मित्रों,यह घटना तब की है जब १९८० में स्वर्ग सिधार चुके मेरे दादाजी अनिवार्य रूप से जीवित थे.हुआ यूं कि मेरे गाँव जुड़ावनपुर के पडोसी गाँव चकसिंगार से नाई भोज का न्योता देने आया और गलती से मेरे घर भी न्योता दे गया जबकि उसे देना नहीं था.दो घंटे बाद वह सकुचाता हुआ दोबारा आया और मेरे दादाजी से बोला कि वह न्योता वापस लेने आया है.दादाजी ने भी छूटते ही कहा कि दरवाजे पर जो संदूक रखा हुआ है अभी तक न्योता उसी पर पड़ा हुआ है,उन्होंने न्योते को घर तो भेजा ही नहीं है.जाओ और संदूक पर से ले लो.बेचारे नाई की समझ में कुछ भी नहीं आया.न्योता कोई भौतिक वस्तु तो था नहीं कि दिखाई दे और वह उसे अपने साथ उठाकर ले जा सके.
मित्रों,कुछ इसी तरह की स्थिति इन दिनों बिहार में सुशासन की है.प्रिंट मीडिया लगातार राज्य में सुशासन स्थापित होने का रट्टा लगे हुए है.उसे सरकारी तंत्र के कण-कण में सुशासन दिखाई दे रहा है.कैसे और क्यों दिखाई दे रहा है यह मीडिया ही जाने.कभी 'खींचो न कमान न तलवार निकालो,जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो' कहनेवाले अकबर इलाहाबादी ने अख़बारों से मोहभंग होने के बाद उन पर व्यंग्य करते हुए कहा था कि 'मियां को मरे हुए हफ्ते गुजर गए,कहते हैं अख़बार मगर अब हाले मरीज अच्छा है.'अकबर इलाहाबादी को मरे सौ साल पूरे होने को हैं मगर देश के अख़बारों की स्थिति अब भी वैसी ही है.अभी कल ही पटना उच्च न्यायालय ने बिहार की सर्वोच्च नियुक्ति करनेवाली संस्था बीपीएससी को ५३वीं से 55वीं प्रारंभिक संयुक्त प्रतियोगिता परीक्षा के प्रश्न-पत्र से ८ गलत प्रश्नों को हटाकर फिर से असफल परीक्षार्थियों की कापियों का मूल्यांकन कर १४२ को पूर्णांक मानते हुए अतिरिक्त परिणाम प्रकाशित करने का आदेश दिया है.क्या प्रतिष्ठित बिहार लोक सेवा योग द्वारा १५० सही-सही प्रश्नोत्तर तैयार नहीं कर पाने में दोबारा अक्षम रहने को सुशासन का नाम दिया जा सकता है?अभी कल की ही बात है कि मैं महनार से हाजीपुर बस से आ रहा था.मेरे बगल में एक महनार थाना के स्टाफ बैठे हुए थे.उन्होंने भाड़ा मांगने पर खुद को थाना स्टाफ बताया और सामान्य यात्रियों से १ रूपया कम मिलने पर भी १ घंटे तक बहस और गाली-गलौज करने की भरपूर क्षमता से युक्त कंडक्टर बिना प्रतिवाद किए चला भी गया.जब मैंने उनसे उनकी मुफ्तखोरी का विरोध किया तो वे मुझ पर ही आग हो गए परन्तु खुद को प्रेसवाला बताते ही फिर पानी-पानी भी हो गए और बताया कि चूंकि बस वाले कागजात ठीकठाक नहीं रखते हैं इसलिए वे भी उन्हें भाड़ा नहीं देते.दानापुर निवासी श्रीमान का यह भी कहना था कि जब नेता और अफसर बड़े-बड़े घोटाले करते रहते हैं तब तो प्रेस चुपचाप रहता है और आप मेरे द्वारा २५ रूपये बचाने पर मेरे पीछे पड़े हुए हैं?गजब चीज है यह कथित सुशासन भी.चाहे बिना परमिट के बसें चलाओ या फिर एक ही नंबर पर कई-कई बसें चलाओ कोई भी पुलिस अधिकारी आपको रोकेगा-टोकेगा नहीं बस थाना-स्टाफ को अपने बसों में मुफ्त में चढ़ाते रहो.
