शुक्रवार, 30 मार्च 2012

हमारे यहाँ सामान्य डेलिवरी की सुविधा नहीं है


मित्रों, आपको भी पता है कि हमारे देश में धर्मयुग कई दशक पहले धर्मयुग का प्रकाशन बंद होने के पहले ही समाप्त हो चुका था फिर भी धर्मरूपी गाय का एक पैर अब भी सही-सलामत था. परन्तु लगता है कि अब उसे भी तोड़ दिया गया है. उपभोक्तावाद और बाजारवाद ने तमाम नैतिक मर्यादाओं को तोड़कर रख दिया है और "रूपया नाम परमेश्वर" हम लोगों का मूलमंत्र बन गया है. इंसान तो इंसान धरती के भगवान यानि डॉक्टरों ने भी लुटेरों का चोला धारण कर लिया है. हमारे राज्य बिहार के डॉक्टर कुछ इस कदर धनपिपासु हो गए हैं कि राज्य में बच्चों का सामान्य जन्म हो पाना लगभग असंभव-सा हो गया है.
                 मित्रों, पिछले साल की ही तो बात है. मेरी छोटी बहन रूबी अपने दूसरे बच्चे को जन्म देने के लिए हमारे यहाँ आई हुई थी. चूँकि हमारी आर. मामी स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं इसलिए यह स्वाभाविक था कि हम उसे उनके यहाँ ही ले जाएँ. पहले दिन ही उनकी क्लिनिक में हमें पता चल गया कि यह मामी वो मामी नहीं हैं जो २० साल पहले हुआ करती थीं. अब इनके लिए रिश्ते और रिश्तेदार कोई मायने नहीं रखते. मायने रखता है तो सिर्फ और सिर्फ पैसा. तभी तो मेरे पिताजी जो कभी उनके लिए परम पूजनीय हुआ करते थे; को बाहर प्रतीक्षा करता देखकर भी वे नहीं रूकीं और सीधे अपने कक्ष में चली गईं. बाद में कई बार कंपाउंडर द्वारा सूचित करवाने पर करीब एक घंटे बाद बुलावा आया. तब हमें मामी का व्यवहार स्वचालित मशीन की तरह लगा. शायद अब वे इन्सान रह ही नहीं गयी थीं और पैसा कमाने की मशीन-मात्र बन चुकी थीं. अकस्मात् उनके चेहरे पर यह जानकर कि पहला बच्चा नॉर्मल डेलिवरी से पैदा हुआ था निराशा के भाव छलक उठे. तभी हम समझ गए कि डॉक्टरों के लालच के कारण आज के बिहार में बच्चों की नॉर्मल डेलिवरी लगभग असंभव है.
          मित्रों, फिर वह शुभ अवसर भी आया जब मेरी पत्नी विजेता गर्भवती हुई. हमारी शादी को अभी डेढ़-दो महीने ही हुए थे. उसे दिखाने के लिए हम उसकी ही जिद पर पटना की सबसे बड़ी स्त्रीरोग विशेषज्ञों में से एक डॉ. डी. सिंह के पास लेकर गए; लेकिन उनके यहाँ 5 दिन तक नंबर ही नहीं था. मजबूरन मैंने डॉ. सिंह के यहाँ से ही मामी को फोन मिलाया तो वो बोलीं कि आप पत्नी को लेकर एन.एम.सी.एच. आ जाईये. दरअसल मेरी मामी एक सरकारी डॉक्टर भी हैं और इस समय उनकी ड्यूटी एन.एम.सी.एच. में है और जब मैंने उनको फोन किया था वे अपने निजी नर्सिंग होम से चलकर सरकारी अस्पताल पहुँच चुकी थीं. अस्पताल क्या था बीमारों का मेला था. शायद अपनी तरह का दुनिया का सबसे बड़ा मेला. चूँकि मेरी मामी वहां डॉक्टर थीं इसलिए मैंने पंजीकरण करवाना आवश्यक नहीं समझा और सीधे स्त्रीरोग विभाग में जा धमका. परन्तु यह क्या मामी ने तो विजेता को हाथ तक नहीं लगाया और सीधे दवा लिख दी. बाहर पुर्जा देखते ही मैं समझ गया था कि उन्होंने जो कुछ भी किया था बेमन से किया था.
                         मित्रों, अब कोई और उपाय नहीं देखकर मैं फिर से कल होकर डॉ. डी. सिंह के यहाँ गया और नंबर लगा दिया. तभी मेरी नजर वहाँ दीवार पर लिखे मध्यम आकार के शब्दों पर गयी. लिखा था कि "हमारे यहाँ नॉर्मल डेलिवरी की सुविधा नहीं है". मैं देखकर सन्न रह गया और सोंचने लगा कि यहाँ ऐसा क्यों लिखा गया है? फिर तो प्रत्येक डॉ महीने पर मैं उनके पास सपत्निक जाता. बड़ा अच्छा स्वाभाव लगा उनका, मृदुल, कोमल. कहतीं कहीं से भी अल्ट्रासाउण्ड करवा लाओ मुझे कोई समस्या नहीं है. मैं प्रसन्न था उनकी भलमनसाहत पर और नतमस्तक भी. विजेता के स्वास्थ्य में भी अभूतपूर्व सुधार होता दिखा. अल्ट्रासाउण्ड की रिपोर्ट भी गर्भस्थ शिशु का उत्साहजनक विकास दर्शाती रही. तभी इसी दौरान पता चला कि डॉक्टर साहब के कंपाउंडर छोटे और पटेल जो शायद समांगी जुड़वाँ थे मेरे शहर हाजीपुर के ही हैं. इतना ही नहीं दवा दुकानदार अरुण भी हाजीपुर का ही था. फिर तो यह स्वाभाविक ही था कि उनलोगों से मेरा दोस्ताना सम्बन्ध बन जाए. डॉक्टर के पास जाता तो लगता मानो अपने ही घर में आया हुआ हूँ. इस तरह देखते-देखते सात महीने गुजर गए. डॉ. सिंह अब विदेश में थीं और उनका बेटा मयंक उनके बदले ईलाज कर रहा था. इस बार मुझे मैक्स अल्ट्रासाउण्ड, रोड नं. 