रविवार, 30 जनवरी 2011

क्षमा करना बापू तुम हमको

बापू आज तुम्हारी पुण्यतिथि है.आज तुम हमें बहुत याद आ रहे हो.मैं तुम्हें याद करने का कोई दिखावा नहीं करूंगा क्योंकि तुम हमें सचमुच याद आ रहे हो.तुम्हारे जाने के बाद हमने बहुत-से पाप किए हैं.अगर सूची बनाने बैठ जाएँ तो शायद दुनिया में कागज की कमी पैदा हो जाए.फ़िर भी क्या करूँ,रूपये पर तेरी तस्वीर देखकर दिल भर आया है,गला रूंध रहा है और आँखें नमकीन हो रही हैं.हिम्मत तो नहीं हो रही लेकिन यह सोंचकर कि तुम तो राष्ट्रपिता हो,पूरे देश के पिता; इसलिए क्षमा कर दोगे;मैं अपने समस्त देशवासियों की ओर से हमारी अनगिनत,अक्षम्य गलतियों के लिए क्षमा मांग रहा हूँ.सबसे पहले तो मैं तुमसे इसलिए क्षमा चाहता हूँ कि हम तुम्हारे सपनों का भारत नहीं बना सके,हमने तुम्हारी सीखों पर ध्यान नहीं दिया और स्वार्थ में अंधे हो गए.
                     बापू तुमने आजादी के तत्काल बाद हमसे से कांग्रेस को भंग कर देने को कहा था.तुम समझ गए थे कि हमने तुम्हारा उपयोग भर किया है और आजादी मिल जाने के बाद तुम्हें व तुम्हारे विचारों को किसी कोने में फेंक देंगे.हमने ऐसा किया भी.लेकिन तुम खुद भी तो सत्ता से दूर,किनारे हो गए थे.क्यों किया था तुमने ऐसा?तुम जिद पर अड़ जाते तो कांग्रेस बिना भंग हुए रह जाता क्या?लेकिन तुमने इस मुद्दे पर न तो धरना दिया और न ही अनशन की घोषणा ही की.
                   बापू हम तो साधारण इन्सान हैं इसलिए जैसे ही सत्तासुख भोगने का मौका मिला बेईमानी पर उतर आए.हमारे फाइनेंसरों ने जैसा कहा हम वैसी ही नीतियाँ बनाते गए.अब तुम्हारा गांधीवाद इस बारे में क्या कहता है यह तो तुम्हीं जानो.हमारा स्वार्थवाद तो यही कहता है कि जो लक्ष्मी के दर्शन कराए उसी का समर्थन करो.तुम कहते थे कि साधन की पवित्रता जरुरी है लेकिन हमने सिर्फ रूपये को ही पवित्र समझा है और उसकी पवित्रता को और बढ़ाने के लिए ही हमने तुम्हें भी रूपये पर बिठा दिया है.हम उम्मीद करते हैं कि इससे तुम्हारी आत्मा को शांति मिली होगी.
                                 बापू तुम कभी सत्ता में रहे हो?नहीं न?फ़िर तुम्हें तो यह पता भी नहीं होगा कि सत्ता का नशा क्या होता है?जब देश या राज्य का सबकुछ किसी खास आदमी के हाथों में आ जाता है,तब उस पर और उसके दिलो-दिमाग पर एक नशा जैसा तारी हो जाता है.वह चौबीसों घन्टे उसी नशे में रहता है,होश में कभी रहता ही नहीं.फ़िर वह जिस तरह के काम करने से उसका और उसके अपनों का फायदा होता है,करता जाता है.तुम नहीं जानते हो,हमने कभी जानबूझकर चारा नहीं खाया और न ही पेट्रोल पिया,सब सत्ता के नशे ने हमसे करवाया.फ़िर भी गलती तो गलती होती है यही सोंचकर माफ़ी मांग रहा हूँ.
                     बापू जब तक आजादी की लड़ाई जारी थी तब तक तो हमें लग रहा था कि आजादी बहुत बड़ी चीज है लेकिन जब आजादी मिल गई तब पाया कि यह आजादी तो आजादी है ही नहीं.चारों ओर से कानून के बंधन.इसलिए शुरू में हमें छुप-छुपकर देश से बाहर श्यामालक्ष्मी को भेजना पड़ा.तुम्हारी नैतिकता का पाठ पढ़कर तब की जनता बेईमानी के खिलाफ हो रही थी इसलिए करता भी क्या?यहाँ मैं अपनी गलती नहीं मानता इसलिए माफ़ी नहीं मांगूंगा.अगर तुमने निजी जीवन में पवित्रता बनाए रखने का समर्थन नहीं किया होता तो आज हमारा जो धन स्विस बैंक में जमा है अपने देश में ही होता.
                          बापू तुम आज भी हमें दिलोजान से प्यारे हो.यह हमारी तुम्हारे प्रति मोहब्बत ही है जो हम तुम्हारी तस्वीर ज्यादा-से-ज्यादा संख्या में घर में और अपने बैंक खाते में इकठ्ठा करने के लिए अपनों तक का भी खून कर डालते हैं.जब अहिंसा यानी साम,दाम और दंड से बात नहीं बने तो अंत में हिंसा यानी भेद का विकल्प ही तो बचता है.हम भी क्या करें कुछ ईमानदारी की खुजलीवाले लोग बिना बल प्रयोग के मानते ही नहीं;वैसे हम भी नहीं चाहते कि कहीं हिंसा हो.हमें भी पता है अहिंसा का महत्व.बापू तुमने ही तो कहा था जीओ और जीने दो.कोई हमें अपने मतलब की सार्थक जिंदगी नहीं जीने दे तो हम क्या करें?तब तो हमीं जियेंगे न बांकी दुनिया चाहे जीये या मरे.तुम्हारा ही तो कहना था कि अधिकार के लिए संघर्ष करना चाहिए.
                       रही बात सत्य की तो सत्य है ही क्या?यह दुनिया ही माया है फ़िर अगर हम माया के पीछे भागते हैं तो इसमें बुरा ही क्या है?जब कुछ भी सत्य नहीं है तो फ़िर हम सत्य को कहाँ ढूंढें और क्यों ढूंढें?दिन-रात झूठ बोलनेवाले लोग कार पर चलते है और सत्य के पीछे भागनेवाले दाने-दाने को मोहताज हैं.तुम्हारे युग में भी ऐसा होता था लेकिन कम था.तुम भले ही अभाव में जी ले सकते थे सब लोग तो नहीं जी सकते.पूरे घर-परिवार का दबाव रहता है इसलिए हम भारतीयों में से ९९ प्रतिशत से भी ज्यादा भारतीयों ने तुम्हारे सत्य को भी छोड़ दिया है चाहो तो इसके लिए तुम हमें माफ़ करो या नहीं करो.चाहो तो इसे कायरता भी कह सकते हो.
                                    बापू सीधे लोगों का जमाना नहीं रहा रे.अब देखो न तेरे मरे हुए कितने साल हो गए लेकिन लोग तुझे आज भी गालियाँ देते हैं.कहते हैं कि देश की यह दुरावस्था तेरे कारण हुई हैं.कैसे?पूछने पर कहते हैं कि नेहरु को तुमने ही प्रधानमंत्री बना दिया था.तुम्हीं जानो सच्चाई क्या है और यह आरोप कहाँ तक सही है?लेकिन जो लोग तुम्हें गरियाते हुए नहीं थकते वे कौन-से देशहित में कर्म कर रहे हैं?शायद वे तेरे द्वारा स्थापित आदर्शों के आगे हीनभाव महसूस करते हैं,इसलिए यह वाचिक हिंसा करते हैं.उन्हें भी माफ़ कर देना तुम.मैं उन लोगों में से नहीं हूँ रे.मैं आज भी गांधीवादी हूँ और कोई मेरा साथ नहीं भी दे तो भी गांधीवादी ही रहूँगा,एक अकेला गांधीवादी.तूने भी देश की आजादी की धुन में घर-परिवार की कीमत चुकाई थी.वो तेरे बेटे हरिलाल ने तो बगावत ही कर दी थी न.मैं भी अपने घर में बगावत झेल रहा हूँ.क्या करुँ तेरी ही तरह जिद्दी हूँ न,चाहकर भी झुक नहीं सकता!?                      