मित्रों,कई वर्ष हुए.२००६-०७ में मेरे चचेरे मामा जिन्हें मैं शुरू से ही भ्रष्टाचारियों के लिए आदर्श मानता हूँ राजेश्वर प्रसाद सिंह जो तब जन्दाहा प्रखंड के नाड़ी महथी या नाड़ी खुर्द में प्रधानाध्यापक थे एक सहायक शिक्षक से घूस लेते रंगे हाथों निगरानी द्वारा पकडे गए.करीब डेढ़ साल तक जेल में रहने के बाद वे बाहर आए और बाहर आते ही न जाने कैसे राजकीय मध्य विद्यालय,बासुदेवपुर चंदेल के प्रधानाध्यापक बना दिए गए और साथ ही कई-कई अन्य विद्यालयों के सुपरवाईजर भी.सुशासन की कृपा से एक बार फिर इस भ्रष्टाचारी की बीसों ऊंगलियाँ घी में हैं और सिर कराह में.फिर से श्रीमान दोनों हाथों से घूस खाकर सच्चा सुशासन स्थापित करने में मशगूल हो गए हैं.निगरानी द्वारा वर्ष २००६-०७ में उन पर दर्ज मुकदमें का क्या हश्र हुआ यह शायद सुशाशन बाबू को बेहतर पता होगा.निगरानी द्वारा छापा मारने और फिर बाद में ले-देकर मामले को कमजोर कर देने ताकि मुजरिम आसानी से कानून के शिकंजे से छूटकर फिर से तंत्र को खोखला कर सके;का यह न तो पहला उदाहरण है और न तो अंतिम ही.हुआ तो मुजफ्फरपुर/हाजीपुर में ऐसा भी है कि राज्य खाद्य निगम के एक पदाधिकारी को जब निगरानी द्वारा घूस लेते रंगे हाथों पकड़ा गया तब निगरानी के पदाधिकारी ने उससे उसके आधा दर्जन से अधिक एटीएम कार्ड छीन लिए और डंडे के जोर पर पिन भी जान लिया.बाद में अभियुक्त ने शिकायत की कि उसके बैंक एकाउंट से उक्त पदाधिकारी ने लाखों रूपये निकाल लिए हैं.क्या मिलेगा आपको इस भूमंडल पर गुड गवर्नेंस का दूसरा ऐसा नायाब उदाहरण?
मित्रों,बिहार में सुशासन ने सबको लूटने का समान अवसर दिया है.पूरी तरह से इस मामले में यहाँ साम्यवाद स्थापित हो गया है.जो जनवितरण प्रणाली के दुकानदार लालू-राबड़ी राज में फटेहाली की अवस्था में पहुँच गए थे इन दिनों दिन अढ़ईया रात पसेरी की दर से मोटे होते जा रहे हैं.साल में छह महीने भी अगर बी.पी.एल. के लिए आनेवाले अनाज की कालाबाजारी कर दी तो हो गए बिना के.बी.सी. में भाग लिए करोड़पति.आटा चक्की वालों की भी पौ बारह है.इन्हें भी बाजार से काफी कम कीमत पर गेहूँ-चावल मिल जाता है और फिर ये लोग जो पहले गेहूँ के साथ सिर्फ घुन को पीसते थे अब जबरदस्त तरक्की करते हुए गेहूँ में मिलाकर चावल पीसने लगे हैं.फिर यह अतिपौष्टिक मिश्रण किराना दुकानदारों के हाथों बेच दिया जाता है जिसे खरीदनेवाला ग्राहक भी परेशान रहता है कि आटे की रोटी क्यों अच्छी नहीं बन रही है?ग्राम पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधियों का तो कहना ही क्या?सुशासनी भ्रष्टाचार की कृपा से गांवों में इस दिनों रामराज्य उतर आया है-काजू भुने प्लेट में व्हिस्की है गिलास में,उतरा है सुशासन ग्राम-प्रधान के निवास में.
