सोमवार, 8 दिसंबर 2008
कौन कहता है की आसमान में सूराख नहीं हो सकता
मैं आजकल छुट्टी पर हूँ। बी पी एस सी की तयारी में लगा हूँ। कुछ करना चाहता हूँ सिर्फ़ कहना नही। कहने के लिए और भी बहुत से लोग हैं और मैं इस भीर का हिस्सा नही बनाना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ की आप भी मेरा साथ दे कम से कम अपने अधिकारों को जानने और उसका उपयोग करके सूचना का अधिकार एक बहुत बार अधिकार है। इसका उपयोग अवश्य करे भ्रष्टाचार हमारे देश की सबसे बरी बीमारी है और इसका इलाज है सूचना का अधिकार। कौन कहता है ki aasman men सूराख नहीं हो सकता एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों.
सोमवार, 29 सितंबर 2008
करना ज्यादा महत्वपूर्ण
मैं क्या लिखूं ? क्यों लिखूं ? क्या इसे कोई इसे पढेगा भी ? किशी पर कोई प्रभाव परेगा फ़िर भी मैं लिख रहा हूँ। लिखता जा रहा हूँ। हालाँकि मैं यह जनता हूँ कि लिखने से ज्यादा अमल करना जरूरी है।
बुधवार, 10 सितंबर 2008
क्या होगा इस दुनिया का
अभी साड़ी दुनिया इस बहस में लगी हुई है की १० सेप्टेम्बर को दुनिया रहेगी या नहीं. जहाँ तक मेरा मानना है की बदलेगी और रहेगी दुनिया यही रहेगी. होंगे यही झमेले.
खैर यह मानते हुए की ११ सेप्टेम्बर को भी हम वैसे ही जागेंगे जैसे रोज़ जागते है.
इस दुनिया के भीतर ही सही मेरी एक अलग दुनिया है. मई बात कर रहा हूँ खबरों की दुनिया का. हालत कुछ अच्छे नहीं हैं. १०० रुपीस रोजाना पर मैं बिहार के सबसे बड़े पेपर में पेज एक पर काम करता हूँ.
हालत बदलने की कोशिश में लगा मैं ख़ुद ही हालत का शिकार हूँ और शोषित भी. करूँ भी क्या चापलूसी मुझे आती नहीं और काम की कोई क़द्र करनेवाला है नहीं.
बस ये उम्मीद है की वोह सुबह कभी तो आएगी............
खैर यह मानते हुए की ११ सेप्टेम्बर को भी हम वैसे ही जागेंगे जैसे रोज़ जागते है.
इस दुनिया के भीतर ही सही मेरी एक अलग दुनिया है. मई बात कर रहा हूँ खबरों की दुनिया का. हालत कुछ अच्छे नहीं हैं. १०० रुपीस रोजाना पर मैं बिहार के सबसे बड़े पेपर में पेज एक पर काम करता हूँ.
हालत बदलने की कोशिश में लगा मैं ख़ुद ही हालत का शिकार हूँ और शोषित भी. करूँ भी क्या चापलूसी मुझे आती नहीं और काम की कोई क़द्र करनेवाला है नहीं.
बस ये उम्मीद है की वोह सुबह कभी तो आएगी............
शनिवार, 9 अगस्त 2008
देश और जनता
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की अपनी एक गति होती है, अपनी रफ्तार होती है देश भी इसके अपवाद नहीं। कोई भी देश अपने नागरिकों से ही बनता है जैसे नागरिक होंगे देश भी वैसा ही होगा। अपने निष्ठावान नागरिकों की बदौलत ही जापान जैसा छोटा देश आर्थिक महाशक्ति है , vahइन हम विशाल क्षमता के होते हुए भी गरीब और पिछडे हैं । क्या हमारा भारत सचमुच मुर्दों का देश है। निरी भौतिकता और निरी आधात्मिकता दोनों ही घातक हैं और हमे इन दोनों के बीच संतुलन बनाकर चलना होगा। हमारा भौतिकता की और दौड़ हमे बर्बादी की और ही ले जायेगी और कहीं नहीं.
रविवार, 3 अगस्त 2008
मीडिया और घोराशाही
मैंने बचपन में एक लेख पढ़ा था मैथिलीशरण गुप्ता के अनुज सियारामशरण गुप्ता का लिखा हुआ घोराशाही. जिसमे कहा गया था की मशीनें आदमी को अपनी ओर खींचती हैं, शोषण के लिए. और आदमी बाध्य है वह न चाहते हुए भी पहुँच जाता है अपने शोषण के लिए. पटना में मीडिया कर्मियों की भी वही स्थिति है. वह यह जानते हुए भी की उसका शोषण किया जा रहा अपना शोषण करवा रहा है. इस उम्मीद में की शायद कल आज की तरह न हो. कोई इसका अपवाद नहीं है. योग्यता से अधिक यहाँ चापलूसी की क़द्र है.
बुधवार, 30 जुलाई 2008
कर्तव्यहीनता
कर्तव्यहीनता की स्थिति है पूरे भारत में,
राजनेता राजनीति छोड़ सब kuch kar rahe hain,
चोरी, डकैती, अपहरण, बलात्कार,
इसी तरह खिलाड़ी खेल छोड़ हर तरह के काम कर रहे हैं,
राजनेता राजनीति छोड़ सब kuch kar rahe hain,
चोरी, डकैती, अपहरण, बलात्कार,
इसी तरह खिलाड़ी खेल छोड़ हर तरह के काम कर रहे हैं,
गुरुवार, 24 जुलाई 2008
जीना किसे कहते हैं.
क्या हम जिस तरह जी रहे हैं, वह सही है। क्या इसे ही जीना कहते हैं? जीवन के बहाव में बहते जाना तो जीना नहीं हो सकता। कभी ग़ालिब ने कहा था
आ के इस दुनिया में ग़ालिब और क्या हम कर गए,
पैदा हुए शादी हुई बूढे हुए और मर गए।
मेरे अनुसार तो यह जीना नहीं है। जीना है परिस्थियों से लड़ना और बदल जाने के लिए बाध्य कर देना। आपकी क्या राय है।
आ के इस दुनिया में ग़ालिब और क्या हम कर गए,
पैदा हुए शादी हुई बूढे हुए और मर गए।
मेरे अनुसार तो यह जीना नहीं है। जीना है परिस्थियों से लड़ना और बदल जाने के लिए बाध्य कर देना। आपकी क्या राय है।
रविवार, 20 जुलाई 2008
मेरी जिंदगी
जिंदगी एक जुआ
मैं चाहे अनचाहे खेलता रहा हूँ जुआ
जिंदगी का जुआ
लगता रहा हूँ दांव पर दांव
कभी जीतता तो कभी हारता रहा हूँ
फ़िर भी अब तक नहीं जान पाया हूँ
कि कब कौन सा दांव सीधा पड़ेगा
और कौन सा दांव उल्टा.
मैं चाहे अनचाहे खेलता रहा हूँ जुआ
जिंदगी का जुआ
लगता रहा हूँ दांव पर दांव
कभी जीतता तो कभी हारता रहा हूँ
फ़िर भी अब तक नहीं जान पाया हूँ
कि कब कौन सा दांव सीधा पड़ेगा
और कौन सा दांव उल्टा.
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