5, राजेंद्र नगर में जाकर अल्ट्रासाउण्ड करवाने को कहा गया. परन्तु हमें आदेश (इस बार परामर्श वाला स्वर कंपाउंडर का नहीं था) की अनदेखी कर दी और बगल में ही स्थित लाईफलाइन जहाँ अब तक हम अल्ट्रासाउण्ड  करवाते आ रहे थे, में सोनोग्राफी करवा ली. जब हम लौटकर रिपोर्ट लेकर क्लिनिक पर पहुंचे तो कंपाउंडर छोटे मुझ पर गरम हो गया और धमकी भरे स्वर में कहने लगा कि यह डॉक्टर अच्छा अल्ट्रासाउण्ड नहीं करती है. कुछ भी होनी-अनहोनी हो गयी तो आप समझिएगा. मैं उसके बदले हुए व्यवहार से हैरान था और मुझे लगा कि शायद सारा चक्कर कमीशन का होगा लेकिन बात यह थी नहीं यह मैं बाद में समझ पाया. हालाँकि सोनोग्राफी के समय बच्चा उल्टा था लेकिन अभी पूरे दो महीने का समय था और बच्चे का क्या? वह तो पेट में ईधर-उधर उल्टा-सीधा होता हुआ घूमता ही रहता है. फिर आया नौवाँ महीना. होली बीत चुकी थी. इस बार पिछली बार की बकझक से सबक लेते हुए हम वहीं पर अल्ट्रासाउण्ड के लिए गए जहाँ हमें भेजने का प्रयास पिछली बार से ही किया जा रहा था यानि मैक्स अल्ट्रासाउण्ड, रोड न. ५, राजेंद्र नगर. डॉ. सिंह अब विदेश से वापस आ चुकी थीं. अल्ट्रासाउण्ड केंद्र पर अव्यवस्था का माहौल था. क्रम को बार-बार तोड़कर बाद में आए मरीजों की सोनोग्राफी की जा रही थी. मैं परेशान हो गया. मैं और विजेता दोनों जने भूख से बेहाल हो रहे थे परन्तु डॉक्टर पर हमारी विनती का कोई असर नहीं हो रहा था. विजेता तो नौवाँ महीना होने के कारण बैठने से भी लाचार थी. फिर मैंने कंपाउंडर छोटे को फोन किया और बार-बार किया. उसने भी वहां के स्टाफ से बात की लेकिन चूँकि सब ड्रामा था इसलिए कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला. अंत में पांच घंटे की भारी जद्दोजहद के बाद जब सोनोग्राफी की गयी तो रिपोर्ट में बताया गया कि गर्भाशय में पानी कम है. विजेता को कोई परेशानी नहीं थी इसलिए मुझे संदेह हुआ कि कहीं यह साजिश तो नहीं है? क्या इसलिए तो छोटे यहीं सोनोग्राफी करवाने की जिद नहीं कर रहा था? डॉ. डी. सिंह के परामर्श में रहे कई अन्य भावी माताएँ भी वहाँ उपस्थित थीं और उन सभी को भी बड़े ही आश्चर्यजनक और रहस्यमय तरीके से डॉ. एल. मित्तल द्वारा कोई-न-कोई गड़बड़ी बता दी गयी थी. अब सारा मामला मेरे सामने शीशे की तरह साफ़ था. डॉ. सिंह की मैक्स वालों से सांठ-गाँठ थी और इसलिए सभी मामले को धड़ल्ले से जटिल बताया और बनाया जा रहा था. जाहिर है सिजेरियन में डॉक्टर को भारी लाभ होने वाला था. मन भारी और दुखी हो गया. इनती बड़ी डॉक्टर की इतनी नीच करतूत!!! फिर भी मैं कल होकर रिपोर्ट के साथ डॉ. सिंह से मिला और वही हुआ जिसका मुझे पहले से ही अंदेशा था. सोनोग्राफी के आधार पर उन्होंने सामान्य डेलिवरी को असम्भव बताते हुए सिजेरियन की सिफारिश की और विजेता को कल होकर ही भर्ती करवाने को कहा. आज मेरी समझ में पूरी तरह से डॉक्टर के परामर्श कक्ष के बाहर लिखे उन शब्दों का मतलब आ गया था जिसे मैंने पहले दिन ही देखा था. वाह,क्या डॉक्टर हैं? सामान्य गर्भस्थ शिशु को भी अल्ट्रासाउण्डवाले को मैनेज कर असामान्य घोषित करवा देती हैं और फिर बड़े ही प्यार से, आत्मीयता से कहतीं हैं कि बिना सिजेरियन के अब तो कोई उपाय है ही नहीं. ऊपर जाकर पता किया तो बताया गया कि कुल 24-25 हजार का खर्च आएगा. वहाँ यह बतलाकर मैंने पीछा छुड़ाया कि मेरी मामी भी डॉक्टर हैं और मैं उनसे समझने के बाद ही आगे कुछ कह सकूंगा. फिर उदास और क्रोधित मन से दवा दुकानदार से 15 दिन की दवा ली और घर के लिए रवाना हो गया. 
          मित्रों, फिर वह दिन भी आया जब विजेता को प्रसव-पीड़ा शुरू हुई. मामी और डॉ. सिंह सहित बिहार के किसी भी प्राइवेट या सरकारी डॉक्टर पर अब मेरा थोड़ा-सा भी विश्वास नहीं रह गया था. सबके सब मुझे सिजेरियन माफिया नजर आ रहे थे इसलिए मैंने पत्नी को पटना, आलमगंज स्थित त्रिपोलिया मिशनरी अस्पताल में भर्ती करवाया और आज एक सप्ताह के एक पुत्र का पिता हूँ. हमारी आशा के अनुरूप ही डेलिवरी सामान्य हुई और जच्चा-बच्चा दोनों स्वस्थ हैं. त्रिपोलिया के डॉक्टरों और नर्सों के सेवा-भाव ने मुझे सचमुच मंत्रमुग्ध कर दिया है. जहाँ बिहार का पूरा डॉक्टर समाज कसाई बन बैठा है वहां त्रिपोलिया अस्पताल निविड़ घनघोर तम में पूरी शिद्दत से चुपचाप जलते दीए के सामान है. मैं निश्चित रूप से आज भी धर्मान्तरण के खिलाफ हूँ लेकिन यह सोंचने की आवश्यकता भी है कि हम हिन्दुओं में वह सच्चाई और सेवा-भाव क्यों नहीं है जो इन इसाई डॉक्टरों और नर्सों में है? क्यों हमारे हिन्दू स्त्रीरोग विशेषज्ञ प्रत्येक सामान्य डेलिवरी को सिजेरियन में बदल देने और अपने हाथों को भावी माताओं के खून से रंगने को व्याकुल हैं?

