मित्रों,मौसम विज्ञान के आंकड़ों पर अगर हम विश्वास करें तो भारत में सबसे ज्यादा ठंडा जनवरी का महीना होता है लेकिन अगर हम देश की राजनीतिक जलवायु की दृष्टि से विचार करें तो यह गुजर रहा मौजूदा महीना सबसे ऊंचे तापक्रम वाला है.सारे राजनीतिक दल इस समय अचानक पेशेवर शिकारी बन गए हैं और पाँच राज्यों की जनता को अतिमधुर लोरियाँ सुनाने में लगे हुए हैं और इस फ़िराक में हैं कि कब जनता सोए और वे उसका बहुमूल्य वोट ले उड़ें.कोई तो सीधे पैसे देकर वोट खरीद रहा है तो कोई जनता को वायदों की मीठी चाशनी में नहलाने में व्यस्त है.
मित्रों,मेरे गुरूजी श्रीराम बाबू जब मैं मध्य विद्यालय में पढ़ता था तब एक कहानी सुनाया करते थे.कहानी में भी एक गुरूजी थे लेकिन थे गुरुकुल के जमानेवाले.गुरूजी ने कई तोते पाल रखे थे जिन्हें अक्सर शिकारी बहेलिये जाल में फंसा लिया करते और बाजार में बेच देते.गुरूजी ने फिर अपने तोतों को बहेलिए से बचाने की एक फुलप्रूफ योजना बनाई.उन्होंने अपने तोतों को पाठ रटाना शुरू कर दिया कि शिकारी आएगा,जाल बिछाएगा;दाना डालेगा,लोभ से उसमें फँसना नहीं.अगली बार जब शिकारी आया तो पास के पेड़ पर बैठे गुरूजी के तोतों ने एक साथ शोर मचाना शुरू कर दिया कि शिकारी आएगा,जाल बिछाएगा;दाना डालेगा,लोभ से उसमें फँसना नहीं.शिकारी परेशान हो गया कि आज तो बहुत गड़बड़ है.तोते पहले से ही लोभ से नहीं फंसने का राग अलाप रहे हैं.फिर भी उसने अपने आराध्य का नाम लेकर डूबती हुई उम्मीद से ही सही जाल बिछाया और दाना डाला.परन्तु यह क्या लोभ से नहीं फँसने का तुमुल शाब्दिक नाद करनेवाले सारे-के-सारे तोते तो एक ही बार में आकर जाल में फँस गए.
मित्रों,कहीं फिर से यह पौराणिक प्रतीकात्मक कथा तो ५ राज्यों में नहीं दोहराई जाने वाली है.डर लगता है कि हमारी निरीह जनता कहीं फिर से वोटों के शिकारियों के जाल में तो नहीं फँस जाने वाली है.कोई उन्हें आरक्षण देने का दाना दाल रहा है तो कोई देश को केंद्र में कुशासन देने के बाद राज्यों में सुशासन देने का वादा किए जा रहा है.किसी को अपने जातिवादी सामाजिक समीकरण पर अटूट भरोसा है तो कोई दूसरे दलों के भ्रष्ट और रिजेक्टेड नेताओं को अपनाने के लिए पगलाया जा रहा है तो कोई जनता को जाति-धर्म में बाँटने के बाद राज्य को ही कई-कई भागों में बाँट देने का वादा कर रहा है.जोड़ने की बात कोई नहीं कर रहा सबके सब तोड़ने में ही लगे हैं.जनता भी विकल्पहीन है क्योंकि जब सबके सब रिजेक्ट करने के ही लायक हैं तो फिर वोट दिया जाए तो किसे?राईट टू रिजेक्ट का अधिकार होता तो इस समय उसका भरपुर लाभ उठा लिया जाता परन्तु वो तो अभी भी बहुत दूर की कौड़ी है.इसलिए किसी-न-किसी को तो वोट देना और चुनना है ही भले ही वो कितना भी डिफेक्टिव और रिजेक्टेबल क्यों न हो.फिर भी इस उपलब्ध अवस्था में भी अगर वे अपने विवेक का समुचित इस्तेमाल करें तो देश और प्रदेश की लगातार बिगडती स्थिति को समय रहते संभाला जा सकता है.बस उन्हें करना यही है कि वे भी इस सूत्र-वाक्य का रट्टा लगा डालें और गुरूजी के तोतों की तरह सिर्फ रट्टा ही नहीं लगाएँ बल्कि उस पर गंभीरता से अमल भी करें कि शिकारी आएगा,जाल बिछाएगा;दाना डालेगा,लोभ से उसमें फँसना नहीं.बस!!