मित्रों,सुशासनी अफसरशाही का तो नाम ही मत लीजिए.सुशासन और अफसरशाही का तो गठबंधन ही अनोखा है.'मेरे शासन में मेरा कुछ नहीं जो कुछ है सब तोर,तेरा तुझको सौंपते क्या लागे है मोर?'इस समय पूरा बिहार अफसरों के हवाले है.कोई विधायक तो क्या मंत्री भी थाने तक में कदम रखने से हिचकिचाते हैं.पूरे बिहार में 'पहले पुलिस को बाखबर करना,फिर चाहे जुर्म रातभर करना' की तर्ज पर अपराध किए जा रहे हैं,घोटाले भी किए जा रहे हैं.कुछ लोग तो इस स्थिति से इतने अधिक निराश हो चुके हैं कि उनका मानना है कि अगर इसी तरह से चलता रहा तो २०५० आते-आते भगवान को प्रलय करना पड़ेगा.
मित्रों,चर्चा सुशासन की हो और शिक्षा की बात नहीं हो तो बात कुछ हजम ही नहीं होती.सुशासन छात्र-छात्रों के बीच लगातार साइकिल और पोशाक की राशि वितरित कर रहा है.चाहे पढ़ानेवाले मारसाहेब पढाई या लिखाई में जीरो-जीरो ही क्यों न हों या फिर सिर्फ खिचड़ी का अनाज बेचकर पैसे बनाने में ही मशरूफ क्यों न हों.छात्र-छात्राएं खुश हैं कि उन्हें सुशासन से मुफ्त में साइकिल और पोशाक के लिए पैसे प्राप्त हो रहे हैं.अभी से ही उन्हें मुफ्तखोरी की आदत लगाई जा रही है ताकि वे भी बड़े होकर बैठे-बैठे मनरेगा से पैसा उठाएं और सस्ता अनाज लक्षित जनवितरण प्रणाली की दुकान से खरीद कर पड़े-पड़े खाते रहें.परन्तु जब किसानों को मुफ्त में ही पैसा और अनाज मिल रहा है तो फिर खेती कोई क्यों करेगा और फिर कृषि-क्षेत्र में सुशासन बाबू की इन्द्रधनुषी क्रांति का क्या होगा?
मित्रों,अभी-अभी १८ दिसंबर को सचिवालय सहायक की परीक्षा कथित सफलतापूर्वक सम्पन्न हुई है.परीक्षा के दौरान तीन किताबें साथ रखने की अनुमति थी.प्रश्न-पत्र मिला तो पता चला कि निगेटिव मार्किंग भी है.पृष्ठ उलटने पर पाया कि प्रश्न बहुत-ही कठिन प्रकृति के हैं.इतने कठिन कि पूरा बना पाना भी संभव नहीं था सो अधिकांश परीक्षार्थियों ने उत्तर-पत्रक पर कई प्रश्नों के उत्तर बिना रंगे ही छोड़ दिए.बस यहीं से बन गयी गड़बड़ी की गुंजाईश.अब अगर परीक्षा संचालित करनेवाले लोगों ने खाली खानों में जानबूझकर गलत उत्तर को रंग कर अंक कम करवा दिया तो परीक्षार्थी क्या कर लेगा?कुछ भी नहीं न!सूत्रों से पता यह भी चल रहा है कि इस परीक्षा के लिए सीटें बिक भी चुकी हैं और ज्यादातर पद मंत्रियों के परिवारवाले ले उड़ने वाले हैं.एक तो निगेटिव मार्किंग फिर उस पर सितम यह कि प्रश्न-पत्र भी वापस ले लिया जबकि बिहार लोक सेवा आयोग की प्रारंभिक परीक्षाओं की तरह ही इस परीक्षा में भी कई प्रश्नोत्तर गलत थे.अब तो परीक्षार्थी मुकदमा भी नहीं कर सकता.होना तो यह चाहिए कि यह परीक्षा फिर से ली जानी चाहिए.इस बार परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र परीक्षा के बाद घर ले जाने की इजाजत मिलनी चाहिए और निगेटिव मार्किंग भी नहीं की जानी चाहिए.ऐसा होने पर ही इस परीक्षा में गड़बड़ी की आशंकाओं को निर्मूलित किया जा सकेगा वर्ना यह परीक्षा और इसके द्वारा होनेवाली नियुक्तियाँ हमेशा संशय के घेरे में रहेंगी.