बुधवार, 28 मार्च 2012

शिक्षा की परीक्षा में फेल नीतीश सरकार

मित्रों, कुछ लोगों की आदत होती है कि करते बहुत कम हैं लेकिन ढोल बहुत ज्यादा का पीटते हैं और कुछ इसी तरह की आदत से ग्रस्त हैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार. उनके शासनकाल में कुछ क्षेत्रों में सुधार हुआ तो है लेकिन उम्मीद से बहुत कम जबकि कुछ क्षेत्र ऐसे भी रहे हैं जिनमें धनात्मक की बजाए ऋणात्मक प्रगति हुई है और दुर्भाग्यवश इनमें सबसे अव्वल है शिक्षा जो सही मायने में आदमी को इन्सान बनाती है. यही वह सबसे बड़ी बेचारी है जिसे सुशासन के दिमाग में चल रहे केमिकल लोचे का दुष्परिणाम सबसे ज्यादा भुगतना पड़ा है.
             मित्रों, सबसे पहले तो सत्ता में आते-आते नीतीश जी ने स्व. परम आदरणीय तत्कालीन शिक्षा सचिव मदनमोहन झा के मार्गदर्शन में शिक्षामित्रों की अत्यंत मूर्खतापूर्ण तरीके से बहाली की. बहाली सही थी परन्तु बहाली का तरीका निहायत गलत था और गलत थी और है भी शिक्षामित्रों के प्रति सरकार की नीति. सबसे पहली गलती तो थी शिक्षामित्रों के मानदेय का बहुत कम रखा जाना जो २००६ में आश्चर्यजनक तरीके से मात्र १५०० रूपया था. अभी भी यह महंगाई के हिसाब से बहुत कम ५-७ हजार रूपया है. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि मेधावी छात्रों ने बहुत कम संख्या में इन नौकरियों के लिए अपनी अभिरूचि दिखाई और अगर अभिरुचि दिखाई भी तो बहाली की गलत और दोषपूर्ण प्रकिया ने उन्हें बहाल होने ही नहीं दिया. दरअसल इस सरकार की आदत है कि वो जो कुछ भी करती है बड़े पैमाने पर करती है इसलिए वह शिक्षामित्रों की बहाली में सिर्फ नीतिगत गलतियाँ करके ही नहीं रुकी और उसने प्रक्रियागत भूलें भी कीं. उसने शिक्षामित्रों को बहाल करने की महती जिम्मेदारी से पूरी तरह अपना पल्ला झाड़ते हुए यह भार पंचायतों के भ्रष्ट कन्धों पर डाल दिया. फिर तो जमकर पैसा बनाया गया और अपने नालायक भाइयों-भतीजों की जिंदगियां बड़े ही करीने से संवारी गयी. जिसका परिणाम वही हुआ जो किसी भी स्थिति में नहीं होना चाहिए था. ऐसे-ऐसे शिक्षक बहाल हो गए जिन्हें गिनती तक नहीं आती थी. वैसे भी ५-६ हजार रूपयों में विश्वविद्यालय टॉपर तो मिलने से रहे. बाद में एक सांकेतिक योग्यता परीक्षा लेकर इस ढीठ सरकार ने अपनी गलतियों को सही साबित करने का असफल प्रयास भी किया.
                 मित्रों, नीतीश जी की शिक्षा-सम्बन्धी तथाकथित गौरव गाथा का अगला काला अध्याय है विद्यालयों का उत्क्रमण. दरअसल १५ साल के लालू-राबड़ी राज में सरकार ने लगातार तेज गति से बढती छात्र-छात्रों की संख्या को ध्यान में रखते हुए न तो नए विद्यालय-भवनों का निर्माण कराया और न ही यथोचित संख्या में नए शिक्षकों की बहाली ही की. नीतीश-सरकार ने भी पूरे मन से कदम नहीं उठाते हुए बहुत-से प्राइमरी स्कूलों को मध्य विद्यालयों में, मध्य विद्यालयों को उच्च विद्यालयों में और उच्च विद्यालयों को उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में उत्क्रमित कर दिया. इन उत्क्रमित विद्यालयों में नए कमरे तो बना दिए गए परन्तु नई कक्षाओं को पढ़ाने योग्य शिक्षकों की बहाली नहीं की गयी. अब समस्या यह है कि पुराने शिक्षक इतने योग्य नहीं हैं कि वे पहले से उच्चतर कक्षाओं को पढ़ा सकें. सबसे ज्यादा परेशानी हो रही है उत्क्रमित उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में. वहां तो कक्षा-सञ्चालन पूरी तरह से ठप्प ही हो गया है और विद्यार्थी कोचिंग शरणं गच्छामि के लिए बाध्य हैं. दरअसल नीतीश जी की पतली अक्ल में यह बात समा ही नहीं रही है कि बच्चों की पढाई और साइकिल में सीधा सम्बन्ध नहीं है बल्कि पढाई का सीधा सम्बन्ध है शिक्षकों से और उनकी योग्यता से. उच्च विद्यालयों में शिक्षक बहाली की प्रक्तिया तो हालाँकि ठीक थी लेकिन ७-८ हजार रू. में इस महंगाई में काम करेगा भी तो कौन मेधावी छात्र? फलतः यहाँ भी ज्यादातर अयोग्य शिक्षक ही बहाल हो गए हैं.
                  मित्रों, केंद्र सरकार ने शिक्षा का अधिकार कागजों पर तो प्रदान कर दिया है परन्तु बिहार के विद्यालयों में अभी भी कमरों और शिक्षकों की भारी कमी है और कमी है बिहार सरकार में ईच्छा-शक्ति की भी. ऐसे में यह कानून शायद ही कभी सही मायनों में राज्य में लागू होने पाए. राज्य में सरकार महादलितों के बीच रेडियो तो बाँट रही है लेकिन राज्य के अम्बेडकर विद्यालयों और छात्रावासों को रामभरोसे छोड़ दिया गया है. प्रतिवर्ष इन पर करीब एक अरब रूपये खर्च किए जाते हैं लेकिन इनमें रहनेवाले दलित-महादलित बच्चों की थालियों में आता है ऐसा भोजन जो शायद जानवर भी नहीं खाना पसंद करेंगे और इसके साथ ही उन्हें बिना शौचालय और स्नानघर की मूलभूत सुविधा के जीवन बिताना पड़ रहा है. वे चाहते तो नहीं फिर भी वे सरकारी उदासीनता के चलते खुले में शौच करने और स्नान करने के लिए अभिशप्त हैं.
                     मित्रों, राज्य के विश्वविद्यालयों में; जो बिहार सरकार के पूर्ण नियंत्रण में नहीं हैं, में भी हालात अच्छे नहीं हैं. महामहिम कुलाधिपति यानि राज्यपाल कथित रूप से पैसे लेकर कुलपतियों की नियुक्ति कर रहे हैं. कई कुलपति तो अपराधी भी है और उन पर आपराधिक मामले भी चल रहे हैं. पैसा देकर कुलपति बने कुलपति जी पैसे लेकर बिना जमीन, बिना भवन और बिना शिक्षक वाले महाविद्यालयों को भी धड़ल्ले से संबंधन प्रदान कर रहे हैं. इस मामले में हमारा विश्वविद्यालय यानि बाबा साहेब भीमराव अम्बेदकर बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर खासी तत्परता प्रदर्शित कर रहा है. परन्तु ऐसा भी नहीं है कि विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में शिक्षा का बंटाधार करने जैसा महान कार्य सिर्फ राज्य के बूते ही सम्पन्न हुआ है वरन बिहार सरकार ने भी इस महायज्ञ में अपने हिस्से की जिम्मेदारी बखूबी निभाई है. बिहार सरकार ने गैर मान्यताप्राप्त महाविद्यालयों को मानदेय देना शुरू किया है जो एक स्वागतयोग्य कदम है परन्तु उसने साथ-ही-साथ मानदेय को परीक्षा-परिणामों से भी जोड़ दिया है. जिसका परिणाम यह हुआ है कि महाविद्यालय अब पढाई का स्तर ऊँचा उठाने के बदले येन-केन-प्रकारेण परिणाम को ऊँचा उठाने में लगे रहते हैं. इसके लिए पहले परीक्षा-सञ्चालन में जान-बूझकर कदाचार किया-करवाया जाता है और फिर मूल्यांकन-केन्द्रों पर जाकर पैसा देकर रिजल्ट को जबरन उत्तम कोटि का करवाया जाता है. इतना ही नहीं नीतीश सरकार ने, जबसे वह सत्ता में आई है एक भी स्थाई शिक्षक की न तो विश्वविद्यालयों में और न ही महाविद्यालयों में ही बहाली की है. पुराने शिक्षकों के रिटायर होते जाने से शिक्षकों की विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में इतनी कमी हो गयी है कि कई विभाग तो पूरी तरह से शिक्षक-विहीन ही हो गए हैं. बीच में इनकी नियुक्ति के लिए विश्वविद्यालयों की ओर से विज्ञापन भी दिया गया जिसमें शिक्षकों को अधिकतम १२००० रूपये मासिक मानदेय या हथउठाई देने की महान दुस्साहसिक घोषणा की गयी. भारी विरोध होने पर और इस लेखक द्वारा पढोगे लिखोगे बनोगे ख़राब लेख लिखने के बाद विज्ञापनों को वापस ले लिया गया और कहा गया कि अब बहाली पुराने तरीके से विश्वविद्यालय सेवा आयोग की पुनर्स्थापना के बाद उसके द्वारा ही की जाएगी. देखते-देखते दो साल बीत गए मगर उक्त आयोग का पुनर्गठन सरकार को नहीं करना था सो नहीं किया गया. अब फिर से जनता की कमजोर याददाश्त पर अटूट विश्वास करते हुए विश्वविद्यालयों को बहाली अपने स्तर से करने का अधिकार दे दिया गया है. शायद फिर से मानदेय अधिकतम १२००० रूपया ही रहेगा. अब आप ही बताईए कि क्या एमए, पीएचडी की डिग्री प्राप्त करने और नेट/सेट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद कौन मेधावी चाहेगा १२००० रूपये पर बेगार करना? यानि एक बार फिर शिक्षा के इस हिस्से का भी अयोग्य शिक्षकों के हाथों में जाना निश्चित है. साथ ही बहाली में भ्रष्टाचार भी जमकर हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
           मित्रों, इस प्रकार हमने देखा और पाया कि नीतीश सरकार जो प्रतिवर्ष लाखों विद्यार्थियों की परीक्षा लेकर उत्तीर्णता का प्रमाण-पत्र देती है खुद ही शिक्षा-व्यवस्था और शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के मोर्चे पर साल-दर-साल फेल हो रही है. मामले का सबसे निराशाजनक पहलू तो यह है कि आगे इस सरकार की यह मंशा भी नहीं दिख रही है कि बिहार में शिक्षा की स्थिति में सुधार हो और वह आईसीयू से बाहर आकर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करे.                                 

बुधवार, 21 मार्च 2012

क्या समलैंगिक हैं श्याम बेनेगल?

