैं और इस प्रकार पिछले २० सालों से नीतीश कुमार बिना विधायक का एक भी चुनाव लड़े मुख्यमंत्री बने हुए हैं. हमने अपने २ जनवरी, २०२२ के आलेख भाजपा-जदयू का लठबंधन में कहा था कि नीतीश विश्वसनीय नहीं है और कभी भी भाजपा के पेड़ से राजद के पेड़ पर छलांग लगा सकते हैं.
मित्रों, ये तो रहा नीतीश कुमार का स्वभाव, उनकी आदत. अब बात करते हैं कि नीतीश जी की गुलाटी के पीछे और कौन-कौन से कारण हैं. तो पहला कारण है नीतीश जी का २०२० के चुनावों में बिहार की जनता से अंतिम बार वोट मांगना. २०२० के बिहार विधान सभा चुनावों में नीतीश जी बिहार की जनता से कह चुके हैं कि मुख्यमंत्री के पद के लिए यह उनका अंतिम चुनाव है. अब जबकि अगले विधान-सभा चुनाव में मात्र ३ साल बचे हैं तो नीतीश जी को उसकी तैयारी के लिए समय चाहिए. फिर भाजपा तो उनको २०२५ में मुख्यमंत्री पद के लिए आगे करने से रही क्योंकि नीतीश वादा कर चुके हैं कि मुख्यमंत्री के रूप में यह उनका अन्तिम कार्यकाल है. इसलिए भी नीतीश कुमार भाग लिए.
मित्रों, एक सम्भावना यह भी है कि तेजस्वी भी उनको २०२५ में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में स्वीकार न करें तो उनके भूतपूर्व पल्टूराम और अबके पल्टूचाचा ने इसके बारे में भी सोंच रखा है और अब जबकि भाजपा ने उनको राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति नहीं बनाया तो वो प्रधानमंत्री बनने का प्रयास करेंगे. सफल हुए तो ठीक और नहीं हुए तो मुख्यमंत्री तो हैं ही. भाजपा तो उनको प्रधानमंत्री का उम्मीदवार कभी बनाती नहीं. डूबती हुई कान्ग्रेस और सत्ता के लिए छछा रहे राजद के लिए तो इस समय नीतीश सोने की खदान दिख रहे हैं. फिर राजद और विकास का तो शुरू से ही ३६ का आंकड़ा रहा है. उसको तो बस लूटना है कभी देश को तो कभी प्रदेश को. हालांकि इस बात की कोई गारंटी नहीं कि नीतीश फिर से कब भाजपा की गोद में बैठ जाएं. तो कहने का तात्पर्य यह कि नीतीश कुमार की मंकी पॉलिटिक्स को जो लोग ऐतिहासिक साबित करने में लगे हैं उन लोगों को समझ लेना चाहिए कि यह व्यक्ति चाइल्ड ऑफ़ टाइम यानी गौं का यार है. यह न तो उसका पहला पाला बदल है और न ही आखिरी. इस व्यक्ति का राजनैतिक डीएनए सचमुच गड़बड़ है. इसलिए राजद को भी यह सोंच-समझकर ही चलना होगा कि उसके साथ भी एकबार फिर से २०१७ की तरह धोखा हो सकता है.
मित्रों, सवाल उठता है कि ऐसे में बिहार की जनता क्या करे? बिहार की जनता के समक्ष विकल्प क्या हैं? अभी परसों से नई सरकार का मुस्लिम तुष्टिकरण शुरू हो चुका है कल से तेजस्वी ने अपने चुनावी वादों से पल्टी मारना शुरू कर यह बता दिया है जैसे चाचा हैं वैसा ही भतीजा भी है इसलिए कथित नई सरकार से कोई उम्मीद नहीं पालिए. मेरी मानिए तो बिहार की जनता के समक्ष बस दो ही विकल्प हैं कि अब वो या तो भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत से जिताए या फिर नए लोगों को जिताए. बिहार में पिछले ३२ सालों से कथित समाजवादी लालू-नीतीश-राबड़ी का शासन है फिर भी बिहार आज भी देश का सबसे पिछड़ा और गरीब राज्य है. आज भी बिहार की हर कुर्सी भ्रष्ट है. इसलिए बिहार की जनता उसे जिताए जिसके पास जोश हो, होश हो, योजनाएं हों, ताजगी हो, लालच नहीं हो और जो जाति-संप्रदाय की राजनीति नहीं करता हो. मेरा मतलब एक बार फिर प्रशांत किशोर जी से है.
