शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010
इंग्लैंड का इतिहास सिलेबस में गुलामी का प्रतीक
राजनीतिक रूप से हम भले ही १९४७ में ही आजाद हो गए हों लेकिन भाषिक और मानसिक रूप से हम आज भी इंग्लैंड के गुलाम हैं.तभी तो हमारी राजभाषा अंग्रेजी बनी हुई है और हमारे सिलेबस में बना हुआ है इंग्लैंड का इतिहास.बिहार के सभी विश्वविद्यालयों में तीन वर्षीय स्नातक कोर्स के इतिहास प्रतिष्ठा में प्रथम वर्ष के छात्र-छात्राओं को द्वितीय पत्र में इंग्लैंड का इतिहास पढाया जाता है.प्रथम पत्र में प्राचीन भारत का इतिहास पढाया जाता है जो १०० अंकों का होता है.इंग्लैंड का  इतिहास भी ठीक इतने ही अंको का सिलेबस में रखा गया है.आखिर हमारे लिए इंग्लैंड का इतिहास इतने विस्तार से पढ़ने का क्या औचित्य है?क्या यह हमारी गुलाम मानसिकता का प्रतीक नहीं है?इंग्लैंड का इतिहास के बदले हम जर्मनी या फ़्रांस का इतिहास क्यों नहीं पढ़ सकते?या फ़िर चीन, नेपाल या अपने किसी दूसरे पड़ोसी देश का इतिहास विस्तार से पढना क्या हमारे लिए ज्यादा फायदेमंद नहीं रहता?कितने दुःख की बात है कि हम अपने पड़ोसी देशों के इतिहास के बारे में तो कुछ भी नहीं जानते और बेवजह सात समंदर पार का इतिहास पढ़ते हैं.मैं इंग्लैंड का इतिहास पढने का विरोधी नहीं हूँ लेकिन इसे इतने विस्तार से पढने की क्या जरूरत है? यूरोप के इतिहास में हम जितना इंग्लैंड के बारे में पढ़ते हैं उतना ही हमारे सामान्य ज्ञान या विशेष ज्ञान के लिए काफी है.अच्छा यही रहेगा कि हम गुलामी के प्रतीक इस द्वितीय पत्र से इंग्लैंड के इतिहास को ठीक उसी प्रकार निकाल-बाहर कर दें जैसे हमने अंग्रेजों को किया था और उसकी जगह अपने किसी निकट पड़ोसी का इतिहास पढ़ें.
बुधवार, 28 अप्रैल 2010
सी.बी.आई. यानी केंद्र सरकार का कुत्ता
सी.बी.आई. का गठन १९४१ में अंग्रेजों ने भ्रष्टाचार को रोकने के उद्देश्य से किया था लेकिन आजादी के बाद इंदिरा युग में इसका दुरुपयोग धड़ल्ले से शुरू हो गया.दरअसल सी.बी.आई. का काम भ्रष्टाचारियों को पकड़ना और सजा दिलवाना नहीं है वास्तव में उसका काम ऊंची रसूखवाले भ्रष्टाचारियों को कानून से बचाना है.उसे अगर हम सरकारी कुत्ता कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.जैसे कुत्ते मालिक के प्रति वफादार होते हैं उसी तरह यह सी.बी.आई. भी केंद्र सरकार के प्रति वफादार है.वह उसके इशारे पर ही भौंकती है और उसी के इशारे पर काटती है या फ़िर चुप्पी लगा जाती है जैसे इसने टाईटलर और क्वात्रोची को केंद्र के इशारे पर बरी करवा दिया वहीँ नरेन्द्र मोदी सरकार के पीछे नहा धोकर पड़ गई है.निठारी कांड और आरुषी हत्याकांड को इसने कुछ इस तरह उलझाया कि अब सुलझाना संभव ही नहीं रहा. यह केंद्र की कई तरह से संसद में बहुमत जुटाने में सहायता भी करती है.माया मेमसाब अगर पटरी पर नहीं आ रही है तो सी.बी.आई. को आगे कर दो या फ़िर लालू भैया को पटरी पर लाना है तब सी.बी.आई. ही उन्हें रास्ते पर लाने का काम करती है.कई बार सी.बी.आई. को स्वायत्त बनाने की बात आई.लेकिन बात बात से आगे नहीं बढ़ पाई.कोई भी दल केंद्रीय सत्ता में आते ही इस मुद्दे को रद्दी की टोकरी में डाल देता है, कौन चाहेगा कि कुत्ता शेर बन जाए इस तरह तो खुद सत्ताधारी दल के नेता भी खतरे में आ जायेंगे.
बंद आयोजित करने के बदले समाधान सुझाइए
 कल कुछ विपक्षी पार्टियों ने बढती महंगाई के खिलाफ बंद का आयोजन किया.देश के कुछ हिस्सों में सारी मानवीय गतिविधियाँ ठप्प पड़ गईं.कई जगहों पर बंद समर्थकों ने आम जनता के साथ दुर्व्यवहार भी किया.क्या इस तरह बंद आयोजित करना उचित है?इसका आयोजन करने से तो कम-से-कम महंगाई तो कम होने से रही.अगर बंद से समस्या का समाधान नहीं हो सकता तो फ़िर बंद के आयोजन का क्या औचित्य है?एक दिन के बंद से देश को अरबों रूपये का नुकसान होता है.दैनिक मजदूरों की तो जान पर बन आती है और उन्हें परिवार सहित भूखा रहना पड़ता है.इसलिए भी बन्दों के आयोजन करने से बेहतर है कि आयोजक सरकार और जनता के समक्ष लक्षित समस्या का समाधान रखें.वैसे भी मैं आज तक किसी भी राजनीतिक दल या उसके नेता को समाधान सुझाते नहीं देखा.इसका सीधा मतलब है कि उनके बंद का एकमात्र उद्देश्य जनता के सामने जनहितैषी होने का दिखावा करना भर है.अगर वे सच्चे जनहितैषी होते तो संसद में सरकार को सुझाव देते या प्रेस के माध्यम से समाधान बताते बंद का आह्वान नहीं करते.वास्तव में राजनीतिक दलों को बन्दों के दौरान अपनी शक्ति के प्रदर्शन का मौका मिल जाता है.उनके कार्यकर्ताओं को गुंडागर्दी करने का.फ़िर भी मैं बंद को मौलिक अधिकार मानता हूँ और इस पर पूर्ण प्रतिबन्ध के पक्ष में नहीं हूँ.हाँ संविधान में संशोधन कर ऐसी व्यवस्था की जा सकती है कि बंद का आयोजन करने से पहले नेताओं के लिए लक्षित समस्या का समाधान सुझाना भी जरूरी हो जाए.
कल कुछ विपक्षी पार्टियों ने बढती महंगाई के खिलाफ बंद का आयोजन किया.देश के कुछ हिस्सों में सारी मानवीय गतिविधियाँ ठप्प पड़ गईं.कई जगहों पर बंद समर्थकों ने आम जनता के साथ दुर्व्यवहार भी किया.क्या इस तरह बंद आयोजित करना उचित है?इसका आयोजन करने से तो कम-से-कम महंगाई तो कम होने से रही.अगर बंद से समस्या का समाधान नहीं हो सकता तो फ़िर बंद के आयोजन का क्या औचित्य है?एक दिन के बंद से देश को अरबों रूपये का नुकसान होता है.दैनिक मजदूरों की तो जान पर बन आती है और उन्हें परिवार सहित भूखा रहना पड़ता है.इसलिए भी बन्दों के आयोजन करने से बेहतर है कि आयोजक सरकार और जनता के समक्ष लक्षित समस्या का समाधान रखें.वैसे भी मैं आज तक किसी भी राजनीतिक दल या उसके नेता को समाधान सुझाते नहीं देखा.इसका सीधा मतलब है कि उनके बंद का एकमात्र उद्देश्य जनता के सामने जनहितैषी होने का दिखावा करना भर है.अगर वे सच्चे जनहितैषी होते तो संसद में सरकार को सुझाव देते या प्रेस के माध्यम से समाधान बताते बंद का आह्वान नहीं करते.वास्तव में राजनीतिक दलों को बन्दों के दौरान अपनी शक्ति के प्रदर्शन का मौका मिल जाता है.उनके कार्यकर्ताओं को गुंडागर्दी करने का.फ़िर भी मैं बंद को मौलिक अधिकार मानता हूँ और इस पर पूर्ण प्रतिबन्ध के पक्ष में नहीं हूँ.हाँ संविधान में संशोधन कर ऐसी व्यवस्था की जा सकती है कि बंद का आयोजन करने से पहले नेताओं के लिए लक्षित समस्या का समाधान सुझाना भी जरूरी हो जाए.भारत में फैले भ्रष्टाचार की बानगी भर है आई.पी.एल.