मित्रों, श्याम बेनेगल हमारे देश का एक ऐसा नाम है जिसके कान में पड़ते ही हमारे दिमाग में एक ऐसे क्रान्तिकारी संस्कृतिकर्मी की छवि बनने लगती है जिसने भारतीय सिनेमा की दशा और दिशा  को ही बदल कर रख दिया. अंकुर, निशांत, मंथन, भूमिका, देव जैसी दर्जनों फ़िल्में उनकी अद्भुत और बेजोड़ रचनात्मकता की गवाही देते से प्रतीत होते हैं. श्याम बाबू उन गिने-चुने भारतीय फिल्मकारों में से हैं जो सिर्फ पैसा कमाने के लिए फ़िल्में नहीं बनाते बल्कि समाज को सार्थक सन्देश देने के लिए भी फिल्मों का निर्माण करते हैं.
               मित्रों, समाज अगर कुमार्ग पर अग्रसर हो तो उसका विरोध प्रत्येक समकालीन प्रबुद्ध व्यक्ति का धर्म बन जाता है और उसको उसे सही दिशा में अग्रसारित करने का भागीरथ प्रयास करना ही चाहिए. परन्तु हमारे श्याम बाबू पर ७७ साल की पकी उम्र में इन दिनों कुछ ज्यादा ही क्रान्तिकारी दिखने का जूनून सवार हो गया है. जनाब निरा भोगवाद और उपभोक्तावाद की उपज समलैंगिकता के प्रबल समर्थक बनकर देश के समक्ष आ खड़े हुए हैं. श्रीमान का मानना है कि भारतीय दंड संहिता की धारा ३७७ को समाप्त कर देना चाहिए जिससे भारतीय समाज में समलैंगिकता को वैधानिक दर्जा प्राप्त हो सके. अब यह तो श्याम बाबू को ही बेहतर पता होता कि मानव-देह की प्रकृति के विरूद्ध एक नवाचार प्रचलित करके वे समाज को कौन-से सन्मार्ग पर ले जाना चाहते हैं. हो सकता है कि वे खुद भी समलैंगिक हों हालाँकि उन्होंने इसकी कभी स्पष्ट घोषणा नहीं की है. लेकिन अगर वे समलैंगिक नहीं हैं तो फिर और दूसरा कौन-सा कारण हो सकता है उनके द्वारा समलैंगिकता का खुला समर्थन करने के पीछे? मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा है और आने वाला है भी नहीं जब तक वे स्वयं आगे आकर स्थिति को स्पष्ट नहीं कर देते.
                मित्रों, मैं अपने पहले के आलेखों में भी लिख चुका हूँ कि चूंकि समलैंगिक आचरण प्रजनन की दृष्टि से अनुत्पादक और प्रकृति के नियमों के विरूद्ध है इसलिए निषिद्ध कर्म है और इसे निषिद्ध कर्मों की श्रेणी में ही रहने देना चाहिए तथापि हमारी केंद्र सरकार इस एड्स प्रसारक प्रवृत्ति को बढ़ावा देने और कानूनी मान्यता देने को उतावली हुई जा रही है. पता नहीं क्यों; क्योंकि खुद उसके द्वारा सुप्रीम कोर्ट में पेश आंकड़े ही बता रहे हैं कि देश में समलैंगिकों की आबादी काफी कम है, आटे में नमक जितना से भी कम इसलिए वे निर्णायक वोटबैंक बनने से तो रहे. हाँ, अगर सोनिया गाँधी भारतीय संस्कृति को इटालियन संस्कृति में कायांतरित करना चाहती हों तो बात दूसरी है. वैसे उनसे पहले उनके कई सांस्कृतिक पूर्वज कैनिंग, मैकाले आदि भी भारतीय सस्कृति को विकृत करने का असफल प्रयास करके अपने गौड को प्यारे हो चुके हैं. आप भी करिए; स्वप्न देखने और कोशिश करने में क्या जाता है? आपको भी श्याम बेनेगल जैसे और भी जरखरीद गुलाम मिल जाएँगे जो पद और प्रतिष्ठा के लालच में आपके जैसा आचरण करना तो क्या आपकी तरह सोंचने को भी तैयार हो जाएँगे और फिर भी देशवासियों के बीच कथित क्रान्तिकारी कहे जाएँगे.
           मित्रों, मैं श्याम बेनेगल जी से विनती करना चाहूँगा कि और भी सामाजिक मुद्दे हैं भारत में. अपने चारों तरफ सिर घुमाकर तो देखिए भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, निर्धनता, जनसंख्या-विस्फोट, मादक पदार्थों का दुरुपयोग, बालश्रम, विकलांगता, कालाधन, भिक्षावृत्ति, वृद्धावस्था, जनस्वास्थ्य, आत्महत्या, मानसिक रोग, बाल अपराध, एड्स, दहेज़-प्रथा, मानवाधिकार-हनन, खाद्य-सुरक्षा और कुपोषण, जातीयता, साम्प्रदायिकता और छद्म धर्मनिरपेक्षता, जनजातीय समस्याएँ, आतंकवाद और उग्रवाद, शिक्षा की दुर्गति, पर्यावरण-विनाश, आवास की कमी, मानव-व्यापार और देह-व्यापार, महंगाई जैसी अनगिनत ऐसी सामाजिक समस्याएँ हैं जिनसे देश की जनता को रोजाना रूबरू होना पड़ता है. कृपया अपनी राज्यसभा सदस्यता का लाभ उठाईये और इन मुद्दों की ओर केंद्र सरकार का ध्यान आकर्षित कीजिए. याद रखिए सिर्फ समाज का अंधा विरोध करना क्रांतिकारिता नहीं है बल्कि समाज को सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना क्रांतिकारिता है और अगर किसी मुद्दे पर समाज पहले से ही सही रास्ते पर चल रहा हो तो उसे प्रोत्साहित करना भी क्रांतिकारिता है न कि उसे अपने निजी हित के लिए जानबूझ कर पथभ्रष्ट कर देना.

शनिवार, 17 मार्च 2012

बन्दर के हाथ का नारियल है बजट

मित्रों, कहते हैं कि दुर्भाग्यवश एक बार किसी बन्दर के हाथ नारियल पड़ गया. बन्दर ने उससे पहले नारियल को न देखा और न सुना था इसलिए जबरदस्त फेरे में पड़ गया. इसका वो करे तो क्या करे? कभी हवा में उछालता तो कभी जमीन पर पटकता तो कभी दाँत से काट खाने की असफल कोशिश करता. इस प्रकार उसने उसकी ऐसी-तैसी करके रख दी.
  मित्रों, कुछ ऐसा ही व्यवहार हमारे वित्त मंत्री ने २०१२-१३ के बजट के साथ भी किया है. कुल मिलाकर यह बजट बेकार की कवायद है, अकारण की गयी कसरत है. अगर अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी पड़ रही थी तो उसकी चाल को दुलकी से सरपट करने के लिए कृषि और औद्योगिक उत्पादन को बढ़ाने का उपाय किया जाना चाहिए था. कृषकों को ज्यादा कर्ज दे देने मात्र से अगर कृषि-उत्पादन को बढ़ना होता तब तो वित्तीय-वर्ष २०११-१२ में भी उसे आकाश छूना चाहिए था न कि गोता खाना. साथ ही वित्त मंत्री मात्र १००० करोड़ रूपये में दूसरी हरित क्रांति देखना चाह रहे हैं. इसे ही तो कहते हैं तेलों न लागे पूड़ियो पाके. इस अद्भुत चेष्टा की तुलना हम पागलखाने से भाग निकले उस पागल की करतूत से कर सकते हैं जो सोंचता है कि १०००-२००० रूपये का नमक डालकर वह पूरी दुनिया की नदियों को खारा कर देगा.
                  मित्रों, कुछ इसी तरह बजट में डूबते हुए औद्योगिक क्षेत्र को बचाने का कोई प्रयास नहीं किया गया है उल्टे सेवा कर और उत्पाद कर को बढाकर सिर्फ औद्योगिक क्षेत्र ही नहीं बल्कि सेवा-क्षेत्र की भी राहें मुश्किल कर दी गयी हैं. अब आप भी सोंच सकते हैं कि जब कृषि और औद्योगिक उत्पादन बढेगा नहीं तो सिर्फ लंगड़ाते हुए सेवा-क्षेत्र की बदौलत सरकार और जनता की आमदनी कहाँ से बढ़ेगी और जीडीपी का ग्राफ ऊपर कैसे चढ़ेगा; वो तो नीचे ही जाएगा न? कालेधन पर मौजूदा सत्र में श्वेत-पत्र लाने की बात बजट में जरूर कही गयी हैं लेकिन भ्रष्टाचार और कालेधन को लेकर अबतक सरकार का जो रवैय्या रहा है उसे देखते हुए हमें यह उम्मीद बिलकुल भी नहीं करनी चाहिए कि सरकार इस पत्र में खाताधारकों के नाम उजागर करेगी या फिर उसे देश में वापस लाने का दिखावटी प्रयास भी करेगी. अंत में जब वित्त मंत्री को पूर्वोल्लेखित बन्दर की तरह उत्पादन-वृद्धि और आय-वृद्धि का कोई उपाय नहीं सूझा तो वे शरारत पर उतर आए और उन्होंने महंगाई से पहले से ही बेहाल हो रही जनता को और भी परेशान करने की ठान ली. शायद ५ राज्यों के निराशाजनक चुनाव परिणाम का बदला लेना चाहते हों. इस बजट से महंगाई तो शर्तिया तौर पर बढ़ेगी ही जनता को अपनी फटी जेब में से ज्यादा कर भी अदा करना पड़ेगा. आयकर स्लॉट का पुनर्निर्धारण तो इतनी बेवकूफी से उन्होंने किया है कि देखकर पागल का भी दिमाग चकरा जाए. कम आमदनी वालों को कम राहत और ८ लाख से १० लाख सालाना के बीच कमानेवालों को भारी कर-छूट. वाह-वाह!! आम आदमी की सरकार के वित्त मंत्री ने क्या दिमाग पाया और लगाया है? गरीबों पर महंगाई के कोड़े और अमीरों को सौगात. पहले रेल बजट और अब यह आम बजट;आम जनता तो धन्य हुई जा रही है.
               मित्रों, कुल मिलाकर वित्त वर्ष २०१२-१३ में आपको ज्यादा कर तो चुकाना पड़ेगा ही उस पर सरकार यह भी सोंच रही है कि ऐसा होने पर हम यानि आम जनता ज्यादा पैसे बचा पाने की स्थिति में होंगे. शायद इसलिए बचत-खाता में बचत को प्रोत्साहित करने के लिए १०००० रूपये तक के ब्याज को करमुक्त कर दिया गया है. सरकार का मतलब तो आप समझ ही गए होंगे जो ज्यादा-से-ज्यादा मिर्ची खिलाकर जबरन हमें मिठास का अहसास करवाना चाहती है. इस तरह के बजट पेश करने से तो अच्छा था कि बजट पेश ही नहीं किया गया होता. कम-से-कम हमारी जेबों पर बेवजह का बोझ तो नहीं बढ़ता. यहाँ मैंने इसे बेवजह का बोझ इसलिए कहा है क्योंकि हमारी जेबों से जो पैसे सरकार निकालने जा रही है उससे देश की अर्थव्यवस्था में वह कैसे सुधार लाएगी, का विजन बजट में है ही नहीं. बस एक लक्ष्य रख दिया गया है कि हमें ७.६ प्रतिशत की विकास-दर प्राप्त करनी है मगर यह चमत्कार होगा कैसे; का उत्तर दिया ही नहीं गया है. वास्तव में प्रणव मुखर्जी बजट द्वारा बैक गेयर लगाकर देश को आगे ले जाना चाहते हैं और शायद डार्विन के इस सिद्धांत को भी सही साबित करना चाहते हैं कि सारे मानवों की तरह वो भी बंदरों की संतान हैं.