मित्रों,अब थोड़ी बात कर लें बहुचर्चित सेवा का अधिकार कानून की जो हाथी का या यह भी कह सकते हैं कि सुशासन का दिखाने का दांत बनकर रह गया है.लोग रसीद हाथों में लिए महीनों से दफ्तरों के चक्कर काट रहे हैं और उन्हें बिना मेवा खिलाए सेवा प्राप्त ही नहीं हो रही.अगरचे अधिकतर प्रार्थियों को तो रसीद भी नहीं दी जाती.एक अदद आय प्रमाण-पत्र या आवासीय प्रमाण-पत्र के लिए लोग कहाँ-कहाँ अपील करते फिरें समझ में ही नहीं आता?कागजों पर तो सेवा का अधिकार मिल गया परन्तु हकीकत में क्या कभी मिल भी पाएगा;यह आज भी सबसे बड़ा प्रश्न बना हुआ है?सुशासन ने पहले ही सूचना के अधिकार में मनमाना संशोधन कर उसे मृतप्राय बना दिया है फिर जनता भ्रष्टाचार से पीड़ित होने या काम नहीं होने की दशा में करे भी तो क्या करे?कुछ ऐसा ही हाल अगर निकट-भविष्य में नवस्थापित लोकायुक्त का भी देखने को मिले तो किसी को भी उसकी परिणति पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए.आखिर सुबह को देखकर ही तो दिन के मौसम का अंदाजा लग जाता है.
मित्रों,अंत में हम आते हैं नीतीश कुमार जी द्वारा समय-समय पर की जानेवाली यात्राओं पर.आज ही उनकी सेवा-यात्रा समाप्त हो रही है.कभी धन्यवाद्-यात्रा तो कभी कोई और यात्रा.कभी सम्राट हर्षवर्धन भी छठी शताब्दी में इसी तरह यात्राओं पर निकला करते थे और जनता के सुख-दुःख को समझा करते थे.परन्तु नीतीशजी तो अपनी यात्राओं के दौरान जनता और अधिकारियों को बोलने ही नहीं देते.धन्यवाद्-यात्रा के दौरान पिछली बार सुशासन बाबू ने धड़ल्ले से अनगिनत शिलान्यास कर डाले और फिर भूल भी गए.इस दौरान सारी जनता से मिलते भी नहीं और न ही सबका दुःख-दर्द ही सुनते हैं.उन्हें तो बस वही सुनाई देता है जो वे सुनना चाहते हैं,उन्हें तो सिर्फ वही दिखाई देता है जो वे देखना चाहते हैं और फिर प्रिंट मिडिया वही बोलता है जो वे उससे बोलवाना चाहते हैं.वरना सेवा-यात्रा के दौरान जदयू सांसद महाबली सिंह को नीतीश कुमार की मौजूदगी में जनता द्वारा सैंकड़ों की संख्या में मंच के सामने पंक्तिबद्ध होकर जूते दिखाए जाने और बाद में मुख्यमंत्री द्वारा स्वयं हस्तक्षेप करने पर शांत होने की खबर अख़बारों से गायब नहीं हो गयी होती.मैंने खुद कई बार कई तरह के मामलों में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी को ई-मेल किया है,खुले पत्र भी लिखे हैं और अपने पूर्व के लेखों की तरह ही अपने इस लेख को भी उन्हें ई-मेल करने जा रहा हूँ परन्तु मेरे पूर्व के सारे प्रयासों का परिणाम अब तक शून्य ही रहा है और उम्मीद की जानी चाहिए कि इस लेख को पढ़कर भी सुशासन बाबू के छोटे-छोटे कानों पर जूँ तक नहीं रेंगनेवाली है.कुल मिलाकर हमने अब तक की माथापच्ची से पाया कि सुशासन अंधा और बहरा होता है लेकिन गूंगा नहीं होता बल्कि बड़बोला होता है.हो सकता है कि मेरे किसी अन्य राज्य में रह रहे भाई-बन्धुओं द्वारा सुशासन की दी गयी परिभाषा मेरी परिभाषा से अलग हो लेकिन बिहार में तो फ़िलहाल सुशासन का मतलब यही है.
