मित्रों, आपको भी पता है कि हमारे देश में धर्मयुग कई दशक पहले धर्मयुग का प्रकाशन बंद होने के पहले ही समाप्त हो चुका था फिर भी धर्मरूपी गाय का एक पैर अब भी सही-सलामत था. परन्तु लगता है कि अब उसे भी तोड़ दिया गया है. उपभोक्तावाद और बाजारवाद ने तमाम नैतिक मर्यादाओं को तोड़कर रख दिया है और "रूपया नाम परमेश्वर" हम लोगों का मूलमंत्र बन गया है. इंसान तो इंसान धरती के भगवान यानि डॉक्टरों ने भी लुटेरों का चोला धारण कर लिया है. हमारे राज्य बिहार के डॉक्टर कुछ इस कदर धनपिपासु हो गए हैं कि राज्य में बच्चों का सामान्य जन्म हो पाना लगभग असंभव-सा हो गया है.
मित्रों, पिछले साल की ही तो बात है. मेरी छोटी बहन रूबी अपने दूसरे बच्चे को जन्म देने के लिए हमारे यहाँ आई हुई थी. चूँकि हमारी आर. मामी स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं इसलिए यह स्वाभाविक था कि हम उसे उनके यहाँ ही ले जाएँ. पहले दिन ही उनकी क्लिनिक में हमें पता चल गया कि यह मामी वो मामी नहीं हैं जो २० साल पहले हुआ करती थीं. अब इनके लिए रिश्ते और रिश्तेदार कोई मायने नहीं रखते. मायने रखता है तो सिर्फ और सिर्फ पैसा. तभी तो मेरे पिताजी जो कभी उनके लिए परम पूजनीय हुआ करते थे; को बाहर प्रतीक्षा करता देखकर भी वे नहीं रूकीं और सीधे अपने कक्ष में चली गईं. बाद में कई बार कंपाउंडर द्वारा सूचित करवाने पर करीब एक घंटे बाद बुलावा आया. तब हमें मामी का व्यवहार स्वचालित मशीन की तरह लगा. शायद अब वे इन्सान रह ही नहीं गयी थीं और पैसा कमाने की मशीन-मात्र बन चुकी थीं. अकस्मात् उनके चेहरे पर यह जानकर कि पहला बच्चा नॉर्मल डेलिवरी से पैदा हुआ था निराशा के भाव छलक उठे. तभी हम समझ गए कि डॉक्टरों के लालच के कारण आज के बिहार में बच्चों की नॉर्मल डेलिवरी लगभग असंभव है.
मित्रों, फिर वह शुभ अवसर भी आया जब मेरी पत्नी विजेता गर्भवती हुई. हमारी शादी को अभी डेढ़-दो महीने ही हुए थे. उसे दिखाने के लिए हम उसकी ही जिद पर पटना की सबसे बड़ी स्त्रीरोग विशेषज्ञों में से एक डॉ. डी. सिंह के पास लेकर गए; लेकिन उनके यहाँ 5 दिन तक नंबर ही नहीं था. मजबूरन मैंने डॉ. सिंह के यहाँ से ही मामी को फोन मिलाया तो वो बोलीं कि आप पत्नी को लेकर एन.एम.सी.एच. आ जाईये. दरअसल मेरी मामी एक सरकारी डॉक्टर भी हैं और इस समय उनकी ड्यूटी एन.एम.सी.एच. में है और जब मैंने उनको फोन किया था वे अपने निजी नर्सिंग होम से चलकर सरकारी अस्पताल पहुँच चुकी थीं. अस्पताल क्या था बीमारों का मेला था. शायद अपनी तरह का दुनिया का सबसे बड़ा मेला. चूँकि मेरी मामी वहां डॉक्टर थीं इसलिए मैंने पंजीकरण करवाना आवश्यक नहीं समझा और सीधे स्त्रीरोग विभाग में जा धमका. परन्तु यह क्या मामी ने तो विजेता को हाथ तक नहीं लगाया और सीधे दवा लिख दी. बाहर पुर्जा देखते ही मैं समझ गया था कि उन्होंने जो कुछ भी किया था बेमन से किया था.
