शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010
इंग्लैंड का इतिहास सिलेबस में गुलामी का प्रतीक
राजनीतिक रूप से हम भले ही १९४७ में ही आजाद हो गए हों लेकिन भाषिक और मानसिक रूप से हम आज भी इंग्लैंड के गुलाम हैं.तभी तो हमारी राजभाषा अंग्रेजी बनी हुई है और हमारे सिलेबस में बना हुआ है इंग्लैंड का इतिहास.बिहार के सभी विश्वविद्यालयों में तीन वर्षीय स्नातक कोर्स के इतिहास प्रतिष्ठा में प्रथम वर्ष के छात्र-छात्राओं को द्वितीय पत्र में इंग्लैंड का इतिहास पढाया जाता है.प्रथम पत्र में प्राचीन भारत का इतिहास पढाया जाता है जो १०० अंकों का होता है.इंग्लैंड का इतिहास भी ठीक इतने ही अंको का सिलेबस में रखा गया है.आखिर हमारे लिए इंग्लैंड का इतिहास इतने विस्तार से पढ़ने का क्या औचित्य है?क्या यह हमारी गुलाम मानसिकता का प्रतीक नहीं है?इंग्लैंड का इतिहास के बदले हम जर्मनी या फ़्रांस का इतिहास क्यों नहीं पढ़ सकते?या फ़िर चीन, नेपाल या अपने किसी दूसरे पड़ोसी देश का इतिहास विस्तार से पढना क्या हमारे लिए ज्यादा फायदेमंद नहीं रहता?कितने दुःख की बात है कि हम अपने पड़ोसी देशों के इतिहास के बारे में तो कुछ भी नहीं जानते और बेवजह सात समंदर पार का इतिहास पढ़ते हैं.मैं इंग्लैंड का इतिहास पढने का विरोधी नहीं हूँ लेकिन इसे इतने विस्तार से पढने की क्या जरूरत है? यूरोप के इतिहास में हम जितना इंग्लैंड के बारे में पढ़ते हैं उतना ही हमारे सामान्य ज्ञान या विशेष ज्ञान के लिए काफी है.अच्छा यही रहेगा कि हम गुलामी के प्रतीक इस द्वितीय पत्र से इंग्लैंड के इतिहास को ठीक उसी प्रकार निकाल-बाहर कर दें जैसे हमने अंग्रेजों को किया था और उसकी जगह अपने किसी निकट पड़ोसी का इतिहास पढ़ें.
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1 टिप्पणी:
सही है कि एक स्पेशल पेपर रहा है , और इसके लिए ज़िम्मेदार है अंग्रेजों की शुरू हुई शिक्षा पद्धत्ति और उसे पालन करनेवाले अक्षरशः उनके चमचे.
यही हाल न्यायपालिका का भी है , जिसके प्रस्तावना में ही लिखा गया था की लोगों को इसके चक्रव्यूह से नहीं निकलने देना है . सही है की जानकारियां ठीक हैं पर बोझ ना होकर .
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