शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013
फिर से 62?
मित्रों,हम भारतीयों की यह सन् 47 की ही आदत है कि हम इतिहास से सबक नहीं लेते और उसे बार-बार अपने-आपको दोहराने का मौका देते रहते हैं। चाहे पाकिस्तान का मुद्दा हो या आतंकवाद का या फिर कांग्रेस को सत्ता में लाने का,क्या सरकार और क्या जनता दोनों ने ही कभी इतिहास से सबक नहीं लिया। पाकिस्तान बार-बार हमारी पीठ में छुरा भोंकता रहता है फिर भी हम उसको गले लगाने के लिए हमेशा बेताब बने रहते हैं,आतंकी हमले होते रहते हैं परन्तु हम कोई एहतियाती उपाय नहीं करते और निश्चिंत होकर फिर से अगले हमले के इंतजार में लग जाते हैं। इसी तरह कांग्रेस पार्टी जब भी केंद्र में सत्ता में आती है दोनों हाथों से देश को लूटने,लुटाने,खाने और बेचने में लग जाती है फिर भी हम उसी को वोट देकर बार-बार देश को लूटने,लुटाने,खाने और बेचने का अवसर देते रहते हैं। अब तो विकीलिक्स के खुलासों से भी साबित हो चुका है कि नेहरू-गांधी परिवार शुरू से ही दलालों और देशद्रोहियों का परिवार रहा है।
गुरुवार, 11 अप्रैल 2013
गरीब सवर्णों को भी मिले आरक्षण
मित्रों,मैं अपने बहुत पहले लिखे एक आलेख गरीबी जाति नहीं देखती जनाब में इस विषय पर विस्तार से विचार कर चुका हूँ कि भारत में गरीबी सर्वव्यापी है। अगर एक चमार गरीब है तो एक राजपूत भी गरीब है अर्थात् न तो गरीबों की कोई खास जाति होती है और न ही गरीबी की ही।
मित्रों,पिछले दो दशकों से भारत में और बिहार में भी सरकारी नौकरियों में 50 % आरक्षण लागू है। अगर बैकलॉग हुआ तो नियुक्ति विशेष में आरक्षण इससे ज्यादा भी हो सकता है। इतना ही नहीं आजकल अनारक्षित सीटों पर भी बड़ी संख्या में, बिहार में तो आधी से भी ज्यादा पर पिछड़े और दलित वर्गों के उम्मीदवार ही काबिज हो जाते हैं। अब आप ही बताईए कि जो अवर्ण उम्मीदवार सवर्ण उम्मीदवारों से भी ज्यादा मेधावी,योग्य और सक्षम हैं उनको आरक्षण की आवश्यकता ही क्या है?
मित्रों,बाद में बिहार सरकार ने ग्राम-पंचायतों में भी अति-पिछड़ी और दलित जातियों को आरक्षण दे दिया जिससे बहुत से पंचायतों में लोकतंत्र के लिए हास्यास्पद स्थिति पैदा हो गई है। जैसा कि आप सभी भी जानते हैं कि लोकतंत्र संख्या-बल पर चलता है परन्तु बिहार में आपको ऐसे पंचायत भी मिल जाएंगे जहाँ दो-चार घर ही हरिजन हैं फिर भी वे ही पंचायत के मुखिया,सरपंच आदि सबकुछ हैं। यह लोकतंत्र और बहुमत के सिद्धांतों के साथ मजाक नहीं है तो और क्या है? इसलिए मैं बिहार सरकार से मांग करता हूँ कि वो जातीय आधार पर पंचायतों में लागू अतार्किक आरक्षण को समाप्त करे,लिंग आधारित आरक्षण को वो चाहे तो जारी रख सकती है। हाँ,अगर पंचायतों में भी आर्थिक आधार पर आरक्षण करना हो तो ऐसा जरूर किया जा सकता है।
मित्रों,कदाचित् हमारे राजनेताओं द्वारा ऐसा मान लिया गया है कि सिर्फ पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों-जनजातियों में ही गरीबी है। हालाँकि बीपीएल सूची चीख-चीख कर यह सच्चाई बयान कर रही है कि बिहार के कम-से-कम 90 % सवर्ण भी गरीब हैं। फिर क्यों नहीं मिलना चाहिए सवर्णों को भी आरक्षण का लाभ?
मित्रों,जब बिहार में 2010 में विधानसभा चुनाव प्रचार चल रहा था तब सत्ता और विपक्ष दोनों ही से संबंधित दलों ने एकस्वर में गरीब सवर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का वादा किया था। चुनावों में सवर्णों ने एकजुट होकर अपना विश्वास एकबार फिर से राजग के प्रति व्यक्त किया। सुशासनी सरकार ने चुनावों के बाद इस मुद्दे पर विचार करने के लिए एक लॉलीपॉपी या झुनझुना सदृश सवर्ण आयोग का गठन भी किया। परन्तु अब दो साल से ज्यादा वक्त गुजरने के बाद भी इस दिशा में कोई खास प्रगति होती दिख नहीं रही है जिससे बिहार की सवर्ण जातियों में राजग के प्रति गुस्सा दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। पिछले दो सालों में आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों ने सिर्फ नौ जिलों वैशाली, लखीसराय, मुंगेर, भागलपुर, खगडिय़ा, बेगूसराय, जहानाबाद, अरवल और भोजपुर का दौरा किया है। वहीं, उपाध्यक्ष श्रीकृष्ण प्रसाद सिंह ने इन जिलों के अलावा सुपौल, सहरसा, समस्तीपुर, दरभंगा और मधुबनी जिलों का दौरा किया है। पांच सदस्यीय आयोग में अध्यक्ष दिनेश कुमार त्रिवेदी को वेतन मद में 1.14 लाख, उपाध्यक्ष श्रीकृष्ण प्रसाद सिंह को 1.20 लाख रुपए मिलते हैं। जबकि सदस्य नरेंद्र कुमार सिंह, मो.अब्बास उर्फ फरहत, संजय प्रकाश मयूख को 1.34 लाख रुपए वेतन के रूप में प्रतिमाह भुगतान होता है। आयोग के लिए राज्य सरकार अब तक 1.78 करोड़ रुपए का अनुदान दे चुकी है। वर्ष 2011-12 में 1.40 करोड़ और वर्ष 2012-13 में 38.29 लाख रुपए। इन पैसों से आयोग के सदस्यों के वेतन भुगतान व अन्य कार्य हो रहे हैं। इसके अलावा आयोग के लिए राज्य सरकार अन्य सुविधाएं भी मुहैया करवाती है। इनमें सरकारी वाहन आदि शामिल हैं।
मित्रों,हाल ही में जदयू के जन्मना ब्राह्मण और बड़बोले नेता शिवानंद तिवारी ने आदतन बकवास करते हुए कहा है कि बिहार के सवर्णों को आरक्षण देने की कोई जरुरत नहीं है। बल्कि बिहार के सवर्णों को इस बात से ही संतोष कर लेना चाहिए कि राज्य का विकास हो रहा है। दीगर है कि श्री तिवारी ने कभी जीवन में सवर्णों की राजनीति की ही नहीं है बल्कि वे हमेशा पिछड़ों की राजनीति करते रहे हैं इसलिए उनके लिए यह स्वाभाविक है कि वे वंश की कुल्हाड़ी की तरह व्यवहार करें और अपनी ही जाति ब्राह्मणों सहित सवर्णों को शेष जीवनपर्यन्त क्षति पहुँचाते रहें। मैं शिवानंद जी और उनकी तरह की सोंच रखनेवाले दुर्लभ स्वार्थी नेताओं से जानना चाहता हूँ कि जब सामाजिक रूप से पिछड़ों (आर्थिक रूप से नहीं) को आरक्षण देने का सवाल देश के सामने था तब तो देश की समस्त जनता को संसाधनों पर समान अधिकार और उनके समान बँटवारे का तर्क दिया जा रहा था तो क्या गरीब सवर्ण विदेशी हैं? क्यों उनको देश के संसाधनों पर समान अधिकार और समान अवसर नहीं दिया जाना चाहिए? उनको यह भी बताना चाहिए कि कैसे राज्य का विकास-दर ऊँचा रहने से गरीब सवर्ण स्वतः लाभान्वित हो जा रहे हैं और कैसे पिछड़ी और दलित जातियों के लोग स्वतः लाभान्वित नहीं हो पा रहे हैं। आज मेरे गाँव वैशाली जिले के जुड़ावनपुर बरारी में मेरे सगे चाचा सहित 90 % राजपूतों की आर्थिक हालत पिछड़ी जातियों के पड़ोसियों से भी ज्यादा खराब है। उनकी ही तरह वे भी सरकारी गेहूँ-चावल खाकर दिन काट रहे हैं। उनके बच्चे भी भुखमरी के चलते अपनी स्कूली शिक्षा तक पूरी नहीं कर पाए। वे भी अपनी लड़कियों की शादी में कुछ हजार रुपए तक भी व्यय नहीं कर सकते। फिर उनकी हालत,उनकी फटेहाली,उनके बच्चों की अधूरी शिक्षा,उनकी भूख,उनकी गरीबी,उनकी बेबसी,उनका कुपोषण,उनका दर्द हमारे पिछड़े और दलित पड़ोसियों से अलग कैसे है? और जब अलग नहीं है तो फिर क्यों उनको और उनके बच्चों की आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए?
