मित्रों, भारतीय संविधान में कार्यपालिका, न्यायपालिका और व्यवस्थापिका तीनों के कार्यों का स्पष्ट बंटवारा किया गया है.इनमें से कानून और व्यवस्था को बनाए रखना कार्यपालिका की जिम्मेदारी है.लेकिन जब कार्यपालिका पूरी तरह से बेकार और निष्क्रिय को जाए तो? तब जनता करे तो क्या करे? क्या उसे हाथ-पर-हाथ रखकर, दरवाजे-खिड़कियाँ बंद कर यह सोंचते हुए संतोष कर लेना चाहिए कि अगर वह सपरिवार सही-सलामत है तो फिर सबकुछ ठीक-ठाक है या उसे भी क्रूर और कातिल भीड़ का हिस्सा बनकर वही सब करना चाहिए जो इन दिनों बिहार की मजबूर जनता कर रही है?
मित्रों, भीड़ द्वारा कानून को अपने हाथों में लेने की पहली घटना घटी है बेगूसराय जिले के तेघरा में ९ मार्च को. रंगों के त्यौहार होली के दिन यहाँ जमकर खून की होली खेली गयी. कई दर्जन आपराधिक घटनाओं को अंजाम दे चुका और क्षेत्र में आतंक का पर्याय बन चुका बंटी सिंह कुछ ही दिन पहले जेल से छूटकर आया था और जबसे गाँव में वापस आया था लगातार रंगदारी भरा व्यवहार करता आ रहा था. ग्रामीणों ने पुलिस से इसकी शिकायत भी की लेकिन सब बेकार. पुलिस झाँकने तक नहीं आई. अंततः आजिज और पुलिस से निराश होकर जनता ने कानून को अपने हाथों में ले लिया और बंटी सिंह को पीटते-पीटते मार डाला. फिर भी जी नहीं भरा तो भीड़ में से ही किसी ने मरे हुए बंटी को गोली भी मार दी. कुछ इसी तरह की दूसरी घटना घटी लगातार दूसरे ही दिन यानि १० मार्च को समस्तीपुर जिले में. हुआ यह कि समस्तीपुर के लोकप्रिय सीपीएम नेता सुरेन्द्र यादव की इसी साल ९ जनवरी को हुई हत्या का आरोपी मिंटू पासवान अपने दो साथियों के साथ वारदात के एकमात्र चश्मदीद गवाह और श्री यादव के समर्थक कुंदन पासवान की हत्या करने दलसिंगसराय थाने में स्थित उसके गाँव बगरा और उसके घर तक पहुँच गया. इलाके में शार्प शूटर के रूप में कुख्यात मिंटू को कुंदन तक पहुँचने से कुंदन की माँ जादो देवी और भाई ललन ने रोकने की कोशिश की तो उसने दोनों को गोली मार दी जिससे दोनों की तत्काल मौत हो गयी. परन्तु उसके बाद दर्जनों जघन्य आपराधिक घटनाओं को अंजाम दे चुका दुर्दांत अपराधी मिंटू भीड़ के हत्थे चढ़ गया और पुलिस की मौजूदगी में पीट-पीट कर मार डाला गया. सनद रहे कि बाद में जब मिंटू की पिटाई जारी थी तब पुलिस भी घटनास्थल पर पहुँच गयी थी.लोगों में उसके प्रति गुस्सा इतना ज्यादा था कि लोग मरने के बाद भी उस पर बेतहाशा लाठियां चलाते रहे.