मित्रों, अब कोई और उपाय नहीं देखकर मैं फिर से कल होकर डॉ. डी. सिंह के यहाँ गया और नंबर लगा दिया. तभी मेरी नजर वहाँ दीवार पर लिखे मध्यम आकार के शब्दों पर गयी. लिखा था कि "हमारे यहाँ नॉर्मल डेलिवरी की सुविधा नहीं है". मैं देखकर सन्न रह गया और सोंचने लगा कि यहाँ ऐसा क्यों लिखा गया है? फिर तो प्रत्येक डॉ महीने पर मैं उनके पास सपत्निक जाता. बड़ा अच्छा स्वाभाव लगा उनका, मृदुल, कोमल. कहतीं कहीं से भी अल्ट्रासाउण्ड करवा लाओ मुझे कोई समस्या नहीं है. मैं प्रसन्न था उनकी भलमनसाहत पर और नतमस्तक भी. विजेता के स्वास्थ्य में भी अभूतपूर्व सुधार होता दिखा. अल्ट्रासाउण्ड की रिपोर्ट भी गर्भस्थ शिशु का उत्साहजनक विकास दर्शाती रही. तभी इसी दौरान पता चला कि डॉक्टर साहब के कंपाउंडर छोटे और पटेल जो शायद समांगी जुड़वाँ थे मेरे शहर हाजीपुर के ही हैं. इतना ही नहीं दवा दुकानदार अरुण भी हाजीपुर का ही था. फिर तो यह स्वाभाविक ही था कि उनलोगों से मेरा दोस्ताना सम्बन्ध बन जाए. डॉक्टर के पास जाता तो लगता मानो अपने ही घर में आया हुआ हूँ. इस तरह देखते-देखते सात महीने गुजर गए. डॉ. सिंह अब विदेश में थीं और उनका बेटा मयंक उनके बदले ईलाज कर रहा था. इस बार मुझे मैक्स अल्ट्रासाउण्ड, रोड नं. 5, राजेंद्र नगर में जाकर अल्ट्रासाउण्ड करवाने को कहा गया. परन्तु हमें आदेश (इस बार परामर्श वाला स्वर कंपाउंडर का नहीं था) की अनदेखी कर दी और बगल में ही स्थित लाईफलाइन जहाँ अब तक हम अल्ट्रासाउण्ड करवाते आ रहे थे, में सोनोग्राफी करवा ली. जब हम लौटकर रिपोर्ट लेकर क्लिनिक पर पहुंचे तो कंपाउंडर छोटे मुझ पर गरम हो गया और धमकी भरे स्वर में कहने लगा कि यह डॉक्टर अच्छा अल्ट्रासाउण्ड नहीं करती है. कुछ भी होनी-अनहोनी हो गयी तो आप समझिएगा. मैं उसके बदले हुए व्यवहार से हैरान था और मुझे लगा कि शायद सारा चक्कर कमीशन का होगा लेकिन बात यह थी नहीं यह मैं बाद में समझ पाया. हालाँकि सोनोग्राफी के समय बच्चा उल्टा था लेकिन अभी पूरे दो महीने का समय था और बच्चे का क्या? वह तो पेट में ईधर-उधर उल्टा-सीधा होता हुआ घूमता ही रहता है. फिर आया नौवाँ महीना. होली बीत चुकी थी. इस बार पिछली बार की बकझक से सबक लेते हुए हम वहीं पर अल्ट्रासाउण्ड के लिए गए जहाँ हमें भेजने का प्रयास पिछली बार से ही किया जा रहा था यानि मैक्स अल्ट्रासाउण्ड, रोड न. ५, राजेंद्र नगर. डॉ. सिंह अब विदेश से वापस आ चुकी थीं. अल्ट्रासाउण्ड केंद्र पर अव्यवस्था का माहौल था. क्रम को बार-बार तोड़कर बाद में आए मरीजों की सोनोग्राफी की जा रही थी. मैं परेशान हो गया. मैं और विजेता दोनों जने भूख से बेहाल हो रहे थे परन्तु डॉक्टर पर हमारी विनती का कोई असर नहीं हो रहा था. विजेता तो नौवाँ महीना होने के कारण बैठने से भी लाचार थी. फिर मैंने कंपाउंडर छोटे को फोन किया और बार-बार किया. उसने भी वहां के स्टाफ से बात की लेकिन चूँकि सब ड्रामा था इसलिए कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला. अंत