मित्रों,एक बात और जैसा कि हम जानते हैं कि माननीय उच्चतम न्यायालय के आदेश से पिछड़ी जातियों में क्रीमी लेयर का नियम लागू है। मैं मानता हूँ कि इसे गरीब सवर्णों को मिलनेवाले आरक्षणों में भी लागू किया जाना चाहिए और वो भी वास्तविक रूप में न कि सिर्फ कागजों पर जैसा कि अभी हो रहा है। खाते-पीते घरों के जन्मना पिछड़ी जातियों के बच्चे भी गलत आय-प्रमाण पत्र देकर अभी जो आरक्षण का लाभ ले ले रहे हैं इसे बंद करना होगा। मैं समझता हूँ कि संसद आरक्षण के नियमों में संशोधन करे और एक परिवार के सदस्यों को सिर्फ एक बार ही आरक्षण का लाभ दिए जाने का प्रावधान करे तो बेहतर होता क्योंकि ऐसा होने से अवसर से वंचितों वास्तविक लोगों को भी आरक्षण का लाभ प्राप्त हो पाता।
शनिवार, 6 अप्रैल 2013
भारत पाकिस्तान से क्या सीख सकता है?
मित्रों,क्या आप शीर्षक देखकर हैरान हो रहे हैं? कहीं आप यह तो नहीं सोंच रहे कि पाकिस्तान तो हमारा चिरशत्रु देश है फिर उससे सीखना कैसा और वह हमें सिखा ही क्या सकता है? अगर ऐसा है तो फिर आप भूल रहे हैं कि रावण जब युद्ध-भूमि में घायल होकर मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था तब राम ने लक्ष्मण को उससे शिक्षा लेने के लिए भेजा था। बेशक आज के पाकिस्तान में रोजाना बहुत-कुछ ऐसा सकारात्मक घट रहा है जिससे हम भारतीय बहुत-कुछ सीख सकते हैं।
मित्रों,क्या आपने कभी अपने देश भारत में इस बात की कल्पना की है कि प्रधानमंत्री को सुप्रीम कोर्ट आदेश न मानने पर पद के अयोग्य घोषित कर दे? नहीं न, लेकिन पाकिस्तान में ऐसा हो चुका है। जहाँ हमारे भारत के अब तक के सबसे बेकार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आये दिन न्यायपालिका को अपने दायरे में रहने की चेतावनी देते रहते हैं लेकिन खुद स्थितियों के सुधारने की दिशा में कोई सार्थक कदम नहीं उठाते वहीं पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी को उच्चतम न्यायालय की अवमानना के अपराध के चलते 19 जून,2012 को अपने पद से हाथ धोना पड़ा। जाहिर है पाकिस्तान की न्यायपालिका को भारत की न्यायपालिका की तुलना में ज्यादा व्यापक अधिकार दिए गए हैं। पाकिस्तान की न्यायपालिका किसी भी मुद्दे पर स्वतः संज्ञान ले सकती है।
मित्रों,पाकिस्तान के संविधान में यह प्रावधान किया गया है कि आम चुनाव के समय वहाँ का चुनाव आयोग किसी निष्पक्ष और योग्य व्यक्ति को कार्यवाहक प्रधानमंत्री नियुक्त करता है। इन्हीं प्रावधानों के तहत इन दिनों ईमानदारी के लिए प्रसिद्ध सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मीर हाजरखान खोसो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री हैं। वे अगले नियमित प्रधानमंत्री के चुने जाने तक इस पद पर रहेंगे। इतना ही नहीं पाकिस्तानी अखबार डेली टाइम्स और पत्रिका फ्राइडे टाइम्स के प्रधान संपादक एवं प्रकाशक नजम