शनिवार, 29 जनवरी 2011

प्रदेश ही नहीं मानसिकता भी है बिहार


मैं जबसे दिल्ली से लौटा हूँ इस विषय पर लिखने को उत्सुक हूँ लेकिन हर बार कोई न कोई नया विषय मेरी विचारवीणा के तारों को झंकृत कर जाता है और यह विषय लिखने को शेष रह जाता है.आज कहने को तो बिहार में सुशासन बाबू की सरकार है जिसकी निष्ठा बिहार के विकास के प्रति निश्चित रूप से पिछली किसी भी सरकार से ज्यादा है.फ़िर भी यह अश्लील वास्तविकता है कि आज भी जब किसी भारतीय राज्य के पिछड़ेपन और अराजकता की चर्चा होती है तो पैमाना बिहार को ही बनाया जाता है.बिहार आज भी गणित के प्रश्न के उस बन्दर के समान है जो प्रत्येक पहले मिनट में बांस पर ५ मीटर चढ़ता है तो दूसरे ही मिनट में ४ मीटर फिसल भी जाता है.बिहार आजादी के बाद से ही भारत और दुनिया के लिए एक अबूझ,अनुत्तरित पहेली बना हुआ है जिसे समझने और सुलझाने का प्रयास प्रत्येक आने-जानेवाली सरकारों ने किया किन्तु परिणाम वही ढाक के तीन पात रहा.
                         जब ६ साल पहले नीतीश कुमार जैसा सुलझा हुआ नेता बिहार की सत्ता पर काबिज हुआ तब माना गया कि अब बिहार के दिन फिरने ही वाले हैं.लेकिन आज भी बिहार भारत के लिए अपशकुन ही बना हुआ है.इन ६ सालों में प्रदेश में पूँजी निवेश तो नहीं ही हुआ,इसके लिए सबसे ज्यादा आवश्यक बिजली की स्थिति भी सुधरने के बजाये बिगड़ी ही है.यहाँ मैं आप पाठकों को कुछ उदाहरणों द्वारा बताना चाहूँगा कि वह बिहारी मानसिकता क्या चीज है जिसके चलते हमारा राज्य प्रत्येक क्षेत्र में पिछड़ा हुआ है.
                   मेरे पड़ोस में एक शर्मा जी का परिवार रहता है.शर्मा जी अच्छे वेल्डर हैं.अभी तो वे जयपुर में हैं और मात्र ८ हजार के वेतन पर किसी फैक्टरी में काम कर रहे हैं.जब वे यहाँ थे तब मैंने उनसे कहा था कि आप हाजीपुर में ही एक वेल्डिंग की दुकान खोलिए.जहाँ तक हो सकेगा हमलोग भी मदद करेंगे.हालांकि उन्हें दुकान खोलने में कोई ऐतराज भी नहीं था लेकिन उनके बेटों ने इसका जबरदस्त विरोध कर दिया.उन नौनिहालों का कहना था कि अगर उन्होंने यह दुकान खोली तो उनके सहपाठी उनका मजाक उड़ायेंगे.अंत में बेचारे ने न चाहते हुए भी ५० की ढलती उम्र में फ़िर से जयपुर का रास्ता पकड़ा.निश्चित रूप से वे अपनी दुकान खोल कर ८ हजार रूपये प्रतिमाह से कई गुना ज्यादा कमा लेते लेकिन घर-गाँव में काम करना उनके खुद के घर के लोगों को ही मंजूर नहीं हुआ.कुछ ऐसा ही हाल बिहार से बाहर रह रहे लाखों बिहारियों का है.जो श्रम बिहार की उन्नति में सहायक हो सकता था निरूद्देश्य दिल्ली-पंजाब की ओर पलायन कर रहा है.जीवनभर काम करने के बावजूद इन मजदूरों के हाथ हमेशा खाली रहते हैं क्योंकि इन्हें कभी इतनी मजदूरी नहीं मिल पाती जिसमें वे घर से बाहर रहकर खुद का खर्चा निकाल पाएं और गाँव में परिवार का भी भलीभांति पेट भर सकें.
                    दूसरा उदाहरण मेरा खुद का ही गाँव है.बिलकुल श्री श्रीलाल शुक्ल के रागदरबारी के शिवपालगंज जैसा.मेरे गाँव के मुखिया जी बड़े हुनरमंद हैं.जब २००६ में शिक्षामित्रों की बहाली का अहम जिम्मा सुशासन बाबू ने मुखियों को दिया तो इन्होंने एक साथ अपने दो-दो बेटों को शिक्षक बना लिया और एक पुत्र को बाद में न्यायमित्र बना लिया.इसके लिए उन्होंने काउंसिलिंग में दो-दो रजिस्टर रखे.एक असली और दूसरा नकली.एक में दिखावे के लिए काउंसिलिंग की और दूसरे रजिस्टर के माध्यम से सारी नौकरियां घर में ही रख लीं.ऐसा भी नहीं है कि सारे मुखियों ने ऐसा ही किया हो.कुछ मुखिया ऐसे भी थे जिन्होंने इन बहालियों में घरवालों पर कृपा करने के बदले जमकर पैसा बनाया.मेरा वार्ड सदस्य भी कम जुगाडू नहीं है.उसने अपने एक परिवार में पॉँच परिवार बना लिए हैं और सबका नाम बी.पी.एल. में दर्ज करवा लिया है.पहले से पक्का मकान होने के बावजूद वह ५ बार अपने ५ परिवारों के नाम पर इंदिरा आवास की राशि उठा चुका है.वह हर महीने क्विंटल के भाव से सरकारी दुकान से सस्ता अनाज लाता है और बेच देता है.ड्रम से किरासन लाता है सो अलग.आपको आश्चर्य होगा कि उसकी २० वर्षीया बहू को इस कमसिन आयु में ही वृद्धावस्था पेंशन मिलता है.अभी कुछ ही दिन पहले मेरे घर के पीछे के टोले में आग लग गई.हालांकि वार्ड सदस्य का उसमें एक तिनका भी नहीं जला था लेकिन फ़िर भी उसने दो-दो घर जलने के नाम पर मुआवजा ले लिया.भ्रष्टाचार और घूसखोरी की असीम अनुकम्पा से मेरे गाँव में ऐसे दो-चार जमींदार परिवार ही होंगे जिनका नाम बी.पी.एल. सूची में नहीं है.वरना सारे धनवान आजकल सरकारी दस्तावेजों में गरीबी रेखा से नीचे की जिंदगी गुजार रहे हैं.उनमें से कईयों ने तो इंदिरा आवास की राशि भी उठा ली है जबकि उनके पास पहले से ही बड़े-बड़े व पक्के मकान थे.हमारा पंचायत समिति सदस्य भी कम करामाती नहीं.फ़िर उसके साथ ही अन्याय क्यों?चलिए थोड़ा उनका भी गुणगान हो जाए.हुआ यूं कि पिछले साल हमारे गाँव की हरिजन टोली में ४५ घर जल गए.लेकिन किसी भी हरिजन को कोई मुआवजा नहीं मिला क्योंकि सबके बदले अकेले मुआवजा उठा लिया सलमान खान से भी कहीं ज्यादा दबंग श्रीमान पंचायत समिति सदस्य जी ने.
              अबतक तो आप समझ गए होंगे कि बिहार के गांवों में आकर भारत सरकार की सारी योजनाएं क्यों धूल चाटने लगती हैं जबकि केरल में वही सुपरहिट हो जाती है.हमारे बिहार में बिना तालाब खोदे मछलियाँ पाल ली जाती हैं और उन्हें चारा देने के नाम पर करोड़ों का गबन कर लिया जाता है.खैर ये तो रही स्वनामधन्य, बिहारी शब्द को गली बना देने वाले लालू जी के ज़माने की बात.तब की तो बात ही अलग थी.अब वो समय कहाँ?तब तो मोटरसाइकिल पर भैसें भी ढोयी जाती थीं.अब तो भाई मनरेगा का जमाना है.वैसे तो यह योजना लाई गई थी मजदूरों के लिए.लेकिन चांदी काट रहे हैं मुखिया.बिना वृक्षारोपण किए ही पौधों की सिंचाई के नाम पर मजदूरी के पैसों का घोटाला कर लिया जा रहा है.वैसे तो आधे से ज्यादा मजदूरों का कोई अस्तित्व ही नहीं और अगर मजदूर सही भी हुआ तो उसे घर बैठे आधी राशि दे दी जाती है.
                            अभी पिछले साल की ही बात है.गाँव में मेरे एक पड़ोसी के दालान पर एक आटा  चक्की बिठाई जा रही थी.मेरे पड़ोसी अपनी काहिली और ताश के पत्तों के प्रति दीवानगी के लिए पूरे इलाके में जाने जाते हैं.सो मुझे घोर आश्चर्य हुआ.संपर्क करने पर पता चला कि श्रीमान ने लघु उद्योग विभाग में सत्तू फैक्टरी के नाम पर लोन के लिए आवेदन दे रखा है.सो जिला मुख्यालय से इंस्पेक्शन के लिए अफसरों का दौरा होने वाला है.मैंने कहा कि भाई तुम्हारा तो आलस्य के साथ कई जन्मों का नाता है फ़िर इसी जन्म में यह वेवफाई क्यों?अब मेहनत करने की ठान ही ली है क्या?तो उसने दार्शनिक अंदाज में कहा मियां,इस समय केंद्र सरकार की जो हालत है;किसी से छिपी नहीं है.केंद्र शुद्ध लालू-राबड़ी फ़ॉर्मूला से भारत का शासन चला रहा है और मेरा बिहारी दिमाग कहता है कि अगर यू.पी.ए. को अगला चुनाव जीतना है तो पिछले चुनाव की तरह चुनाव से पहले ऋण माफ़ी तो तय ही समझो.घूम गया न आपका दिमाग भी.अब तो आप भी मान गए होंगे बिहारी दिमाग का लोहा.ईधर इंस्पेक्शन पूरा हुआ और उधर आटा चक्की जिस बनिए के घर से आई थी,पहुंचा दी गई.ऋण के पैसों से बेटी ब्याह दी गई जो सूत्रों के अनुसार अब काफी सुखी भी बताई जा रही है.अब आप ही बताईये ऐसा कहीं और होता है क्या भैया?नहीं होता है न!इसलिए तो बिहार बिहार है.
                    दरअसल बिहार एक राज्य का नहीं,एक मानसिकता का नाम है.सरकार डाल-डाल चलती है तो बिहारी जनता पात-पात.किसी भी कड़े-से-कड़े कानून का तोड़ जानना हो तो वकील का चक्कर काटने की कोई जरूरत नहीं,बस एक बार बिहार की यात्रा कर लीजिये.चलिए आपको एक डेमो दिखाता हूँ.अभी द्वितीय चरण की शिक्षकों की बहाली चाल रही है.इस बार सरकार ने प्रक्रिया में कई सुधार किए और मान लिया कि अब गड़बड़ी हो ही नहीं सकती.खुदा झूठ न बोलवाए,मानना पड़ेगा बिहारी दिमाग को.इस बार भी करोड़ों रूपये के रिश्वत दांव पर लगे हैं मियां.मेरे गाँव के १०० प्रतिशत लोग विधिवत विद्युत कनेक्शन लेने के बजाए चोरी से बिजली जलाने में यकीन रखते हैं.आप ही बताईये सरकार इन्हें बिजली दे भी तो कहाँ से दे और कब तक और क्यों दे?मुफ्त की बिजली का जमकर इस्तेमाल हमारे यहाँ सिर्फ गांवों में होता हो ऐसा भी नहीं है शहरों में भी तो वही बिहारी दिमागवाले लोग रहते हैं न.
                             कुल मिलाकर इस पूरे बकवास का लब्बोलुआब यह है कि बिहार सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए कल भी टेढ़ी खीर था और आज भी उतनी ही टेढ़ी खीर है.अब देखना है कि नीतीश जी कुत्ते की दुम इस प्रदेश को सीधा कर पाते हैं या फ़िर खुद ही सीधा हो लेते हैं.बिहार की कहानी इस समय बड़े ही रोचक मोड़ पर है.अब देखना है कि ऐतिहासिक बिहार सुधरेगा या फ़िर भविष्य में भी पिछड़ेपन और अव्यवस्था की कसौटी बना रहेगा.अंत में-पहले जय भारत का फ़िर हो जय बिहार का नारा,पहले भारत फ़िर बिहार को अर्पित नमन हमारा.

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

जब बोया पेड बबूल का

मैं यूं तो अंतर्मुखी और एकांतप्रिय आदमी हूँ लेकिन परसों कुछ इस तरह के हालात बन गए कि मुझे एक विद्यालय के गणतंत्र दिवस समारोह में जाना पड़ गया.वहां शिक्षण को धंधा बना चुके शिक्षक बार-बार अभिभावकों से उनके बेटे-बेटियों को डॉक्टर,ईन्जीनियर बनाने का वादा कर रहे थे और अभिभावक भी यंत्रवत तालियाँ पीटे जा रहे थे.शायद उनकी नजर में डॉक्टरी-ईन्जीनीयरिंग की प्रवेश परीक्षा पास करा देने लायक ज्ञान बच्चे के दिमाग में फीड कर देना या ठूंस देना ही शिक्षा है.
          क्या सचमुच इसी का नाम शिक्षा है?अगर हाँ तो फ़िर देश की हालत इतनी ख़राब क्यों है?क्यों देश में दिन-ब-दिन अराजकता बढती जा रही है?क्यों अति पढ़े-लिखे लोग भी भ्रष्टाचार करने से नहीं चूकते?स्विस बैंक में जो भारतीयों का लगभग ९० लाख करोड़ रूपया जमा है वह किसी अनपढ़ देहाती का नहीं है बल्कि देश-विदेश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में पढ़े-लिखे लोगों का है.ज्यों-ज्यों देश में साक्षरता बढ़ रही है,भ्रष्टाचार भी बढ़ता जा रहा है.साथ ही भारतीय समाज में भ्रष्टाचरण की स्वीकार्यता भी बढती जा रही है.वास्तव में आज के भारत को ईन्जीनियर,डॉक्टर व मैनेजर की जरुरत नहीं है.इनकी कोई कमी नहीं है भारत में.अगर भारत में किसी चीज की कमी है तो वह है ईमानदार ईन्सानों की.ईमानदारी आज हमारे देश में अत्यंत दुर्लभ भाववाचक संज्ञा हो गई है और उतने ही दुर्लभ हो गए हैं ईमानदार लोग.
                             मैंने बचपन में संस्कृत की पाठ्य-पुस्तक में एक कहानी पढ़ी थी.उस कहानी में चार माताएं कुएँ से घर जल ला रही होती हैं और रास्ते में अपने-अपने पुत्रों के बारे में बात कर रही होती हैं.एक कहती है कि मेरा बेटा बहुत अच्छा धावक है.इतने में उसका बेटा वहां से हिरण की तरह कुलांचे भरता हुआ गुजर जाता है.दूसरी माँ कहती है कि उसका बेटा कोयल की तरह गाता है.तभी उसका बेटा मीठे स्वर में गाना गाता हुआ आता है और आगे बढ़ जाता है.तीसरी महिला का बेटा हाथी की तरह झूमता हुआ आता है और बिना ठहरे निकल लेता है.चौथी के बेटे में कोई विशेष गुण नहीं होता.अतः पूछने पर वह कहती है कि मेरा बेटा बस मेरा बेटा है.तभी उसका बेटा आता है और माँ के माथे से पानी की गगरी लेकर सबके साथ चलने लगता है.
                            वास्तव में आज भारतमाता को इसी चौथी तरह के बेटे की जरूरत है जो उससे अपार प्यार करे चाहे उसमें अन्य कोई विशेष गुण हो या नहीं हो.आज के माता-पिता अपने बच्चों को एक अच्छा ईन्सान बनना नहीं चाहते.वो चाहते हैं कि उनके बच्चे पैसा कमाने की मशीन बन जाएँ बस.बाद में जब बेटा या बेटी माता-पिता को आदर देना तो दूर साथ में रखने को भी तैयार नहीं होते तो फ़िर ईधर-उधार उसे गालियाँ देते फिरते हैं.दिल्ली में ही ऐसे अनगिनत वृद्ध माता-पिता हैं जिनकी संतानें उनके साथ नहीं रहतीं और जिन्हें मजबूरी में बड़ी-बड़ी कोठियों में एकाकी जीवन बिताना पड़ रहा है.उनमें से कईयों के बच्चों ने तो दिल्ली में ही अपनी अलग दुनिया बसा ली है.
               मित्रों यह नई प्रवृत्ति जो अभी दिल्ली में दिख रही है वह भविष्य में पूरे भारत में दिखनेवाली है.स्वामी विवेकानंद के अनुसार हम लोग पौधरूपी बच्चों को सिर्फ अच्छा वातावरण दे सकते हैं,अच्छा खाद-पानी दे सकते हैं;हम जबरन उसे कुछ बना नहीं सकते.लेकिन आज हो क्या रहा है?बच्चे के जन्म लेते ही हम यह निर्धारित कर लेते हैं कि हमारा बच्चा क्या बनेगा.हम अक्सर परेशान रहते हैं कि बच्चे को कम नंबर क्यों आ रहे हैं?कई बार नंबर बढ़ाने के लिए अभिभावक गलत साधनों का भी सहारा लेते हैं.अभी कल-परसों ही पटना मेडिकल कॉलेज के एक छात्र ने रैगिंग से परेशान होकर आत्महत्या कर ली.वह छात्र निश्चित रूप से मेधावी था.बल्कि मैं तो कहूँगा कि अत्यंत मेधावी था.लेकिन था डरपोक क्योंकि उसे परिस्थितियों से टकराने व संघर्ष करने की शिक्षा न तो उसके माता-पिता ने ही दी थी और न ही उसके शिक्षकों ने.अगर हमारे बच्चों ने इस तरह की मेधा प्राप्त कर भी ली तो उसका क्या लाभ?जीवन में छोटी-सी मुश्किल आएगी और वह घबराकर जीवन का ही अंत कर लेगा.
                 मित्रों आज हमारा देश संक्रमण काल से गुजर रहा है.परिवार और समाज टूट रहे हैं और इसके लिए जिम्मेदार है हमारी शिक्षा-प्रणाली.हमें अपनी शिक्षा-प्रणाली को न केवल रोजगारपरक बनना होगा वरन उसमें ऐसे वांछित परिवर्तन भी करने होंगे जिससे हमारे बच्चे चरित्रवान बन सकें.हम भारत का वर्तमान हैं और हमारे बच्चे भारत के भविष्य.हमारे बच्चे अगर चरित्रवान होंगे तो हमारा देश भी चरित्रवान बनेगा और तब भारत का नाम भ्रष्ट देशों की सूची में नहीं बल्कि ईमानदार देशों की सूची में होगा,वो भी पहले नंबर पर.तो आप अपने बच्चे और अपने देश को क्या और कैसा बनाना चाहते हैं???