गुरुवार, 15 मार्च 2012

भीड़ का न्याय,कहाँ तक उचित

मित्रों, भारतीय संविधान में कार्यपालिका, न्यायपालिका और व्यवस्थापिका तीनों के कार्यों का स्पष्ट बंटवारा किया गया है.इनमें से कानून और व्यवस्था को बनाए रखना कार्यपालिका की जिम्मेदारी है.लेकिन जब कार्यपालिका पूरी तरह से बेकार और निष्क्रिय को जाए तो? तब जनता करे तो क्या करे? क्या उसे हाथ-पर-हाथ रखकर, दरवाजे-खिड़कियाँ बंद कर यह सोंचते हुए संतोष कर लेना चाहिए कि अगर वह सपरिवार सही-सलामत है तो फिर सबकुछ ठीक-ठाक है या उसे भी क्रूर और कातिल भीड़ का हिस्सा बनकर वही सब करना चाहिए जो इन दिनों बिहार की मजबूर जनता कर रही है?
           मित्रों, भीड़ द्वारा कानून को अपने हाथों में लेने की पहली घटना घटी है बेगूसराय जिले के तेघरा में ९ मार्च को. रंगों के त्यौहार होली के दिन यहाँ जमकर खून की होली खेली गयी. कई दर्जन आपराधिक घटनाओं को अंजाम दे चुका और क्षेत्र में आतंक का पर्याय बन चुका बंटी सिंह कुछ ही दिन पहले जेल से छूटकर आया था और जबसे गाँव में वापस आया था लगातार रंगदारी भरा व्यवहार करता आ रहा था. ग्रामीणों ने पुलिस से इसकी शिकायत भी की लेकिन सब बेकार. पुलिस झाँकने तक नहीं आई. अंततः आजिज और पुलिस से निराश होकर जनता ने कानून को अपने हाथों में ले लिया और बंटी सिंह को पीटते-पीटते मार डाला. फिर भी जी नहीं भरा तो भीड़ में से ही किसी ने मरे हुए बंटी को गोली भी मार दी. कुछ इसी तरह की दूसरी घटना घटी लगातार दूसरे ही दिन यानि १० मार्च को समस्तीपुर जिले में. हुआ यह कि समस्तीपुर के लोकप्रिय सीपीएम नेता सुरेन्द्र यादव की इसी साल ९ जनवरी को हुई हत्या का आरोपी मिंटू पासवान अपने दो साथियों के साथ वारदात के एकमात्र चश्मदीद गवाह और श्री यादव के समर्थक कुंदन पासवान की हत्या करने दलसिंगसराय थाने में स्थित उसके गाँव बगरा और उसके घर तक पहुँच गया. इलाके में शार्प शूटर के रूप में कुख्यात मिंटू को कुंदन तक पहुँचने से कुंदन की माँ जादो देवी और भाई ललन ने रोकने की कोशिश की तो उसने दोनों को गोली मार दी जिससे दोनों की तत्काल मौत हो गयी. परन्तु उसके बाद दर्जनों जघन्य आपराधिक घटनाओं को अंजाम दे चुका दुर्दांत अपराधी मिंटू भीड़ के हत्थे चढ़ गया और पुलिस की मौजूदगी में पीट-पीट कर मार डाला गया. सनद रहे कि बाद में जब मिंटू की पिटाई जारी थी तब पुलिस भी घटनास्थल पर पहुँच गयी थी.लोगों में उसके प्रति गुस्सा इतना ज्यादा था कि लोग मरने के बाद भी उस पर बेतहाशा लाठियां चलाते रहे.
               मित्रों, सामान्य स्थिति में किसी भी दृष्टिकोण से भीड़ द्वारा कानून को अपने हाथों में लेकर तत्काल फैसला करते हुए कथित अपराधी को मृत्युदंड दे देना उचित नहीं माना जा सकता परन्तु प्रश्न यह भी उठता है कि ऐसी नौबत आने ही क्यों दी जाती है? अगर राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति इतनी ही सराहनीय और संतोषजनक है तो फिर इस तरह की घटनाएँ क्यों घटित हो रही हैं? जो हाथ रोजी-रोटी कमाने के लिए प्रयुक्त होने चाहिए उन हाथों को क्यों बाध्य होना पड़ रहा है जानबूझकर व पूरे होशोहवास में मानव-रक्त बहाने को? अगर पुलिस-प्रशासन सुरक्षा देने में विफल रहता है तो क्या जनता को आत्मरक्षा का अधिकार नहीं है? परन्तु अगर हम जैसे को तैसा की नीति पर चलने लगेंगे तो हमारे और तालिबानी समाज में क्या कोई अंतर रह जाएगा? यह सही है कि पुलिस ने सक्रियता दिखाई होती तो भीड़ को इंसाफ करके सजा देने की जरूरत ही नहीं पड़ती. इन दोनों घटनाओं में से पहली में ग्रामीणों ने पुलिस को सूचित तो किया ही था दूसरी घटना में तो हत्या के समय पुलिस घटनास्थल पर मौजूद भी थी फिर पुलिस ने भीड़ को हत्या जैसा जघन्य अपराध करने से क्यों नहीं रोका? क्या यह उसके काहिलीपन की इन्तहां नहीं है? फिर क्या जरूरत है ऐसी सुरक्षा एजेंसी की? यहाँ मैं आपको यह बता दूं कि ९ जनवरी को सुरेन्द्र यादव की हत्या होने से पहले ऐसी ख़ुफ़िया सूचनाएं भी पुलिस को दी गयी थीं कि उनकी जान को खतरा है फिर क्यों उन्हें पर्याप्त सुरक्षा नहीं दी गयी और बाद में हत्या के एकमात्र चश्मदीद गवाह कुंदन पासवान की सुरक्षा को क्यों रामभरोसे छोड़ दिया गया? सुरेन्द्र के साथ-साथ कुंदन की माँ और भाई की हत्या के लिए क्या पुलिस की लापरवाही भी जिम्मेदार नहीं है? प्रश्न यह भी उठता है कि अगर इसी तरह गवाहों पर हमले होते रहे तो कोई क्यों कानून की मदद करने का जोखिम उठाएगा?
                    मित्रों, इन दोनों ताजा घटनाओं के आलोक में बिहार में पुलिस-प्रशासन को लेकर सैंकड़ों सवाल जनता के दिमाग में तैर रहे हैं परन्तु उत्तर नदारद है. इनके उत्तर देगा कौन? कायदे से तो राज्य की कार्यपालिका के वास्तविक मुखिया नीतीश कुमार जी को आगे आकर जवाब देना चाहिए परन्तु क्या वे ऐसा करेंगे या फिर एक बार फिर सच्चाई से नजरें चुराते हुए चलता है सोंचकर सबकुछ वक़्त पर छोड़कर या जनता की कमजोर याददाश्त पर अटल विश्वास करके निरुत्तर ही छोड़ देंगे? जवाब तो बिहार से प्रकाशित होने वाले दैनिक समाचारपत्रों को भी देना चाहिए कि क्या कारण है कि ये दोनों इतनी बड़ी ख़बरें होली के अवकाश के तत्काल बाद प्रकाशित ११ मार्च के अंक और बाद के अंकों से पूरी तरह गायब से थीं और अब तक भी गायब क्यों हैं?