सेठी इन दिनों पाकिस्तानी पंजाब प्रांत के कार्यवाहक मुख्यमंत्री हैं। है न यह लाजवाब व्यवस्था? न तो चुनावी धांधली का भय और न ही सरकारी तंत्र के दुरूपयोग की आशंका ही,मतपेटियों में से जिन के निकलने का तो सवाल ही नहीं। सोंचिए अगर भारत में भी ऐसी व्यवस्था होती तो कुछ दिन के लिए ही सही हम भारतीयों को भी चुनावी जोड़-तोड़ से दूर रहनेवाले अच्छे शासन में रहने का मौका मिल जाता।
मित्रों,यह तो आप समझ ही गए होंगे कि पाकिस्तान में चुनाव आयोग हमारे चुनाव आयोग से कहीं ज्यादा शक्तिशाली है। जहाँ हमारा चुनाव आयोग छोटे-मोटे चुनाव-सुधार के लिए सरकार और संसद का मुँहतका बना रहता है वहीं पाकिस्तानी चुनाव आयोग ने अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए मतदाताओं को 11 मई को होनेवाले चुनाव में उम्मीदवारों को नकार देने का अधिकार प्रदान कर दिया है। इन चुनावों में अगर किसी निर्वाचन क्षेत्र के 51 प्रतिशत मतदाता इस विकल्प पर मतदान करते हैं तो उस निर्वाचन क्षेत्र में दोबारा मतदान करवाया जाएगा।
मित्रों,कहते हैं कि अच्छी चीजें जहाँ से मिले सीखनी चाहिए इसलिए अगर हम पाकिस्तान से शिक्षा लेकर अपने संविधान में सकारात्मक परिवर्तन करें तो इसमें कुछ भी बुरा नहीं। भारत में संसदीय लोकतंत्र पर से जनता का विश्वास तेजी से उठता जा रहा है इसलिए ऐसा करना और भी आवश्यक है। भारत में भी जनता को राईट टू रिजेक्ट का अधिकार तो मिले ही न्यायपालिका और चुनाव आयोग को भी पाकिस्तान की तरह शक्तिशाली बनाया जाना चाहिए। हमारे संविधान-निर्माताओं ने संसद को सर्वशक्तिमान बना देने की जो भूल की थी उसके दुष्परिणाम अब सामने आने लगे हैं। अगर संसद के अधिकारों में कुछ कटौती कर देने से तंत्र और व्यवस्था में सुधार आ सकता है तो ऐसा जरूर किया जाना चाहिए। इतना ही नहीं पाकिस्तान और बांग्लादेश की तरह हमारे देश में भी चुनावों के समय निष्पक्ष कार्यवाहक प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री नियुक्त करने की परंपरा को लागू करना चाहिए।
शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013
पवार को हजारों करोड़ जनता को महँगी चीनी
मित्रों,यूँ तो वर्तमान केन्द्र सरकार आम आदमी की सरकार है लेकिन यह जब-न-तब तेल का दाम बढ़ाकर जनता का तेल निकालती रहती है। महँगाई से मर रही जनता को महँगाई बढ़ाकर राहत देकर इन दिनों सोनिया-मनमोहन सिंह की सरकार नवीन अर्थशास्त्र का निर्माण कर रही है। इसने पहले पेट्रोल और रासायनिक खाद को नियंत्रण मुक्त किया और अब चीनी को भी उद्योगपतियों के हवाले कर दिया है। वह दिन दूर नहीं जब पूरा-का-पूरा वतन उद्योगपतियों के हवाले करके यह सरकार गीत गाया करेगी कि अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों। आज से ही उद्योगपति बाजार में मांग और आपूर्ति के सिद्धांत के तहत अपने मनमाफिक दाम पर चीनी बेच सकेंगे। ऐसा भी नहीं है कि इससे सरकार पर सब्सिडी का बोझ कम होता हो बल्कि इससे चीनी उद्योग को जरूर 3000 करोड़ रुपये का सीधा लाभ हो जाएगा लेकिन केंद्र सरकार को 2600 करोड़ रुपये की सीधी क्षति ही होगी।