बुधवार, 26 जनवरी 2011

गणतंत्र दिवस,ईमानदारी पर बेईमानी की जीत का जश्न

आज २६ जनवरी,२०११ है.जागते ही अख़बार पर नजर डाली.अख़बार के मुख्य पृष्ठ पर खबरें कुछ इस तरह थीं-लाल चौक सील,नासिक में ए.डी.एम. को जिंदा जलाया,भ्रष्टाचार विकास का दुश्मन-राष्ट्रपति,मंजूरी बिना चल रहे कई कोर्स,राजेश तलवार पर कातिलाना हमला.क्या यही है बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर?क्या ऐसे ही भारत के सपने भगत,अशफाक और बिस्मिल की आँखों में थे जब वे फांसी के फंदे को चूम रहे थे?निश्चित रूप से नहीं.इन शहीदों ने सपने में भी नहीं सोंचा होगा कि जिस वतन की आजादी के लिए वे अपने प्राण न्योछावर करने जा रहे हैं उसका भविष्य ऐसी अँधेरी सुरंग है जिसका कोई अंत नहीं.
                                   आपने कभी सोंचा है कि हमारे देश में क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है?जिस राष्ट्रपति के पद को कभी त्याग की साक्षात् प्रतिमूर्ति डॉ.राजेंद्र प्रसाद ने सुशोभित किया था आज उसी कुर्सी पर कई हजार करोड़ रूपये के घोटालों में संदिग्ध महिला शोभायमान है.क्या इसी को विकास कहते हैं?कल तेल माफियाओं ने महान तिलक की पुण्यभूमि महाराष्ट्र में एक ईमानदार ए.डी.एम. को दिनदहाड़े जिन्दा जला दिया.क्या केंद्र सरकार और सोनिया गांधी बताएगी कि यह जीवित-दहन किस प्रकार ग्राहम स्टेंस की हत्या से अलग है या अलग नहीं है?यह सिर्फ एक ईमानदार व्यक्ति की हत्या नहीं है बल्कि यह बेईमानी के हाथों ईमानदारी की हत्या है.यह सतबल पर पशुबल की जीत है और आज गणतंत्र दिवस समारोह को मैं इसी जीत के जश्न के रूप में देखता हूँ क्योंकि यह घटना इस महादिवस की पूर्व संध्या पर घटी है.
                         आज अम्बानियों और टाटाओं की बढती संपत्ति के बल पर  दुनिया के सबसे तेजी से विकास कर रहे चंद देशों में से एक बन चुके महान भारत की महान राष्ट्रपति भ्रष्ट नेताओं की तालिओं की गडगडाहट के बीच दलाली देकर ख़रीदे गए हथियारों के प्रदर्शन के बीच विजय चौक पर राष्ट्रवाद का प्रतीक तिरंगा फहराएगी.हाँ,वही झंडा जिसके लिए ११ अगस्त,१९४२ को पटना के सचिवालय चौराहे पर एक-एक करके सात युवकों ने हँसते-हँसते प्राणों की आहुति दे दी थी.
                                                      आज हमारा गणतंत्र अराजकता की अँधेरी गुफा में भटक रहा है.लोगों का न्यायपालिका सहित पूरी व्यवस्था पर से विश्वास उठता जा रहा है.कल फ़िर अदालत परिसर में एक आरोपी पर जानलेवा हमला हुआ.पुलिस के अनुसार हमला करनेवाले की मानसिक स्थिति पूरी तरह ठीक है और बी.एच.यू. का गोल्ड मेडलिस्ट यह युवक उत्सव शर्मा आरोपितों को सजा नहीं मिल पाने की बढती प्रवृत्ति से व्यथित था,इसलिए उसने उन्हें खुद सजा देने का प्रयास किया.क्या बदलते समय के इस पदचाप को हमारे नेता और जनता सुन रहे हैं?मुझे तो इस युवक में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त का अक्स नजर आ रहा है जिन्होंने कभी बधिरों को आजादी का जयघोष सुनाने के लिए नेशनल असेम्बली में बम फेंका था.
                        कितनी बड़ी बिडम्बना है यह,कितना बड़ा विरोधाभास है कि आज एक तरफ जब पूरे देश में उत्सवपूर्वक तिरंगा फहराया जा रहा है,श्रीनगर के लालचौक पर लोगों को झंडा फहराने से रोका जा रहा है.गोरे अंग्रेज चले गए और कहीं उनसे भी ज्यादा निष्ठापूर्वक उनके कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं काले अंग्रेज.जब श्रीनगर भारत का अभिन्न हिस्सा है तो वहां समारोहपूर्वक तिरंगा क्यों नहीं फहराया जा सकता?क्योंकि कुछ कट्टरपंथी मुसलमान इसे पसंद नहीं करते और इससे वोटबैंक पर असर पड़ता है?मतलब कि तिरंगा भी वोटों की गन्दी राजनीति का शिकार हो गया.मैं मानता हूँ कि भाजपा का मकसद भी पूरी तरह से पवित्र नहीं है लेकिन इससे सरकार को किसी को तिरंगा फहराने से रोकने का अधिकार नहीं मिल जाता.तिरंगा हमारी आन,बान,शान और जान है.इसे फहराने से रोकने की सोंचना भी देशद्रोह है.
                               आज के ही अख़बार में पद्म सम्मान पानेवालों की सूची भी प्रकाशित की गई है.इनमें से ज्यादातर जरूर ऐसे हैं जिन्हें सम्मानित किया ही जाना चाहिए लेकिन कई ऐसे भी हैं जिन्होंने देश के लिए कुछ नहीं किया सिवाय एक परिवार विशेष के प्रति वफ़ादारी प्रदर्शित करने के.यही प्रवृत्ति बनी रही तो एक दिन वह भी आएगा जब यशवंत सोनावने के हत्यारों को भी पद्म सम्मान मिल जाएगा.
                  दोस्तों आज अगर गणतंत्र गन तंत्र में बदल रहा है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है?निश्चित रूप से हम,हम भारत के लोग जिन्होंने २६ नवम्बर,१९४९ को भारत के संविधान को पूरी निष्ठा से आत्मार्पित किया था.चीनी में एक कहावत है कि हमारे उत्थान या पतन से देश का उत्थान या पतन होता है.देश का नैतिक पतन वास्तव में हमारे समाज,हमारे परिवार और हमारे स्वयं का नैतिक पतन है,नैतिक स्खलन है क्योंकि देशरूपी शरीर की हमीं कोशिका हैं और आप तो जानते हैं कि कोशिका में विकृति आने से ही कैंसर जन्म लेता है.जय हिंद!!!