पिछले कुछ दिनों से भारतीय क्रिकेट के सबसे चमकदार चेहरे आई.पी.एल. में बेपर्दा होने और करने का बदसूरत खेल चल रहा है.हमारे राजनेता सिर्फ राजकाज ही चलाने में महारत नहीं रखते बल्कि आर्थिक लाभ के लिए कुर्सी का बेजा इस्तेमाल करने में भी उनका कोई जवाब नहीं.अब तक जो तथ्य सामने आ रहे हैं उससे तो यही संकेत मिल रहे हैं कि केंद्र सरकार के कई मंत्रियों ने अपने पदों का दुरुपयोग किया और आई.पी.एल. में बिना एक पैसा दिए करोड़ो की हिस्सेदारी हासिल की.आई.पी.एल. को लाभ पहुँचाने के लिए कानून तक में बदलाव कर दिए गए.पिछले सप्ताह ही मेडिकल कौंसिल ऑफ़ इंडिया का अध्यक्ष भी घूस लेते पकड़ा गया और उसके बाद उसके पास से जितना धन निकला उसे देखकर शायद कुबेर भी शरमा जाते लगभग ढाई हजार करोड़ का सोना और अन्य संपत्तियां.कहते हैं कि चावल बनाते समय सिर्फ एक चावल को देख लेना ही काफी होता है यह पता लगाने के लिए कि भात पक गया या कच्चा है.उसी तरह भारत में भ्रष्टाचार किस तरह हमारी संस्कृति में शामिल हो चुका है यह जानने के लिए बस यही दो उदाहरण काफी हैं.
सोमवार, 26 अप्रैल 2010
नक्सलवाद का जवाब भ्रष्ट पंचायती राज नहीं हो सकता
आज पूरा देश नक्सलियों के बढ़ते प्रभाव से परेशान है ऐसे में देश के मुखिया का चिंतित होना भी लाजिमी है.लेकिन सिर्फ चिंतित होने से तो कुछ होनेजानेवाला हैं नहीं. इसके लिए प्रभावी कदम उठाने पड़ेंगे और कोई सरकार प्रभावी कदम तभी उठा सकती है जब उसे ग्रास रूट लेवल पर हालात क्या हैं की समझ हो या जानकारी हो.लेकिन लगता है हमारे देश के वर्तमान मुखिया को इस बात की जानकारी नहीं है कि पंचायती राज के दौरान पंचायतों में क्या हो रहा है.नहीं तो ऐसा वे बिल्कुल भी नहीं कहते कि हम नक्सलवाद का जवाब पंचायती राज से देंगे.दरअसल पंचायतों में जो लूट का खुला खेल चल रहा है उससे जनता का नहीं बल्कि ग्राम प्रधानों और उनके चमचों का कायाकल्प हो रहा है.प्रधानमंत्रीजी अगर गांवों में जाएँ तो उन्हें पता चलेगा कि बहुप्रचारित मनरेगा  के तहत  दी जानेवाली लगभग पूरी राशि को किस तरह फर्जीवाड़े की सहायता से प्रधानजी डकार जा रहे हैं.किसी भी योजना में सरकार के लिए सिर्फ राशि उपलब्ध करवा देना ही काफी नहीं होता बल्कि उस धन का उपयोग उचित तरीके से हो रहा है कि नहीं यह देखना भी सरकार का ही काम है.पूरे देश में गरीबों के बढ़ते समर्थन के बल पर दिन दूनी रात चौगुनी की गति से बढ़ रही नक्सलवाद की समस्या का मुकाबला भ्रष्टाचार का प्रतीक बन चुके पंचायती राज के माध्यम से भला कैसे किया जा सकता है?यह तभी नक्सलवाद की काट बन सकता है जब इसे भ्रष्टाचार से मुक्त कर दिया जाए जिससे गरीबों को वास्तव में लाभ हो उन्हें लगे कि भारत सरकार को उनकी भी चिंता है और वे भी देश के लिए कुछ महत्व रखते हैं और देश के लिए कुछ्ह कर सकते हैं.वर्तमान पंचायती राज में कुछ लोग भ्रष्टाचार की माया से गरीब से बहुत ही धनी होते जा रहे हैं जबकि ज्यादातर गरीब जनता पहले भी मूकदर्शक थी और अब भी मूकदर्शक है.लेकिन वे चुप भले ही हों उनके अन्दर नाराजगी का एक ज्वालामुखी उबाल मार रहा है और उन्हें बहकाने के लिए नक्सली नेता उपलब्ध हैं ही.इसलिए मनमोहन जी ड्राईंग रूम में बैठकर योजनायें और बातें बनाना छोड़िये और ग्रास रूट लेवल पर जो समस्याएं हैं का अध्ययन करिए और उनका समाधान खोजिये.अन्यथा एक दिन आपकी ही तरह शाहे बेखबर रहे बहादुर शाह जफ़र की तरह आपका शासन भी दिल्ली से पालम तक रह जायेगा.
गुरुवार, 22 अप्रैल 2010
पत्नी चालीसा
नमो नमो पत्नी महरानी.तुमरी महिमा कोई न जानी. हमने समझा तुम अबला हो.पर तुम सबसे बड़ी बला हो.माई को बेटा से पिटवावे.तब जाके उर ठंढक पावे.जिस घर में हो तुमरा वास.सास ससुर करे स्वर्ग निवास.घर के खंड-खंड करवावे.अपनी दुनिया आप बसावे.अपने घर को नरक बनावे.तब आधुनिक नारी कहावे.भाई के पूत पर नेह लुटावे.अपनी बेटी को टुगर बनावे.नैहर के कुक्कुर भी आवे.उसकी सेवा पति से करवावे.जीजा को देखत तन फड़के.नंदोई को देख के भड़के.बेटा पहले नाना जाने.बाद में फ़िर पापा पहचाने.देवर ससुर को धूल चटाए.भाई बाप को सूप पिलाये.बाहर पति शेर कहलावे.घर आकर चूहा बन जावे.जिस दिन हाथ में बेलन आवे.उस दिन पति घर लौट न पावे.सारे बेड पे पत्नी सोये.पति बैठ के फर्श पे रोये.भाई को दे पूड़ी-हलवा.प्राणनाथ को उबला अलुआ.बहिन उड़ाए चाट और घुघनी.ननद की थाल में सूखी सुथनी.ननद को ना दे फूटी कौड़ी.बहिन को देवे सोने की सिकड़ी.सास ननद को नाच नचावे.अपने कोप भवन में जावे.तुमसे ही घर मथुरा काशी.तुमसे ही घर सत्यानाशी.पत्नी चालीसा जो नर गावे.सब सुख छोड़ परम दुःख पावे.
