द्वार पर आए याचक को खाली हाथ नहीं लौटाने की महान परंपरा भारतीय वांग्मय में हमेशा से रही है.समय साक्षी है कि हमारे कई पूर्वजों ने दान में मांगने पर अपने प्राण तक बेहिचक दे दिए.दानवीरों में राजा हरिश्चंद्र,शिवि,दिलीप,रघु,बलि,कर्ण और महर्षि दधिची का नाम आज भी आदर के साथ लिया जाता है.इसके अलावे न जाने कितने जाने-अनजाने महादानियों को जन्म देने का सौभाग्य भारतभूमि को प्राप्त है.लेकिन आज हमारे देश में भिक्षावृत्ति एक राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है.एक अनुमान के अनुसार आज भारत में सालाना कम-से-कम ३००० करोड़ रूपये भीख में लिए और दिए जाते हैं.इस तरह इसने हमारे देश में एक बहुत बड़े व्यवसाय का स्वरुप अख्तियार कर लिया है.आज लगभग ३ करोड़ संन्यासियों सहित एक बहुत बड़ी जनसंख्या ऐसी है जो बिना कोई उत्पादक काम किए देश और देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ बनी हुई है.ये भिखारी निरे पलायनवादी हैं,पराजित मानसिकतावाले लोग हैं जो भगवान के नाम पर लोगों का भावनात्मक शोषण करते हैं.इनमें से कई तो धर्मभीरू जनता के पैसे से गेरुआ वस्त्र धारण कर मौज करते हैं.
अभी पिछले साल मैं कांवर लेकर पदयात्रा करता हुआ सुल्तानगंज से देवघर गया था.पूरे १०५ किलोमीटर लम्बे रास्ते में सड़कों के किनारे भिखारियों का महाकुम्भ लगा हुआ था.तरह-तरह के भिखारी जमा थे.आश्चर्यजनक रूप से उनमें से ज्यादातर शारीरिक रूप से स्वस्थ थे.मुंह-अँधेरे यात्रा करने की अपनी पुरानी आदत के चलते मैंने कई भिखारियों को नकली घाव और मवाद तैयार करते भी पाया.कितने बड़े मेकअप कलाकार थे वे!स्वस्थ और सुन्दर शरीर पर वर्चुअल घाव और मवाद बना लेना और फ़िर शानदार और जानदार अभिनय.रूदन और दर्दनाक चीखें.कई तीर्थयात्री तो ऐसे भी थे जो प्रत्येक भिखारी के आगे पैसे फेंकने को अपने स्वाभाव के हाथों बाध्य थे.इस सम्बन्ध में मुझे विनोबा जी के बचपन का एक प्रसंग याद आता है.विनोबाजी की माँ बड़े ही धार्मिक विचारोंवाली थी.जो भी याचक द्वार पर आता उसे यथासंभव कुछ-न-कुछ अवश्य देतीं.विनोबाजी ने एक दिन अपनी माँ से पूछा कि माँ तुम सभी याचकों को दान देती हो,क्या तुम जानती हो कि उनमें कौन तुम्हारे दान का क्या करता है?तो उनकी माँ ने जवाब में कहा कि बेटा मैं तो सबको नारायण का स्वरुप समझ कर भिक्षा देती हूँ.अब मेरी भिक्षा का कोई सदुपयोग करेगा या दुरुपयोग यह भी नारायण ही जाने.
वैसे शास्त्रों में केवल सत्पात्रों को दान देने का ही समर्थन किया गया है.लेकिन आज की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में कोई कैसे और कहाँ तक किसी भिखारी की जन्मकुंडली का पता लगाता फिरेगा.ऐसा कोई डिटेक्टर विज्ञान आज तक नहीं बना पाया है जिससे कि किसी के दान के लिए सत्पात्र या कुपात्र होने का पता लग पाए.अभी कुछ समय पहले मैं ट्रेन से भोपाल से दिल्ली जा रहा था.दिल्ली में ट्रेन के प्रवेश से कुछ ही समय पहले एक एक पैरवाला युवा भिखारी बैशाखी के सहारे रेंगता हुआ हमारी बोगी में आया.मेरे मित्र ताबिश को उसकी दशा पर तरस आ गया और उन्होंने २ रूपये उसे दे दिए.जब ट्रेन हजरत निजामुद्दीन स्टेशन पर रूकने लगी तब कुछ छोटे बच्चे पानी की खाली बोतलें लूटने के लिए डिब्बे में चढ़ गए.वह लंगड़ा उन्हें ऐसा करने से रोकने के उद्देश्य से उन्हें गालियाँ देने लगा.जब हम उसके पास से गुजरे तो मालूम हुआ कि उसने शराब पी रखी थी.ताबिश बेचारे ठहरे धर्मनिष्ठ मुसलमान.सो उन्हें अपने द्वारा उसे दान दिए जाने पर ग्लानि होने लगी.मैंने उन्हें समझाया कि मित्र हम तो सिर्फ दान देने के भागी हैं उसका उपयोग तो हमारे हाथ में है ही नहीं.इसलिए आपके व्यथित होने का कोई कारण नहीं है.
