बजट में समस्याएँ हैं समाधान नहीं
मित्रों,क्या विडंबना है कि जिस भारत से दुनियाभर के लोग घनघोर वैश्विक मंदी में विकास का ईंजन बनने की उम्मीद लगा रहे थे उसकी अर्थव्यवस्था आज स्वयं मंदी के दलदल में जा फँसी है। जब वित्त मंत्री पी.चिदम्बरम बजट पेश करने जा रहे थे तो दुनियाभर के अर्थव्यवस्था-विशेषज्ञों की निगाहें इस बात पर लगी थीं कि मंदी से जूझ रही भारतीय अर्थव्यवस्था में विद्यमान चार महती समस्याओं को दूर करने के लिए वे कौन-कौन से कदम उठाने जा रहे हैं। वे चार समस्याएँ थीं-कमरतोड़ महंगाई,राजकोषीय घाटा,खतरनाक स्तर तक बढ़ता भुगतान-असंतुलन और लगातार गोतें खाता विकास-दर। दोस्तों हम बारी-बारी से इन चारों समस्याओं को केंद्र में रखते हुए ही 2013-14 के बजट की समीक्षा करेंगे।
मित्रों,गलत आर्थिक नीतियों का दुष्परिणाम कहिए या जानबूझकर पूरे होशोहवाश में की गई गलती; सरकार ने जनता का घरेलू बजट तो पहले से ही बिगाड़ रखा है। महंगाई लंबे समय से अपनी पूरी जवानी पर है लेकिन बजट में महंगाई कम करने के लिए कोई रणनीति नहीं है। लगता है कि जैसे हमारी केन्द्र सरकार ने आतंकी हमलों को नियति मानते हुए तहेदिल से स्वीकार कर लिया है वैसे ही महंगाई को भी उसने अवश्यम्भावी मान लिया है लेकिन वह यह भूल गई है कि ऊँचे ब्याज-दर ने कर्ज को महंगा बना दिया हे जिसका असर निवेश और विकास-दर पर भी पड़ रहा है। जब तक महंगाई नहीं घटेगी,ब्याज-दर भी नहीं घटेगा और सोना सर्वाधिक रिटर्न देनेवाला निवेश बना रहेगा। ब्याज-दर नहीं घटेगा तो निवेश नहीं बढ़ेगा और निवेश नहीं बढ़ेगा तो न तो उत्पादन ही बढ़ेगा,न तो आपूर्ति ही बढ़ेगी और न तो रोजगार ही जिससे मांग भी नहीं बढ़ेगी। वैसे भी तेज महंगाई-दर के कारण यूँ ही मांग में कमी आ गई है और मांग नहीं बढ़ेगी तो निवेशकों को अपने निवेश पर रिटर्न नहीं मिलेगा। कुल मिलाकर केंद्र सरकार की मूर्खता के कारण इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था एक गंभीर दुष्चक्र में फँसी हुई है।
मित्रों,इस समय देश के समक्ष सबसे बड़ी समस्या चालू खाते में भुगतान संतुलन की है। आज इस संदर्भ में हमारी स्थिति 1991 से भी ज्यादा खराब है। हमारी अर्थव्यवस्था अर्दब (कुश्ती का एक ऐसा दाँब जिसका कोई तोड़ नहीं है) में फँस गई है। जहाँ 1991 में सरकार सोना के विदेश जाने (गिरवी पड़ने) से परेशान थी अब उसके देश में आने से परेशान है। सोना देश में आ रहा है और बदले में डॉलर देश से बाहर जा रहा है। तेल आयात तो आवश्यक आवश्यकता है उसे तो रोक नहीं सकते और सरकार लाख कोशिशों के बाबजूद देश में सोने के आयात को हतोत्साहित नहीं कर पा रही है। 1991ई. में तो वैश्विक अर्थव्यवस्था की स्थिति इंद्रधनुषी थी जिसने भारत की गिरती अर्थव्यवस्था को कुछ कीमत चुकाने के बाद सहारा दे दिया था मगर आज तो यूरोप और अमेरिका खुद ही परेशान हैं और भारत की ओर ही उम्मीद भरी नजरों से देख रहा है। ऐसे में अगर भारत दिवालिया होता है तो शायद इस समय उसको कोई सांत्वना देनेवाला कंधा भी नहीं मिलेगा।
मित्रों,भारत के सबसे बड़े अर्थशास्त्रियों में से एक हमारे वित्त-मंत्री पी.चिदंबरम ने भी भुगतान संतुलन को ठीक करने में अपनी असमर्थता ही दिखाई है। उनका मानना है कि जब तक हमारा निर्यात नहीं बढ़ता हम इस दिशा में सिवाय अपना जनाजा निकलते देखने के कुछ भी नहीं कर सकते। जाहिर है कि सरकार निर्यात के लिए नए बाजार नहीं तलाश पाई है। ज्यादा समय नहीं गुजरा जब हमारी केंद्र सरकार बढ़ते विदेशी मुद्रा भंडार से परेशान थी। अगर हमने भी चीन की तरह विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाना जारी रखा होता तो शायद हमारी स्थिति भुगतान-संतुलन के क्षेत्र में इतनी बुरी नहीं होती जितनी कि आज है। जाहिर है कि इस मामले में हमारे नीति-नियंताओं से गंभीर गलती हुई है।
मित्रों,देश के समक्ष तीसरी सबसे बड़ी समस्या थी राजकोषीय घाटे को कम करने की तो इसको हमारी सरकार ने सरकारी योजना-व्यय में कमी करके और विनिवेश द्वारा साध लिया है। एक तरफ जहाँ देश में बेरोजगारी खतरनाक शक्ल अख्तियार कर रही है वहीं दूसरी तरफ सरकार सरकारी खर्चे में कटौती कर रही है जाहिर है कि इससे यह समस्या और बढ़ेगी और अगर सबकुछ ऐसे ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब दुनिया का सबसे युवा मुल्क होना भारत के लिए वरदान के बदले अभिशाप में बदल जाएगा।