मित्रों,मेरे गुरूजी श्रीराम बाबू जब मैं मध्य विद्यालय में पढ़ता था तब एक कहानी सुनाया करते थे.कहानी में भी एक गुरूजी थे लेकिन थे गुरुकुल के जमानेवाले.गुरूजी ने कई तोते पाल रखे थे जिन्हें अक्सर शिकारी बहेलिये जाल में फंसा लिया करते और बाजार में बेच देते.गुरूजी ने फिर अपने तोतों को बहेलिए से बचाने की एक फुलप्रूफ योजना बनाई.उन्होंने अपने तोतों को पाठ रटाना शुरू कर दिया कि शिकारी आएगा,जाल बिछाएगा;दाना डालेगा,लोभ से उसमें फँसना नहीं.अगली बार जब शिकारी आया तो पास के पेड़ पर बैठे गुरूजी के तोतों ने एक साथ शोर मचाना शुरू कर दिया कि शिकारी आएगा,जाल बिछाएगा;दाना डालेगा,लोभ से उसमें फँसना नहीं.शिकारी परेशान हो गया कि आज तो बहुत गड़बड़ है.तोते पहले से ही लोभ से नहीं फंसने का राग अलाप रहे हैं.फिर भी उसने अपने आराध्य का नाम लेकर डूबती हुई उम्मीद से ही सही जाल बिछाया और दाना डाला.परन्तु यह क्या लोभ से नहीं फँसने का तुमुल शाब्दिक नाद करनेवाले सारे-के-सारे तोते तो एक ही बार में आकर जाल में फँस गए.
मित्रों,कहीं फिर से यह पौराणिक प्रतीकात्मक कथा तो ५ राज्यों में नहीं दोहराई जाने वाली है.डर लगता है कि हमारी निरीह जनता कहीं फिर से वोटों के शिकारियों के जाल में तो नहीं फँस जाने वाली है.कोई उन्हें आरक्षण देने का दाना दाल रहा है तो कोई देश को केंद्र में कुशासन देने के बाद राज्यों में सुशासन देने का वादा किए जा रहा है.किसी को अपने जातिवादी सामाजिक समीकरण पर अटूट भरोसा है तो कोई दूसरे दलों के भ्रष्ट और रिजेक्टेड नेताओं को अपनाने के लिए पगलाया जा रहा है तो कोई जनता को जाति-धर्म में बाँटने के बाद राज्य को ही कई-कई भागों में बाँट देने का वादा कर रहा है.जोड़ने की बात कोई नहीं कर रहा सबके सब तोड़ने में ही लगे हैं.जनता भी विकल्पहीन है क्योंकि जब सबके सब रिजेक्ट करने के ही लायक हैं तो फिर वोट दिया जाए तो किसे?राईट टू रिजेक्ट का अधिकार होता तो इस समय उसका भरपुर लाभ उठा लिया जाता परन्तु वो तो अभी भी बहुत दूर की कौड़ी है.इसलिए किसी-न-किसी को तो वोट देना और चुनना है ही भले ही वो कितना भी डिफेक्टिव और रिजेक्टेबल क्यों न हो.फिर भी इस उपलब्ध अवस्था में भी अगर वे अपने विवेक का समुचित इस्तेमाल करें तो देश और प्रदेश की लगातार बिगडती स्थिति को समय रहते संभाला जा सकता है.बस उन्हें करना यही है कि वे भी इस सूत्र-वाक्य का रट्टा लगा डालें और गुरूजी के तोतों की तरह सिर्फ रट्टा ही नहीं लगाएँ बल्कि उस पर गंभीरता से अमल भी करें कि शिकारी आएगा,जाल बिछाएगा;दाना डालेगा,लोभ से उसमें फँसना नहीं.बस!!
3 टिप्पणियां:
कभी राईट टू रिजेक्ट का खुलकर विरोध करते हैं, कभी समर्थन. लगता है आप इस मसले पर असमंजस में हैघबराये नहीं मेरी तरह समर्थन कीजिये.वही सही है.
भांजे मैंने अपने पिछले लेखों में राईट टू रिजेक्ट का विरोध नहीं किया था बल्कि राईट टू रिकौल का विरोध किया था.राईट टू रिजेक्ट तो मिलना ही चाहिए.
बहुत सुंदर एवं जानकारीपरक प्रस्तुति । मेरे नए पोस्ट " हो जाते हैं क्यूं आद्र नयन पर ": पर आपका बेसब्री से इंतजार रहेगा । धन्यवाद। .
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