मित्रों,ऐसा क्यों हुआ कि केंद्र सरकार ने आर्थिक मंदी के संकट काल में खुद घाटा उठाकर चीनी उद्योग को मोटा लाभ देने का निर्णय किया? आर्थिक-दृष्टि से हो या वोट बैंक की दृष्टि से इस निर्णय को किसी भी तरह से बुद्धिमत्तापूर्ण तो नहीं कहा जा सकता है। मैं ठीक-ठीक तो नहीं जानता हूँ कि भारत के कृषि और खाद्य-आपूर्ति मंत्री शरद पवार की खुद की कितनी चीनी मिलें हैं लेकिन इतना जरूर जानता हूँ कि उनका कुछ-न-कुछ आर्थिक हित जरूर सीधे तौर पर चीनी से जुड़ा हुआ है। पवार ने जब नौ साल पहले केंद्रीय कृषि और खाद्य-आपूर्ति मंत्री का पदभार संभाला था तभी से इस बात के कयास लगाए जा रहे थे कि उनके कार्यकाल में ही देर-सबेर चीनी को भी बाजार के हवाले कर दिया जाएगा। केंद्र सरकार में गलत सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी भरमाते हैं कि इस कदम से आम जनता पर कोई असर नहीं पड़ेगा। मगर उन्होंने यह नहीं बताया है कि कब तक? कब तक मुनाफाखोर-धनपशु चीनी मालिक सब्र रख सकेंगे? जब चीनी का मूल्य-निर्धारण उनको ही करना है तो फिर वे कब तक और क्यों ज्यादा लाभ के लालच से बचे रहेंगे?
मित्रों,क्या बिडंबना है कि जिस समय राजनीति के तालाब के नए मरमच्छ राहुल गांधी आम आदमी की समस्याओं के बारे में बातें करके घुटने से आँसू बहा रहा होता है ठीक उसी समय उसकी सरकार आम आदमी से सस्ती चीनी खाने का अधिकार छीन रही होती है?! हमारे देहात में कहावत हे कि बिल्ली को अगर दही की रखवाली का भार दे दिया जाए तो दही भला कब तक बचा रहेगा? फिर चाहे वो दही किसी व्यक्ति का हो या फिर पूरे समाज का। बिल्ली के लिए तो सारे दही एकसमान हैं। यह कितना हास्यास्पद है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले 9 सालों से चीनी उद्योग को एक ऐसे व्यक्ति के हवाले किया हुआ है जो खुद ही इस क्षेत्र का बहुत बड़ा माफिया है। आप ही बताईए कि फिर भारत और सोमालिया मे क्या मौलिक अंतर है जहाँ की सरकार में डाकू भी मंत्री हैं। कल राजा भैया को उत्तर प्रदेश का जेल मंत्री बना दिया गया था,ए. राजा को भारत का दूरसंचार मंत्री बना दिया गया था,आज शरद पवार कृषि और खाद्य-आपूर्ति मंत्री है और उनके साथ-साथ केंद्र और राज्यों की सरकारों में न जाने कितने माफिया मंत्री हैं तो कल को नवीन जिंदल इस्पात मंत्री होंगे,सुरेश कलमाडी खेल मंत्री,कनिष्क सिंह रक्षा मंत्री,मूकेश अंबानी पेट्रोलियम मंत्री और विजय माल्या नागरिक उड्डयन मंत्री। केंद्र और प्रदेशों के गृहमंत्री पद के तो हजारों योग्य खूनी-बलात्कारी उम्मीदवार टकटकी सालों से टकटकी लगाए बैठे हैं। फिर देश और उसके आम आदमी का क्या होगा?
