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२१ वीं शताब्दी में भी बिहार के नेता लकीर के फकीरों जैसी बातें कर रहें हैं.बकौल लालू राज्य में बरसात में कमी आने के लिए सूर्य ग्रहण के समय राज्य के मुखिया नीतीश कुमार का बिस्कुट खाना जिम्मेदार है.वास्तव में समस्या इतनी छोटी नहीं है कि उसे मजाक में उड़ा दिया जाए.भारतीय उपमहाद्वीप में जिस तरह का जलवायु परिवर्तन हो रहा है उससे बहुत जल्दी भारत की खेती पर बहुत ही बुरा असर पड़ने की आशंका है.पुरातत्वविदों के अनुसार कुछ इसी तरह की स्थिति में ४००० वर्ष पहले सिन्धु घाटी सभ्यता का पतन हो गया था.पुरातत्वविद कुलदीप सिंह ने घघ्घर नदी घाटी में परागकणों का परीक्षण करने पर पाया है कि ई.पू. २००० के बाद सिन्धु घाटी में वर्षा की मात्रा में अकल्पनीय कमी आ गई थी जिससे इस क्षेत्र का मरुस्थलीकरण शुरू हो गया और देखते-देखते दुनिया की सबसे पहली और अपने समय की सबसे उन्नत नगरीए सभ्यता का अंत हो गया.पिछले दो सालों से लगातार पूर्वोत्तर भारत में बरसात में जो भारी कमी आई है वह निश्चित रूप से चिंता का विषय है.पिछले साल भी इस क्षेत्र में सिर्फ रबी की खेती संभव हो पाई थी जबकि प्राक ऐतिहासिक काल से ही खरीफ की सबसे प्रमुख फसल धान की खेती का मुख्य केंद्र यही क्षेत्र रहा है.भगवान न करे अगर भविष्य में हालात नहीं सुधरे तो खेती के लिए पानी की उपलब्धता तो दूर की कौड़ी होगी पीने के पानी के भी लाले पड़ जाएँगे.लेकिन ऐसा भी नहीं है जलवायु में आ रहा यह परिवर्तन सिर्फ पूर्वोत्तर भारत को ही बर्बाद कर रहा है इसने पश्चिमी भारत में अतिवृष्टि से बाढ़ की अनपेक्षित स्थिति पैदा कर दी है.कहना न होगा कि भारत में उद्योगों का सबसे ज्यादा घनत्व इसी इलाके में है जिससे हजारों जिंदगियों की रोजी-रोटी चल रही है.राजस्थान जहाँ साल में १० सेमी वर्षा भी नहीं होती थी पिछले वर्षों में बाढ़ का सामना कर रहा है.इस साल तो दिल्ली से लेकर पाकिस्तान तक में जल प्रलय की स्थिति है.उत्तर में चीन में भी कमोबेश यही हालत है.पर्यावरण विज्ञानी वर्षों पहले से ही वैश्विक तापमान से सबसे ज्यादा भारत और चीन के प्रभावित होने की चेतावनी देते रहे हैं.लेकिन हमने अपनी आदत के अनुसार पहले से किसी प्रकार की तैयारी नहीं की.किन्तु अब जबकि संकट एकदम सिर पर आ गया है हम जलवायु परिवर्तन की सच्चाई से भाग नहीं सकते.हमें शीघ्रातिशीघ्र खरीफ फसलों के ऐसे प्रभेदों की खोज करनी होगी जो कम पानी में भी
अच्छी फसल दे.साथ ही वर्षाजल संरक्षण के कार्य को युद्ध स्तर पर चलाना होगा.अन्यथा पूर्वोत्तर भारत जिसे मैं अपने लेख में पूर्वी उत्तर प्रदेश तक मान रहा हूँ से जो जनसंख्या का पलायन होगा वह पूरे देश में गृहयुद्ध की स्थिति पैदा कर देगा जिस तरह का पलायन ४००० साल पहले सिन्धु क्षेत्र से गंगा घाटी में हुआ था.अगर ऐसा न भी हुआ तो भी इस क्षेत्र में जो भुखमरी की समस्या खड़ी होगी उससे निबट पाना किसी भी सरकार के बस में नहीं होगी और बंगाल के १९४३ के अकाल समेत सारी कहानियां फीकी पड़ जाएँगी.
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