मित्रों,कुछ इसी तरह की स्थिति इन दिनों बिहार में सुशासन की है.प्रिंट मीडिया लगातार राज्य में सुशासन स्थापित होने का रट्टा लगे हुए है.उसे सरकारी तंत्र के कण-कण में सुशासन दिखाई दे रहा है.कैसे और क्यों दिखाई दे रहा है यह मीडिया ही जाने.कभी 'खींचो न कमान न तलवार निकालो,जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो' कहनेवाले अकबर इलाहाबादी ने अख़बारों से मोहभंग होने के बाद उन पर व्यंग्य करते हुए कहा था कि 'मियां को मरे हुए हफ्ते गुजर गए,कहते हैं अख़बार मगर अब हाले मरीज अच्छा है.'अकबर इलाहाबादी को मरे सौ साल पूरे होने को हैं मगर देश के अख़बारों की स्थिति अब भी वैसी ही है.अभी कल ही पटना उच्च न्यायालय ने बिहार की सर्वोच्च नियुक्ति करनेवाली संस्था बीपीएससी को ५३वीं से 55वीं प्रारंभिक संयुक्त प्रतियोगिता परीक्षा के प्रश्न-पत्र से ८ गलत प्रश्नों को हटाकर फिर से असफल परीक्षार्थियों की कापियों का मूल्यांकन कर १४२ को पूर्णांक मानते हुए अतिरिक्त परिणाम प्रकाशित करने का आदेश दिया है.क्या प्रतिष्ठित बिहार लोक सेवा योग द्वारा १५० सही-सही प्रश्नोत्तर तैयार नहीं कर पाने में दोबारा अक्षम रहने को सुशासन का नाम दिया जा सकता है?अभी कल की ही बात है कि मैं महनार से हाजीपुर बस से आ रहा था.मेरे बगल में एक महनार थाना के स्टाफ बैठे हुए थे.उन्होंने भाड़ा मांगने पर खुद को थाना स्टाफ बताया और सामान्य यात्रियों से १ रूपया कम मिलने पर भी १ घंटे तक बहस और गाली-गलौज करने की भरपूर क्षमता से युक्त कंडक्टर बिना प्रतिवाद किए चला भी गया.जब मैंने उनसे उनकी मुफ्तखोरी का विरोध किया तो वे मुझ पर ही आग हो गए परन्तु खुद को प्रेसवाला बताते ही फिर पानी-पानी भी हो गए और बताया कि चूंकि बस वाले कागजात ठीकठाक नहीं रखते हैं इसलिए वे भी उन्हें भाड़ा नहीं देते.दानापुर निवासी श्रीमान का यह भी कहना था कि जब नेता और अफसर बड़े-बड़े घोटाले करते रहते हैं तब तो प्रेस चुपचाप रहता है और आप मेरे द्वारा २५ रूपये बचाने पर मेरे पीछे पड़े हुए हैं?गजब चीज है यह कथित सुशासन भी.चाहे बिना परमिट के बसें चलाओ या फिर एक ही नंबर पर कई-कई बसें चलाओ कोई भी पुलिस अधिकारी आपको रोकेगा-टोकेगा नहीं बस थाना-स्टाफ को अपने बसों में मुफ्त में चढ़ाते रहो.