मित्रों,वर्ष 1984 में मैंने अमिताभ बच्चन अभिनीत एक फिल्म देखी थी। नाम था इन्कलाब। उसमें भी शराब माफिया खुद को उत्पाद मंत्री,अनाज माफिया खाद्य-आपूर्ति मंत्री,हथियार तस्कर गृह मंत्री,सड़क माफिया सड़क परिवहन मंत्री आदि बनाने की मांग करते हैं। मुझे नहीं पता था कि 20-30 साल के बाद इस फिल्म की कहानी सच साबित हो जाएगी। फिल्म में तो मुख्यमंत्री पद के लिए नवनिर्वाचित अमिताभ बच्चन सारे माफियाओं को मंत्री पद की शपथ लेने से पहले ही गोली मार देते हैं। काश,ऐसा केंद्र और राज्य सरकार में काबिज माफिया मंत्रियों के साथ सचमुच में हो जाता!!
सोमवार, 1 अप्रैल 2013
आज भी प्रासंगिक हैं भवानी प्रसाद मिश्र
मित्रों,हम हिन्दीभाषियों को अपनी भाषा और अपने लेखकों-कवियों से कितना प्रेम है कहने की जरूरत नहीं है। हम एक तरफ तो हिंदी की बदहाली का रोना रोते हैं वहीं दूसरी ओर अपने बच्चों को सिर्फ अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने भेजते हैं। आज हममे से कितने लोगों को याद होगा या पता होगा कि इस साल हमारे किन-किन लेखकों-कवियों की जन्मशताब्दी है? भले ही हमें याद हो या नहीं हो लेकिन सच तो यही है कि अगर अभी महाकवि भवानी प्रसाद मिश्र जीवित होते तो सौ साल के होते। आज से 100 साल पहले 29 मार्च,1913 को भारत का हृदय कहे जानेवाले मध्य प्रदेश में सतपुड़ा के घने जंगलों के बीच अपनी धुन के पक्के एक महाकवि का जन्म हुआ था। माता-पिता ने उसको माता भवानी का आशीर्वाद मानते हुए नाम रखा भवानी प्रसाद अर्थात् भवानी प्रसाद मिश्र। बड़ा होकर यही बच्चा कवि बना,महाकवि। उसकी भाषा जनभाषा के अत्यंत निकट थी और उसके शब्द उसकी ही तरह सरल होते थे लेकिन उतने ही अर्थपूर्ण। वो जिस तरह सोंचता था उसी तरह से बोलता था और जिस तरह से बोलता था उसी तरह से लिखता था और ताल ठोंककर लिखता था। उसकी अपने समकालीन कवियों को खुली चुनौती थी-
जिस तरह हम बोलते हैं,उस तरह तू लिख
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख
चीज ऐसी दे कि जिसका स्वाद सिर चढ़ जाय
बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाय।
बचपन से ही वह जब भी लिखता इतनी तन्मयता से लिखता कि कागज,कलम और खुद को एकाकार कर देता था-
जब मैं कविता लिखने नहीं बैठा था
तब कागज कागज था
मैं मैं था और कलम कलम
मगर जब लिखन बैठा
तो तीन नहीं रहे हम एक हो गए।
मित्रों,जवानी आने पर भवानी प्रसाद को नए जमाने की छल-चातुरी कभी नहीं भाई। खुद तो इससे दूर रहे ही छली-चतुर लोगों को भी अपने से दूर रखा-
चतुर मुझे कुछ भी
कभी नहीं भाया
न औरत न आदमी
न कविता
उस कवि को कला कला के लिए में तनिक भी विश्वास नहीं था। उसने जो भी लिखा मजबूरों के लिए लिखा,मजलूमों के हक के लिए लिखा। उसका सीधा-सीधा मानना था कि
कवि आसमान का नहीं
धरती का होता है
अपने से ज्यादा
अपनों का होता है।
वह भदेसपन का कवि था और पूंजीवादी-शहरी और स्वार्थवादी सभ्यता सदैव उसके अचूक निशाने पर रही-
आप सभ्य हैं क्योंकि आपके कपड़े महज बने हैं
आप सभ्य हैं क्योंकि आपके जबड़े खून सने हैं।