मित्रों, सामान्य स्थिति में किसी भी दृष्टिकोण से भीड़ द्वारा कानून को अपने हाथों में लेकर तत्काल फैसला करते हुए कथित अपराधी को मृत्युदंड दे देना उचित नहीं माना जा सकता परन्तु प्रश्न यह भी उठता है कि ऐसी नौबत आने ही क्यों दी जाती है? अगर राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति इतनी ही सराहनीय और संतोषजनक है तो फिर इस तरह की घटनाएँ क्यों घटित हो रही हैं? जो हाथ रोजी-रोटी कमाने के लिए प्रयुक्त होने चाहिए उन हाथों को क्यों बाध्य होना पड़ रहा है जानबूझकर व पूरे होशोहवास में मानव-रक्त बहाने को? अगर पुलिस-प्रशासन सुरक्षा देने में विफल रहता है तो क्या जनता को आत्मरक्षा का अधिकार नहीं है? परन्तु अगर हम जैसे को तैसा की नीति पर चलने लगेंगे तो हमारे और तालिबानी समाज में क्या कोई अंतर रह जाएगा? यह सही है कि पुलिस ने सक्रियता दिखाई होती तो भीड़ को इंसाफ करके सजा देने की जरूरत ही नहीं पड़ती. इन दोनों घटनाओं में से पहली में ग्रामीणों ने पुलिस को सूचित तो किया ही था दूसरी घटना में तो हत्या के समय पुलिस घटनास्थल पर मौजूद भी थी फिर पुलिस ने भीड़ को हत्या जैसा जघन्य अपराध करने से क्यों नहीं रोका? क्या यह उसके काहिलीपन की इन्तहां नहीं है? फिर क्या जरूरत है ऐसी सुरक्षा एजेंसी की? यहाँ मैं आपको यह बता दूं कि ९ जनवरी को सुरेन्द्र यादव की हत्या होने से पहले ऐसी ख़ुफ़िया सूचनाएं भी पुलिस को दी गयी थीं कि उनकी जान को खतरा है फिर क्यों उन्हें पर्याप्त सुरक्षा नहीं दी गयी और बाद में हत्या के एकमात्र चश्मदीद गवाह कुंदन पासवान की सुरक्षा को क्यों रामभरोसे छोड़ दिया गया? सुरेन्द्र के साथ-साथ कुंदन की माँ और भाई की हत्या के लिए क्या पुलिस की लापरवाही भी जिम्मेदार नहीं है? प्रश्न यह भी उठता है कि अगर इसी तरह गवाहों पर हमले होते रहे तो कोई क्यों कानून की मदद करने का जोखिम उठाएगा?
मित्रों, इन दोनों ताजा घटनाओं के आलोक में बिहार में पुलिस-प्रशासन को लेकर सैंकड़ों सवाल जनता के दिमाग में तैर रहे हैं परन्तु उत्तर नदारद है. इनके उत्तर देगा कौन? कायदे से तो राज्य की कार्यपालिका के वास्तविक मुखिया नीतीश कुमार जी को आगे आकर जवाब देना चाहिए परन्तु क्या वे ऐसा करेंगे या फिर एक बार फिर सच्चाई से नजरें चुराते हुए चलता है सोंचकर सबकुछ वक़्त पर छोड़कर या जनता की कमजोर याददाश्त पर अटल विश्वास करके निरुत्तर ही छोड़ देंगे? जवाब तो बिहार से प्रकाशित होने वाले दैनिक समाचारपत्रों को भी देना चाहिए कि क्या कारण है कि ये दोनों इतनी बड़ी ख़बरें होली के अवकाश के तत्काल बाद प्रकाशित ११ मार्च के अंक और बाद के अंकों से पूरी तरह गायब से थीं और अब तक भी गायब क्यों हैं?
मित्रों, भीड़ द्वारा कानून को अपने हाथों में लेने की पहली घटना घटी है बेगूसराय जिले के तेघरा में ९ मार्च को. रंगों के त्यौहार होली के दिन यहाँ जमकर खून की होली खेली गयी. कई दर्जन आपराधिक घटनाओं को अंजाम दे चुका और क्षेत्र में आतंक का पर्याय बन चुका बंटी सिंह कुछ ही दिन पहले जेल से छूटकर आया था और जबसे गाँव में वापस आया था लगातार रंगदारी भरा व्यवहार करता आ रहा था. ग्रामीणों ने पुलिस से इसकी शिकायत भी की लेकिन सब बेकार. पुलिस झाँकने तक नहीं आई. अंततः आजिज और पुलिस से निराश होकर जनता ने कानून को अपने हाथों में ले लिया और बंटी सिंह को पीटते-पीटते मार डाला. फिर भी जी नहीं भरा तो भीड़ में से ही किसी ने मरे हुए बंटी को गोली भी मार दी. कुछ इसी तरह की दूसरी घटना घटी लगातार दूसरे ही दिन यानि १० मार्च को समस्तीपुर जिले में. हुआ यह कि समस्तीपुर के लोकप्रिय सीपीएम नेता सुरेन्द्र यादव की इसी साल ९ जनवरी को हुई हत्या का आरोपी मिंटू पासवान अपने दो साथियों के साथ वारदात के एकमात्र चश्मदीद गवाह और श्री यादव के समर्थक कुंदन पासवान की हत्या करने दलसिंगसराय थाने में स्थित उसके गाँव बगरा और उसके घर तक पहुँच गया. इलाके में शार्प शूटर के रूप में कुख्यात मिंटू को कुंदन तक पहुँचने से कुंदन की माँ जादो देवी और भाई ललन ने रोकने की कोशिश की तो उसने दोनों को गोली मार दी जिससे दोनों की तत्काल मौत हो गयी. परन्तु उसके बाद दर्जनों जघन्य आपराधिक घटनाओं को अंजाम दे चुका दुर्दांत अपराधी मिंटू भीड़ के हत्थे चढ़ गया और पुलिस की मौजूदगी में पीट-पीट कर मार डाला गया. सनद रहे कि बाद में जब मिंटू की पिटाई जारी थी तब पुलिस भी घटनास्थल पर पहुँच गयी थी.लोगों में उसके प्रति गुस्सा इतना ज्यादा था कि लोग मरने के बाद भी उस पर बेतहाशा लाठियां चलाते रहे.
मित्रों, सामान्य स्थिति में किसी भी दृष्टिकोण से भीड़ द्वारा कानून को अपने हाथों में लेकर तत्काल फैसला करते हुए कथित अपराधी को मृत्युदंड दे देना उचित नहीं माना जा सकता परन्तु प्रश्न यह भी उठता है कि ऐसी नौबत आने ही क्यों दी जाती है? अगर राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति इतनी ही सराहनीय और संतोषजनक है तो फिर इस तरह की घटनाएँ क्यों घटित हो रही हैं? जो हाथ रोजी-रोटी कमाने के लिए प्रयुक्त होने चाहिए उन हाथों को क्यों बाध्य होना पड़ रहा है जानबूझकर व पूरे होशोहवास में मानव-रक्त बहाने को? अगर पुलिस-प्रशासन सुरक्षा देने में विफल रहता है तो क्या जनता को आत्मरक्षा का अधिकार नहीं है? परन्तु अगर हम जैसे को तैसा की नीति पर चलने लगेंगे तो हमारे और तालिबानी समाज में क्या कोई अंतर रह जाएगा? यह सही है कि पुलिस ने सक्रियता दिखाई होती तो भीड़ को इंसाफ करके सजा देने की जरूरत ही नहीं पड़ती. इन दोनों घटनाओं में से पहली में ग्रामीणों ने पुलिस को सूचित तो किया ही था दूसरी घटना में तो हत्या के समय पुलिस घटनास्थल पर मौजूद भी थी फिर पुलिस ने भीड़ को हत्या जैसा जघन्य अपराध करने से क्यों नहीं रोका? क्या यह उसके काहिलीपन की इन्तहां नहीं है? फिर क्या जरूरत है ऐसी सुरक्षा एजेंसी की? यहाँ मैं आपको यह बता दूं कि ९ जनवरी को सुरेन्द्र यादव की हत्या होने से पहले ऐसी ख़ुफ़िया सूचनाएं भी पुलिस को दी गयी थीं कि उनकी जान को खतरा है फिर क्यों उन्हें पर्याप्त सुरक्षा नहीं दी गयी और बाद में हत्या के एकमात्र चश्मदीद गवाह कुंदन पासवान की सुरक्षा को क्यों रामभरोसे छोड़ दिया गया? सुरेन्द्र के साथ-साथ कुंदन की माँ और भाई की हत्या के लिए क्या पुलिस की लापरवाही भी जिम्मेदार नहीं है? प्रश्न यह भी उठता है कि अगर इसी तरह गवाहों पर हमले होते रहे तो कोई क्यों कानून की मदद करने का जोखिम उठाएगा?
मित्रों, इन दोनों ताजा घटनाओं के आलोक में बिहार में पुलिस-प्रशासन को लेकर सैंकड़ों सवाल जनता के दिमाग में तैर रहे हैं परन्तु उत्तर नदारद है. इनके उत्तर देगा कौन? कायदे से तो राज्य की कार्यपालिका के वास्तविक मुखिया नीतीश कुमार जी को आगे आकर जवाब देना चाहिए परन्तु क्या वे ऐसा करेंगे या फिर एक बार फिर सच्चाई से नजरें चुराते हुए चलता है सोंचकर सबकुछ वक़्त पर छोड़कर या जनता की कमजोर याददाश्त पर अटल विश्वास करके निरुत्तर ही छोड़ देंगे? जवाब तो बिहार से प्रकाशित होने वाले दैनिक समाचारपत्रों को भी देना चाहिए कि क्या कारण है कि ये दोनों इतनी बड़ी ख़बरें होली के अवकाश के तत्काल बाद प्रकाशित ११ मार्च के अंक और बाद के अंकों से पूरी तरह गायब से थीं और अब तक भी गायब क्यों हैं?
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