मित्रों,कई वर्ष हुए.२००६-०७ में मेरे चचेरे मामा जिन्हें मैं शुरू से ही भ्रष्टाचारियों के लिए आदर्श मानता हूँ राजेश्वर प्रसाद सिंह जो तब जन्दाहा प्रखंड के नाड़ी महथी या नाड़ी खुर्द में प्रधानाध्यापक थे एक सहायक शिक्षक से घूस लेते रंगे हाथों निगरानी द्वारा पकडे गए.करीब डेढ़ साल तक जेल में रहने के बाद वे बाहर आए और बाहर आते ही न जाने कैसे राजकीय मध्य विद्यालय,बासुदेवपुर चंदेल के प्रधानाध्यापक बना दिए गए और साथ ही कई-कई अन्य विद्यालयों के सुपरवाईजर भी.सुशासन की कृपा से एक बार फिर इस भ्रष्टाचारी की बीसों ऊंगलियाँ घी में हैं और सिर कराह में.फिर से श्रीमान दोनों हाथों से घूस खाकर सच्चा सुशासन स्थापित करने में मशगूल हो गए हैं.निगरानी द्वारा वर्ष २००६-०७ में उन पर दर्ज मुकदमें का क्या हश्र हुआ यह शायद सुशाशन बाबू को बेहतर पता होगा.निगरानी द्वारा छापा मारने और फिर बाद में ले-देकर मामले को कमजोर कर देने ताकि मुजरिम आसानी से कानून के शिकंजे से छूटकर फिर से तंत्र को खोखला कर सके;का यह न तो पहला उदाहरण है और न तो अंतिम ही.हुआ तो मुजफ्फरपुर/हाजीपुर में ऐसा भी है कि राज्य खाद्य निगम के एक पदाधिकारी को जब निगरानी द्वारा घूस लेते रंगे हाथों पकड़ा गया तब निगरानी के पदाधिकारी ने उससे उसके आधा दर्जन से अधिक एटीएम कार्ड छीन लिए और डंडे के जोर पर पिन भी जान लिया.बाद में अभियुक्त ने शिकायत की कि उसके बैंक एकाउंट से उक्त पदाधिकारी ने लाखों रूपये निकाल लिए हैं.क्या मिलेगा आपको इस भूमंडल पर गुड गवर्नेंस का दूसरा ऐसा नायाब उदाहरण?
मित्रों,बिहार में सुशासन ने सबको लूटने का समान अवसर दिया है.पूरी तरह से इस मामले में यहाँ साम्यवाद स्थापित हो गया है.जो जनवितरण प्रणाली के दुकानदार लालू-राबड़ी राज में फटेहाली की अवस्था में पहुँच गए थे इन दिनों दिन अढ़ईया रात पसेरी की दर से मोटे होते जा रहे हैं.साल में छह महीने भी अगर बी.पी.एल. के लिए आनेवाले अनाज की कालाबाजारी कर दी तो हो गए बिना के.बी.सी. में भाग लिए करोड़पति.आटा चक्की वालों की भी पौ बारह है.इन्हें भी बाजार से काफी कम कीमत पर गेहूँ-चावल मिल जाता है और फिर ये लोग जो पहले गेहूँ के साथ सिर्फ घुन को पीसते थे अब जबरदस्त तरक्की करते हुए गेहूँ में मिलाकर चावल पीसने लगे हैं.फिर यह अतिपौष्टिक मिश्रण किराना दुकानदारों के हाथों बेच दिया जाता है जिसे खरीदनेवाला ग्राहक भी परेशान रहता है कि आटे की रोटी क्यों अच्छी नहीं बन रही है?ग्राम पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधियों का तो कहना ही क्या?सुशासनी भ्रष्टाचार की कृपा से गांवों में इस दिनों रामराज्य उतर आया है-काजू भुने प्लेट में व्हिस्की है गिलास में,उतरा है सुशासन ग्राम-प्रधान के निवास में.