गुरुवार, 8 मार्च 2012

पियक्कड़ई का त्योहार बनती होली

मित्रों,आपने भी किताबों में पढ़ा होगा कि होली उल्लास और सद्भाव का या फिर असत पर सत की विजय का पर्व है परन्तु आपने यह भी पाया होगा कि किताबों में लिखी बातें अक्सर सच्चाई के धरातल पर गलत निकलती हैं.यह बड़ा ही दुखद है कि आज उल्लास और सद्भाव का त्योहार होली पियक्कड़ई का पर्याय बनकर रह गयी है.अक्सर हमारे किशोर और युवा होली के नाम पर इस दिन इस नामाकुल शराब को मुँह से लगा लेते हैं और फिर यह इस तरह उनके गले पड़ जाती है कि पूरा जीवन कब नशे में बीत जाता है पता ही नहीं चलता.होली में पहले भी नशा किया जाता था लेकिन पहले नशेड़ियों की संख्या काफी कम थी और नशे के नाम पर लोग इस दिन सिर्फ भांग पीते थे.नुकसानदेह तो भांग भी था लेकिन सिर्फ पीनेवाले की सेहत के लिए परन्तु शराब तो पूरे समाज के लिए ही हानिकारक होता है.लोग भांग खाते और फिर चुपचाप घर जाकर सो जाते थे.भांग मुफ्त में उपलब्ध होता था जबकि शराब के लिए पैसे खर्च करने पड़ते हैं, किसी को अपनी बीवी के जेवर बेचने पड़ते हैं तो कोई इसके लिए अपने घर-बार तक को बेच डालता है.
           मित्रों,दरअसल होली के नाम पर पहली बार शराब पीने वाला पहली बार तो पीता है लेकिन आखिरी बार नहीं.फिर तो वो नशे में क्या-क्या कर डालता है उसे खुद भी इसकी खबर नहीं होती.कई साल हुए तब मैं कटिहार रहा करता था जहाँ मेरी केले की खेती होती थी.मेरे दलान के पास का ही एक मुसहर रोजाना महुआ की घर में बनी शराब पीता और मेरे दलान के पास से जब भी गुजरता मुझे गालियाँ देता हुआ गुजरता.फिर अपने घर में जाकर मार-पीट करता.दो-चार दिनों के बाद जब मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ तो एक दिन सुबह-सुबह मैं उसके घर पर जा पहुंचा और बुलाकर पूछा कि तुम चाहते क्या हो?क्या अपने हाथ-पैर तुडवाना चाहते हो तो वो बोला कि भैया मैंने किया क्या है?मैंने कहा तू रोज शाम में मुझे गालियाँ क्यों देता है तब उसने अद्भुत जवाब दिया कि वो तो शराब गाली देती है मैं नहीं देता और मेरे पैरों पर गिर गया.मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं इसका क्या करूँ लेकिन एक अच्छी बात यह हुई कि उस दिन के बाद उसने मुझे गालियाँ देना बंद कर दिया लेकिन उसने घर में चूल्हे तोड़ देना और रोजाना बीवी-बच्चों की पिटाई करना बंद नहीं किया.उसके घर में भुखमरी की स्थिति थी लेकिन ये शराब तो चीज ही ऐसी है जो मरे को भी मारती है.
           मित्रों,आप अक्सर कुछ घिनौनी टाईप की ख़बरें पढ़ते होंगे कि बाप ने बेटी के साथ बलात्कार किया या ससुर के बहू के साथ अनैतिक सम्बन्ध थे.इन सब के लिए वह आदमी कतई दोषी नहीं होता.मैं नहीं मानता कि कोई भी इंसान मूल रूप से इतना गिरा हुआ हो सकता है कि अपने पूरे होशोहवास में ऐसे नीच कर्म करे.मेरा मानव और मानवता में पूरा विश्वास है.ऐसे कर्म वह करता नहीं है बल्कि उससे ऐसे कुकर्म करवाती है यह शराब.अगर आप ३० से ऊपर के हैं और अगर आप होली के वर्तमान और इसके इतिहास पर नजर डालेंगे तो पाएंगे कि होली क्या थी और क्या होकर रह गयी है.पहले जहाँ यह वैर मिटानेवाला पावन-सामाजिक त्योहार थी अब झगडा बढानेवाली पर्व बन गयी है.कई जगहों पर होली के दिन हिंसा की, आगजनी की घटनाएँ होती हैं जो इस त्यौहार की प्रकृति के ही प्रतिकूल है.गांवों-कस्बों में अब दरवाजों पर घूम-घूमकर होली गाने का रिवाज समाप्त होने लगा है.शरीफ लोग शराबियों के या उनकी टोली के पीछे पड़ने के डर से घर से निकलते ही नहीं हैं.सरकार की आबकारी-नीति भी दोगली है.एक तरफ तो उसने गाँव-गाँव और चौराहे-चौराहे पर शराब की दुकानें खोल रखी है तो दूसरी ओर होली पर शराब पीकर लोग हुड्गंद नहीं करें इसके लिए पुलिस को भी अलर्ट पर रखती है.यानि वो चाहती है कि लोग शराब तो पीएँ लेकिन हुडदंग नहीं करें.परन्तु उन युवाओं का क्या जो होली के दिन सिर्फ चखने के नाम पर पहली बार शराब पीते हैं और फिर आपने ही हाथों अपनी जिंदगी को ही तबाह कर लेते हैं.इसलिए सरकार को चाहिए कि वो शराब की बिक्री और निर्माण को पूरी तरह से बंद करे.सेना के जवानों को भी तभी शराब दी जाए जब वो कश्मीरादि अतिशीतल इलाकों में तैनात हों.जब वे छुट्टी पर हों तब उन्हें शराब नहीं दी जाए वरना वे गाँव में शराब-संस्कृति को बढ़ाते जाएंगे.माना कि इससे सरकार को राजस्व का नुकसान होगा लेकिन वो इतना ज्यादा नहीं होगा जितना आज युवा-शक्ति के शराब पीकर दिग्भ्रमित होने से हो रहा है.साथ ही मैं समाज और देश के सभी जिम्मेदार नागरिकों से यह अपील भी करता हूँ कि वे होली को केवल उल्लास और सद्भाव का त्योहार रहने दें पियक्कड़ों का त्योहार नहीं बनाएँ.पहली और अंतिम बार पीने की भी नहीं सोंचें क्योंकि शराब चीज ही ऐसी है जो एक बार मुँह से लग जाए तो न छोड़ी जाए,ये मीठी जहर के जैसी है न छोड़ी जाए.अंत में सभी भारतवासियों को होली मुबारक.