मित्रों,इस चालू वित्तीय-वर्ष 2012-13 में राजकोषीय घाटे को पाटने की कवायद का सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है रक्षा पर होने वाले खर्च को। वह भी ऐसे समय में जबकि हमारे पड़ोसी चीन और पाकिस्तान इस क्षेत्र में अंधाधुंध व्यय कर रहे हैं। जाहिर है कि हमारी सरकार को देश की सुरक्षा की भी चिंता नहीं है। अगर होती तो भारत आज विश्व का सबसे बड़ा हथियार-आयातक नहीं होता बल्कि सबसे बड़ा हथियार-उत्पादक होता।
मित्रों,अभी परसों ही जब वित्त-मंत्री बजट प्रस्तुत कर रहे थे तभी यह खबर आई कि हमारी जीडीपी ने एक बार फिर गोता खाया है। अक्टूबर-दिसंबर में जीडीपी में वृद्धि मात्र 4.5 प्रतिशत की रही। अभी फरवरी के पहले सप्ताह में जब सीएसओ ने विकास-दर के 5 फीसदी रहने का ताजा अनुमान लगाया था तब वित्त मंत्री को यह बात नागवार गुजरी थी। उन्होंने इस आँकड़े को एक तरह से गलत करार देते हुए दावा किया था कि अर्थव्यवस्था 5.5% की दर से बढ़ेगी। गुरूवार को जारी ताजा आँकड़ों ने उनके इस दावे की हवा ही निकाल दी है। बदले हुए माहौल में वित्त मंत्री का बजट में 5% विकास-दर का अनुमान भी संशय के घेरे में आ गया है। वित्त मंत्री का यह मानना तो है कि देश के समक्ष तेज जीडीपी विकास-दर का कोई विकल्प नहीं है लेकिन उन्होंने बजट में इसका कोई मार्ग नहीं सुझाया है कि ऐसा होगा कैसे? माना कि दुनिया में चीन और इंडोनेशिया के अलावा इस समय ऐसा कोई देश नहीं है जो भारत की तरह 5% की विकास-दर से आगे बढ़ रहा हो लेकिन इससे 5% की विकास-दर तेज की श्रेणी में तो नहीं आ जाएगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर जीडीपी और गोतें खाता है तो हमारी 2% वार्षिक की गति से बढ़ती जनसंख्या के मद्देनजर हमारी प्रति व्यक्ति आय में भी गिरावट आने लगेगी जो किसी भी दृष्टिकोण से अच्छा नहीं होगा।
मित्रों,कुल मिलाकर 2013-14 का केंद्रीय बजट दिशाहीन और यथास्थितिवादी है। काले धन पर सरकार ने कुछ नहीं कहा है। सरकार ने इसमें विदेशी निवेश लाने की बात तो की है जो 20-25 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा नहीं होनेवाली वहीं उसके पास भारतीय उद्योगपतियों के पास जमा दसियों लाख करोड़ की फाजिल रकम के निवेश से संबंधित कोई योजना नहीं है। इस बजट में समस्याएँ तो गिनाई गईं हैं लेकिन समाधान गायब है। साहित्यिक भाषा में कहें तो यह बिना ईंजन की गाड़ी के समान है। वित्त मंत्री ने बजट में मौजूदा आर्थिक समस्याओं का कोई हल नहीं सुझाया है और सबकुछ भगवान भरोसे या परिस्थितियों पर छोड़ दिया है। हालाँकि करोड़पतियों पर अतिरिक्त कर लगाया गया है लेकिन उनकी संख्या मात्र 42 हजार होना खुद ही हमारी कर-व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह है। जाहिर है कि सरकार करोड़पतियों द्वारा की जा रही करचोरी को पकड़ नहीं पा रही है और बेबश है। कुल मिलाकर बेलगाम महंगाई इस साल भी बेलगाम ही रहनेवाली है,भुगतान-संतुलन की स्थिति और भी खराब होनेवाली है और जीडीपी गुड़गुड़ गोते खाते रहने वाली है। होना तो यह चाहिए था कि वित्त मंत्री न्यू-डील जैसी कोई वृहत निर्माणकारी योजना पेश करते जिसमें सिंचाई,हाईडल प्रोजेक्ट,नई रेल लाईनें,बड़े पैमाने पर सड़क निर्माण,बंदरगाह निर्माण और वृहत ऊर्जा (नवीकरणीय सहित) परियोजनाएँ शामिल होतीं। वर्ष 1929 में अमेरिका की भी यही स्थिति थी। वहाँ भी मुद्रा-स्फीति काफी ज्यादा थी, बेरोजगारी खतरनाक स्तर पर पहुँच रही थी और जीडीपी गोते खा रही थी तब वहाँ के तत्कालीन राष्ट्रपति फैंकलिन डिलानो रूजवेल्ट ने न्यू-डील के माध्यम से वृहत और दैत्याकार निर्माण योजनाओं का संचालन कर अमेरिका को मंदी के चक्रव्यूह से बाहर निकाला था परन्तु पी.चिदंबरम ने तो जैसे परिस्थितियों के आगे घुटने ही टेक दिए हैं। कहने को तो बुनियादी ढाँचे पर व्यय को बढ़ाया गया है लेकिन इतनी छोटी वृद्धि से दैत्याकार भारतीय अर्थव्यवस्था का कोई भला नहीं होने वाला।
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