मित्रों,सुशासनी अफसरशाही का तो नाम ही मत लीजिए.सुशासन और अफसरशाही का तो गठबंधन ही अनोखा है.'मेरे शासन में मेरा कुछ नहीं जो कुछ है सब तोर,तेरा तुझको सौंपते क्या लागे है मोर?'इस समय पूरा बिहार अफसरों के हवाले है.कोई विधायक तो क्या मंत्री भी थाने तक में कदम रखने से हिचकिचाते हैं.पूरे बिहार में 'पहले पुलिस को बाखबर करना,फिर चाहे जुर्म रातभर करना' की तर्ज पर अपराध किए जा रहे हैं,घोटाले भी किए जा रहे हैं.कुछ लोग तो इस स्थिति से इतने अधिक निराश हो चुके हैं कि उनका मानना है कि अगर इसी तरह से चलता रहा तो २०५० आते-आते भगवान को प्रलय करना पड़ेगा.
मित्रों,चर्चा सुशासन की हो और शिक्षा की बात नहीं हो तो बात कुछ हजम ही नहीं होती.सुशासन छात्र-छात्रों के बीच लगातार साइकिल और पोशाक की राशि वितरित कर रहा है.चाहे पढ़ानेवाले मारसाहेब पढाई या लिखाई में जीरो-जीरो ही क्यों न हों या फिर सिर्फ खिचड़ी का अनाज बेचकर पैसे बनाने में ही मशरूफ क्यों न हों.छात्र-छात्राएं खुश हैं कि उन्हें सुशासन से मुफ्त में साइकिल और पोशाक के लिए पैसे प्राप्त हो रहे हैं.अभी से ही उन्हें मुफ्तखोरी की आदत लगाई जा रही है ताकि वे भी बड़े होकर बैठे-बैठे मनरेगा से पैसा उठाएं और सस्ता अनाज लक्षित जनवितरण प्रणाली की दुकान से खरीद कर पड़े-पड़े खाते रहें.परन्तु जब किसानों को मुफ्त में ही पैसा और अनाज मिल रहा है तो फिर खेती कोई क्यों करेगा और फिर कृषि-क्षेत्र में सुशासन बाबू की इन्द्रधनुषी क्रांति का क्या होगा?
मित्रों,अभी-अभी १८ दिसंबर को सचिवालय सहायक की परीक्षा कथित सफलतापूर्वक सम्पन्न हुई है.परीक्षा के दौरान तीन किताबें साथ रखने की अनुमति थी.प्रश्न-पत्र मिला तो पता चला कि निगेटिव मार्किंग भी है.पृष्ठ उलटने पर पाया कि प्रश्न बहुत-ही कठिन प्रकृति के हैं.इतने कठिन कि पूरा बना पाना भी संभव नहीं था सो अधिकांश परीक्षार्थियों ने उत्तर-पत्रक पर कई प्रश्नों के उत्तर बिना रंगे ही छोड़ दिए.बस यहीं से बन गयी गड़बड़ी की गुंजाईश.अब अगर परीक्षा संचालित करनेवाले लोगों ने खाली खानों में जानबूझकर गलत उत्तर को रंग कर अंक कम करवा दिया तो परीक्षार्थी क्या कर लेगा?कुछ भी नहीं न!सूत्रों से पता यह भी चल रहा है कि इस परीक्षा के लिए सीटें बिक भी चुकी हैं और ज्यादातर पद मंत्रियों के परिवारवाले ले उड़ने वाले हैं.एक तो निगेटिव मार्किंग फिर उस पर सितम यह कि प्रश्न-पत्र भी वापस ले लिया जबकि बिहार लोक सेवा आयोग की प्रारंभिक परीक्षाओं की तरह ही इस परीक्षा में भी कई प्रश्नोत्तर गलत थे.अब तो परीक्षार्थी मुकदमा भी नहीं कर सकता.होना तो यह चाहिए कि यह परीक्षा फिर से ली जानी चाहिए.इस बार परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र परीक्षा के बाद घर ले जाने की इजाजत मिलनी चाहिए और निगेटिव मार्किंग भी नहीं की जानी चाहिए.ऐसा होने पर ही इस परीक्षा में गड़बड़ी की आशंकाओं को निर्मूलित किया जा सकेगा वर्ना यह परीक्षा और इसके द्वारा होनेवाली नियुक्तियाँ हमेशा संशय के घेरे में रहेंगी.