रविवार, 4 मार्च 2012

बेलगाम नौकरशाही के आगे लाचार नीतीश

मित्रों,इन दिनों भारतीय लोकतंत्र में एक अजीब तरह की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है.हमारे राजनेता बेलगाम नौकरशाही पर नियंत्रण नहीं लगा पा रहे हैं और लाचारी का रोना रो रहे हैं.हमारे प्रधानमंत्री की लाचारी का तो कहना ही क्या?वे तो मजबूरों के सरदार ठहरे.उनकी तो उनके सहयोगी मंत्री ही नहीं सुनते तो नौकरशाह क्यों सुनेंगे?बेचारे बार-बार बहादुरशाह जफ़र की तरह अपनी लाचारी और बेचारगी का रोना रोते रहते हैं.ऐसे घोर अंध तमस के वातावरण में प्रशासनिक सुधार के दिनकर बनकर देश के राजनैतिक क्षितिज पर उभरे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार.पहले सूचना के अधिकार कानून को कमजोर किया फिर नौकरशाही पर कथित लगाम लगाने के लिए सेवा का अधिकार कानून और भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम लेकर आए.जनता और विपक्ष तो लगातार विभिन्न मंचों से नौकरशाही की मनमानी का सवाल उठाती रही है.लेकिन कल तमाम उपायों के बावजूद ऐसा कर पाने में असफल रहे नीतीश कुमार ने भी मान लिया कि उनके मातहत अफसर उनकी सुनते ही नहीं हैं.जबकि अगर न्यायालय या चुनाव आयोग का आदेश हो तो आज्ञापालन के लिए अतिसक्रिय हो उठते है.
                मित्रों,ऐसा हो भी क्यों नहीं?इसका तो सीधा मतलब हुआ कि भय बिनु होहिं न प्रीति और नौकरशाह सरकार से डरते नहीं हैं इसलिए सरकारी आदेशों को नजरंदाज कर जाते हैं.एक बार ऐसा हुआ कि बादशाह अकबर ने बीरबल से कहा कि देखो बीरबल हमारी प्रजा कितनी ईमानदार है,कहीं कोई भ्रष्टाचार नहीं.बीरबल ने सीधे-सीधे कोई उत्तर नहीं देते हुए बादशाह से एक तालाब खुदवाने को कहा और आदेश जारी करवाया कि चूंकि राज्य को बहुत अधिक मात्रा में दूध की आवश्यकता है इसलिए राज्य के सभी निवासी अमावस्या की रात में आएं और एक-एक लोटा दूध तालाब में डालें.सुबह जब अमावस्या के कल होकर अकबर और बीरबल तालाब के पास पहुंचे तो पाया कि तालाब में तो सिर्फ पानी-ही-पानी है दूध है लेकिन बहुत कम,न के बराबर.कहने का तात्पर्य यह कि प्रत्येक युग में बेईमानों की संख्या ईमानदारों से अधिक रही है.अकबर के समय शासन कठोर और दंड-विधान कड़े थे इसलिए लोग मजबूरन ईमानदार थे.आज शासन लचर है,न्यायपालिका लेटलतीफ है और दंड-विधान ढीले-ढाले हैं इसलिए हर कोई जहाँ देखिए;क्या जनता और क्या नौकरशाह;अपनी मनमर्जी चला रहे हैं.चूँकि कोर्ट और चुनाव आयोग के आदेशों की अवहेलना करने पर तत्काल दंडित होने का भय होता है इसलिए तब नौकरशाही सुस्ती के बजाए चुस्ती बरतती है.
             मित्रों,अफसरशाही में कैसे भय का संचार हो यह निर्धारित करना नीतीश कुमार जी का काम है.जनता ने उन्हें अपार बहुमत के साथ राजदंड सौंपा है.इसका कैसे सदुपयोग करना है इसका निर्णय तो उन्हें खुद ही लेना है.नौकरशाही अगर शेर है तो नीतीश कुमार रिंग मास्टर है.अगर रिंग मास्टर शेर के आगे लाचारी दिखाएगा तो या तो उसकी जान ही चली जाएगी और अगर बच भी गयी तो नौकरी तो जाएगी ही.इसलिए मनमोहन सिंह की तरह नीतीश जी विधवा-विलाप बंद करें और शासन में कठोरता लाएँ.नौकरशाही जहाँ भी सुस्ती बरते उस पर शीघ्रतापूर्वक अनुशासनात्मक कार्रवाई करें और कठोरतापूर्वक केवल गुण-दोष के आधार पर पूरी तरह से निष्पक्ष होकर दण्डित करें.जनता को उनका रोदन नहीं बल्कि सिंह-गर्जना चाहिए जिसे सुनकर भ्रष्ट-से-भ्रष्ट और आलसी-से-आलसी अधिकारी-कर्मचारी भी भयभीत हो जाएँ, सुधर जाएँ और कार्यशील हो जाएँ.उन्हें चाहिए कि जब भी वे किसी नौकरशाह को कोई आदेश दें तो अनुपालन के लिए एक समय-सीमा निर्धारित कर दें और अगर उस निश्चित समय-सीमा में आदेश का पालन नहीं हो पाता है तो सम्बंधित व्यक्तियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई करें,चुनाव आयोग और न्यायालय भी तो यही करते हैं.हो सके तो ऐसा करने का अधिकार प्राप्त करने के लिए नया कानून भी बनाया जाए.

अस्मत की कीमत ८०००० रूपया

मित्रों,बचपन में प्रेमचंद की एक कहानी पढ़ी थी पञ्च परमेश्वर जिसमें जुम्मन शेख अपने पूर्व मित्र अलगू चौधरी के साथ अपनी सारी दुश्मनी को भूलकर न्याय का साथ देता है.लेकिन बड़ा होकर पाया कि पञ्च तो सिर्फ बेईमान और दुष्ट होते हैं और जब ईन्सान भी नहीं होते तो भगवान क्या ख़ाक होंगे?अब झारखण्ड के जामताड़ा के नारायणपुर थाने के एक पंचायत के तुगलकी फैसले को ही लें.वहां हुआ यह है कि एक लड़का गाँव की ही एक लड़की के साथ शादी का झांसा देकर एक साल तक यौन-सम्बन्ध बनाता है और जब लड़की के पेट में बच्चा ठहर जाता है तो गाँव छोड़कर फरार हो जाता है.लड़की गोद में बच्चा लेकर मामले को पंचायत प्रतिनिधियों के समक्ष उठाती है और मांग करती है कि लड़के से उसकी शादी करवाई जाए जैसा कि उसने वादा भी किया हुआ है.लड़का गाँव के एक प्रभावशाली परिवार से आता है इसलिए पंचायत सबही सहायक सबल को की नीति का पालन करती हुई कुछ अजीब फैसला देती है कि लड़की को उसकी अस्मत के बदले ८०००० रूपये की रकम दे दी जाए और मामले को समाप्त समझा जाए.
                   मित्रों,जाहिर है कि एक ऐसी गरीब लड़की जिसके पास सिवाय अस्मत के और कुछ भी गिनने-गिनाने लायक नहीं है भला ऐसे तालिबानी और अन्यायपूर्ण फैसले से कैसे संतुष्ट हो सकती थी सो पहुँच गयी थाने.लेकिन यहाँ भी तो अधिकारी बनकर कोई सत्य के अवतार तो बैठे हुए हैं नहीं बल्कि बैठे हुए हैं लक्ष्मी के अंधे पुजारी (उल्लू).सो लड़की को इन्साफ नहीं मिला.उलटे थानाध्यक्ष लड़की पर ही उपरोक्त ८०००० रूपये लेकर मामले को वापस लेने के लिए लगे दबाव डालने.अब लड़की कह रही है कि अगर उसे न्याय नहीं मिला जिसकी पूरी सम्भावना भी दिख रही है तो वो परिवारसहित आत्महत्या कर लेगी.आखिर ऐसी नौबत आती ही क्यों है?क्या लड़की को पता नहीं था कि वो शादी से पहले सिर्फ वादे पर यकीन करके जो कुछ भी एक साल तक करती रही वो गलत था.खैर इस गरीब-अबला से तो जो गलती होनी थी हो गयी लेकिन उसे न्याय तो मिलना चाहिए.परन्तु न्याय देगा कौन क्योंकि इस भ्रष्ट-युग में भगवान तो शायद ढूँढने पर मिल भी जाएँ लेकिन न्याय नहीं मिलता.
             मित्रों,कहते हैं कि जाके पांव न फटे बिवाई सो क्या जाने पीड पराई.काश जिस तरह की घटना इस नादाँ लड़की के साथ हुई हैं वैसी ही उन पंचायत प्रतिनिधियों की बहन-बेटियों के साथ भी घट जाती तब शायद उन्हें पता चलता कि किसी गरीब की अस्मत की कीमत कितनी होती है और वह कितनी अनमोल होती है.साथ ही कुछ इसी तरह की परिस्थितियों का सामना उन पुलिस अधिकारियों को भी करना पड़े तब शायद उनका गरीबों के प्रति रवैया बदले.लेकिन प्रश्न है कि लड़की और उसके परिवारवालों को अब क्या करना चाहिए?क्या उन्हें सचमुच आत्महत्या कर लेनी चाहिए?मेरी हिसाब से कदापि नहीं,उन्हें जीना चाहिए और समाज से लड़ना चाहिए.जीवन अनमोल है.माना कि उससे गलती हुई है लेकिन इसका निदान कम-से-कम आत्महत्या तो नहीं है.उसे जीना चाहिए और कुछ इस तरह से जीना चाहिए जो समाज के लिए और आगे आनेवाली पीढ़ियों के लिए एक नजीर बन जाए.माना कि बच्चे का बाप कायर था और डरकर भाग निकला लेकिन वह तो माँ है और माँ अपने बच्चे को मारकर खुद भी कैसे मर सकती है.आज समाज में बहुत-से ऐसे उदार प्रवृत्ति के कुंवारे युवा हैं जो उसे बिना शर्त जीवनसाथी बनाने को भी तैयार हो जाएँगे.गलती तो उससे हुई ही है परन्तु अब उसका पश्चाताप करने का कोई मतलब नहीं है.उसे तो बस प्रायश्चित करना चाहिए जीकर और अपने बच्चे को पढ़ा-लिखाकर;अच्छा ईन्सान बनाकर;एक ऐसा ईन्सान बनाकर जिस पर मानवता नाज करे.

