मित्रों, श्याम बेनेगल हमारे देश का एक ऐसा नाम है जिसके कान में पड़ते ही हमारे दिमाग में एक ऐसे क्रान्तिकारी संस्कृतिकर्मी की छवि बनने लगती है जिसने भारतीय सिनेमा की दशा और दिशा को ही बदल कर रख दिया. अंकुर, निशांत, मंथन, भूमिका, देव जैसी दर्जनों फ़िल्में उनकी अद्भुत और बेजोड़ रचनात्मकता की गवाही देते से प्रतीत होते हैं. श्याम बाबू उन गिने-चुने भारतीय फिल्मकारों में से हैं जो सिर्फ पैसा कमाने के लिए फ़िल्में नहीं बनाते बल्कि समाज को सार्थक सन्देश देने के लिए भी फिल्मों का निर्माण करते हैं.
मित्रों, समाज अगर कुमार्ग पर अग्रसर हो तो उसका विरोध प्रत्येक समकालीन प्रबुद्ध व्यक्ति का धर्म बन जाता है और उसको उसे सही दिशा में अग्रसारित करने का भागीरथ प्रयास करना ही चाहिए. परन्तु हमारे श्याम बाबू पर ७७ साल की पकी उम्र में इन दिनों कुछ ज्यादा ही क्रान्तिकारी दिखने का जूनून सवार हो गया है. जनाब निरा भोगवाद और उपभोक्तावाद की उपज समलैंगिकता के प्रबल समर्थक बनकर देश के समक्ष आ खड़े हुए हैं. श्रीमान का मानना है कि भारतीय दंड संहिता की धारा ३७७ को समाप्त कर देना चाहिए जिससे भारतीय समाज में समलैंगिकता को वैधानिक दर्जा प्राप्त हो सके. अब यह तो श्याम बाबू को ही बेहतर पता होता कि मानव-देह की प्रकृति के विरूद्ध एक नवाचार प्रचलित करके वे समाज को कौन-से सन्मार्ग पर ले जाना चाहते हैं. हो सकता है कि वे खुद भी समलैंगिक हों हालाँकि उन्होंने इसकी कभी स्पष्ट घोषणा नहीं की है. लेकिन अगर वे समलैंगिक नहीं हैं तो फिर और दूसरा कौन-सा कारण हो सकता है उनके द्वारा समलैंगिकता का खुला समर्थन करने के पीछे? मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा है और आने वाला है भी नहीं जब तक वे स्वयं आगे आकर स्थिति को स्पष्ट नहीं कर देते.
मित्रों, मैं अपने पहले के आलेखों में भी लिख चुका हूँ कि चूंकि समलैंगिक आचरण प्रजनन की दृष्टि से अनुत्पादक और प्रकृति के नियमों के विरूद्ध है इसलिए निषिद्ध कर्म है और इसे निषिद्ध कर्मों की श्रेणी में ही रहने देना चाहिए तथापि हमारी केंद्र सरकार इस एड्स प्रसारक प्रवृत्ति को बढ़ावा देने और कानूनी मान्यता देने को उतावली हुई जा रही है. पता नहीं क्यों; क्योंकि खुद उसके द्वारा सुप्रीम कोर्ट में पेश आंकड़े ही बता रहे हैं कि देश में समलैंगिकों की आबादी काफी कम है, आटे में नमक जितना से भी कम इसलिए वे निर्णायक वोटबैंक बनने से तो रहे. हाँ, अगर सोनिया गाँधी भारतीय संस्कृति को इटालियन संस्कृति में कायांतरित करना चाहती हों तो बात दूसरी है. वैसे उनसे पहले उनके कई सांस्कृतिक पूर्वज कैनिंग, मैकाले आदि भी भारतीय सस्कृति को विकृत करने का असफल प्रयास करके अपने गौड को प्यारे हो चुके हैं. आप भी करिए; स्वप्न देखने और कोशिश करने में क्या जाता है? आपको भी श्याम बेनेगल जैसे और भी जरखरीद गुलाम मिल जाएँगे जो पद और प्रतिष्ठा के लालच में आपके जैसा आचरण करना तो क्या आपकी तरह सोंचने को भी तैयार हो जाएँगे और फिर भी देशवासियों के बीच कथित क्रान्तिकारी कहे जाएँगे.