बिहार में जब भी छठ पर्व का समय आता है बिहार के सारे भिखारी छठव्रती का स्वांग धारण कर लेते हैं.इसी तरह कई बार छोटे लड़के और लड़कियां रस्सी लेकर भीख मांगते देखे जा सकते हैं जबकि उनका दूर-दूर तक पशुपालन से कुछ भी लेना-देना नहीं होता है.नवजात बच्चे के बहाने भीख मांगना तो पूरे भारत में प्रचलित है.इसी तरह ट्रेनों में छोटे-छोटे बच्चे झाड़ू लेकर सफाई करते भी भारत में कहीं भी देखे जा सकते हैं.इतना ही नहीं कई बार तो बेरोजगार युवा पेट भरने के लिए हिजड़ा बन जाने से भी नहीं हिचकते.ऐसा हो भी क्यों नहीं?हर्रे लगे न फिटकिरी रंग भी चोखा होए.है कोई अन्य व्यवसाय जिसमें न तो कोई पूँजी लगे और न ही किसी श्रम की आवश्यकता ही हो और रोजाना सैकड़ों रूपये कटोरे यानी जेब में आने की पूरी गारंटी हो?बस सही स्थान पर जम जाने भर की देरी है.
जाहिर है कि भारत में भिखारियों की संख्या दिन-ब-दिन बढती ही जा रही है.जबकि महंगाई के कारण मेहनतकशों का जीवन महंगा होता जा रहा है.मैंने कई बार पटना स्टेशन के इर्द-गिर्द कई भिखारियों को मुर्गा-भात उड़ाते देखा है.भारत जैसा गरीब देश करोड़ों मुफ्तखोरों का बोझ नहीं उठा सकता.इसलिए इससे पहले कि बैठे-ठाले के इस व्यवसाय के कारण देश की अर्थव्यवस्था का संतुलन बिगड़ जाए,हमें भिक्षावृत्ति की इस कुरीति को समाप्त करने के उपाय ढूँढने शुरू कर देने चाहिए.पूरी तरह से लाचार अपंगों और सही जरुरतमंदों के लिए आश्रय-स्थल बने और लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर मुफ्त की रोटी तोड़नेवालों को काम पर लगाया जाए.साथ ही भिखारियों में जो नशे के लती बन गए हैं उनका नशामुक्ति केन्द्रों में ईलाज कराया जाए.तभी देश को इस राष्ट्रीय समस्या से मुक्ति मिल सकेगी.
अभी पिछले साल मैं कांवर लेकर पदयात्रा करता हुआ सुल्तानगंज से देवघर गया था.पूरे १०५ किलोमीटर लम्बे रास्ते में सड़कों के किनारे भिखारियों का महाकुम्भ लगा हुआ था.तरह-तरह के भिखारी जमा थे.आश्चर्यजनक रूप से उनमें से ज्यादातर शारीरिक रूप से स्वस्थ थे.मुंह-अँधेरे यात्रा करने की अपनी पुरानी आदत के चलते मैंने कई भिखारियों को नकली घाव और मवाद तैयार करते भी पाया.कितने बड़े मेकअप कलाकार थे वे!स्वस्थ और सुन्दर शरीर पर वर्चुअल घाव और मवाद बना लेना और फ़िर शानदार और जानदार अभिनय.रूदन और दर्दनाक चीखें.कई तीर्थयात्री तो ऐसे भी थे जो प्रत्येक भिखारी के आगे पैसे फेंकने को अपने स्वाभाव के हाथों बाध्य थे.इस सम्बन्ध में मुझे विनोबा जी के बचपन का एक प्रसंग याद आता है.विनोबाजी की माँ बड़े ही धार्मिक विचारोंवाली थी.जो भी याचक द्वार पर आता उसे यथासंभव कुछ-न-कुछ अवश्य देतीं.विनोबाजी ने एक दिन अपनी माँ से पूछा कि माँ तुम सभी याचकों को दान देती हो,क्या तुम जानती हो कि उनमें कौन तुम्हारे दान का क्या करता है?तो उनकी माँ ने जवाब में कहा कि बेटा मैं तो सबको नारायण का स्वरुप समझ कर भिक्षा देती हूँ.अब मेरी भिक्षा का कोई सदुपयोग करेगा या दुरुपयोग यह भी नारायण ही जाने.