गुरुवार, 1 मार्च 2012

सेक्सी,सेक्सी,सेक्सी तुझे लोग बोलें

मित्रों,कभी प्रसिद्ध अमेरिकी उपन्यासकार पर्ल एस. बक ने उन महिलाओं को जिनका निकट-भविष्य में बलात्कार हो सकता है,को अमूल्य सलाह देते हुए कहा था कि यदि यह निश्चित हो कि आपका बलात्कार होकर रहेगा और विरोध करने का कोई फायदा नहीं रह जाए तो बेहतर यही है कि उक्त महिला इसका आनंद उठाए.मैं नहीं जानता कि श्रीमती बक को कितनी बार इस तरह का परमानन्द प्राप्त करने का पुण्य अवसर मिला.यहाँ आलेख के आरम्भ में उन स्वर्गीया का उल्लेख मैंने यह बताने के लिए किया है कि कई बार बड़ी शक्सियतें भी किस तरह अपनी मर्यादाओं की सीमाओं को लाँघ जाया करते हैं और उन्हें इसके असर का पता तक नहीं होता.जिस तरह बक महोदय को बलात्कार का दर्द क्या होता है;कदाचित पता नहीं था;शायद ममता शर्मा जो दुर्भाग्यवश या सौभाग्यवश पता नहीं इसमें से क्या हम भारतीय के लिए सही है;इस समय राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष के पद पर हैं;को भी यह मालूम नहीं है कि जब किसी गरीब-लाचार महिला के साथ छेड़खानी की घटना होती है तब उसके मन-मस्तिष्क पर क्या गुजरती है और वो उस एक क्षण में कितनी बार कितनी मौतें मरती है.उनकी पीड़ा की अगर स्वानुभूति करनी है तो ममता जी को किसी लम्पट साईनी आहूजा के घर घरेलू नौकरानी के तौर पर कार्य करना चाहिए या फिर किसी बेहया सुपरवाईजर के मातहत किसी फैक्टरी में साधारण मजदूर की नौकरी करनी चाहिए और अगर ईट-भट्ठे पर काम मिल गया तो क्या कहना.तब उन्हें पता चलेगा कि सेक्सी शब्द का वास्तविक अर्थ क्या होता है अथवा क्या कभी-कभी शब्दों का वह मतलब होता भी है जिसका जिक्र शब्दकोशकार शब्दकोशों में करते हैं क्योंकि हमेशा छेडनेवाले की निगाहें कहीं और होती हैं और निशाना कहीं और.
                  मित्रों,किसी शब्द का अर्थ काल और देश के अनुसार कैसे एकदम-से बदल जाता है मैं इसे एक बेहद दिलचस्प उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करना चाहूँगा.उस समय यानि वर्ष २००८ में दैनिक हिंदुस्तान,पटना में जेनरल डेस्क में कार्यरत था.एक दिन यूं ही उत्सुकतावश प्रिंट आउट वाली मशीन पर पड़ी सम्पादकीय पृष्ठ का प्रिंट आउट उठा लिया और पढ़ने लगा.मुख्य सम्पादकीय चन्द्रमा पर पानी के मिलने के सन्दर्भ में लिखा गया था जिसका समापन चंदामामा दूर के,पुए पके बूर के गीत से किया गया था.पंक्ति बिल्कुल सही थी और मुंगेर और खगड़िया के लिए अख़बार भेजा भी जा चुका था लेकिन बिहार में तो बूर का अर्थ योनि होता है भले ही गीतकार प्रेम धवन के पंजाब में इसका कोई और अर्थ होता हो.मैंने उस समय के समाचार संपादक कमल किशोर सक्सेना जी को इस तथ्य से अवगत कराया.फिर क्या था मशीन पर चल रही छपाई रोक दी गयी और आगे के संस्करणों में बूर को गुड़ कर दिया गया.ठीक इसी तरह हो सकता है कि सेक्सी शब्द का पश्चिमी देशों के सेक्स फ्री समाज में ज्यादा प्रयोग सुन्दर के अर्थ में होता हो लेकिन भारत में तो इसका सीधा मतलब होता है कामुक या सेक्स करने लायक.दोनों अर्थ सही हैं परन्तु जिस तरह बिहार में बूर शब्द का प्रयोग आपत्तिजनक की श्रेणी में आता है उसी तरह भारत में सेक्सी शब्द का प्रयोग मानसिक प्रताड़ना या छेड़खानी के लिए किया जाता है.ऐसे में ममता जी की सलाह को मानकर लड़कियां कैसे उस स्थिति में अपने को खुशनसीब मान सकती हैं जब कोई चौक-चौराहे पर खुलेआम उससे कहे कि तुम तो आज बड़ी सेक्सी लग रही हो?साथ ही छेड़खानी के वक़्त ऐसा करनेवाले के हाव-भाव पर गौर करना होता है और तब न तो शब्दों के अर्थ को लेकर ही कोई संशय शेष रह जाता है और न ही प्रयोगकर्ता के उद्देश्य को लेकर ही.
                     मित्रों,मुझे लगता है कि चूंकि ममता जी का लालन-पालन अंग्रेजी वातावरण में हुआ होगा इसलिए उन्हें शायद चौक-चौराहे पर रोजाना होनेवाली छेडखानियों से रूबरू होने का सुअवसर मिला ही नहीं है अन्यथा उन्हें पता होता कि जब कोई कामांध किसी अबला नारी के लिए सेक्सी शब्द का प्रयोग करता है तो उसका मतलब सिर्फ और सिर्फ कामुक होता है और उद्देश्य भी केवल और केवल एक होता है उस स्त्री का शीलहरण.उसका उद्देश्य अपने शिकार की सुन्दरता की प्रशंसा करना तो कदापि नहीं होता.इस तरह अगर ममता जी को प्रत्येक लम्पट में एक प्रशंसक भी नजर आने लगा तब तो हो चुका उनके सेक्सी हाथों से भारतीय महिलाओं का भला.हो सकता है कि वो कल किसी बलात्कार की दिल दहला देने वाली घटना के बाद यह भी कह डालें कि बलात्कारी निरपराध है क्योंकि वह तो पीडिता की सुन्दरता का अनन्य प्रशंसक है.
                    मित्रों,आपको भी आश्चर्य हो रहा होगा कि सुपर प्रधानमंत्री सोनिया गाँधी ने कैसे-कैसे लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर बैठा रखा है.इटली से आयातित नेता से हम और उम्मीद भी क्या रख सकते हैं?एक बात तो निश्चित है कि सोनिया जी किसी भी तरह भारतीय संस्कृति का भला नहीं चाहती हैं तभी तो लगातार इसकी जड़ों पर केंद्र सरकार द्वारा सायास प्रहार किया जा रहा है.कभी राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्षा ममता शर्मा छेड़खानी और यौनापराध-उत्प्रेरक बयान दे डालती हैं तो कभी सरकार सुप्रीम कोर्ट में भारतीय संस्कृति में अतिवार्जित समलैंगिकता का समर्थन करने लगती है.जो कुछ भी इन दिनों देश में संस्कृति के मंच पर हो रहा है मुझे तो लगता है कि ऐसा सरकार द्वारा साजिशन किया या करवाया जा रहा है.चाहे वह सन्नी लियोन का भारत आगमन ही क्यों न हो.स्थिति बड़ी गंभीर है और निकट-भविष्य में और भी ज्यादा गंभीर हो जानेवाली है.अगर हम भारतीय अब भी नहीं संभले तो एक दिन ऐसा भी आएगा कि हमारी लचीली संस्कृति में इतनी तब्दीली आ जाएगी कि सत्य सनातन भारतीय संस्कृति में कुछ भी भारतीय नहीं रह जाएगा.