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

अल्ला के नाम पर दे दे रे बाबा

द्वार पर आए याचक को खाली हाथ नहीं लौटाने की महान परंपरा भारतीय वांग्मय में हमेशा से रही है.समय साक्षी है कि हमारे कई पूर्वजों ने दान में मांगने पर अपने प्राण तक बेहिचक दे दिए.दानवीरों में राजा हरिश्चंद्र,शिवि,दिलीप,रघु,बलि,कर्ण और महर्षि दधिची का नाम आज भी आदर के साथ लिया जाता है.इसके अलावे न जाने कितने जाने-अनजाने महादानियों को जन्म देने का सौभाग्य भारतभूमि को प्राप्त है.लेकिन आज हमारे देश में भिक्षावृत्ति एक राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है.एक अनुमान के अनुसार आज भारत में सालाना कम-से-कम ३००० करोड़ रूपये भीख में लिए और दिए जाते हैं.इस तरह इसने हमारे देश में एक बहुत बड़े व्यवसाय का स्वरुप अख्तियार कर लिया है.आज लगभग ३ करोड़ संन्यासियों सहित एक बहुत बड़ी जनसंख्या ऐसी है जो बिना कोई उत्पादक काम किए देश और देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ बनी हुई है.ये भिखारी निरे पलायनवादी हैं,पराजित मानसिकतावाले लोग हैं जो भगवान के नाम पर लोगों का भावनात्मक शोषण करते हैं.इनमें से कई तो धर्मभीरू जनता के पैसे से गेरुआ वस्त्र धारण कर मौज करते हैं.
                     अभी पिछले साल मैं कांवर लेकर पदयात्रा करता हुआ सुल्तानगंज से देवघर गया था.पूरे १०५ किलोमीटर लम्बे रास्ते में सड़कों के किनारे भिखारियों का महाकुम्भ लगा हुआ था.तरह-तरह के भिखारी जमा थे.आश्चर्यजनक रूप से उनमें से ज्यादातर शारीरिक रूप से स्वस्थ थे.मुंह-अँधेरे यात्रा करने की अपनी पुरानी आदत के चलते मैंने कई भिखारियों को नकली घाव और मवाद तैयार करते भी पाया.कितने बड़े मेकअप कलाकार थे वे!स्वस्थ और सुन्दर शरीर पर वर्चुअल घाव और मवाद बना लेना और फ़िर शानदार और जानदार अभिनय.रूदन और दर्दनाक चीखें.कई तीर्थयात्री तो ऐसे भी थे जो प्रत्येक भिखारी के आगे पैसे फेंकने को अपने स्वाभाव के हाथों बाध्य थे.इस सम्बन्ध में मुझे विनोबा जी के बचपन का एक प्रसंग याद आता है.विनोबाजी की माँ बड़े ही धार्मिक विचारोंवाली थी.जो भी याचक द्वार पर आता उसे यथासंभव कुछ-न-कुछ अवश्य देतीं.विनोबाजी ने एक दिन अपनी माँ से पूछा कि माँ तुम सभी याचकों को दान देती हो,क्या तुम जानती हो कि उनमें कौन तुम्हारे दान का क्या करता है?तो उनकी माँ ने जवाब में कहा कि बेटा मैं तो सबको नारायण का स्वरुप समझ कर भिक्षा देती हूँ.अब मेरी भिक्षा का कोई सदुपयोग करेगा या दुरुपयोग यह भी नारायण ही जाने.
               वैसे शास्त्रों में केवल सत्पात्रों को दान देने का ही समर्थन किया गया है.लेकिन आज की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में कोई कैसे और कहाँ तक किसी भिखारी की जन्मकुंडली का पता लगाता फिरेगा.ऐसा कोई डिटेक्टर विज्ञान आज तक नहीं बना पाया है जिससे कि किसी के दान के लिए सत्पात्र या कुपात्र होने का पता लग पाए.अभी कुछ समय पहले मैं ट्रेन से भोपाल से दिल्ली जा रहा था.दिल्ली में ट्रेन के प्रवेश से कुछ ही समय पहले एक एक पैरवाला युवा भिखारी बैशाखी के सहारे रेंगता हुआ हमारी बोगी में आया.मेरे मित्र ताबिश को उसकी दशा पर तरस आ गया और उन्होंने २ रूपये उसे दे दिए.जब ट्रेन हजरत निजामुद्दीन स्टेशन पर रूकने लगी तब कुछ छोटे बच्चे पानी की खाली बोतलें लूटने के लिए डिब्बे में चढ़ गए.वह लंगड़ा उन्हें ऐसा करने से रोकने के उद्देश्य से उन्हें गालियाँ देने लगा.जब हम उसके पास से गुजरे तो मालूम हुआ कि उसने शराब पी रखी थी.ताबिश बेचारे ठहरे धर्मनिष्ठ मुसलमान.सो उन्हें अपने द्वारा उसे दान दिए जाने पर ग्लानि होने लगी.मैंने उन्हें समझाया कि मित्र हम तो सिर्फ दान देने के भागी हैं उसका उपयोग तो हमारे हाथ में है ही नहीं.इसलिए आपके व्यथित होने का कोई कारण नहीं है.
                                  बिहार में जब भी छठ पर्व का समय आता है बिहार के सारे भिखारी छठव्रती का स्वांग धारण कर लेते हैं.इसी तरह कई बार छोटे लड़के और लड़कियां रस्सी लेकर भीख मांगते देखे जा सकते हैं जबकि उनका दूर-दूर तक पशुपालन से कुछ भी लेना-देना नहीं होता है.नवजात बच्चे के बहाने भीख मांगना तो पूरे भारत में प्रचलित है.इसी तरह ट्रेनों में छोटे-छोटे बच्चे झाड़ू लेकर सफाई करते भी भारत में कहीं भी देखे जा सकते हैं.इतना ही नहीं कई बार तो बेरोजगार युवा पेट भरने के लिए हिजड़ा बन जाने से भी नहीं हिचकते.ऐसा हो भी क्यों नहीं?हर्रे लगे न फिटकिरी रंग भी चोखा होए.है कोई अन्य व्यवसाय जिसमें न तो कोई पूँजी लगे और न ही किसी श्रम की आवश्यकता ही हो और रोजाना सैकड़ों रूपये कटोरे यानी जेब में आने की पूरी गारंटी हो?बस सही स्थान पर जम जाने भर की देरी है.
                    जाहिर है कि भारत में भिखारियों की संख्या दिन-ब-दिन बढती ही जा रही है.जबकि महंगाई के कारण मेहनतकशों का जीवन महंगा होता जा रहा है.मैंने कई बार पटना स्टेशन के इर्द-गिर्द कई भिखारियों को मुर्गा-भात उड़ाते देखा है.भारत जैसा गरीब देश करोड़ों मुफ्तखोरों का बोझ नहीं उठा सकता.इसलिए इससे पहले कि बैठे-ठाले के इस व्यवसाय के कारण देश की अर्थव्यवस्था का संतुलन बिगड़ जाए,हमें भिक्षावृत्ति की इस कुरीति को समाप्त करने के उपाय ढूँढने शुरू कर देने चाहिए.पूरी तरह से लाचार अपंगों और सही जरुरतमंदों के लिए आश्रय-स्थल बने और लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर मुफ्त की रोटी तोड़नेवालों को काम पर लगाया जाए.साथ ही भिखारियों में जो नशे के लती बन गए हैं उनका नशामुक्ति केन्द्रों में ईलाज कराया जाए.तभी देश को इस राष्ट्रीय समस्या से मुक्ति मिल सकेगी.                                                       

सोमवार, 24 जनवरी 2011

गलती किसकी?रेलमंत्री की या रेलवे पर विश्वास करनेवाले यात्रियों की

मुझे रोना आ रहा था और बार-बार रोना आ रहा था.कभी खुद पे तो कभी हालात पे.दिन सोमवार,तारीख १० जनवरी,२०११.मैं भोपाल से दिल्ली जाने के लिए गोंडवाना एक्सप्रेस में सवार था.सौभाग्यवश मेरे अभिन्न मित्र हुसैन ताबिश मेरे साथ थे.ट्रेन शर्माती,लजाती ५ मिनट चलती तो ३० मिनट के लिए रूक जाती.जी में आता पैदल ही दिल्ली के लिए चल दूं.सड़कों पर ट्रैफिक जाम तो मैंने बहुत बार देखा था उस दिन पहली बार रेलवे ट्रैक पर जाम देख रहा था.आगे-पीछे बीसियों ट्रेनें भोपाल से लेकर दिल्ली तक एक-एक किलोमीटर के अंतर पर रेंग रही थीं.मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि गलती किसकी है?किसकी गलती के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न हो रही है?रेलयात्रियों की या फ़िर रेलमंत्री की?क्या हमने रेलवे पर यह विश्वास करके कि वह हमें समय पर और सही सलामत गंतव्य तक पहुंचा देगा,गलती की थी.
                 इससे पहले ९ जनवरी को भोपाल जानेवाली भोपाल एक्सप्रेस के लगभग १२ घन्टे लेट हो जाने के कारण मेरे कई साथी माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,भोपाल की प्री पीएच.डी. परीक्षा में शामिल होने से वंचित हो चुके थे.उससे भी पहले रेलवे ने धड़ल्ले से दर्जनों गाड़ियों को पूरी सर्दी के मौसम के लिए रद्द कर दिया गया.ऐसा क्यों किया गया ममता बनर्जी ही जाने?इसके बावजूद ट्रेनें कछुवे की चाल में सरक रही थीं.जब यही करना या होना था तो फ़िर ट्रेनें रद्द करने का क्या लाभ?जिन ट्रेनों को रद्द किया था वे भी चलतीं और इसी तरह देर से चलतीं.कम-से-कम यात्रियों के लिए विकल्प तो बढ़ जाते.
                                     हम गोंडवाना एक्सप्रेस के यात्रियों की जान कैद में थी और इस यात्रा को और भी यातनापूर्ण बना रही थी हमारी ट्रेन में कैटरिंग का नहीं होना.ट्रेन रूकती तब हम कुछ खा लेते जो सामग्री न जाने किस गुणवत्ता की होती थी.मेरे बगल की सीट पर एक २ साल की बच्ची थी अपने माता-पिता के साथ.वह बार-बार अपने माता-पिता से ट्रेन से उतरने की जिद करती और जब-जब वह ऐसा करती उसके पिता उसे समझा देते कि अभी उसके मामा की ससुराल ही आई है और यहाँ नहीं उतर सकते क्योंकि यहाँ बन्दर रहते हैं आदमी नहीं.इस यातना शिविर का मैं भी भोक्ता था,द्रष्टा नहीं.बार-बार मन में गुस्सा आता देश और रेलवे की हालत पर और केंद्र में सत्तारूढ़ सरकार पर और कई-कई प्रश्न मन में उमड़ने-घुमड़ने लगते.
           ऐसा क्यों हो रहा है?क्यों ट्रेनें घंटों नहीं दिनों लेट चल रही हैं?क्या हुआ टक्कररोधी यंत्रों का?कब तक गरीब भारतीय इस तरह यातनापूर्ण रेलयात्रा करने को अभिशप्त रहेंगे?कब चलेगी भारत में पहली बुलेट ट्रेन?हालांकि मैं नहीं मानता कि लालू द्वारा रेलवे को दुधारू गाय बना देने और वो भी यात्रियों की सुविधा की कीमत पर सही था लेकिन ममता के समय में तो लालू की गाय बलाय हो गई है.पूरी तरह से यथास्थिति कायम हो गई है रेलवे में.कहीं कोई सुधार के प्रयास नहीं.न तो टक्कररोधी उपकरण ही लगाए जा रहे हैं और न ही ट्रेनों की गति बढ़ाने के ही उपाय हो रहे हैं.ममता को दुर्घटना रोकने के लिए बस एक ही उपाय नजर आ रहा है और वह यह है कि दर्जनों ट्रेनों को रद्द कर दो.न चलेगी ट्रेन और न ही दुर्घटना का ही डर होगा और इस तरह ममता को बार-बार इस संवेदनशील समय में बंगाल छोड़कर दुर्घटनास्थल पर नहीं जाना पड़ेगा.ममता को तो इस समय सिर्फ बंगाल के मुख्यमंत्री की कुर्सी ही नजर आ रही है.वह बिलकुल ही भूल गई है कि वह इस समय भारत की रेलमंत्री भी है.कौन याद दिलाएगा उन्हें?कायदे से तो यह काम प्रधानमंत्री का है लेकिन न तो मनमोहन सिंह में ही वह दम है और न ही ऐसा कर पाने में सोनिया गांधी ही सक्षम हैं.यक़ीनन बंगाल की जनता ऐसा कर सकती है लेकिन वह ऐसा करेगी क्या?कहीं इसी अराजकता उत्पन्न करनेवाले स्टाईल में उन्होंने बंगाल की सरकार चलाई तो??                          