वैसे शास्त्रों में केवल सत्पात्रों को दान देने का ही समर्थन किया गया है.लेकिन आज की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में कोई कैसे और कहाँ तक किसी भिखारी की जन्मकुंडली का पता लगाता फिरेगा.ऐसा कोई डिटेक्टर विज्ञान आज तक नहीं बना पाया है जिससे कि किसी के दान के लिए सत्पात्र या कुपात्र होने का पता लग पाए.अभी कुछ समय पहले मैं ट्रेन से भोपाल से दिल्ली जा रहा था.दिल्ली में ट्रेन के प्रवेश से कुछ ही समय पहले एक एक पैरवाला युवा भिखारी बैशाखी के सहारे रेंगता हुआ हमारी बोगी में आया.मेरे मित्र ताबिश को उसकी दशा पर तरस आ गया और उन्होंने २ रूपये उसे दे दिए.जब ट्रेन हजरत निजामुद्दीन स्टेशन पर रूकने लगी तब कुछ छोटे बच्चे पानी की खाली बोतलें लूटने के लिए डिब्बे में चढ़ गए.वह लंगड़ा उन्हें ऐसा करने से रोकने के उद्देश्य से उन्हें गालियाँ देने लगा.जब हम उसके पास से गुजरे तो मालूम हुआ कि उसने शराब पी रखी थी.ताबिश बेचारे ठहरे धर्मनिष्ठ मुसलमान.सो उन्हें अपने द्वारा उसे दान दिए जाने पर ग्लानि होने लगी.मैंने उन्हें समझाया कि मित्र हम तो सिर्फ दान देने के भागी हैं उसका उपयोग तो हमारे हाथ में है ही नहीं.इसलिए आपके व्यथित होने का कोई कारण नहीं है.
बिहार में जब भी छठ पर्व का समय आता है बिहार के सारे भिखारी छठव्रती का स्वांग धारण कर लेते हैं.इसी तरह कई बार छोटे लड़के और लड़कियां रस्सी लेकर भीख मांगते देखे जा सकते हैं जबकि उनका दूर-दूर तक पशुपालन से कुछ भी लेना-देना नहीं होता है.नवजात बच्चे के बहाने भीख मांगना तो पूरे भारत में प्रचलित है.इसी तरह ट्रेनों में छोटे-छोटे बच्चे झाड़ू लेकर सफाई करते भी भारत में कहीं भी देखे जा सकते हैं.इतना ही नहीं कई बार तो बेरोजगार युवा पेट भरने के लिए हिजड़ा बन जाने से भी नहीं हिचकते.ऐसा हो भी क्यों नहीं?हर्रे लगे न फिटकिरी रंग भी चोखा होए.है कोई अन्य व्यवसाय जिसमें न तो कोई पूँजी लगे और न ही किसी श्रम की आवश्यकता ही हो और रोजाना सैकड़ों रूपये कटोरे यानी जेब में आने की पूरी गारंटी हो?बस सही स्थान पर जम जाने भर की देरी है.
जाहिर है कि भारत में भिखारियों की संख्या दिन-ब-दिन बढती ही जा रही है.जबकि महंगाई के कारण मेहनतकशों का जीवन महंगा होता जा रहा है.मैंने कई बार पटना स्टेशन के इर्द-गिर्द कई भिखारियों को मुर्गा-भात उड़ाते देखा है.भारत जैसा गरीब देश करोड़ों मुफ्तखोरों का बोझ नहीं उठा सकता.इसलिए इससे पहले कि बैठे-ठाले के इस व्यवसाय के कारण देश की अर्थव्यवस्था का संतुलन बिगड़ जाए,हमें भिक्षावृत्ति की इस कुरीति को समाप्त करने के उपाय ढूँढने शुरू कर देने चाहिए.पूरी तरह से लाचार अपंगों और सही जरुरतमंदों के लिए आश्रय-स्थल बने और लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर मुफ्त की रोटी तोड़नेवालों को काम पर लगाया जाए.साथ ही भिखारियों में जो नशे के लती बन गए हैं उनका नशामुक्ति केन्द्रों में ईलाज कराया जाए.तभी देश को इस राष्ट्रीय समस्या से मुक्ति मिल सकेगी.
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