मित्रों,अब थोड़ी बात कर लें बहुचर्चित सेवा का अधिकार कानून की जो हाथी का या यह भी कह सकते हैं कि सुशासन का दिखाने का दांत बनकर रह गया है.लोग रसीद हाथों में लिए महीनों से दफ्तरों के चक्कर काट रहे हैं और उन्हें बिना मेवा खिलाए सेवा प्राप्त ही नहीं हो रही.अगरचे अधिकतर प्रार्थियों को तो रसीद भी नहीं दी जाती.एक अदद आय प्रमाण-पत्र या आवासीय प्रमाण-पत्र के लिए लोग कहाँ-कहाँ अपील करते फिरें समझ में ही नहीं आता?कागजों पर तो सेवा का अधिकार मिल गया परन्तु हकीकत में क्या कभी मिल भी पाएगा;यह आज भी सबसे बड़ा प्रश्न बना हुआ है?सुशासन ने पहले ही सूचना के अधिकार में मनमाना संशोधन कर उसे मृतप्राय बना दिया है फिर जनता भ्रष्टाचार से पीड़ित होने या काम नहीं होने की दशा में करे भी तो क्या करे?कुछ ऐसा ही हाल अगर निकट-भविष्य में नवस्थापित लोकायुक्त का भी देखने को मिले तो किसी को भी उसकी परिणति पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए.आखिर सुबह को देखकर ही तो दिन के मौसम का अंदाजा लग जाता है.
मित्रों,अंत में हम आते हैं नीतीश कुमार जी द्वारा समय-समय पर की जानेवाली यात्राओं पर.आज ही उनकी सेवा-यात्रा समाप्त हो रही है.कभी धन्यवाद्-यात्रा तो कभी कोई और यात्रा.कभी सम्राट हर्षवर्धन भी छठी शताब्दी में इसी तरह यात्राओं पर निकला करते थे और जनता के सुख-दुःख को समझा करते थे.परन्तु नीतीशजी तो अपनी यात्राओं के दौरान जनता और अधिकारियों को बोलने ही नहीं देते.धन्यवाद्-यात्रा के दौरान पिछली बार सुशासन बाबू ने धड़ल्ले से अनगिनत शिलान्यास कर डाले और फिर भूल भी गए.इस दौरान सारी जनता से मिलते भी नहीं और न ही सबका दुःख-दर्द ही सुनते हैं.उन्हें तो बस वही सुनाई देता है जो वे सुनना चाहते हैं,उन्हें तो सिर्फ वही दिखाई देता है जो वे देखना चाहते हैं और फिर प्रिंट मिडिया वही बोलता है जो वे उससे बोलवाना चाहते हैं.वरना सेवा-यात्रा के दौरान जदयू सांसद महाबली सिंह को नीतीश कुमार की मौजूदगी में जनता द्वारा सैंकड़ों की संख्या में मंच के सामने पंक्तिबद्ध होकर जूते दिखाए जाने और बाद में मुख्यमंत्री द्वारा स्वयं हस्तक्षेप करने पर शांत होने की खबर अख़बारों से गायब नहीं हो गयी होती.मैंने खुद कई बार कई तरह के मामलों में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी को ई-मेल किया है,खुले पत्र भी लिखे हैं और अपने पूर्व के लेखों की तरह ही अपने इस लेख को भी उन्हें ई-मेल करने जा रहा हूँ परन्तु मेरे पूर्व के सारे प्रयासों का परिणाम अब तक शून्य ही रहा है और उम्मीद की जानी चाहिए कि इस लेख को पढ़कर भी सुशासन बाबू के छोटे-छोटे कानों पर जूँ तक नहीं रेंगनेवाली है.कुल मिलाकर हमने अब तक की माथापच्ची से पाया कि सुशासन अंधा और बहरा होता है लेकिन गूंगा नहीं होता बल्कि बड़बोला होता है.हो सकता है कि मेरे किसी अन्य राज्य में रह रहे भाई-बन्धुओं द्वारा सुशासन की दी गयी परिभाषा मेरी परिभाषा से अलग हो लेकिन बिहार में तो फ़िलहाल सुशासन का मतलब यही है.
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