रविवार, 23 जनवरी 2011

भ्रष्टाचार पर कांग्रेस-भाजपा की थू-थू मैं-मैं

तेरा मेरा मेरा तेरा तेरा मेरा मेरा तेरा.रोज-रोज की थू थू (तू तू) मैं मैं.आज १२५ वर्ष की बूढी-सठियाई कांग्रेस और ३० वर्षीया यौवना भाजपा आपस में भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार का खेल खेलने में लगी हैं.इन दोनों ही दलों का मानना है कि भ्रष्टाचार करने पर सिर्फ उनका ही जन्मसिद्ध अधिकार है.मेरे लोग जब भ्रष्टाचरण करें तो ठीक है लेकिन जब तुम्हारे लोग करें तो गलत.दोनों ही पक्ष यानी यू.पी.ए. और एन.डी.ए. लगातार फ़ैल रहे भ्रष्टाचार रूपी विषवृक्ष की जड़ों पर काठ की तलवार से प्रहार कर स्वयं के भ्रष्टाचार-विरोधी होने का खूब दिखावा कर रहे हैं.आजकल इन दोनों गठबन्धनों का रणक्षेत्र बना हुआ है कर्नाटक.वैसे भी इतिहास गवाह है कि कांग्रेस विरोधी दलों की सरकारों को दर्जनों बार धारा ३५६ का दुरुपयोग करके पहले भी अपदस्थ कर चुकी है.इस बार मामला थोड़ा अलग है.इस बार वह जिस सरकार को गिराना चाह रही है उस पर पहले से ही भ्रष्टाचार के कई गंभीर आरोप हैं.लेकिन जिस कांग्रेस की केंद्र सरकार स्वयं भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबी हुई है वह किस नैतिक बल के बूते पर एक राज्य सरकार को इसी तरह के आरोप लगाकर हटा सकती है?अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टोलरेंस या पूर्ण असहनीयता का मार्ग अपनाना ही है तो इसमें भेदभाव के कहाँ स्थान बनता और बचता है?केंद्र यह तो नहीं कह सकती कि जैसा कि उसके कई मंत्री कह भी रहे हैं कि उनके नेताओं व मंत्रियों द्वारा बरते गए भ्रष्टाचरण से देश की जनता को हानि के बजाए लाभ ही हुआ है और चूँकि विपक्षी नेताओं के भ्रष्टाचरण से देश और जनता को सिर्फ हानि हुई है इसलिए उसके पक्ष के आरोपितों को साम-दाम-दंड-भेद किसी भी तरीके से बचाया जाना चाहिए.वहीँ विपक्षी आरोपित नेताओं पर आवश्यक कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए.
                          दूसरी तरफ युवा पार्टी भाजपा भी भ्रष्टाचार में लिप्त अपने नेताओं का किसी भी तर्क-कुतर्क के सहारे बचाव नहीं कर सकती.यदि कलमाड़ी व राजा का भ्रष्टाचार बुरा है तो फ़िर येदुरप्पा का भ्रष्टाचार कैसे अच्छा हो गया?भाजपा को उनसे भी इस्तीफा ले लेना चाहिए था तभी उसे भ्रष्टाचार के विरुद्ध कथित निर्णायक युद्ध में गंभीर योद्धा माना जाता और तब लोग भी राष्ट्रीय स्तर पर उससे भावनात्मक रूप से जुड़ाव महसूस करते.अब आज की तारीख में कर्नाटक में जो राजनीतिक स्थिति है उस पर हँसा भी जा सकता है और रोया भी जा सकता है.हमने बचपन में एक कहानी पढ़ी थी जिसमें एक साधु एक बच्चे से गुड़ का अतिसेवन त्यागने के लिए कहने से पूर्व खुद गुड़ खाना बंद कर देता है.आज बिडम्बना यह है कि प्रत्येक राजनीतिक दल दूसरे पक्ष पर गुड़ खाने के आरोप तो लगा रहा है परन्तु खुद गुड़ खाने से परहेज करने को कतई तैयार नहीं है.कर्नाटक में राजनीतिक फायदा चाहे जिसका भी हो यू.पी.ए. का या फ़िर एन.डी.ए. का लेकिन इतना तो निश्चित है कि बंद और तोड़फोड़ से घाटा सिर्फ और सिर्फ देश को हो रहा है,भारतवर्ष को हो रहा है.

शनिवार, 22 जनवरी 2011

मेरी कल्पनाओं में मेरे बॉस की प्रतिमूर्ति

क्या आपने कभी यह कल्पना की है कि आपका बॉस कैसा हो सकता है?मैंने आपसे यह बिलकुल भी नहीं पूछा है कि आपका बॉस कैसा होना चाहिए?मैं यहाँ आदर्शवाद की नहीं बल्कि यथार्थवाद की बात कर रहा हूँ.वैसे मैं एक आदर्शवादी इन्सान हूँ लेकिन बॉस को लेकर आदर्शवादी होने का कोई मतलब भी तो नहीं है.हम अपना बॉस चुन नहीं सकते बल्कि यह तो वह शह है जो हम पर थोप दिया जाता है या दूसरे शब्दों में कहें तो हम खुद ही अपने ऊपर थोप लेते हैं.
           खैर,आपने भले ही यह कल्पना नहीं की हो लेकिन मैंने तो की है,और खूब की है.चलिए कुछ देर के लिए मैं आपको भी अपनी यथार्थवादी कल्पना की दुनिया में साथ लिए चलता हूँ.मैंने कल्पना की है कि मैं इन दिनों एक प्रसिद्ध अख़बार के डॉट.कॉम. में काम कर रहा हूँ.आप कहेंगे कि जब कल्पना की ही उड़ान भरनी है तो और ऊंची भर लेनी चाहिए थी और खुद को मंत्री-प्रधानमंत्री बना लेना चाहिए था.लेकिन मेरा वर्तमान इतना उज्ज्वल भी तो नहीं है.आप जानते हैं कि मैं एक बेरोजगार आदमी हूँ.इसलिए अपनी औकात के मुताबिक ही कल्पना कर रहा हूँ.
             मेरा बॉस जो डॉट.कॉम. का संपादक भी है करीब ५०-५५ की उम्र का है और सेक्स फ्री समाज का प्रबल समर्थक है.वह लगातार डॉट.कॉम. पर समलैंगिकता का अंधसमर्थन करनेवाला लेख लिखता है.वह हमलोगों से तमाम यौनवर्जनाओं को तोड़ देने का आह्वान करता है और अपना उदाहरण देते हुए कहता है कि वह अपनी बेटियों के साथ सेक्स सम्बन्धी बातें भी स्वच्छन्दतापूर्वक करता है.उसके लिए एक पुरुष और एक स्त्री में सिर्फ एक ही सम्बन्ध संभव है और वह सम्बन्ध है शारीरिक सम्बन्ध.वह सिर्फ यह नहीं बताता कि क्या उसने कभी अपनी बेटी पर भी ट्राई किया है और अगर हाँ तो इसमें उसे कितना मजा आया?समलैगिकता के घोर समर्थक मेरे काल्पनिक बॉस से जब यह पूछा जाता है कि क्या वह मुंह से मलत्याग कर सकता है या गुदा से भोजन ग्रहण कर सकता है.यदि नहीं तब फ़िर सेक्स के लिए जो अंग प्रकृति ने निर्धारित किए हैं उनमें वह क्यों बदलाव का प्रयास कर रहा है?तब वह चुप्पी साध लेता है.
                                    मेरा बॉस मातहत लड़कों द्वारा अभिवादन करने पर बिलकुल भी भाव नहीं देता लेकिन लड़कियों द्वारा नमस्ते करने पर कई-कई बात नमस्कार,नमस्कार,नमस्कार कहता है.मेरे बॉस का बस चले तो वह किसी भी लड़के को नौकरी में नहीं रखे और सिर्फ लड़कियों की ही बहाली कर ले.लेकिन इसमें बस एक ही बाधा है कि तब डॉट.कॉम. में सिर्फ प्रेमालाप होगा और डॉट.कॉम. बंद हो जाएगा जो मालिकों को किसी भी सूरत में मंजूर नहीं होगा.फ़िर भी मेरा बॉस इतना तो करता ही है कि लड़कियों को हल्के काम देता है और लड़कों को काम में परफेक्शन यानी पूर्णता लाने को कहता रहता है.शायद वह अज्ञानी यह नहीं जानता कि पूर्णता सिर्फ एक आदर्श है,एक संकल्पना है;किसी भी तरह से यथार्थ नहीं है.
           मेरा बॉस एक तरफ तो हमें वेबसाईट के ब्लॉग पर लिखने को प्रोत्साहित करता है वहीँ दूसरी ओर वह हमारे लेखों को इस बुरी तरह से सम्पादित कर देता है कि लेख का अर्थ ही विपरीत हो जाए.ऐसा करने में उसका सबसे बड़ा बहाना होता है यह तर्क कि लेख कंपनी की नीतियों के अनुरूप नहीं है.परिणाम यह होता है कि जब हम ब्लॉग पर लिखना ही बंद कर देते हैं तो वह पाठकों को ब्लॉग पर लिखने के लिए आमंत्रित करता है.वह भी इस पागलपन भरे शर्त के साथ कि जो पाठक उसके डॉट.कॉम. पर लिखेगा वह किसी अन्य अख़बार के डॉट.कॉम. पर नहीं लिख सकेगा.साथ ही वह लेखन के लिए पैसे नहीं देने की बात भी करता है और कहता है कि वह खुद भी ब्लॉग पर लिखने के पैसे नहीं लेता.मियां खुद तो मेरा जो बॉस पैसों के लिए गुलामी करता है पाठकों से बिना पैसों की गुलामी के लिए कहता है.उस पर तुर्रा यह कि वह सिर्फ कुछेक पाठकों को ही मौका देने की हामी भरता है और उसमें भी लड़कियां जो उसकी कमजोरी भी हैं,के लिए आरक्षण की शर्त के साथ.
                       मेरी कल्पनाओं का बॉस सफलता के पीछे इस कदर पागल है कि इसके लिए गलत साधन अपनाने में भी संकोच नहीं करता.मसलन जब भी डॉट.कॉम. पर हिटों की संख्या में गिरावट आने लगती है तो हमें किसी अश्लील खबर या तस्वीर साईट पर डाल देने को कहता है.उसके इस पागलपन का यह असर हुआ है कि लोग हमारे डॉट.कॉम. की साईट को आधा पोर्न साईट कहने लगे हैं.हालांकि मैं अपनी कल्पनों के बॉस से संतुष्ट नहीं हूँ और जानता हूँ कि वह गलतियों का बदसूरत पुतला है फ़िर भी विरोध नहीं कर पाता क्योंकि मेरे आगे भी वही सत्य-सनातन सवाल अपना गन्दा-सा मुंह फाड़े चौबीसों घन्टे खड़ा होता है,पापी पेट का सवाल.

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

जो गति तोरा सो गति मोरा रामा हो रामा

कई बार हम जो सोंच रहे होते हैं और आशंकित रहते हैं कि कहीं ऐसा-वैसा न हो;नियति ने हमारे लिए उसके बिलकुल उलट इंतजाम करके रखा होता है.मुझे ७ जनवरी को भोपाल के लिए ट्रेन पकडनी थी.टेलीविजन पर लगातार आक्रामक होती ठण्ड की ख़बरें देख-देखकर मैं तनाव में था कि न जाने किस तरह गुजरेगी यह २० घन्टे की रेलयात्रा.कहीं ठण्ड यात्रा के मजे को भी ठंडा तो नहीं कर देगी?लेकिन जैसे ही ट्रेन खुली हमें यह जानकर बहुत ख़ुशी हुई कि हमारे सहयात्रियों में बलिया के प्रसिद्ध भोजपुरी गायक गोपाल राय का म्यूजिकल ग्रुप भी है.हालांकि इनमें से कुछ लोगों की सीटें कहीं और थीं लेकिन इन्होंने एक परिवार से सीटें बदल लीं.तीन लोग थे ये.अर्जुन,रजनीश और राजकुमार.तीनों मस्त और खिलंदड.न केवल सुरों के साधक बल्कि बातों के भी धनी.कभी किसी चायवाले से पसेरी के हिसाब से चाय की मांग करते तो कभी किसी मूंगफलीवाले से एक क्विंटल का दाम पूछते.एक चायवाले ने तो डर कर साफ़ तौर पर कह भी दिया कि वह खुदरा में ही चाय बेचता है.कुछ देर की आपसी बतकही के बाद ही वे खुलने लगे और खुलने लगी उनकी जिंदगी हमारे सामने परत-दर-परत.उन्होंने बताया कि उनकी जिंदगी का कहीं कोई ठिकाना नहीं है.आज यहाँ तो कल वहां.सब कुछ अनिश्चित.हालांकि उनका शब्दज्ञान काफी सीमित था.जब उनमें से ही किसी के मोबाईल पर हिना फिल्म का शीर्षक गीत बज रहा था तब उनमें सबसे स्मार्ट रजनीश ने मुझसे खानाबदोश शब्द का अर्थ पूछा.आश्चर्य!खुद जो व्यक्ति खानाबदोशों की जिंदगी बिता रहा था मुझसे उसी शब्द के मायने पूछ रहा था.मुझे याद आया कि कहीं पढ़ा था कि शोषण की पराकाष्ठा तब है जब आपको मालूम ही नहीं हो कि आपका शोषण किया जा रहा है.तीनों में कौन सबसे बड़ा चुटकुलेबाज था,कह नहीं सकता.मिनट-मिनट पर ठहाके.जैसे बार-बार हंसी के ज्वालामुखी पर्वत में विस्फोट हो रहा हो.अर्जुन से मैंने पूछा कि इससे पहले वह कितनी बार हैदराबाद गया है तो उसने बताया कि तीन बार.लेकिन शहर में कहाँ क्या है उसे बिलकुल नहीं पता.ट्रेन से होटल और फ़िर होटल से सीधे प्रस्तुति मंच पर.जो भी देखा रात के स्याह अँधेरे में देखा,दिन का उजाला तो किस्मत में ही नहीं है.हो सकता है कि हैदराबाद से ही और भी कार्यक्रम देने के प्रस्ताव आ जाएँ और कई दिनों तक लगातार हैदराबाद में ही रूकना पड़े;ऐसे ही रतजगा करते.उन्होंने बताया कि गोपालजी स्वयं वातानुकूलित बोगी में हैं.मतलब संगीत के क्षेत्र में भी श्रेणीक्रम.यहाँ भी बड़े कलाकारों द्वारा छोटे कलाकारों का शोषण किया जा रहा है.सारा लाभ गोपालजी का उन्हें सिर्फ दिन के हिसाब से मजदूरी मिलेगी.
      मेरे द्वारा पूछने पर कि वे लोग भीड़ में अपने जूते-चप्पलों की रक्षा कैसे करते हैं उन्होंने बताया कि वे उनमें वियोग उत्पन्न कर देते हैं.यानी एक जूता या चप्पल मंच की दाहिनी ओर तो दूसरी बायीं ओर रख देते हैं.अब कोई भी चोर बेमेल जोड़ी वाले जूते-चप्पल ले जाने से तो रहा.मैंने उनसे शिकायत की कि वे लोग किसी भी कार्यक्रम की शुरुआत तो भजन से करते हैं लेकिन बाद में अश्लील गीत गाने लगते हैं तो उनके जवाब था कि ऐसा वे शौक से नहीं बल्कि मजबूरी में करते हैं.सबको शीला की जवानी चाहिए;लोग भजन गाने पर कुर्सियां तोड़ने लगते हैं.कई बार तो ऐसा भी होता है जब गोपाल जी से ज्यादा न्योछावर कोई नर्तकी अंगप्रदर्शन कर,कमर मटकाकर बटोर ले जाती है.रजनीश का कहना था कि वह लगातार तीन दिनों तक रात में जगकर कार्यक्रम दे सकता है,इससे ज्यादा नहीं.तीनों में सबसे वरिष्ठ राजकुमार भी कहाँ पीछे रहनेवाले थे.उन्होंने बताया कि जब गोपाल राय शिखर पर थे तब दिल्ली में कहीं कार्यक्रम देने गए.प्रस्ताव आते गए और रातें गुजरती गईं.फ़िर जब १ महीना होने को आया तब ग्रुप के लोग धीरे-धीरे घर भागने लगे.मैंने सोंचा काश,रोजाना वर्षों तक लगातार रात में काम करने को बाध्य पत्रकार भी इसी तरह भाग सकते!काश,उनके पास भी विकल्पों की भरमार होती!लगभग सभी प्राईवेट नौकरियों में कार्यरत लोगों की यही हालत है.कम-से-कम भारत में तो निजी क्षेत्र में शोषण अपने उच्चतम बिंदु को प्राप्त कर ही चुका है.
                                 यहाँ मैं आपको यह बता दूं कि अगर आप सरकारी नौकरी के इच्छुक हैं और ऐसा इसलिए हैं क्योंकि आप सोंचते हैं कि सरकारी नौकरियों में सिर्फ आराम होता है तो कृपा करके इस ग़लतफ़हमी का परित्याग कर दें.दिल्ली और खासकर केंद्रीय मंत्रालयों में अधिकारियों और कर्मचारियों को आराम का अवसर दिया ही नहीं जाता है.आपको ९ बजे से ५.३० बजे तक दफ्तर में रहना होगा.हो सकता है कि कोई दफ्तर १० बजे भी खुलता हो.जब तक आप दफ्तर में होंगे आपको साँस लेने की भी फ़ुरसत नहीं दी जाएगी.एक साथ आपको कई-कई अधिकारियों का जानलेवा दबाव झेलना होगा.कभी-कभी आपको शनिवार और रविवार को भी आना होगा यानी छुट्टी भी न्योछावर.उसपर सबसे बड़ी त्रासदी यह कि उस छुट्टी के बदले आपको बाद में छुट्टी भी नहीं दी जाएगी.मियां कब जवानी को पीछे धकेलकर बुढ़ापा आपके बालों पर सफेदी पोत जाएगा,आपको इसकी भनक तक नहीं लगेगी.यानी यहाँ भी सिर्फ शोषण ही शोषण.शायद इस सार्वभौमिक हो चुके शोषण को,श्रमिकों के साथ पशु-सदृश व्यवहार को ही कारपोरेट कल्चर कहते हैं.इसके अलावा कारपोरेट कल्चर कुछ और होता है तो आपको पता होगा मुझे तो नहीं पता.हाँ मुझे यह जरूर पता है कि कई मंत्रालयों में जब भी मंत्रीजी पधारते व विराजते हैं तो गमले बदल दिए जाते हैं और वे गमले मिट्टी के नहीं होते पीतल के होते हैं.पुराने गमलों का क्या होता है यह शायद नेताजी को पता हो;यहाँ मैं अनुमान लगाने का जोखिम नहीं लेना चाहूँगा.अब अगर आप सोंच रहे हैं कि वहाँ नेताजी गमले बदलवाने में व्यस्त हैं और यहां जनता महंगाई से परेशान है तो सोंचते रहिए.इससे मंत्रीजी की सेहत पर कोई असर नहीं पड़नेवाला,आपका रक्तचाप जरूर बढ़ सकता है.
        भारतीय करेंसी नोट पर पिछले कई वर्षों से विराजने वाले गांधी ने कभी सपना देखा था कि स्वतंत्र भारत में श्रम और बुद्धि दोनों का बराबर मूल्य होगा,सम्मान होगा.लेकिन आज जब कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर इटली से आयातित गांधी विराज रही है तब देश में न तो बुद्धि का ही कोई महत्त्व है और न ही श्रम का,पूँजी ही सबकुछ हो गई है.परम सत्य भी पूँजी और अंतिम सत्य भी.अब जब मैं कड़वी सच्चाई से ठसाठस भरे लेख का समापन करने जा रहा हूँ तो मेरी चेतना फ़िर से मुझे फ्लैश बैक में घसीट रही है और मैं देख रहा हूँ कि पटना-सिकंदराबाद एक्सप्रेस की एस-वन बोगी की सीट संख्या-३७,३८ और ३९ पर बैठे कलाकार-त्रयी झूम-झूमकर गा-बजा रहे हैं-जो गति तोरा,सो गति मोरा; रामा हो रामा.लेकिन धरती को इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा.बेपरवाह होकर धरती अब भी अपनी धुरी पर घूमे जा रही है,घूमे जा रही है.

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

ईशनिंदा कानून को समाप्त करे पाकिस्तान

पड़ोसी पाकिस्तान के लिए नए साल की शुरुआत कुछ इस तरह होगी शायद किसी ने भी नहीं सोंचा होगा.४ जनवरी, २०११; दिन मंगलवार को पंजाब के गवर्नर और राष्ट्रपति जरदारी के करीबी सलमान तासीर इस्लामाबाद के एक रेस्टोरेंट में भोजन करने के बाद जब अपनी गाड़ी में बैठने जा रहे थे तब उनके ही एक सुरक्षाकर्मी ने उन्हें गोलियों से भून डाला.उनकी एक मात्र गलती यही थी कि उन्होंने अल्पसंख्यकों के लिए कहर बन चुके कुख्यात ईशनिंदा कानून को काला कानून कहा था और उसे समाप्त करने की मांग की थी.पाकिस्तान के कई धार्मिक नेता खुलकर हत्यारे मुमताज हुसैन कादरी के समर्थन में आ गए हैं.यहाँ तक कि कल जब उसे अदालत में पेश किया गया तो बड़ी संख्या में अदालत में जमा वकीलों ने उस पर पुष्पवृष्टि की और उसके समर्थन में नारे भी लगाए.आश्चर्य है कि पाकिस्तान का पढ़ा-लिखा मुसलमान भी कितना दकियानुशी है!!ईशनिंदा कानून जो कथित रूप से इस्लाम के प्रवर्तक मुहम्मद साहब द्वारा बनाया गया था के अन्तर्गत खुदा,इस्लाम और मुहम्मद साहब के खिलाफ कुछ भी बोलने की मनाही है और ऐसा करने पर मौत की सजा भी दी जा सकती है.पंजाब के दिवंगत राज्यपाल अपने उदारवादी विचारों के लिए जाने जाते थे और उन्होंने अभी कुछ ही दिनों पहले इस कानून के अनुसार मौत की सजा प्राप्त ईसाई महिला आशिया बीबी से जेल में जाकर मुलाकात की थी और उसकी रिहाई के लिए राष्ट्रपति से अनुरोध करने का आश्वासन भी दिया था.साथ ही उन्होंने उक्त कानून को काला कानून कहते हुए इसे समाप्त करने का आह्वान भी किया था.पाकिस्तान की अराजक स्थिति को देखते हुए यही उचित समय है जबकि विश्व समुदाय पाकिस्तान सरकार पर इस अल्संख्यक विरोधी,सहस्तित्व के सिद्धांत को पलीता लगानेवाले कानून को समाप्त करने के लिए दबाव बनाए,वरना बहुत देर हो जाएगी.हालांकि पाकिस्तान यह तर्क दे सकता है कि यह उसका अंदरूनी मामला है लेकिन हकीकत में ऐसा है नहीं.इस कानून के चलते पाकिस्तान में रहनेवाले लाखों अल्पसंख्यकों जिनमें हिन्दू भी शामिल हैं,के सिर पर हमेशा आशंका की तलवार लटकती रहती है.कोई नहीं जनता कि कब किस पर इस कानून का उल्लंघन करने का झूठा आरोप लगा दिया जाए और उसकी जिंदगी को जहन्नुम बना दिया जाए.इधर कुछ सालों में पाकिस्तान में अल्संख्यक लड़कियों के अपहरण की घटनाओं में खतरनाक बढ़ोतरी हुई है.सैंकड़ों हिन्दू परिवार वहां से भागकर भारत आ रहे हैं और दिन-ब-दिन यह सिलसिला और भी तेज होता जा रहा है.पूरा पाकिस्तान अल्पसंख्यकों के लिए इस एक कानून के चलते उसी प्रकार विशाल यातना शिविर बन गया है जैसे कभी हिटलर के समय जर्मनी बन गया था.इसलिए अगर यह कानून पाकिस्तान का अंदरूनी मामला है तो फ़िर हिटलर का अत्याचार भी अंदरूनी मामला था.वैसे भी यह कानून अभिव्यक्ति के सार्वभौम मानवाधिकारों का सरासर उल्लंघन है.इसलिए भी इसे अविलम्ब रद्द किया जाना चाहिए और इसके लिए विश्व समुदाय को अविलम्ब हस्तक्षेप करना चाहिए.जहाँ तक कानून के मुहम्मद साहब द्वारा बनाए जाने का प्रश्न है तो हो सकता है कि यह कानून १५०० साल पहले मौजूद परिस्थितियों के लिए सही रहा हो लेकिन आज के आधुनिक और वैज्ञानिक युग में यह कानून निश्चित रूप से आधुनिकता को ठेंगा दिखाता है.मैं इस कानून के समर्थक लकीरों के फकीरों से पूछना चाहता हूँ कि जब मुहम्मद साहब ने इस्लाम की घोषणा की थी तो क्या उनका यह कदम परंपरागत धर्म के खिलाफ नहीं था?जब मुहम्मद साहब ने परम्पराओं को देश,काल और परिस्थिति के अनुसार ढालने में भारी विरोध के बावजूद हिचक नहीं दिखाई तो फ़िर आज उनके बनाए नियमों में बदलाव करने में हिचक क्यों?धर्म को मानव ने बनाया या धर्म ने मानव को?

बुधवार, 5 जनवरी 2011

ज़िन्दगी मौत न बन जाए संभालो यारों

कल का दिन भारत के इतिहास में काफी महत्वपूर्ण दिन था.कल सीबीआई बोफोर्स मामले को समाप्त करने की अर्जी अदालत में दाखिल करनेवाली थी.लेकिन इससे एक दिन पहले आयकर अपीलीय प्राधिकरण ने इतावियो क्वात्रोची और बिन चड्ढा को बोफोर्स तोप खरीदारी में गैरकानूनी तरीके से दलाली खाने और करवंचना के अपराध का दोषी करार दे दिया.प्राधिकरण ने खाता संख्या और उनमें जमा हुई रकम का भी ब्यौरा दिया.अब सीबीआई के सामने असमंजस की स्थिति थी.लेकिन सीबीआई ने यह कहते हुए कि उसे सरकार से कोई नया निर्देश नहीं मिला है पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार मुक़दमा समाप्ति की अर्जी दाखिल कर दी.तो क्या सीबीआई को निर्देश की आवश्यकता पड़ती है?लेकिन हमारे प्रधानमंत्री तो बार-बार कहते रहे हैं कि सीबीआई अपने कार्यों को सम्पादित करने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र है.तो क्या हम यह समझें कि सच्चाई के इस कथित पुतले ने भी धड़ल्ले से झूठ बोलना सीख लिया है?वैसे भी उन्हीं की सरकार ने तो मंजूरी दी थी भ्रष्टाचारी क्वात्रोची के बैंक खाते के उपयोग पर लगी रोक को हटाने की.मुझे आश्चर्य इस बात पर नहीं हो रहा है कि कांग्रेस सारे सबूतों को नजरंदाज करके किस तरह बोफोर्स मामले को समाप्त करने पर आमादा है.बल्कि मुझे तो विस्मय यह देखकर हो रहा है कि कैसे बोफोर्स का भूत फ़िर से कब्र से बाहर आ गया.लानत है कांग्रेस की १२५ साल की आयु पर और उसके द्वारा ५० सालों से भी ज्यादा समय तक देश पर शासन करने से प्राप्त किए गए अनुभवों पर कि वह अब तक घोटालों के दफ़नाने का सही और फुलप्रूफ तरीका भी नहीं ढूंढ पाई है.छिः,शर्म करो भ्रष्टाचार के मामलों को रफा-दफा करनेवाले प्रबंधकों.जब ४० करोड़ (वर्तमान मूल्य लगभग ८०० करोड़) का घोटाला तुमसे दफ़न नहीं हो पाया तो क्या खाक दफ़न करोगे पौने दो लाख करोड़ के २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले को तुम लोग.कुछ नहीं होगा तुम लोगों से.लेकिन कांग्रेस की एक बात के लिए दाद देनी पड़ेगी और वह है उसकी थेथरई.उसने आयकर अपीलीय प्राधिकरण के निर्णय को पूरी तरह से अनदेखा,अनपढ़ा और अनसुना कर दिया जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो.लोग तो सरकार के हर सही-गलत कदम पर उंगली उठाने के आदती हैं सो वे तो पूछेंगे ही कि बताईये आपने ऐसा क्यों किया?इतने सबूत होने के बावजूद आपकी सरकार क्यों भ्रष्टाचारियों को बचाने पर आमादा है?मनमोहनजी क्या इस तरह से लड़ा जाता है भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध?कल एक और दुर्घटना हुई है और वो भी हुई है कांग्रेस शासित महाराष्ट्र राज्य में.आदर्श सोसाईटी घोटाले के एक कथित आरोपी को राज्य का मुख्य सचिव बना दिया गया है.इन घटनाओं से क्या संकेत लिया जाए २-जी स्पेक्ट्रम और उन अन्य घोटालों के बारे में जो वर्तमान सरकार के कार्यकाल में हुए हैं?यही न कि अंत में सभी अभियुक्त बाईज्जत बरी करार दिए जाएँगे.२०-३० सालों तक जाँच चलती रहेगी और जब मामला ठंडा हो जाएगा तो सीबीआई मामले को ही समाप्त करने की अर्जी डाल देगी और फ़िर सब घोर-मट्ठा हो जाएगा.लोग जाँच से प्राप्त मक्खन के लिए मुंह ताकते रह जाएँगे.प्रधानमंत्री जी कह रहे हैं कि वे भ्रष्टाचार को समाप्त करके ही छोड़ेंगे.तो क्या इस तरह समाप्त होगा भ्रष्टाचार,भ्रष्टाचारियों का बचाव करके और सम्मानित करके?वाह क्या कांग्रेसी तरीका है भ्रष्टाचार को जड़-मूल से समाप्त करने का!!ऐसा भी नहीं है कि भारत के इस लाईलाज बीमारी से ग्रस्त होने के लिए सिर्फ कांग्रेस ही दोषी है.चूंकि सत्ता की मलाई चाभने के मौके उसको ही ज्यादा मिले हैं इसलिए भ्रष्टाचार के आरोप भी उसी पर ज्यादा हैं वरना विपक्ष भी कम नहीं है हाथ की सफाई में.वर्तमान विपक्ष भी भ्रष्टाचार का हल्ला करके लाभ उठाने की फ़िक्र में ही ज्यादा है.भ्रष्टाचार मिटाने का सच्चा संकल्प अगर उसके मन में होता तो येदुरप्पा आज की तारीख में कर्नाटक के मुख्यमंत्री नहीं होते.शायद इस लाईलाज और दशकों पुरानी बीमारी का होमियोपैथिक ईलाज कर रही हैं हमारी राजनीतिक पार्टियाँ.जैसा कि माना जाता रहा है कि होमियोपैथी में पहले बीमारी को बढ़ाया जाता है,बाद में बीमारी को जड़ से समाप्त करने की दवा दी जाती है.हम पिछले ६३ सालों से यह ईलाज देखते आ रहे हैं.आने-जाने वाली सरकारें भ्रष्टाचार को बढ़ाती ही जा रही हैं.पता नहीं बीमारी घटाने की दवा कब दी जाएगी भारतवर्ष को?अब तक तो इस बीमारी को जड़ से भगानेवाली दवा दे दी जानी चाहिए थी क्योंकि बीमारी तो कब की उच्चतम बिंदु को प्राप्त कर चुकी है.लेकिन मुझे नहीं लगता कि हमारे राजनीतिक दल ऐसा करने की ईच्छा भी रखते हैं;ईच्छाशक्ति तो दूर की कौड़ी है.तो फ़िर क्या किया जाए?मित्रों,महाभारत में यक्ष के प्रश्नों के जवाब में धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा है कि अराजकता राष्ट्र की मृत्यु का कारण होती है और अराजकता उत्पन्न होती है भ्रष्टाचार के कारण.तो मित्रों अपने भारत की रक्षा के लिए कोई अवतारी आसमान से नहीं उतरनेवाला.हमें खुद ही उतरना पड़ेगा सड़कों पर खेतों-खलिहानों,फैक्टरियों तथा झोपड़ियों-महलों से निकलकर और मरणासन्न भारत को देनी होगी नए युग और परिस्थितियों के अनुरूप राष्ट्रीय स्तर पर सेवा का अधिकार और भ्रष्टाचारियों की संपत्ति जब्त करने जैसा कानूनों की श्रृंखला की आखिरी डोज.साथ ही न्यायपालिका में भी व्यापक सुधारों की जरुरत है और इन्हें अब और टाला नहीं जा सकता.न सिर्फ हमें नए कानून बनाने पड़ेंगे और नए प्रावधान करने पड़ेंगे बल्कि कहीं उससे भी ज्यादा तत्परता और मनोयोग से हमें उन कानूनों और प्रावधानों को लागू भी करना पड़ेगा.तभी हमारा देश भारत जीवित बचेगा और हम भी तभी बचेंगे.

सोमवार, 3 जनवरी 2011

क्या हुआ तेरा वादा मनमोहन

आज अभी-अभी लौटा हूँ वहां से जहाँ जाकर आदमी का दिमाग परम शांति की अवस्था में पहुँच जाता है.मेरा मतलब है कि मैं शौचालय से आ रहा हूँ.वहीँ विश्रांति अवस्था में बैठे-बैठे मेरे दिमाग में एक आइडिया ने जन्म लिया.रफ़ी साहब का गाया प्रसिद्ध गीत क्या हुआ तेरा वादा का कैसेट दिमाग में बजने लगा और एक कविता की रचना-प्रक्रिया आरंभ हो गई.जहाँ १९७७ में हम किसी से कम नहीं फिल्म में यह गाना ऋषि कपूर ने काजल किरण के लिए गाया था मैंने इसे भारत के कथित प्रधानमंत्री और भ्रष्टाचारियों के दल के कथित ईमानदार सरदार सरदार मनमोहन सिंह के लिए लिखा है.भाषा सरल है,शब्द आसान हैं.इसलिए उम्मीद करता हूँ कि आपको न तो इस गीत को समझने में ही परेशानी होगी और न ही गुनगुनाने में दिक्कत.मूल गीत जिसे मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखा था इस प्रकार है-
क्या हुआ तेरा वादा
वो कसम वो इरादा;
भूलेगा दिल जिस दिन तुम्हें
वो दिन जिंदगी का आखिरी दिन होगा
क्या हुआ तेरा वादा
याद है तुझको,तूने कहा था
तुमसे नहीं रूठेंगे कभी
दिल की तरह से हाथ मिले हैं
कैसे भला छूटेंगे कभी
तेरी बाहों में बीती हर शाम
बेवफा ये भी क्या याद नहीं
क्या हुआ..
ओ कहने वाले मुझको फरेबी
कौन फरेबी है ये बता
ओ जिसने गम लिया प्यार की खातिर
या जिस ने प्यार को बेच दिया
नशा दौलत का ऐसा भी क्या
के तुझे कुछ भी याद नहीं
क्या हुआ...
मेरे द्वारा इसके तर्ज पर रचित गीत कुछ इस प्रकार है-
क्या हुआ तेरा वादा
वो कसम वो इरादा
भूल गए तुम तुमने कहा था
कि दिसंबर तक महंगाई हो जाएगी कम
क्या हुआ...
याद है तुझको तुमने कहा था
कि सीडब्ल्यूजी के दोषियों को दिलवाओगे सजा
मजे में फ़िर क्यों है घोटालेबाज कलमाड़ी
सीबीआई है क्यों लाचार
अगले चुनाव में हम मांगेंगे तुमसे इसका जवाब
क्या हुआ...
हम तो समझे थे यह कि
कम-से-कम तुम हो ईमानदार
चालीस चोरों के अली बाबा
हो तुम मेरे प्यारे सरदार
उम्मीदें हमारी टूटी क्यों जालिम
देश है क्यों अराजकता का शिकार
क्या हुआ...
आम आदमी को किया था रोटी का वादा
कहा था अब हर हाथ को मिलेगा काम
हर बच्चे को दोगे शिक्षा मुफ्त में
किसान को मिलेगा फसल का दाम
आम आदमी के नारे पे जीते थे तुम
बेवफा ये भी तुम्हें याद नहीं
क्या हुआ...
चीनी रानी पहुंची ३५ पर
९० की हो गई अरहर की दाल
प्याज रूलाए ५० पर जाकर
तेरे मंत्री उडाएं माल
फरेबी शर्म क्यों नहीं आती तुझे
चुल्लू भर पानी में डूब मरो
क्या हुआ तेरा वादा
वो कसम वो इरादा;
भूलेगा दिल जिस दिन तुम्हें
वो दिन जिंदगी का आखिरी दिन होगा
क्या हुआ तेरा वादा
तो कहिए कैसी लगी राम प्रभु द्वारा मुझसे करवाई गई यह संगीतमय शरारत?वर्तमान परिस्थितियों पर सटीक टिपण्णी है न यह गाना.

रविवार, 2 जनवरी 2011

हिन्दू आतंकवाद सच्चाई कम साजिश ज्यादा

कुछ साल पहले तक मैं अपने हिन्दू होने पर गर्व करता था और सार्वजनिक रूप से कहा करता था कि मेरे धार्मिक स्थलों पर तो हजारों सालों से आतंकी हमले होते रहे हैं लेकिन हमने कभी ऐसा करके आतंक का जवाब आतंक से देने की कोशिश नहीं की.लेकिन जबसे केंद्र में यूपीए की सरकार काबिज हुई है बार-बार उसके मंत्रियों और कांग्रेस के उच्च पदाधिकारियों द्वारा भगवा या हिन्दू आतंकवाद की रट लगाई जा रही है.मैंने इससे पहले भी मुट्ठीभर पथभ्रमित मुस्लिमों की बदमाशी को इस्लामिक आतंकवाद या जेहाद की संज्ञा देने का विरोध किया था.हो सकता है कुछ हिन्दू ऐसे असामाजिक कृत्यों में लिप्त भी हों लेकिन मैं दावे से कह सकता हूँ कि अगर यह सच भी है तो उनकी संख्या गंगा नदी में नमक की मात्रा से भी कम है.फ़िर भी सरकार बार-बार भगवा आतंक की रट लगाकर सारे हिन्दुओं को आतंकी घोषित करने में जुटी है.सरकार को क्या लगता है कि गोब्यल्स की तरह बार-बार झूठ बोलने से झूठ सच में बदल जाएगा.सिर्फ हिन्दुओं की ही नहीं बल्कि समग्र भारतीय संस्कृति सहस्तित्व की नीव पर खड़ी है.हमारे यहाँ धर्म के प्रचार के लिए तलवार का सहारा कभी नहीं लिया गया.मतभिन्नता को हम अपराध नहीं मानते बल्कि समाज का स्वाभाविक गुण मानते हैं,मुंडे मुंडे मति भिन्नाः और हमारे देश में मतभिन्नता शस्त्र द्वारा नहीं वरन शास्त्रार्थ द्वारा दूर की जाती रही है.इसलिए उँगलियों पर गिने जा सकने वाले आततायियों के चलते सभी हिन्दुओं को आतंकवादी कहना शरारत ही नहीं है बल्कि अपराध भी है.क्यों किया जा रहा है ऐसा?इसके पीछे कौन-सी सोंच काम कर रही है और ऐसा करनेवालों को इससे क्या लाभ मिल सकता है?एक साथ कई प्रश्न हिन्दू अस्मिता के आगे मुंह बाये खड़े हैं.अगर हम इतिहास के आईने में झांकें तो १८३५ में भारत में नई शिक्षा नीति और अंग्रेजी शिक्षा को लागू करनेवाले लॉर्ड मैकाले ने इंग्लैंड में बैठे अपने आकाओं से दावा और वादा किया था कि उसकी शिक्षा नीति से प्रभावित होकर अगले ५० सालों में भारत में हिन्दू धर्मं का कोई नामलेवा तक नहीं बचेगा और पूरा भारत ईसाई हो जाएगा.कुछ इसी तरह की मंशा से मिशनरी लॉर्ड कैनिंग को १८५६ में भारत का गवर्नर जनरल बनाकर भेजा गया था.वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व द्वारा जिस तरह पूरे हिन्दू धर्म को बेवजह बदनाम किया जा रहा है उससे प्रत्येक हिन्दू मन में इस तरह के संदेह उत्पन्न हो रहे हैं और ऐसा होना अस्वाभाविक भी नहीं है कि कहीं गर्व से कहो हम हिन्दू हैं के नारे को शर्म से कहो हम हिन्दू हैं के नारे में बदलने के प्रयास के पीछे भी कहीं इसी तरह की सोंच तो नहीं काम कर रही है?कहीं ऐसा तो नहीं है कि इस प्रोपेगेंडा के निर्माता और निर्देशक सोनिया एंड कंपनी यह समझती है कि बदनाम करने से हिन्दू अपने धर्म को लेकर हीन भावना से ग्रस्त हो जाएँगे और धड़ल्ले से करोड़ों की संख्या में ईसाई धर्म अपनाने लगेंगे और अगले १००-५० सालों में भारत से इस धर्म का नामोनिशान ही मिट जाएगा.अगर ऐसा है तो फ़िर यह भी निश्चित है कि सोनिया एंड कंपनी को एक बार फ़िर निराश होना पड़ेगा जैसे भूतकाल में मैकाले और कैनिंग को होना पड़ा था.हिन्दू धर्म कोई गाजर-मूली नहीं है कि कोई भी देसी-विदेशी आए और इसे उखाड़ फेंके बल्कि यह तो खट्ठा-कांरा का वह पौधा है जिसकी पत्तियों में तलवार की धार की तरह की तेजी होती है.मैं ऐसा करनेवालों को सावधान करना चाहूँगा कि इसे उखाड़ने की कोशिश करने की सोंचे भी नहीं क्योंकि उन्होंने अगर ऐसा किया तो उनके खुद के ही हाथ (यह कांग्रेस का चुनाव-चिन्ह भी है) जख्मी हो जाएँगे.

शनिवार, 1 जनवरी 2011

नए साल में तीसरे प्रेस आयोग का गठन करे सरकार

भारत की आजादी की लड़ाई में पत्रकारिता क्षेत्र का अहम योगदान रहा है.२०वीं शताब्दी की शुरुआत से ही जब स्वतंत्रता आन्दोलन जोर पकड़ने लगा था स्वतंत्रता प्राप्ति तक आन्दोलन का सक्रिय समर्थन करने के लिए पत्रकारों को पग-पग पर प्रताड़ित किया गया.कई पत्रकारों को आजादी के प्रति दीवानगी रखने की गंभीर सजा भी भुगतनी पड़ी और जिंदगी के कई अमूल्य वर्ष जेल की चहारदीवारी में काटने पड़े.इसलिए जब देश आजाद हुआ तो पहली स्वतंत्र सरकार ने पत्रकारों की स्थिति को बेहतर बनाने का प्रयास कर उनके त्याग के प्रति कृतज्ञता का प्रदर्शन किया.नेहरु युग में पहले प्रेस आयोग का गठन किया गया जिसकी सिफारिश पर श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम,१९५५ संसद द्वारा पारित किया गया.अधिनियम में पत्रकारों को बांकी श्रमिकों से अलग विशेष वर्ग के रूप में मान्यता दी गई और उनकी सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा की विशेष कानूनी व्यवस्था भी की गई.बाद में जनता सरकार ने १९७८ में दूसरे प्रेस आयोग का गठन किया जिसने अपनी रिपोर्ट १९८२ में दी.इसके गठन का मुख्य उद्देश्य आपातकाल (१९७५-77) के परिप्रेक्ष्य में प्रेस की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करना था.कुल मिलाकर पत्रकारों के कल्याण के लिए जो भी सरकारी प्रयास किए गए वे नेहरु युग में ही किए गए.देश और सरकार धीरे-धीरे पत्रकारों के सामाजिक योगदान को भूलते चले गए और उनकी सुरक्षा के लिए बने कानूनों का उल्लंघन बढ़ता गया.कितनी बड़ी बिडम्बना है कि आज जब मीडिया महाशक्ति है और उसमें समाज के एक बहुत बड़े तबके को शासन-प्रशासन को अपनी नजर से देखने के लिए बाध्य कर देने की शक्ति समाहित है तब मीडियाकर्मियों की हालत कुत्ते से भी बदतर है.जब चाहा रख लिया जब चाहा निकाल दिया.श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम आज सिर्फ कागजों पर लागू है व्यवहार में कोई भी मीडिया संस्थान इसका पालन नहीं कर रहा.सरकार समय-समय पर प्रेसकर्मियों के लिए औपचारिकतावश नए वेतनमान की घोषणा करती है लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि पत्रकारों को कृतज्ञ भाव से वही लेना पड़ता है जो उन्हें दिया जाता है.अभी कल ही यानी ३१ दिसंबर,२०१० को न्यायमूर्ति मजीठिया की अध्यक्षतावाले वेतन आयोग ने पत्रकारों और गैरपत्रकार प्रेसकर्मियों के वेतन में तीन गुना की भारी बढ़ोतरी की सिफारिश की है लेकिन वास्तविकता तो यह है कि मात्र १०% पत्रकारों को ही इसका लाभ मिल पाएगा.ये भी वे लोग हैं जो अब रिटायरमेंट तक पहुँच चुके हैं.अधिकतर पत्रकार वेतन आयोग की आकर्षक सिफारिशों के बावजूद फांकामस्ती की जिंदगी बिताते रहेंगे.कई बार तो उनका वेतन इतना कम होता है कि एक अकेली जान का खर्च भी नहीं निकल सके.इसके लिए मीडिया समूह कई तरह की चालबाजियां करते हैं.वे नियमित पत्रकारों से यह लिखवा लेते हैं कि वह नियमित पत्रकार है ही नहीं बल्कि अंशकालिक पत्रकार है.इन परिस्थितियों में यह जरूरी हो गया है कि नए प्रेस कानून बनाए जाएँ जिससे अंशकालिक और संविदा पर नियुक्त पत्रकार भी श्रमजीवी पत्रकार माने जाएँ.पेड न्यूज आज की मीडिया की सबसे कड़वी सच्चाई है.बड़े-बड़े मीडिया समूहों के संचालक ही जब पैसे लेकर चुनाव जिताने-हराने का ठेका ले लेते हैं तब फ़िर कस्बाई पत्रकार पैसे लेकर समाचार क्यों नहीं छापे?वैसे भी उनको नियमित वेतन के बदले प्रकाशित समाचार के अनुसार पैसा दिया जाता है.उसकी स्थिति वस्त्रविहीन नंगे आदमीवाली है,नंगा नहाए क्या और निचोड़े क्या?ईधर जबसे नीरा राडिया टेलीफोन टेप प्रकरण में कई वरिष्ठ पत्रकारों की संलिप्तता उजागर हुई है एक नई बहस ने जन्म ले लिया है.कुछ पत्रकार अब सिर्फ लेख या समाचार प्रकाशित-प्रसारित नहीं कर रहे हैं बल्कि वे किसी भी ऐरे-गैरे को मंत्री बनवा सकते हैं और किसी को मंत्री पद से हटवा भी सकते हैं.उनकी सीधी पहुँच आज सत्ता तक है.नीरा राडिया जैसे हाईप्रोफाईल दलालों के निर्देश पर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखे और छापे जा रहे हैं.टीवी चैनल से लेकर अख़बार तक में हर जगह विज्ञापनों की भरमार रहती हैं.यूं तो भारतीय प्रेस परिषद् ने इस सम्बन्ध में नियम बना रखा है लेकिन पालन कोई नहीं कर रहा.ऊपर से पैसे लेकर विज्ञापननुमा समाचार भी छापे जा रहे हैं.इन दिनों कई टीवी चैनलों पर अन्धविश्वास बढ़ानेवाले व कामुक कार्यक्रमों की भरमार हैं.भूत-प्रेत,जंतर-मंतर और अंगप्रदर्शन के सहारे उच्चतर टीआरपी हासिल की जा रही है.कुल मिलाकर लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहलानेवाली मीडिया में चौतरफा अराजकता का माहौल है.आश्चर्य है कि जिस संस्था का जन्म ही शासन-प्रशासन पर पहरा देने के लिए हुआ वह खुद ही बिना नियामक का है.अनाथ की स्थिति में है.सरकार ने खानापूर्ति करते हुए भारतीय प्रेस परिषद् का गठन कर दिया है जिसके पास सिर्फ परामर्शदात्री अधिकार हैं.सरकार को चाहिए कि वह भारतीय प्रेस परिषद् को दंडात्मक अधिकारों से युक्त करे.अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो फ़िर प्रेस की आजादी का कोई मतलब ही नहीं है.मीडिया क्षेत्र में पिछले ३०-४० सालों में एक सर्वथा नई प्रवृत्ति ने जन्म लिया है.जिस तरह इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में केन्द्रीयकरण बढ़ रहा है उससे तो यही लगता है कि कुछेक सालों में मीडिया का मतलब दो-चार परिवार मात्र रह जाएगा.इस दिशा में पहल करते हुए एकाधिकार-विरोधी कानून बनाने की सख्त जरूरत है.साथ ही छोटे पत्र-पत्रिकाओं को सरकारी सहायता दी जानी चाहिए.कुल मिलाकर तृतीय प्रेस कमीशन वक़्त की जरुरत है.प्रेस कमीशन को उपरोक्त सभी मुद्दों पर प्रभावकारी सुझाव देने के लिए निर्देशित किया जाए जिससे लोकतंत्र के इस चौथे खम्भे को भरभराने से समय रहते बचाया जा सके और वर्तमान और भविष्य के पत्रकारों के लिए एक सम्मानित और गुणवत्तापूर्ण जीवन सुनिश्चित किया जा सके.