सोमवार, 19 अप्रैल 2010
ऑनेस्टी इज द वर्स्ट पॉलिसी
मैं बचपन से ही किताबों में और कई बार सरकारी कार्यालयों के दफ्तरों की दीवारों पर पढता आ रहा हूँ कि ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी.मैंने सिर्फ इस सिद्धांतवादी वाक्य को पढ़ा ही नहीं है भोगा भी है, जिया भी है.दरअसल मेरे पिताजी नितांत ईमानदार व्यक्ति हैं.वे अब कॉलेज प्रिंसिपल के पद से रिटायर हो चुके हैं.अपनी ३४ साल की नौकरी के दौरान उन्होंने कभी गलत तरीके से पैसा नहीं कमाया.मुफ्त में बच्चों को गेस पेपर और नोट्स देना उनकी ड्यूटी का हिस्सा थे.उन्होंने कभी ट्यूशन नहीं पढाया.छात्र आज भी उनका आदर करते हैं.लेकिन जिंदगी अच्छी तरह चलाने के लिए सिर्फ सम्मान ही काफी नहीं होता.कभी गांधी ने भी देश के प्रति समर्पित होने और परिवार पर ध्यान न देने की कीमत चुकाई थी.इस विषय पर यानी पुत्र हरिलाल गांधी और गांधी के बीच के तनावपूर्ण संबंधों पर हाल ही में एक फिल्म भी आई थी जिसमें मुख्य भूमिका में अक्षय खन्ना थे.पिताजी पर दूसरी बात लागू नहीं होती.उन्होंने हमेशा हमारा ख्याल रखा शायद खुद से भी ज्यादा.लेकिन जब पूरा समाज बेईमान हो जाए तो एक ईमानदार के परिवार को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है.हमें भी करना पड़ा.बचपन की एक घटना मुझे याद आती है.मेरे मौसा परिवार सहित हमारे पास आये हुए थे.मेरे मौसा जिला मत्स्य पदाधिकारी थे और उनकी ऊपरी आमदनी लाखों में थी.उन्होंने मेरे हमउम्र मौसेरे भाई को एक खिलौना बन्दूक खरीद दी.मैं घर आकर रोने लगा लेकिन हमारे पास इतने पैसे नहीं थे कि बन्दूक खरीद सकते.बाद में हम गाँव से शहर आ गए और १९९२ से अब तक किराये के मकान में रह रहे हैं.एक जमीन भी पिताजी ने ली लेकिन गाँव के ही एक चाचा ने धोखा दिया और रास्ते की तरफ से जमीन दिखा कर पीछे से लिखवा दिया और हजारों रूपये की भी दलाली खा गए.नतीजा रजिस्ट्री के ५ साल बाद भी जमीन में रास्ता नहीं है और हम अब दूसरी जमीन खोज रहे हैं.पिछले १८ सालों में हमने न जाने कितने डेरे बदले, मोहल्ले बदले, पड़ोसी बदले.होता यह है कि साल-दो-साल रखने के बाद मकान मालिक को हम घाटे का सौदा लगने लगते हैं क्योंकि नया किरायेदार ज्यादा पैसे देने को तैयार होता है.कुछेक महीने प्रताड़ना झेलने के बाद हम आशियाना बदल देते हैं और चल देते हैं ईमानदारी की लाश को कन्धों पर उठाये नए मकान मालिक की शरण में.आज भी मैं साईकिल की सवारी करता हूँ जबकि गाँव में मेरे खेतों में काम करनेवालों के पास भी मोटरसाईकिल है.शहर में मेरे मकान मालिक मास्टर से लेकर चपरासी तक रहे हैं.उन्होंने किस तरह शहर में घर बनाने के लिए पैसों का जुगाड़ किया आप आसानी से समझ सकते हैं.अगर वे भी मेरे पिताजी की तरह ईमानदार होते हो उनका भी अपना घर नहीं होता.मैंने कभी घूस देकर नौकरी लेने के बारे नहीं सोंचा क्योंकि ईमानदारी मेरे खून में थी.इसलिए सरकारी नौकरी नहीं हुई हालांकि पढाई में मैं किसी से कमजोर नहीं रहा लेकिन न जाने क्यों किसी भी प्रतियोगिता परीक्षा में अंतिम रूप से  सफल नहीं हो सका.प्रेस में आया तो यहाँ बुजदिलों का जमावड़ा देखने को मिला.ज्यादा दिनों तक उन्हें झेल नहीं पाया और बाहर आ गया.अब लड़की वाले आते हैं तो पाते हैं कि लड़का बेरोजगार है और बेघर भी.देखते ही वे उल्टे पांव लौट जाते हैं.जाहिर-सी बात है कि मैं अब तक कुंवारा हूँ.भले ही मुझे और मेरे परिवार को पिताजी की ईमानदारी के चलते गम-ही-गम झेलने पड़े हों फ़िर भी मैं भी ताउम्र ईमानदारों की ज़िन्दगी जियूँगा.शायद मेरी होनेवाली पत्नी मेरा साथ न भी निभाए लेकिन फ़िर भी मैं ईमानदार हूँ और ईमानदार रहूँगा.ईमानदारी मेरे खून में तो है ही लेकिन मुझे इसके चलते मिलने वाले दुखों से भी प्यार हो गया है.बेईन्तहा प्यार.कभी अब्राहम लिंकन ने कहा था कि गलत तरीके से सफल होने के बदले मैं सही रास्ते पर रहकर असफल होना ज्यादा बेहतर मानता हूँ.मेरे पिताजी भी ऐसा ही मानते थे और अब मैं भी ऐसा ही मानता हूँ.
आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना
विज्ञान कहता है कि पहले इंसान इन्सान नहीं बल्कि बन्दर था खैर होगा लेकिन हमने तो नहीं देखा.धीरे-धीरे सभ्यता के विकासक्रम में वह आदमी से इन्सान बना.यह विकास सिर्फ सतही नहीं था बल्कि उसमें कई मानवोचित गुणों-अवगुणों का भी समय के साथ-साथ विकास हुआ.पहले जहाँ श्रम-प्रधान अर्थव्यवस्था आई बाद में मशीनों ने मानवों का काम करना शुरू कर दिया.अब जिसके पास जितनी ही ज्यादा संख्या में और अत्याधुनिक मशीनें थीं वही सबसे धनवान बन गया.मशीनों की खरीद के लिए तो पैसा चाहिए घर में तो मशीनें बन नहीं सकतीं.तो इस तरह शुरुआत हुई पूंजीवाद की.पहले जहाँ भगवान सबको नाचते थे और दुनिया को चलाते थे अब पैसा सबको नचाने लगा.पहले आदमी मशीन का मददगार बना और अब खुद ही मशीन बन गया है.दिन-रात वह सुविधाएँ जुटाने की जुगत में, भाग-दौड़ में लगा रहता है.रातों में जागना उसके लिए अब सामान्य बात हो गई है.दिन और रात आते हैं और गुजर जाते हैं लेकिन दिन-रात जानवरों की तरह खटने के बावजूद काम है कि समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा है.उसकी जरूरतें काफी बढ़ गई हैं या अगर हम कहें कि उसकी आवश्यकताएं अनंत हो गई हैं तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी.अनंत की पूर्ति के लिए अनंत साधनों के साथ अनंत प्रयास करने पड़ेंगे और आदमी की क्षमता और साधन है कि सीमित हैं. जब सामान्य तरीके से  जरूरत के अनुसार धन कमाना संभव नहीं हो पाता तब वह गलत रास्ता अख्तियार करता है और धनपिशाच बनकर रह जाता है.पैसों के लिए जारी भाग-दौड़ के चलते सम्बन्ध और रिश्ते भी अब अपना अर्थ खोने लगे हैं.सब कुछ पैसा हो गया है.लोग अब यह नहीं देखते की धन कमाने के लिए किसी ने सही रास्ता अपनाया है या गलत.जिसके पास पैसा है वही पूज्य है.धोखा, छल की अब अवगुणों में नहीं गुणों में गिनती होने लगी है.पहले जहाँ इन्सान कर्ता,पैसा साधन मात्र और सुख साध्य था अब पैसा एकसाथ कर्ता व साध्य और इन्सान साधन बनकर रह गया है.तत्कालीन केंद्रीय मंत्री दिलीप सिंह जूंदेव ने कुछ साल पहले गुप्त रूप से तैयार किये गए एक वीडियो में कहा था कि खुदा कसम पैसा खुदा तो नहीं है लेकिन यह खुदा से कम भी नहीं है.लेकिन अब पैसा खुदा ही नहीं है बल्कि खुदा से भी बड़ा हो गया है और इंसान अपने पद से गिरकर पशु बनकर रह गया है.पैसों से उसने बेशुमार सुविधाएँ जुटा ली हैं लेकिन उसका दिन का चैन और रातों की नींद हवा हो गई है. दिल ने काम करना बंद कर दिया है सिर्फ उसका दिमाग काम कर रहा है.आज ग़ालिब की इन पंक्तियों की प्रासंगिकता और भी ज्यादा हो गई है-दुश्वार है काम का आसां होना, आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सान होना.
मंगलवार, 13 अप्रैल 2010
किस जन्म का बदला ले रही है यू.जी.सी.
