रविवार, 11 अप्रैल 2010
मन रे (सुर में) न गा यानी मनरेगा
जब भारत सरकार ने मनरेगा (पहले नरेगा) को शुरू किया था तब उम्मीद की गई थी कि इससे भारतीय अर्थव्यवस्था विशेष रूप से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी,अर्थव्यवस्थारुपी आर्केष्ट्रा के सभी साज समुचित तरीके से संगत करने लगेंगे.लेकिन कानून लागू होने के साढ़े चार साल बाद भारतीय अर्थव्यवस्था सुर में गाती नहीं नजर आ रही.ऐसा लग रहा है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर इसके प्रभावों का अनुमान लगाने में केंद्र सरकार के थिंक टैंक से कहीं-न-कहीं गलती हुई है.मनरेगा से सर्वाधिक प्रभावित हो रहे हैं छोटे कृषक.उन्हें खेतों में काम करने के लिए मजदूर नहीं मिल रहे.इसका सीधा प्रभाव पड़ रहा है कृषि उत्पादकता पर और अंततः महंगाई पर.एक ओर देश की जनसंख्या प्रत्येक वर्ष २ करोड़ के लगभग बढ़ जा रही है वहीँ दूसरी ओर मनरेगा के चलते कृषि उत्पादन में ठहराव आ गया है.मैं पिछले सप्ताह अपने गाँव महनार प्रखंड के गोरिगामा पंचायत के जगन्नाथपुर में था.मैंने वहां पाया कि सारे कृषक मजदूर नहीं मिलने से तो परेशान थे ही वर्षा नहीं होने से और गर्मी जल्दी आ जाने से भी उत्पादन में आने वाली कमी साफ-साफ दिखाई दे रही थी.विडम्बना यह कि जिन लोगों ने दो बार गेहूं में पटवन की थी उनके दाने और भी छोटे निकल रहे थे.सरकार द्वारा दिए गए डीजल अनुदान का कहीं अता-पता तक नहीं था.पूरे गाँव में मनरेगा के अन्तर्गत सिर्फ वृक्षारोपण कराया गया था.न तो पौधों के चारों ओर बाड़े की व्यवस्था की गई थी न ही उनमें इस गर्मी में भी पानी ही पटाया जा रहा था.यानी मनरेगा से पंचायत को कोई स्थायी लाभ नहीं हो रहा है क्योंकि कोई स्थायी निर्माण नहीं हो रहा.इतना ही नहीं इस कानून के तहत किसी भी वास्तविक जरूरतमंद को रोजगार नहीं मिल रहा.जिन्हें रोजगार मिल रहा है वे मुखिया के ही चमचे हैं.कुल मिलाकर मनरेगा के तहत राज्य और पंचायत को कहीं कुछ भी उपलब्धि नहीं प्राप्त हो रही है और पूरा-का-पूरा पैसा जो प्रत्येक वर्ष लाखों में होता है केवल खानापूरी करके खा-पी लिया जाता है.मनरेगा लाने के पीछे सरकार की एक और भी मंशा थी कि इसके लागू होने से गावों से मजदूरों का पलायन रूकेगा लेकिन यह लक्ष्य भी पूरा नहीं हो पाया क्योंकि बाहर काम करनेवाले लोग क्योंकर केवल १०० दिनों के रोजगार के लिए गाँव वापस आने लगे.उलटे इसका असर यह जरूर हुआ है कि गाँव में जो मजदूर खेती कार्यों में सहायता करते थे उनका एक छोटा हिस्सा ही सही अब यूं हीं बैठकर पैसा पा रहा है.क्या इस महत्वकांक्षी योजना का यही लक्ष्य था या है कि गांवों में निठल्लों की एक बड़ी फ़ौज खड़ी कर दी जाए भले ही इससे कोई स्थायी उपलब्धि प्राप्त नहीं हो और भले ही इसके चलते कृषि उत्पादन घट जाए?कहीं खाद्य पदार्थों की दिनों-दिन खतरनाक रफ़्तार से बढ़ रह रही महंगाई के पीछे भी मनरेगा तो नहीं है इस पर भी विचार करना चाहिए और उपाय किये जाने चाहिए क्योंकि उत्पादन घटेगा और जनसंख्या बढ़ेगी तो महंगाई भी बढ़ेगी ही.
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें