मित्रों,इन दिनों भारतीय लोकतंत्र में एक अजीब तरह की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है.हमारे राजनेता बेलगाम नौकरशाही पर नियंत्रण नहीं लगा पा रहे हैं और लाचारी का रोना रो रहे हैं.हमारे प्रधानमंत्री की लाचारी का तो कहना ही क्या?वे तो मजबूरों के सरदार ठहरे.उनकी तो उनके सहयोगी मंत्री ही नहीं सुनते तो नौकरशाह क्यों सुनेंगे?बेचारे बार-बार बहादुरशाह जफ़र की तरह अपनी लाचारी और बेचारगी का रोना रोते रहते हैं.ऐसे घोर अंध तमस के वातावरण में प्रशासनिक सुधार के दिनकर बनकर देश के राजनैतिक क्षितिज पर उभरे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार.पहले सूचना के अधिकार कानून को कमजोर किया फिर नौकरशाही पर कथित लगाम लगाने के लिए सेवा का अधिकार कानून और भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम लेकर आए.जनता और विपक्ष तो लगातार विभिन्न मंचों से नौकरशाही की मनमानी का सवाल उठाती रही है.लेकिन कल तमाम उपायों के बावजूद ऐसा कर पाने में असफल रहे नीतीश कुमार ने भी मान लिया कि उनके मातहत अफसर उनकी सुनते ही नहीं हैं.जबकि अगर न्यायालय या चुनाव आयोग का आदेश हो तो आज्ञापालन के लिए अतिसक्रिय हो उठते है.
मित्रों,ऐसा हो भी क्यों नहीं?इसका तो सीधा मतलब हुआ कि भय बिनु होहिं न प्रीति और नौकरशाह सरकार से डरते नहीं हैं इसलिए सरकारी आदेशों को नजरंदाज कर जाते हैं.एक बार ऐसा हुआ कि बादशाह अकबर ने बीरबल से कहा कि देखो बीरबल हमारी प्रजा कितनी ईमानदार है,कहीं कोई भ्रष्टाचार नहीं.बीरबल ने सीधे-सीधे कोई उत्तर नहीं देते हुए बादशाह से एक तालाब खुदवाने को कहा और आदेश जारी करवाया कि चूंकि राज्य को बहुत अधिक मात्रा में दूध की आवश्यकता है इसलिए राज्य के सभी निवासी अमावस्या की रात में आएं और एक-एक लोटा दूध तालाब में डालें.सुबह जब अमावस्या के कल होकर अकबर और बीरबल तालाब के पास पहुंचे तो पाया कि तालाब में तो सिर्फ पानी-ही-पानी है दूध है लेकिन बहुत कम,न के बराबर.कहने का तात्पर्य यह कि प्रत्येक युग में बेईमानों की संख्या ईमानदारों से अधिक रही है.अकबर के समय शासन कठोर और दंड-विधान कड़े थे इसलिए लोग मजबूरन ईमानदार थे.आज शासन लचर है,न्यायपालिका लेटलतीफ है और दंड-विधान ढीले-ढाले हैं इसलिए हर कोई जहाँ देखिए;क्या जनता और क्या नौकरशाह;अपनी मनमर्जी चला रहे हैं.चूँकि कोर्ट और चुनाव आयोग के आदेशों की अवहेलना करने पर तत्काल दंडित होने का भय होता है इसलिए तब नौकरशाही सुस्ती के बजाए चुस्ती बरतती है.
मित्रों,अफसरशाही में कैसे भय का संचार हो यह निर्धारित करना नीतीश कुमार जी का काम है.जनता ने उन्हें अपार बहुमत के साथ राजदंड सौंपा है.इसका कैसे सदुपयोग करना है इसका निर्णय तो उन्हें खुद ही लेना है.नौकरशाही अगर शेर है तो नीतीश कुमार रिंग मास्टर है.अगर रिंग मास्टर शेर के आगे लाचारी दिखाएगा तो या तो उसकी जान ही चली जाएगी और अगर बच भी गयी तो नौकरी तो जाएगी ही.इसलिए मनमोहन सिंह की तरह नीतीश जी विधवा-विलाप बंद करें और शासन में कठोरता लाएँ.नौकरशाही जहाँ भी सुस्ती बरते उस पर शीघ्रतापूर्वक अनुशासनात्मक कार्रवाई करें और कठोरतापूर्वक केवल गुण-दोष के आधार पर पूरी तरह से निष्पक्ष होकर दण्डित करें.जनता को उनका रोदन नहीं बल्कि सिंह-गर्जना चाहिए जिसे सुनकर भ्रष्ट-से-भ्रष्ट और आलसी-से-आलसी अधिकारी-कर्मचारी भी भयभीत हो जाएँ, सुधर जाएँ और कार्यशील हो जाएँ.उन्हें चाहिए कि जब भी वे किसी नौकरशाह को कोई आदेश दें तो अनुपालन के लिए एक समय-सीमा निर्धारित कर दें और अगर उस निश्चित समय-सीमा में आदेश का पालन नहीं हो पाता है तो सम्बंधित व्यक्तियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई करें,चुनाव आयोग और न्यायालय भी तो यही करते हैं.हो सके तो ऐसा करने का अधिकार प्राप्त करने के लिए नया कानून भी बनाया जाए.
मित्रों,ऐसा हो भी क्यों नहीं?इसका तो सीधा मतलब हुआ कि भय बिनु होहिं न प्रीति और नौकरशाह सरकार से डरते नहीं हैं इसलिए सरकारी आदेशों को नजरंदाज कर जाते हैं.एक बार ऐसा हुआ कि बादशाह अकबर ने बीरबल से कहा कि देखो बीरबल हमारी प्रजा कितनी ईमानदार है,कहीं कोई भ्रष्टाचार नहीं.बीरबल ने सीधे-सीधे कोई उत्तर नहीं देते हुए बादशाह से एक तालाब खुदवाने को कहा और आदेश जारी करवाया कि चूंकि राज्य को बहुत अधिक मात्रा में दूध की आवश्यकता है इसलिए राज्य के सभी निवासी अमावस्या की रात में आएं और एक-एक लोटा दूध तालाब में डालें.सुबह जब अमावस्या के कल होकर अकबर और बीरबल तालाब के पास पहुंचे तो पाया कि तालाब में तो सिर्फ पानी-ही-पानी है दूध है लेकिन बहुत कम,न के बराबर.कहने का तात्पर्य यह कि प्रत्येक युग में बेईमानों की संख्या ईमानदारों से अधिक रही है.अकबर के समय शासन कठोर और दंड-विधान कड़े थे इसलिए लोग मजबूरन ईमानदार थे.आज शासन लचर है,न्यायपालिका लेटलतीफ है और दंड-विधान ढीले-ढाले हैं इसलिए हर कोई जहाँ देखिए;क्या जनता और क्या नौकरशाह;अपनी मनमर्जी चला रहे हैं.चूँकि कोर्ट और चुनाव आयोग के आदेशों की अवहेलना करने पर तत्काल दंडित होने का भय होता है इसलिए तब नौकरशाही सुस्ती के बजाए चुस्ती बरतती है.
मित्रों,अफसरशाही में कैसे भय का संचार हो यह निर्धारित करना नीतीश कुमार जी का काम है.जनता ने उन्हें अपार बहुमत के साथ राजदंड सौंपा है.इसका कैसे सदुपयोग करना है इसका निर्णय तो उन्हें खुद ही लेना है.नौकरशाही अगर शेर है तो नीतीश कुमार रिंग मास्टर है.अगर रिंग मास्टर शेर के आगे लाचारी दिखाएगा तो या तो उसकी जान ही चली जाएगी और अगर बच भी गयी तो नौकरी तो जाएगी ही.इसलिए मनमोहन सिंह की तरह नीतीश जी विधवा-विलाप बंद करें और शासन में कठोरता लाएँ.नौकरशाही जहाँ भी सुस्ती बरते उस पर शीघ्रतापूर्वक अनुशासनात्मक कार्रवाई करें और कठोरतापूर्वक केवल गुण-दोष के आधार पर पूरी तरह से निष्पक्ष होकर दण्डित करें.जनता को उनका रोदन नहीं बल्कि सिंह-गर्जना चाहिए जिसे सुनकर भ्रष्ट-से-भ्रष्ट और आलसी-से-आलसी अधिकारी-कर्मचारी भी भयभीत हो जाएँ, सुधर जाएँ और कार्यशील हो जाएँ.उन्हें चाहिए कि जब भी वे किसी नौकरशाह को कोई आदेश दें तो अनुपालन के लिए एक समय-सीमा निर्धारित कर दें और अगर उस निश्चित समय-सीमा में आदेश का पालन नहीं हो पाता है तो सम्बंधित व्यक्तियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई करें,चुनाव आयोग और न्यायालय भी तो यही करते हैं.हो सके तो ऐसा करने का अधिकार प्राप्त करने के लिए नया कानून भी बनाया जाए.
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