बदला भारतीय फिल्मों में सबसे ज्यादा नजर आने वाला तत्त्व है.वैसे यह गांधी का देश है और बतौर गांधीजी अगर कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल बढ़ा दो.लेकिन ये किताबी बातें हैं और किताबों में ही अच्छी लगती हैं क्योंकि वास्तविकता हो यह है कि अपने देश में हर कोई हमेशा ईंट का जवाब पत्थर से देने की फ़िराक में लगा रहता है.बदला लेने के भी एक-से-एक तरीके हैं उनमें से कुछ आपकी शान में पेश करने की अनुमति चाहूँगा.यदि आपका किसी से एक पुश्त का झगड़ा हो तो उसे मुकदमे में फँसा देने से आपका बदला पूरा हो जायेगा.यदि दुश्मनी दो पुश्तों की हो तो उसे साहित्यकार बना दीजिये वह एक साथ पागल और भिखारी दोनों बन जायेगा.और यदि दुश्मनी इससे भी ज्यादा पुरानी हो यानी तीन पुश्तों की हो तो उसे चुनाव में खड़ा करवा दीजिये लेकिन सावधानी भी रखिये कि वह किसी भी हालत में चुनाव जीतने न पाए.लेकिन यू.जी.सी.ने हमारे साथ जो व्यवहार किया है वैसा तो तभी किया जाता है जब शत्रुता पुश्तों की नहीं बल्कि जन्मों की हो.यू.जी.सी. ने इस बार की नेट की परीक्षा के लिए परीक्षा शुल्क के रूप में हमसे स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया का बैंक चालान माँगा है.इससे तो कहीं अच्छा होता कि वह हमसे चांद मांग लेती.यूं तो हम जहाँ तक हो सके स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया की हाजीपुर मुख्य शाखा को ओर रूख करने से बचते हैं लेकिन जब यू.जी.सी. ने एस.बी.आई. का चालान मांग ही दिया था तो हम तो चाहकर भी वहां जाने से नहीं बच सकते थे.आप सोंच रहे होंगे कि बैंक कहीं भूतिया जगह पर स्थित तो नहीं है कि मैं वहां जाने से डरता हूँ तो आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि वह कोई भूतिया जगह नहीं है बल्कि मैं वहां इसलिए नहीं जाना चाहता हूँ क्योंकि वह अपनी अव्यवस्था के लिए कुख्यात है बल्कि हमारा वश चले तो मैं सारे शब्दकोशों में अव्यवस्था का अर्थ एस.बी.आई., हाजीपुर मुख्य शाखा कर दूं.तो मैं हनुमान चालीसा का मन-ही-मन पाठ करता हुआ बैंक में घुसा.घुसते ही एक अजीब-से उमस महसूस हुई.दो पंक्तियों में कुछ-कुछ देर खड़ा होने के बाद पता चला कि इन काउंटरों पर चालान नहीं बनता.मैनेजर से मिलने पर बताया गया कि जेनेरल लाइन में लगना पड़ेगा.अब आपको मैं जेनेरल लाइन की क्या महिमा सुनाऊँ!वहां दो पंक्तियाँ जेनेरल थीं अजी लाइन क्या थीं हनुमानजी की पूंछ थीं.एक-एक ग्राहक को निबटाने में बैंककर्मी आधा-आधा घंटा का वक़्त ले रहे थे.लाइन में लगे लोंगों के चेहरों पर घोर चिंता के भाव थे मानों उनके किसी प्रिय का देहावसान हो गया हो.हर कोई चिंतित था कि कहीं उसका नंबर आने से पहले कहीं भोजन के लिए मध्यांतर न हो जाए.बीच-बीच में किनारे से घुसपैठिये भी सक्रिय हो जा रहे थे जिन्हें रोकने पर अंतहीन बहस का सिलसिला शुरू हो जाता था जो एक-दूसरे को देख लेने की बात पर जाकर समाप्त होता.जब मेरी बारी आई तो एक वर्दीधारी सैप का जवान जबरन आगे घुसने की कोशिश करने लगा.मेरे रोकने पर वह दिखा देने की बात करने लगा.मैंने जब कहा कि दिखा भी दे भाई क्या दिखायेगा तो वह एक अन्य साथी को बुला लाया और एक डंडा भी ले आया.लेकिन मेरे और भी आक्रामक हो जाने और जनविरोध की स्थिति उत्पन्न हो जाने के बाद वह मनुहार की भाषा बोलने लगा.वैसे मैं तो उसकी राईफल की गोली तक झेलने का मन बना चुका था.किसी तरह हम एस.बी.आई. से जीवित अवस्था में बाहर आ सके.अब आप समझ गए होंगे कि यू.जी.सी.ने स्टेट बैंक का चालान मांग कर हमारे साथ एक जनम की नहीं बल्कि कई जन्मों की दुश्मनी निकाली है.अगर उनके पास थोड़ी-सी भी दया-धरम बची हुई है तो मैं उम्मीद करता हूँ कि अगली बार यू.जी.सी. पोस्टल ऑर्डर या फ़िर बैंक ड्राफ्ट मांगेगी वो भी किसी भी बैंक का नहीं तो फ़िर से एस.बी.आई., हाजीपुर की मुख्य शाखा में हमें जाना पड़ेगा जहाँ जाने की तो गारंटी है लेकिन जहाँ से सही-सलामत लौटने की कोई गारंटी नहीं है.
रविवार, 11 अप्रैल 2010
मन रे (सुर में) न गा यानी मनरेगा
जब भारत सरकार ने मनरेगा (पहले नरेगा) को शुरू किया था तब उम्मीद की गई थी कि इससे भारतीय अर्थव्यवस्था विशेष रूप से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी,अर्थव्यवस्थारुपी आर्केष्ट्रा के सभी साज समुचित तरीके से संगत करने लगेंगे.लेकिन कानून लागू होने के साढ़े चार  साल बाद भारतीय अर्थव्यवस्था सुर में गाती नहीं नजर आ रही.ऐसा लग रहा है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर इसके प्रभावों का अनुमान लगाने में केंद्र सरकार के थिंक टैंक से  कहीं-न-कहीं गलती हुई है.मनरेगा से सर्वाधिक प्रभावित हो रहे हैं छोटे कृषक.उन्हें खेतों में काम करने के लिए मजदूर नहीं मिल रहे.इसका सीधा प्रभाव पड़ रहा है कृषि उत्पादकता पर और अंततः महंगाई पर.एक ओर देश की जनसंख्या प्रत्येक वर्ष २ करोड़ के लगभग बढ़ जा रही है वहीँ दूसरी ओर मनरेगा के चलते कृषि उत्पादन में ठहराव आ गया है.मैं पिछले सप्ताह अपने गाँव महनार प्रखंड के गोरिगामा पंचायत के जगन्नाथपुर में था.मैंने वहां पाया कि सारे कृषक मजदूर नहीं मिलने से तो परेशान थे ही वर्षा नहीं होने से और गर्मी जल्दी आ जाने से भी उत्पादन में आने वाली कमी साफ-साफ दिखाई दे रही थी.विडम्बना यह कि जिन लोगों ने दो बार गेहूं में पटवन की थी उनके दाने और भी छोटे निकल रहे थे.सरकार द्वारा दिए गए डीजल अनुदान का कहीं अता-पता तक नहीं था.पूरे गाँव में मनरेगा के अन्तर्गत सिर्फ वृक्षारोपण कराया गया था.न तो पौधों के चारों ओर बाड़े की व्यवस्था की गई थी न ही उनमें इस गर्मी में भी पानी ही पटाया जा रहा था.यानी मनरेगा से पंचायत को कोई स्थायी लाभ नहीं हो रहा है क्योंकि कोई स्थायी निर्माण नहीं हो रहा.इतना ही नहीं इस कानून के तहत किसी भी वास्तविक जरूरतमंद को रोजगार नहीं मिल रहा.जिन्हें रोजगार मिल रहा है वे मुखिया के ही चमचे हैं.कुल मिलाकर मनरेगा के तहत राज्य और पंचायत को कहीं कुछ भी उपलब्धि नहीं प्राप्त हो रही है और पूरा-का-पूरा पैसा जो प्रत्येक वर्ष लाखों में होता है केवल खानापूरी करके खा-पी लिया जाता है.मनरेगा लाने के पीछे सरकार की एक और भी मंशा थी कि इसके लागू होने से गावों से मजदूरों का पलायन रूकेगा लेकिन यह लक्ष्य भी पूरा नहीं हो पाया क्योंकि बाहर काम करनेवाले लोग क्योंकर केवल १०० दिनों के रोजगार के लिए गाँव वापस आने लगे.उलटे इसका असर यह जरूर हुआ है कि गाँव में जो मजदूर खेती कार्यों में सहायता करते थे उनका एक छोटा हिस्सा ही सही अब यूं हीं बैठकर पैसा पा रहा है.क्या इस महत्वकांक्षी योजना का यही लक्ष्य था या है कि गांवों में निठल्लों की एक बड़ी फ़ौज खड़ी कर दी जाए भले ही इससे कोई स्थायी उपलब्धि प्राप्त नहीं हो और भले ही इसके चलते कृषि उत्पादन घट जाए?कहीं खाद्य पदार्थों की दिनों-दिन खतरनाक रफ़्तार से बढ़ रह रही महंगाई के पीछे भी मनरेगा तो नहीं है इस पर भी विचार करना चाहिए और उपाय किये जाने चाहिए क्योंकि उत्पादन घटेगा और जनसंख्या बढ़ेगी तो महंगाई भी बढ़ेगी ही.