मित्रों, मैं श्याम बेनेगल जी से विनती करना चाहूँगा कि और भी सामाजिक मुद्दे हैं भारत में. अपने चारों तरफ सिर घुमाकर तो देखिए भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, निर्धनता, जनसंख्या-विस्फोट, मादक पदार्थों का दुरुपयोग, बालश्रम, विकलांगता, कालाधन, भिक्षावृत्ति, वृद्धावस्था, जनस्वास्थ्य, आत्महत्या, मानसिक रोग, बाल अपराध, एड्स, दहेज़-प्रथा, मानवाधिकार-हनन, खाद्य-सुरक्षा और कुपोषण, जातीयता, साम्प्रदायिकता और छद्म धर्मनिरपेक्षता, जनजातीय समस्याएँ, आतंकवाद और उग्रवाद, शिक्षा की दुर्गति, पर्यावरण-विनाश, आवास की कमी, मानव-व्यापार और देह-व्यापार, महंगाई जैसी अनगिनत ऐसी सामाजिक समस्याएँ हैं जिनसे देश की जनता को रोजाना रूबरू होना पड़ता है. कृपया अपनी राज्यसभा सदस्यता का लाभ उठाईये और इन मुद्दों की ओर केंद्र सरकार का ध्यान आकर्षित कीजिए. याद रखिए सिर्फ समाज का अंधा विरोध करना क्रांतिकारिता नहीं है बल्कि समाज को सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना क्रांतिकारिता है और अगर किसी मुद्दे पर समाज पहले से ही सही रास्ते पर चल रहा हो तो उसे प्रोत्साहित करना भी क्रांतिकारिता है न कि उसे अपने निजी हित के लिए जानबूझ कर पथभ्रष्ट कर देना.
मित्रों, समाज अगर कुमार्ग पर अग्रसर हो तो उसका विरोध प्रत्येक समकालीन प्रबुद्ध व्यक्ति का धर्म बन जाता है और उसको उसे सही दिशा में अग्रसारित करने का भागीरथ प्रयास करना ही चाहिए. परन्तु हमारे श्याम बाबू पर ७७ साल की पकी उम्र में इन दिनों कुछ ज्यादा ही क्रान्तिकारी दिखने का जूनून सवार हो गया है. जनाब निरा भोगवाद और उपभोक्तावाद की उपज समलैंगिकता के प्रबल समर्थक बनकर देश के समक्ष आ खड़े हुए हैं. श्रीमान का मानना है कि भारतीय दंड संहिता की धारा ३७७ को समाप्त कर देना चाहिए जिससे भारतीय समाज में समलैंगिकता को वैधानिक दर्जा प्राप्त हो सके. अब यह तो श्याम बाबू को ही बेहतर पता होता कि मानव-देह की प्रकृति के विरूद्ध एक नवाचार प्रचलित करके वे समाज को कौन-से सन्मार्ग पर ले जाना चाहते हैं. हो सकता है कि वे खुद भी समलैंगिक हों हालाँकि उन्होंने इसकी कभी स्पष्ट घोषणा नहीं की है. लेकिन अगर वे समलैंगिक नहीं हैं तो फिर और दूसरा कौन-सा कारण हो सकता है उनके द्वारा समलैंगिकता का खुला समर्थन करने के पीछे? मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा है और आने वाला है भी नहीं जब तक वे स्वयं आगे आकर स्थिति को स्पष्ट नहीं कर देते.