बुधवार, 3 अगस्त 2022
विकल्पहीनता से बाहर आता बिहार
मित्रों, इंकलाबी शायर दुष्यंत कुमार ने आज से कई दशक पहले भारतीय लोकतंत्र के लिए कितनी सटीक और हर युग में सामायिक कविता लिखी थी
कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।
यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।
न हो क़मीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफ़र के लिए।
ख़ुदा नहीं, न सही, आदमी का ख़्वाब सही,
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए।
वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए।
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शाइर की,
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए।
जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।
मित्रों, भारत में नेता का मतलब है सपनों का सौदागर. नेता सपने बेचते हैं, वादे बेचते हैं और हम उनकी बातों में आकर बार-बार उनको चुनते रहते हैं. नीतीश कुमार जब मुख्यमंत्री बने और जब बिहार में सरकार चलानी शुरू की तभी हमने उनसे कहा था कि आप एक अतिवाद को छोड़ कर दूसरे अतिवाद की तरफ जा रहे हैं. लालू-राबड़ी राज में जहाँ प्रशासनिक अधिकारियों की कोई कीमत नहीं रह गई थी नीतीश राज में जनता की कोई कीमत नहीं रह गई है. लालू राज में जहाँ अपराधी जनता को लूट रहे थे नीतीश राज में अधिकारी जनता को लूट रहे हैं. बिहार जल रहा है और नीतीश जी चैन की बंशी बजा रहे हैं. या तो वे लाचार हैं और कुछ कर नहीं पा रहे हैं या फिर उनको इस घनघोर अफसरशाही में मजा आ रहा है. उन्होंने कदाचित मूकदर्शक बिहार की जनता को मूर्खदर्शक समझ लिया है.
मित्रों, जब नीतीश जी के क्षेत्र हरनौत के सोनू नामक बच्चे ने नीतीशजी के सामने बिहार के सरकारी स्कूलों की पोल खोल कर रख दी तब लगा था कि अब कम-से-कम बिहार में शिक्षा की स्थिति तो सुधरेगी लेकिन सावन आते ही सारी सख्ती बरसात के पानी में बह गई. सोडावाटर का जोश ठंडा पड़ गया. अब फिर से मास्टर-मास्टरनी स्कूल से गायब हैं या लेटलतीफ हैं. हेडमास्टर सख्ती करे तो उसे पीटा जाता है. जब बिहार की राजधानी पटना के विक्रम के स्कूल की हालत ऐसी है जहाँ तीन मास्टरनी मिलकर उम्रदराज हेड मास्टरनी को कमरा बंद करके पीटती हैं तो दूर-दराज के क्षेत्रों की तो बात ही छोडिए. खुद मेरे गाँव राघोपुर प्रखंड के जुड़ावनपुर बरारी में स्थित मध्य विद्यालय जुड़ावनपुर रामपुर बरारी करारी में शिक्षकों ने पीपा पुल खुलते ही भांज लगा लिया है. पहले दूरवासी जमींदार होते थे अब दूरवासी शिक्षक हैं. सबके सब अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए हाजीपुर-पटना में रहने लगे हैं. किसी दिन कोई शिक्षक स्कूल जाता है तो किसी दिन कोई. बस स्कूल का ताला खुल जाना चाहिए. बीच में जब सोनू मीडिया की सुर्ख़ियों में था तब शिक्षकों के लिए स्कूल से निर्धारित समय-सीमा के भीतर अपनी ताजी तस्वीर व्हाटस ऐप पर भेजना अनिवार्य कर दिया गया था लेकिन अब सब माफ़ है. मैं समझता हूँ कि बिहार में शिक्षा की हालत चाहे वो प्राथमिक शिक्षा हो या उच्च शिक्षा इतनी बुरी अनपढ़ राबड़ी के समय भी नहीं थी जितनी नीतीश के समय है. आखिर बिहार की जनता ने उनको स्थिति में सुधार लाने के लिए मुख्यमत्री बनाया था या बिगाड़ने और बर्बाद कर देने के लिए?