शनिवार, 10 अप्रैल 2010
भेद कराते बस और टेम्पो मेल कराती रेलगाड़ी
बचपन में मैं अक्सर एक सपना देखा करता था कभी सोयी आँखों से तो कभी जगी आँखों से.मैं सपने में देखता कि मेरे घर के दक्षिण से गुजरनेवाली नहर रेलवे लाइन में बदल गई है और उस पर से छुक-छुक करती ट्रेन गुजर रहीं है.हालांकि न तो अब तक नहर से होकर रेलगाड़ी गुजरी है और न ही निकट-भविष्य में गुजरनेवाली है लेकिन आज भी मैं जब भी रेलयात्रा करता हूँ तो अभिभूत हो जाता हूँ.मूंगफली से लेकर चाय बेचनेवाले तक की मिली-जुली आवाज से उभरता प्यारा-सा शोर.कहीं ताश का आनंद लेते लोग तो कहीं गंभीर बहस में भाग लेते सभासद.कभी-कभी तो इन बहसों का स्तर इतना ऊंचा हो जाता है कि लोकसभा और राज्यसभा भी इस मामले में कहीं पीछे रह जाए.कभी-कभी तो बहस की तीक्ष्णता इतनी ज्यादा हो जाती है कि लगता है कि बहस करने वाले लोग यात्री नहीं देश के भाग्य विधाता हैं और अब देश का भाग्य बदलने ही वाला है.रेलगाड़ियाँ सिर्फ पैसेंजर को ही नहीं ढोतीं हैं ढूधवालों के दूध को, घासवालों की घांस को और सब्जीवालों की सब्जियों को भी ढोतीं हैं और साथ ही ढोतीं हैं इनके घरवालों के सपनों को.आराम के मामले में यातायात का कोई भी दूसरा साधन इसकी बराबरी नहीं कर सकता.पैखाना या पेशाब लगा हो तो बसयात्रियों की तरह घबराने की कोई जरूरत नहीं है सारी सुविधाएँ आपकी बोगी में ही मौजूद जो हैं.जब हमारे ईलाके में पहली बार रेलगाड़ियों का आगमन हुआ तो गंगा पार के लोग रेलयात्रा कर चुके लोगों से अक्सर पूछते कि रेलगाड़ी कैसी होती है?एक बार हुआ यह कि एक ग्रामीण ने दूसरे को पूछने पर बताया कि रेलगाड़ी काली होती है और जब वह चलती है तो ऊपर से धुआं और नीचे से पानी निकलता रहता है.वह बेचारा लोगों से पूछता-पूछता जा पहुंचा पूरे परिवारसहित पास के रेलवे स्टेशन पर.टिकट ले लिया और लगा इंतजार करने.तभी एक कूली जो गहरे काले रंग का था बीड़ी पीते हुए आया और पास की झाड़ी की तरफ मुंह करके पेशाब करने लगा.ग्रामीण ने देखा कि यह काला भी है और ऊपर से धुआं और नीचे से पानी उत्सर्जित भी कर रहा है.बस फ़िर क्या था छलांग लगाकर चढ़ गया कूली के कंधे पर और परिवार के दूसरे सदस्यों को चढ़ने को कहने लगा.बेचारे कूली की जान तभी छूटी जब असली ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर आ गई.खैर अब ऐसी घटना होने की सम्भावना नहीं रही क्योंकि अब भाप ईंजनों का चलना हमारे ईलाके में बंद हो चुका है जहाँ भाप ईंजन होगा वहां भले ही ऐसी घटनाएँ घटती हों.लेकिन हमें इतना सुख देनेवाली ट्रेनों के साथ हम कैसा व्यवहार कर रहे हैं?हम बिना टिकट लिए ट्रेन में चढ़ जाते हैं जबकि इसका भाड़ा सुविधाओं की तुलना में काफी कम होता है.खिडकियों में साईकिल से लेकर खाट तक लाद देते हैं. और सबसे बड़ी ज्यादती तो करते हैं मिनट-मिनट पर चेनपुल और वैकम करके.ऐसा करते समय हम यह नहीं सोंचते कि बांकी के यात्रियों को हमारे इस स्वार्थपूर्ण रवैय्ये से कितनी परेशानी होती होगी.अंत में मैं वैसे लोगों को जो भारतीय समाज को नजदीक से देखना चाहते हों को सलाह दूंगा कि वे रेलगाड़ी से यात्रा करें. इससे आपको दो फायदे होंगे.एक तो आपका ज्ञान बढेगा और दूसरा यह कि आपका सामाजिक सरोकार बढेगा जान-पहचान बढ़ेगी क्योंकि आप रेलयात्रा के दौरान कटे-कटे से नहीं रह सकते.इसलिए मैंने बच्चनजी की पंक्तियों में कुछ बदलाव कर दिया है-भेद कराते बस और टेम्पो मेल कराती रेलगाड़ी.
गुरुवार, 8 अप्रैल 2010
नक्सलवाद:वाद नहीं व्यवसाय
 २५ मई १९६७ को पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी जिले के नक्सलबाड़ी गाँव से नक्सलवाद की शुरुआत हुई.इसकी शुरुआत मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित दो युवाओं चारू मजुमदार और कानू सान्याल ने की थी.इस हिंसक आन्दोलन को आरंभ करने के पीछे उनका उद्देश्य था गरीबों को साथ लेकर जमींदारों की जमीन पर कब्ज़ा जमाना.उनका उद्देश्य किसी की हत्या करना हरगिज नहीं था और अगर शांति से काम चल जाए तो वे अनावश्यक हिंसा के भी पक्षधर नहीं थे.नक्सलवादी आन्दोलन को शुरूआती दिनों में काफी सफलता मिली और इस दौरान हताहत होनेवाले लोगों की संख्या भी काफी कम रही.लेकिन जल्दी ही आन्दोलन मजुमदार और सान्याल के नियंत्रण से बाहर हो गया और जमींदारों की हत्या का दौर शुरू हो गया.इन दोनों ने विरोध भी किया और स्थिति पर नियंत्रण करने की कोशिश भी की लेकिन जब सफलता नहीं मिली तो खुद को अलग कर लिया.इस स्थिति की तुलना गांधी द्वारा असहयोग आन्दोलन वापस लेने से की जा सकती है.लेकिन मजुमदार और सान्याल गांधी नहीं थे और न ही गांधी जैसा नैतिक बल ही उनके पास था, इसलिए तो कायरों की तरह उन्होंने खुद को अलग कर लिया.अब नक्सलवादी आन्दोलन दूसरे दौर में पहुँच चुका था.लगातार कथित वर्ग-शत्रुओं की हत्याएं की जा रही थी.आन्दोलन को अब बंगाल के बाहर बिहार,झारखण्ड, उड़ीसा,मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश में भी समर्थन मिलने लगा था.८० के दशक के उत्तरार्द्ध में शुरू हुआ आन्दोलन का तीसरा दौर.अब आन्दोलन में जो भटकाव जमींदारों की हत्याओं से देखने को मिला था वह पूरी तरह से नजर आने लगा.नक्सली अब क्रांति के अपने मूल लक्ष्य को भूल चुके थे.भारत के बहुत बड़े हिस्से में उनकी समानांतर सत्ता कायम हो चुकी थी.अब उन्होंने इसका लाभ उठाकर धन उगाही करना शुरू कर दिया जिसे आम बोलचाल की भाषा में रंगदारी टैक्स कहते हैं और नक्सलियों की भाषा में इसे कहते हैं लेवी.नक्सलियों के प्रभाव-क्षेत्र में आपने सड़क या पुल या किसी भी अन्य चीज का ठेका लिया है तो नक्सलियों को आपको रंगदारी देना पड़ेगा अन्यथा आपकी और मजदूरों को परेशान किया जायेगा.हो सकता है कि जान से भी हाथ धोना पड़े.आज नक्सलवाद रंगदारी का व्यवसाय बन चुका है.कुछ विशेषज्ञों के अनुसार तो उनके इस व्यवसाय का टर्नओवर ३००० करोड़ रूपये से भी ज्यादा का है.अब उनके खतों का औडिट तो हो नहीं सकता सो सिर्फ अनुमान लगने की ही गुंजाईश बचती है.इन पैसों से कई नक्सली नेता तो अपना वर्ग बदलकर करोड़पति भी हो चुके हैं.साम्यवादियों की भाषा में ऐसे लम्पट और असामाजिक तत्वों को लुम्पेन कहा जाता है.वर्तमान केंद्रीय गृह मंत्री चिदंबरम नक्सली समस्या को लेकर आजकल बड़े गंभीर दिखाई दे रहे हैं वास्तव में हैं कि नहीं यह तो शोध का विषय है.पहले उन्होंने नक्सलियों से बातचीत की अपील की लेकिन सकारात्मक जवाब नहीं मिला.आखिर नक्सली नेता क्यों अपने जमे-जमाये व्यवसाय को खामखा लात मारने लगे?सो मजबूरन केंद्र को राज्य सरकारों की मदद से नक्सलप्रभावित राज्यों में ग्रीन हंट के नाम से आपरेशन चलाना पड़ा जिससे अब तक तो कुछ हासिल होता नहीं दिखता.दरअसल केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तालमेल नाम की कोई चीज है ही नहीं.बंगाल में केंद्र में शामिल दल नक्सली हिंसा को सी.पी.एम. कैडरों के मत्थे थोपने पड़ तुले हुए हैं वहीँ झारखण्ड में जे.एम.एम. समर्थकों का एक बड़ा हिस्सा नक्सलवादी भी है ऐसे में इन दोनों राज्यों में आपरेशन का जो होना चाहिए वही होता दिख रहा है.ले-देकर बच गए छत्तीसगढ़ और आन्ध्र प्रदेश.लेकिन छत्तीसगढ़ में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच आपरेशन की संभावित सफलता का श्रेय लेने के चक्कर में आपरेशन की भद्द पिट रही है.कुछ लोगों का मानना है कि अगर इस रेड कोरिडोरवाले ईलाके में अगर विकास कार्य संचालित किये जाएँ और युवाओं को रोजगारपरक प्रशिक्षण दिया जाए तो नक्सली आन्दोलन कमजोर पड़ सकता है.लेकिन इन ईलाकों में नक्सली ही विकास कार्य और प्रशिक्षण कार्य नहीं चलने देते क्योंकि इसमें उन्हें अपने कैडर-बेस के कमजोर पड़ने की आशंका महसूस होती है.यानी गरीबी के कारण जो नक्सली आन्दोलन शुरू हुआ क्या विडम्बना है कि वही अब गरीबी को दूर होने देना नहीं चाहता.अगर नक्सलियों को बातचीत को मेज पर लाना है तो उन्हें पहले बैकफूट पर धकेलना पड़ेगा चाहे जैसे भी हो.साथ ही हमारी पुलिस ने अगर किसी को नक्सली बनाकर झूठे मुक़दमे में फंसाया है तो निर्दोषों पर से मुक़दमे तो वापस लिए ही जाएँ साथ ही दोषी पुलिस अधिकारियों पर भी अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाए.