मित्रों, मैं अपने पहले के आलेखों में भी लिख चुका हूँ कि चूंकि समलैंगिक आचरण प्रजनन की दृष्टि से अनुत्पादक और प्रकृति के नियमों के विरूद्ध है इसलिए निषिद्ध कर्म है और इसे निषिद्ध कर्मों की श्रेणी में ही रहने देना चाहिए तथापि हमारी केंद्र सरकार इस एड्स प्रसारक प्रवृत्ति को बढ़ावा देने और कानूनी मान्यता देने को उतावली हुई जा रही है. पता नहीं क्यों; क्योंकि खुद उसके द्वारा सुप्रीम कोर्ट में पेश आंकड़े ही बता रहे हैं कि देश में समलैंगिकों की आबादी काफी कम है, आटे में नमक जितना से भी कम इसलिए वे निर्णायक वोटबैंक बनने से तो रहे. हाँ, अगर सोनिया गाँधी भारतीय संस्कृति को इटालियन संस्कृति में कायांतरित करना चाहती हों तो बात दूसरी है. वैसे उनसे पहले उनके कई सांस्कृतिक पूर्वज कैनिंग, मैकाले आदि भी भारतीय सस्कृति को विकृत करने का असफल प्रयास करके अपने गौड को प्यारे हो चुके हैं. आप भी करिए; स्वप्न देखने और कोशिश करने में क्या जाता है? आपको भी श्याम बेनेगल जैसे और भी जरखरीद गुलाम मिल जाएँगे जो पद और प्रतिष्ठा के लालच में आपके जैसा आचरण करना तो क्या आपकी तरह सोंचने को भी तैयार हो जाएँगे और फिर भी देशवासियों के बीच कथित क्रान्तिकारी कहे जाएँगे.
मित्रों, मैं श्याम बेनेगल जी से विनती करना चाहूँगा कि और भी सामाजिक मुद्दे हैं भारत में. अपने चारों तरफ सिर घुमाकर तो देखिए भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, निर्धनता, जनसंख्या-विस्फोट, मादक पदार्थों का दुरुपयोग, बालश्रम, विकलांगता, कालाधन, भिक्षावृत्ति, वृद्धावस्था, जनस्वास्थ्य, आत्महत्या, मानसिक रोग, बाल अपराध, एड्स, दहेज़-प्रथा, मानवाधिकार-हनन, खाद्य-सुरक्षा और कुपोषण, जातीयता, साम्प्रदायिकता और छद्म धर्मनिरपेक्षता, जनजातीय समस्याएँ, आतंकवाद और उग्रवाद, शिक्षा की दुर्गति, पर्यावरण-विनाश, आवास की कमी, मानव-व्यापार और देह-व्यापार, महंगाई जैसी अनगिनत ऐसी सामाजिक समस्याएँ हैं जिनसे देश की जनता को रोजाना रूबरू होना पड़ता है. कृपया अपनी राज्यसभा सदस्यता का लाभ उठाईये और इन मुद्दों की ओर केंद्र सरकार का ध्यान आकर्षित कीजिए. याद रखिए सिर्फ समाज का अंधा विरोध करना क्रांतिकारिता नहीं है बल्कि समाज को सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना क्रांतिकारिता है और अगर किसी मुद्दे पर समाज पहले से ही सही रास्ते पर चल रहा हो तो उसे प्रोत्साहित करना भी क्रांतिकारिता है न कि उसे अपने निजी हित के लिए जानबूझ कर पथभ्रष्ट कर देना.
1 टिप्पणी:
आप को आदत नही है कोमेण्ट का जवाद देने की । आप पठकों को अपने साथ जोड नही पा रहे हो । जेजेमें भी आप ऐसा ही करते है ।
बुध्धिजीवीयों का ब्रेइनवोश कर दिया गया है । भारत खंड का सामाजिग ढांचा गिरा देना है । और कोइ बात नही ।
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