में पांच घंटे की भारी जद्दोजहद के बाद जब सोनोग्राफी की गयी तो रिपोर्ट में बताया गया कि गर्भाशय में पानी कम है. विजेता को कोई परेशानी नहीं थी इसलिए मुझे संदेह हुआ कि कहीं यह साजिश तो नहीं है? क्या इसलिए तो छोटे यहीं सोनोग्राफी करवाने की जिद नहीं कर रहा था? डॉ. डी. सिंह के परामर्श में रहे कई अन्य भावी माताएँ भी वहाँ उपस्थित थीं और उन सभी को भी बड़े ही आश्चर्यजनक और रहस्यमय तरीके से डॉ. एल. मित्तल द्वारा कोई-न-कोई गड़बड़ी बता दी गयी थी. अब सारा मामला मेरे सामने शीशे की तरह साफ़ था. डॉ. सिंह की मैक्स वालों से सांठ-गाँठ थी और इसलिए सभी मामले को धड़ल्ले से जटिल बताया और बनाया जा रहा था. जाहिर है सिजेरियन में डॉक्टर को भारी लाभ होने वाला था. मन भारी और दुखी हो गया. इनती बड़ी डॉक्टर की इतनी नीच करतूत!!! फिर भी मैं कल होकर रिपोर्ट के साथ डॉ. सिंह से मिला और वही हुआ जिसका मुझे पहले से ही अंदेशा था. सोनोग्राफी के आधार पर उन्होंने सामान्य डेलिवरी को असम्भव बताते हुए सिजेरियन की सिफारिश की और विजेता को कल होकर ही भर्ती करवाने को कहा. आज मेरी समझ में पूरी तरह से डॉक्टर के परामर्श कक्ष के बाहर लिखे उन शब्दों का मतलब आ गया था जिसे मैंने पहले दिन ही देखा था. वाह,क्या डॉक्टर हैं? सामान्य गर्भस्थ शिशु को भी अल्ट्रासाउण्डवाले को मैनेज कर असामान्य घोषित करवा देती हैं और फिर बड़े ही प्यार से, आत्मीयता से कहतीं हैं कि बिना सिजेरियन के अब तो कोई उपाय है ही नहीं. ऊपर जाकर पता किया तो बताया गया कि कुल 24-25 हजार का खर्च आएगा. वहाँ यह बतलाकर मैंने पीछा छुड़ाया कि मेरी मामी भी डॉक्टर हैं और मैं उनसे समझने के बाद ही आगे कुछ कह सकूंगा. फिर उदास और क्रोधित मन से दवा दुकानदार से 15 दिन की दवा ली और घर के लिए रवाना हो गया.
मित्रों, फिर वह दिन भी आया जब विजेता को प्रसव-पीड़ा शुरू हुई. मामी और डॉ. सिंह सहित बिहार के किसी भी प्राइवेट या सरकारी डॉक्टर पर अब मेरा थोड़ा-सा भी विश्वास नहीं रह गया था. सबके सब मुझे सिजेरियन माफिया नजर आ रहे थे इसलिए मैंने पत्नी को पटना, आलमगंज स्थित त्रिपोलिया मिशनरी अस्पताल में भर्ती करवाया और आज एक सप्ताह के एक पुत्र का पिता हूँ. हमारी आशा के अनुरूप ही डेलिवरी सामान्य हुई और जच्चा-बच्चा दोनों स्वस्थ हैं. त्रिपोलिया के डॉक्टरों और नर्सों के सेवा-भाव ने मुझे सचमुच मंत्रमुग्ध कर दिया है. जहाँ बिहार का पूरा डॉक्टर समाज कसाई बन बैठा है वहां त्रिपोलिया अस्पताल निविड़ घनघोर तम में पूरी शिद्दत से चुपचाप जलते दीए के सामान है. मैं निश्चित रूप से आज भी धर्मान्तरण के खिलाफ हूँ लेकिन यह सोंचने की आवश्यकता भी है कि हम हिन्दुओं में वह सच्चाई और सेवा-भाव क्यों नहीं है जो इन इसाई डॉक्टरों और नर्सों में है? क्यों हमारे हिन्दू स्त्रीरोग विशेषज्ञ प्रत्येक सामान्य डेलिवरी को सिजेरियन में बदल देने और अपने हाथों को भावी माताओं के खून से रंगने को व्याकुल हैं?