२५ मई १९६७ को पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी जिले के नक्सलबाड़ी गाँव से नक्सलवाद की शुरुआत हुई.इसकी शुरुआत मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित दो युवाओं चारू मजुमदार और कानू सान्याल ने की थी.इस हिंसक आन्दोलन को आरंभ करने के पीछे उनका उद्देश्य था गरीबों को साथ लेकर जमींदारों की जमीन पर कब्ज़ा जमाना.उनका उद्देश्य किसी की हत्या करना हरगिज नहीं था और अगर शांति से काम चल जाए तो वे अनावश्यक हिंसा के भी पक्षधर नहीं थे.नक्सलवादी आन्दोलन को शुरूआती दिनों में काफी सफलता मिली और इस दौरान हताहत होनेवाले लोगों की संख्या भी काफी कम रही.लेकिन जल्दी ही आन्दोलन मजुमदार और सान्याल के नियंत्रण से बाहर हो गया और जमींदारों की हत्या का दौर शुरू हो गया.इन दोनों ने विरोध भी किया और स्थिति पर नियंत्रण करने की कोशिश भी की लेकिन जब सफलता नहीं मिली तो खुद को अलग कर लिया.इस स्थिति की तुलना गांधी द्वारा असहयोग आन्दोलन वापस लेने से की जा सकती है.लेकिन मजुमदार और सान्याल गांधी नहीं थे और न ही गांधी जैसा नैतिक बल ही उनके पास था, इसलिए तो कायरों की तरह उन्होंने खुद को अलग कर लिया.अब नक्सलवादी आन्दोलन दूसरे दौर में पहुँच चुका था.लगातार कथित वर्ग-शत्रुओं की हत्याएं की जा रही थी.आन्दोलन को अब बंगाल के बाहर बिहार,झारखण्ड, उड़ीसा,मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश में भी समर्थन मिलने लगा था.८० के दशक के उत्तरार्द्ध में शुरू हुआ आन्दोलन का तीसरा दौर.अब आन्दोलन में जो भटकाव जमींदारों की हत्याओं से देखने को मिला था वह पूरी तरह से नजर आने लगा.नक्सली अब क्रांति के अपने मूल लक्ष्य को भूल चुके थे.भारत के बहुत बड़े हिस्से में उनकी समानांतर सत्ता कायम हो चुकी थी.अब उन्होंने इसका लाभ उठाकर धन उगाही करना शुरू कर दिया जिसे आम बोलचाल की भाषा में रंगदारी टैक्स कहते हैं और नक्सलियों की भाषा में इसे कहते हैं लेवी.नक्सलियों के प्रभाव-क्षेत्र में आपने सड़क या पुल या किसी भी अन्य चीज का ठेका लिया है तो नक्सलियों को आपको रंगदारी देना पड़ेगा अन्यथा आपकी और मजदूरों को परेशान किया जायेगा.हो सकता है कि जान से भी हाथ धोना पड़े.आज नक्सलवाद रंगदारी का व्यवसाय बन चुका है.कुछ विशेषज्ञों के अनुसार तो उनके इस व्यवसाय का टर्नओवर ३००० करोड़ रूपये से भी ज्यादा का है.अब उनके खतों का औडिट तो हो नहीं सकता सो सिर्फ अनुमान लगने की ही गुंजाईश बचती है.इन पैसों से कई नक्सली नेता तो अपना वर्ग बदलकर करोड़पति भी हो चुके हैं.साम्यवादियों की भाषा में ऐसे लम्पट और असामाजिक तत्वों को लुम्पेन कहा जाता है.वर्तमान केंद्रीय गृह मंत्री चिदंबरम नक्सली समस्या को लेकर आजकल बड़े गंभीर दिखाई दे रहे हैं वास्तव में हैं कि नहीं यह तो शोध का विषय है.पहले उन्होंने नक्सलियों से बातचीत की अपील की लेकिन सकारात्मक जवाब नहीं मिला.आखिर नक्सली नेता क्यों अपने जमे-जमाये व्यवसाय को खामखा लात मारने लगे?सो मजबूरन केंद्र को राज्य सरकारों की मदद से नक्सलप्रभावित राज्यों में ग्रीन हंट के नाम से आपरेशन चलाना पड़ा जिससे अब तक तो कुछ हासिल होता नहीं दिखता.दरअसल केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तालमेल नाम की कोई चीज है ही नहीं.बंगाल में केंद्र में शामिल दल नक्सली हिंसा को सी.पी.एम. कैडरों के मत्थे थोपने पड़ तुले हुए हैं वहीँ झारखण्ड में जे.एम.एम. समर्थकों का एक बड़ा हिस्सा नक्सलवादी भी है ऐसे में इन दोनों राज्यों में आपरेशन का जो होना चाहिए वही होता दिख रहा है.ले-देकर बच गए छत्तीसगढ़ और आन्ध्र प्रदेश.लेकिन छत्तीसगढ़ में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच आपरेशन की संभावित सफलता का श्रेय लेने के चक्कर में आपरेशन की भद्द पिट रही है.कुछ लोगों का मानना है कि अगर इस रेड कोरिडोरवाले ईलाके में अगर विकास कार्य संचालित किये जाएँ और युवाओं को रोजगारपरक प्रशिक्षण दिया जाए तो नक्सली आन्दोलन कमजोर पड़ सकता है.लेकिन इन ईलाकों में नक्सली ही विकास कार्य और प्रशिक्षण कार्य नहीं चलने देते क्योंकि इसमें उन्हें अपने कैडर-बेस के कमजोर पड़ने की आशंका महसूस होती है.यानी गरीबी के कारण जो नक्सली आन्दोलन शुरू हुआ क्या विडम्बना है कि वही अब गरीबी को दूर होने देना नहीं चाहता.अगर नक्सलियों को बातचीत को मेज पर लाना है तो उन्हें पहले बैकफूट पर धकेलना पड़ेगा चाहे जैसे भी हो.साथ ही हमारी पुलिस ने अगर किसी को नक्सली बनाकर झूठे मुक़दमे में फंसाया है तो निर्दोषों पर से मुक़दमे तो वापस लिए ही जाएँ साथ ही दोषी पुलिस अधिकारियों पर भी अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाए.