मित्रों, राजस्व और भूमि सुधार विभाग के कामकाज को भी नीतीश सुधार नहीं पा रहे हैं. अभी इसी एक अगस्त को पटना के ही संपतचक सीओ कार्यालय में एक महिला रेखा देवी ने आत्मदाह करने का प्रयास किया। उसकी १५ धुर जमीन की दाखिल-ख़ारिज के लिए सीओ २ लाख रूपये की रिश्वत मांग रहा है. बिहार सरकार को यह समझना होगा कि जनता को इस बात से मतलब नहीं है कि आपने कितने सीओ को निलंबित किया, बर्खास्त किया या कितने पर जुर्माना लगाया बल्कि बिहार की जनता को तो तभी तसल्ली मिलेगी जब उसकी जमीन की दाखिल-ख़ारिज बिहार रिश्वत लिए होने लगेगी.
मित्रों, बिहार में ऐसा कोई सरकारी काम नहीं जिसमें रिश्वत नहीं ली जाती. बिना रिश्वत दिए न तो राशन कार्ड बनता है और न ही १० प्रतिशत कमीशन दिए बिना प्रधानमंत्री आवास योजना का पैसा मिलता है. मनरेगा तो भ्रष्टाचार की गंगा है जिसमें ठेकेदारों के लिए ३५ प्रतिशत कमीशन फिक्स है. औद्योगिक ऋण में अनुदान की राशि घूस में चली जाती है जिससे लाभुकों को अनुदान का लाभ ही नहीं मिल पाता. हर घर नल का जल घर से कहीं ज्यादा सडकों पर बह रहा है. बिहार पुलिस से तो चम्बल के डाकू अच्छे. नीतीश जी जैसे शाहे बेखबर के गृह मंत्री होने से बिहार के पुलिस अधिकारियों को जैसे जनता को लूटने की खुली छूट मिल गई है. जनता के नौकर अफसर खुद को भगवान समझने लगे हैं. सबकुछ खुलेआम हो रहा है, सबको पता है लेकिन नीतीश जी को कुछ भी पता नहीं है. एक रंजीत रजक मांझी जी का खास था एक रंजीत कुमार सिंह नीतीश जी की नाक का बाल है. व्यक्ति बदल गए लेकिन किरदार नहीं बदला इसलिए शायद बिहार नहीं बदला.
मित्रों, बिहार बदलता भी तो कैसे बिहारियों के पास विकल्प ही नहीं था. नीतीश को हटाकर लालू के उस लाल को तो मुख्यमंत्री बना नहीं सकते जो लिखी हुई हिंदी भी नहीं पढ पाता लेकिन चारा-घोटाले के पैसे के दम पर कैम्ब्रिज का दौरा करता है. फिर लालू के लाल को गद्दी सौंपने का मतलब होता बिहार को फिर से जातिवाद और यादववाद की आग में झोंक देना. यह स्थिति तो नीतीश के जंगलराज से भी बुरी स्थिति होगी.
मित्रों, यह हमारे बिहार और हमारा सौभाग्य है कि अब हमारे समक्ष एक सशक्त और सक्षम विकल्प उपलब्ध है और वह विकल्प हैं प्रशांत किशोर जो हर तरह से बिहार के मुख्यमंत्री बनने के लायक हैं. प्रशांत जी के पास जोश भी है और होश भी है. योजना निर्माण के तो वो महारथी हैं. जब उनके नेतृत्व में बिहार में सरकार बनेगी तब बिहार को असली डबल ईंजन वाली सरकार मिलेगी. वर्तमान में तो सिर्फ मोदी जी की केंद्र सरकार का ईंजन चालू है नीतीश जी की सरकार का ईंजन तो कई वर्ष पहले से ही बंद है. आखिर कब तक हम बिहार के लिए बोझ बन चुके नीतीश जी को ढोते रहेंगे? आखिर कब तक? आन्दोलन की भूमि बिहार से फिर एक बार बिहार को बदलने और बचाने के लिए आन्दोलन खड़ा करना होगा जिसके लिए बेदाग छविवाले प्रशांत जी पहल कर चुके हैं. अगर बिहार को बचाना है प्रशांत किशोर को लाना है.
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