मंगलवार, 6 अप्रैल 2010
मुस्लिम तुष्टिकरण:खतरनाक प्रवृत्ति
जर्मनी में अराजकता की स्थिति थी.राष्ट्रवादी से लेकर साम्यवादी तक सभी देश में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील थे.इसी बीच सामने आया हिटलर जो साम्यवाद का घोर विरोधी था.अपने भाषणों में वह साम्यवाद के पूरी दुनिया से विनाश की बातें करता था.इंग्लैंड-फ़्रांस सहित सभी पूंजीवादी देश जर्मनी में साम्यवाद के बढ़ते प्रभाव से चिंतित थे.उन्हें लगा कि अगर हिटलर का समर्थन किया जाए तो जर्मनी में साम्यवाद के बढ़ते कदम को रोका जा सकता है.इंग्लैंड के तत्कालीन प्रधानमंत्री आर्थर नेविल्ले चम्बेर्लें  की तुष्टिकरण की नीति का परिणाम यह हुआ कि हिटलर जर्मनी का तानशाह  बन बैठा और दुनिया को जीतने के सपने देखने लगा.उस समय इंग्लैंड ही सबसे बड़ी महाशक्ति था.इंग्लैंड ही नहीं पूरी दुनिया को तुष्टिकरण की इस नीति की कीमत चुकानी पड़ी और द्वितीय विश्वयुद्ध में करोड़ों लोगों को अपने जान-माल का नुकसान उठाना पड़ा.बाद में १९७९ में जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर कब्ज़ा जमा लिया तब अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद से इस्लामी चरमपंथ को बढ़ावा दिया.पाकिस्तान ने अमेरिकी मदद का इस्तेमाल भारत में आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने में किया.भारत बार-बार अमेरिका को आगाह करता रहा लेकिन तुष्टिकरण की नीति की सबसे बड़ी कमजोरी ही यही होती है कि वह दूसरे पक्ष की मानवता-विरोधी गतिविधियों को नजरंदाज कर देता है और सिर्फ अपने लक्ष्य से मतलब रखता है.११ सितम्बर के हमले के बाद अमेरिका को अपनी गलतियों का अहसास हुआ और उसने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया.कुछ इसी तरह की नीति कांग्रेस समेत सभी छद्म-धर्मनिरपेक्षवादी दलों की भारत में रही है.कांग्रेस आजादी के बाद से ही मुस्लिम वोटबैंक को खुश रखने  के लिए तुष्टिकरण की नीति का पोषक रहा है.इसी नीति के तहत अतीत में कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया, आज तक समान सिविल संहिता लागू नहीं होने दी गई.कांग्रेस बहुत जल्द भूल गई कि उसकी इसी तरह की गलत नीतियों के कारण मुस्लिम अलगाववाद को बढ़ावा मिला परिणामस्वरूप देश भी बँट गया.जब भी किसी आतंकी घटना में किसी भारतीय मुस्लिम का नाम आता है तो कांग्रेस पार्टी की वर्तमान केंद्र सरकार तटस्थ होकर उनके खिलाफ कदम नहीं उठा पाती.उसे डर लगता है कि कहीं कार्रवाई करने से मुसलमान नाराज न हो जाएँ.बटाला हाउस मुठभेड़ के बाद कांग्रेसी सरकार और पार्टी नेताओं के आचरण पर तो सिर्फ शर्मिंदा हुआ जा सकता है.इन नेताओं के लिए देश का अब  कोई महत्व नहीं रह गया है और उनका तो बस एक ही मूलमंत्र है-कुर्सी नाम परमेश्वर.अब कांग्रेस समेत सभी कथित धर्मनिरपेक्षतावादी मुसलमानों को आरक्षण देने को व्याकुल हुए जा रहे हैं जबकि हमारा संविधान धर्म-संप्रदाय के आधार पर किसी भी तरह के आरक्षण का निषेध करता है.लेकिन हमारे नेता और दल  तो वोटबैंक के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं.यह वोटबैंक की राजनीति का ही परिणाम है कि जेहादी आतंकवाद का सबसे बुरा शिकार होने के बावजूद भारत आतंकवाद पर सांघातिक प्रहार नहीं कर पा रहा है.मुसलमानों को आरक्षण किस आधार पर दिया जाए?क्या बहुसंख्यक हिन्दू उनके पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार है?यह संप्रदाय अति रूढ़िवादी है और यही इसके पिछड़ेपन का कारण भी है.क्या हिन्दू जिम्मेदार हैं इनके लकीर का फकीर होने के लिए? फ़िर हिन्दू क्यों चुकाए इनके पिछड़ेपन की कीमत?अभी जिन जातियों को आरक्षण दिया जा रहा है वह सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर दिया जा रहा है.लेकिन मुसलमान तो सामाजिक रूप से पिछड़े हैं नहीं.पिछड़े मुस्लिमों को पहले से ही आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है.फ़िर अगड़े मुसलमानों को आरक्षण का कोई वैध आधार तो बनता नहीं और अगर उन्हें आरक्षण दिया जाए तो फ़िर अगड़े हिन्दुओं ने कौन सा अपराध किया है जो उन्हें इसी आधार यानी आर्थिक आधार पर आरक्षण नहीं दिया जाए.सभी धर्मनिरपेक्षतावादी दल जितनी जल्दी हो सके अपनी नीतियाँ बदल लें अन्यथा देश फ़िर से बंटवारे की तरह अग्रसर हो जायेगा.देशहित सबसे ऊपर है और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण कभी देशहित में नहीं रहा है यह हमारे देश के इतिहास से भी स्पष्ट है.संप्रदायनिरपेक्ष होकर आतंकवाद पर मरणान्तक प्रहार किया जाए.मदरसों का आधुनिकीकरण किया जाए, मुस्लिमों की सोंच को आधुनिक बनाया जाए आरक्षण देने की तो कोई जरूरत ही नहीं है.समान सिविल संहिता को कश्मीर समेत पूरे देश में लागू किया जाए क्योंकि इससे देश मजबूत होगा.हो सकता है कि कुछ लोग इन कदमों का विरोध भी करें लेकिन मैं पूछता हूँ कि तुर्की में क्या अता तुर्क मुस्तफा कमाल पाशा का विरोध नहीं हुआ था?अगर पाशा विरोध से घबरा जाता तो तुर्की का आधुनिकीकरण संभव नहीं हो पाता और वह विकसित देशों की जमात में शामिल नहीं हो पाता.भारत को भी तो विकसित देशों के क्लब में शामिल होना है.
शनिवार, 3 अप्रैल 2010
हाजीपुरवासियों को भविष्यवक्ता बनाती बिजली
हमारा शहर आजकल भविष्यवक्ताओं का शहर बनने की ओर अग्रसर है.आप सोंच रहे होंगे कि हाजीपुर में कोई ज्योतिष विद्यालय-महाविद्यालय या विश्वविद्यालय तो नहीं खुल गया है.नहीं भैया ऐसी कोई अनहोनी नहीं हुई है.नगरवासियों को भविष्यवक्ता बनाने की कृपा कर रही है बिजली.कृपा इसलिए क्योंकि इसके लिए हमें कोई फ़ीस-फास नहीं देनी पड़ रही है न ही क्लास करने का लफड़ा.आजकल हमारा पूरा शहर यही भविष्यवाणी करने में मशगूल है कि बिजली कितने बजे आएगी.कोई १५ मिनट के भीतर बिजली आने का दवा करता है तो कोई १५ घन्टे के भीतर.अभी १५ दिन वाली नौबत नहीं आई है.मृगतृष्णा या मृगमरीचिका जो मरूस्थलों के काम की चीज है अब बिना रेत-बालू के हाजीपुर में देखने को मिल रही है.क्या!आपको विश्वास नहीं रहा है जरूर आपने भूगोल विषय से पढाई की होगी.तो श्रीमानजी आपकी जानकारी के लिए मैं बता दूं कि यह भूगोलवाली मृगमरीचिका नहीं है यह तो बिजलीवाली मृगमरीचिका है.हाजीपुरवासी भविष्यवाणी कुछ इस तरह शुरू करते हैं कि १५ मिनट में बिजली आ जाएगी.१५ मिनट में जब बिजली नहीं आती तो समय-सीमा को आगे खिसका देते हैं और नई भविष्यवाणी कर देते हैं ठीक उसी तरह जैसे मृग पानी के झूठे प्रतिबिम्ब के पीछे रेगिस्तान में भागता रहता है.इस तरह भविष्यवाणी पर भविष्यवाणी,भविष्यवाणी पर भविष्यवाणी होती रहती है लेकिन बिजली नहीं आती.अगर भूली-भटकी आ भी जाए तो फ़िर कब चली जाए कोई ठीक नहीं.हमारे शहर में इन दिनों भौतिक शास्त्र  की तमाम परिभाषाओं को ठेंगा दिखाते हुए बिजली की नई परिभाषा प्रचलन में है- बिना बुलाये जो आते हैं उन्हें मेहमान कहा जाता है लेकिन जो बुलाये जाने पर भी नहीं आये और रोके जाने पर भी नहीं माने उसे बिजली कहते हैं.वैसे आजकल भविष्यवाणी का क्षेत्र कैरियर के लिए बहुत हिट चल रहा है लेकिन हम तो सिर्फ बिजली की भविष्यवाणी के ही विशेषज्ञ हैं इसलिए हम इसे कैरियर के रूप में अपना भी नहीं सकते.जब तक बिजली ठीक-ठाक तरीके से हमारे शहर में रहने नहीं लगती है तब तक सिर्फ बिजली की भविष्यवाणी करना हमारी मजबूरी बन गई है.करें भी तो क्या करें?एक अभिशप्त शहर में रहने की कीमत तो हमें चुकानी ही पड़ेगी.
शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010
शिक्षा का अधिकार कानून:निर्माण से व्यवहार तक
क्या आप जानते हैं कि हमारे प्यारे देश भारत में सरकारों के लिए सबसे आसान काम क्या है?आपको अपने नाजुक दिमाग पर जोर डालने की कोई जरुरत नहीं है मैं खुद ही बता देता हूँ.तो श्रीमान जी भारत में सरकारों के लिए सबसे आसान काम है कानून बनाना और सबसे कठिन काम है उनका पालन करवाना.हमारे देश में खुदरा में नहीं बल्कि थोक में कानून बनाये जाते हैं.बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं तो कानून बना दिया, बच्चे की स्कूल में पिटाई हो गई तो कानून बना दिया.कहने का मतलब यह कि छोटी-छोटी बातों के लिए कानून बना दिया जाता है और फ़िर उन्हें अनाथों की तरह अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया जाता है.अब भारतीय समाज के लिए लम्बे समय से गले की फांस बनी दहेज़ प्रथा को ही लें.१९६१ से भारत में दहेज़ लेना कानूनन जुर्म है और इसके लिए कम-से-कम पॉँच साल की सजा का प्रावधान है.लेकिन व्यवहार में हम क्या देखते हैं?शायद ही कोई शादी बिना दहेज़ के होती है चाहे लड़केवालों की बेतुकी मांगों को पूरा करने में लड़कीवालों की पूरी संपत्ति ही क्यों न बिक जाए.इसी तरह स्त्रियों को पैतृक संपत्ति में कानूनन बराबर की हिस्सेदारी दी गई है लेकिन वास्तव में उन महिलाओं को भी आसानी से पैतृक संपत्ति पर अधिकार नहीं प्राप्त हो पाता जिनके कोई भाई नहीं हो,भाई वाली महिलाओं की तो बात ही छोड़िये.इसी तरह बाल विवाह रोकने के लिए कानून १९३० से ही और बाल मजदूरी रोकने के लिए कानून १९८६ से ही अस्तित्व में है.लेकिन कानून बन जाने से क्या होता है क्या बाल विवाह या बाल मजदूरी रूक गई?अभी कल ही की तो बात है कल से भारतीय गणतंत्र में निवास करनेवाले सभी बच्चों को (जम्मू और कश्मीर को छोड़कर) जिनकी उम्र ६ से १४ साल के बीच है शिक्षा का मौलिक अधिकार दे दिया गया है.क्या कानून बन जाना ही काफी होता है?उसे लागू कौन करवाएगा?और जब लागू कराने का सामर्थ्य आपके पास नहीं है तो आप कानून बनाते ही क्यों हैं?अभी कुछ ही समय पहले पटना नगर निगम ने एक आदेश पारित किया कि पटना में जहाँ-तहां मूत्र-विसर्जन करने पर रोक लगाई जाती है और ऐसा करते हुए पकड़े जाने पर सजा दी जाएगी.लेकिन कहीं भी निगम ने मूत्रालय का निर्माण नहीं कराया.अब पेशाब को अनंत काल रोका तो जा सकता नहीं तो लोग तो कानून तोड़ेंगे ही.क्या इस तरह बिना सोंचे-समझे कानून बनाया जाता है? समाज को जब पर्याप्त सुविधा नहीं दी जाएगी तब फ़िर समाज कानून लागू करने और कराने में किस तरह मदद करेगा?देश में कितने ही स्कूल ऐसे हैं जिनके पास भवन तक नहीं हैं, कितने ही स्कूल एक या दो शिक्षकों के बल पर चल रहे हैं.दूसरी ओर प्राथमिक शिक्षा राज्यों के हिस्से की चीज है और राज्यों की आर्थिक स्थिति इतनी बुरी है कि वर्तमान शिक्षकों का खर्च उठा पाने में भी वे सक्षम नहीं हैं फ़िर वे कैसे शिक्षा के अधिकार से बढनेवाली जिम्मेदारियों को उठाएंगे?ऐसे में इस कानून के सफल होने पर भी प्रश्नचिन्ह का लगना स्वाभाविक है.अगर हम भ्रष्टाचार के मोर्चे पर देखें तो इस अनावश्यक बुराई को रोकने के लिए सैंकड़ों कानून समय-समय पर बनाये गए हैं.लेकिन जैसे-जैसे इसे रोकने के लिए कानून बनते रहे उनकी तादाद बढती रही उससे भी कहीं ज्यादा तेजी से भ्रष्टाचार भी बढ़ता रहा.कभी-कभी सरकार खुद ही अच्छे कानून को कमजोर कर देती है.२००५ में सूचना के अधिकार कानून के रूप में देश की जनता को बहुत बड़ा अधिकार दिया गया.लेकिन बिहार की वर्तमान सरकार ने इसमें संशोधन करके काम-से-काम बिहार में तो इसकी जान ही निकाल दी. किसी भी कानून की सफलता के लिए सबसे पहले तो आवश्यक है कि कानून बनाने वाले और उसका पालन कराने वाले लोग अपने को कानून से ऊपर नहीं समझें और कानून का पालन करना सीखें.जब कोई पुलिसवाला खुद बिना हेलमेट के मोटरसाईकिल चलाता है तो फ़िर दूसरे लोगों से कैसे कानून का पालन कराएगा.ऐसे में तो कानून की ऐसी-की-तैसी होनी ही है.इसी तरह हमारे जनप्रतिनिधियों का जिन पर कानून बनाने की जिम्मेदारी होती है एक बड़ा हिस्सा अपराधी हैं जिन पर हत्या तक के मामले चल रहे हैं.ऐसे लोगों के लिए राजनीति कानून के शिकंजे से बच निकलने का एक माध्यम मात्र है.इन परिस्थितियों में कानून कैसे अपना काम कर पायेगा?कानून की विफलता के लिए जो दूसरी बात जिम्मेदार है वह है जनता को इसकी जानकारी का नहीं होना.अधिकांश जनता कानूनों से नावाकिफ है और सरकार इसके लिए पर्याप्त प्रचार-प्रसार भी नहीं कर रही है.जब लोग जानेंगे ही नहीं कि उनके क्या अधिकार हैं तो वे कैसे अपना अधिकार प्राप्त कर पाएंगे?इसलिए जरूरत इस बात की है कि जनता को जागरूक किया जाए.तीसरी अहम् बात है कि पूरी तैयारी करने के बाद ही कानून बनाये जाएँ.उदाहरण के लिए बाल मजदूरों के परिवारों को पर्याप्त आर्थिक सहायता का अगर पहले से ही इंतजाम कर लिया जाता तो स्थितियां बेहतर होतीं.इसी तरह बाल-विवाह को अगर रोकना था या फ़िर दहेज़ प्रथा पर प्रभावी रोक लगानी ही थी तो यदि इसे बनने से पहले स्त्री-शिक्षा को प्रोत्साहित करनेवाले इंतजाम किये जाते तो इस तरह कानून की भद्द नहीं पिटती.और सबसे जरूरी है समाज को भागीदार बनाना.शिक्षा के अधिकार के मामले में सबसे पहले तो जरूरी है कि सरकारी स्कूलों का स्तर बढाया जाए,शिक्षा को रोजगारपरक बनाया जाए तभी सामाजिक भागीदारी भी सुनिश्चित हो पायेगी और यह कानून सफल हो पायेगा अन्यथा अन्य कानूनों की तरह यह भी शांतिपूर्ण मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा.
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