मित्रों,हालाँकि भवानी जी जीवनपर्यंत लेखन को अपना सहज कर्त्तव्य समझते थे परंतु हिन्दी और हिंदी लेखकों की फटेहाली उनसे छिपी हुई भी नहीं थी वे खुद भुक्तभोगी जो थे। तभी तो इस मशहूर कविता में उन्होंने अपने साथ-साथ समस्त हिंदी कवियों-लेखकों के दर्द को उड़ेलकर रख दिया है-
जी हाँ हुजूर,मैं गीत बेचता हूँ
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ
जी माल देखिए दाम बताऊंगा
.........................गीत बेचता हूँ।
मित्रों,देश के राजनैतिक,सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में जो स्खलन हो रहा था,खालीपन आ रहा था उससे महाकवि खुद को भी रीता हुआ महसूस करते थे-
भैया
मैं तो पात्र हूँ तुम्हारा
इस आशा से आता हूँ सामने
कि तुम मुझे भरोगे
जी होने पर मेरा खालीपन
खुद तुम ही हरोगे।
भवानी जी अपने परिवेश के प्रति खासे संवेदनशील थे। उनको न केवल उनके दौर में हो रहे मूल्यों का अवमूल्यन ही बल्कि दिखावेवाली झूठी चेतना भी न सिर्फ चिंतित करती थी बल्कि डराती भी थी क्योंकि भविष्य का निर्माण वर्तमान ही से तो होता है-
चेतना का मतलब है पैदा होओ,मरो
चेतना का मतलब है हंसो रोओ,डरो
चेतना का मतलब है क्रोध करो,घृणा करो
चेतना का मतलब है हिलो,मिलो विरोध करो
झूठमूठ प्यार करो,झूठमूठ शरम करो
झूठमूठ सत्य कहो,झूठमूठ धरम करो।
मित्रों,यूँ तो भवानी बाबू का पूरा जीवन आम-आदमी को जगाने की जुगत में ही बीता परंतु जब उन्हें इस काम में अपेक्षित सफलता मिलती नहीं दिखी तब उन्होंने प्राकृतिक शक्तियों को आह्वान किया कि वे सोये हुए आम आदमी को जगाएँ उनसे तो यह जगाए नहीं जग रहा-
भई सूरज जरा इस आदमी को जगाओ
भई पवन जरा इस आदमी को हिलाओ
यह आदमी जो सोया पड़ा है
जो सच से बेखबर
सपनों में सोया पड़ा है
भई पक्षी उसके कानों में चिल्लाओ।
निश्चित रूप से भवानी बाबू शाश्वत जागरण के कवि थे और परिवर्तन चाहते थे परंतु उनकी इस मामले में एक शर्त भी थी कि वह परिवर्तन दिशाहीन न हो,रक्तरंजित न हो। इस मामले में वे क्रूर साम्यवादी नहीं थे बल्कि सदय गांधीवादी थे-
हम मुँह से कहते रहे अहिंसा मन में हिंसा धरे रहे
हम गांधी जी के बावजूद प्रतिक्षण हिंसा में भरे रहे।
अगर तुम्हे लड़ना है लड़ो हम नहीं लड़ेंगे
तुम हमारी सीमा में बढ़ो,हम नहीं बढ़ेंगे
..कोरे मारने वालों को हिला दो
हमेशा के लिए हिंसा को खाक में मिला दो।
भवानी प्रसाद जी परिवर्तन ला सकने में असफल तो हुए थे परंतु निराश नहीं थे और हताश तो बिल्कुल भी नहीं क्योंकि उनको इस बात का संतोष था कि उन्होंने प्रयास तो किया था-
मगर तय है कि यह उदास होने से नहीं होगा
निराश होने से तो होगा ही नहीं
हिम्मत और प्रसन्नता से
छोटे-छोटे कामों में
जुट जाने से होगा। (उनकी प्रसिद्ध कविता तख्तोताज कबाड़ी बाजार में बिकते हैं से)
इतना ही नहीं भवानी बाबू परिवर्तन के दौरान भी अच्छी भारतीय परंपरा के रक्षण के समर्थक थे क्योंकि उनका मानना था कि सुनहरे और सुरक्षित भविष्य का निर्माण शून्य में नहीं हो सकता-
पुराना और कठोर जैसा स्फटिक
हर चोट पर फेंकता है नई से नई चिनगारी
...... अर्थ पुराने से पुराने शब्दों में से नए संदर्भों में
मेरा आज का मन एक नया संदर्भ है
मगर ऐसा नया भी नहीं कि लगाव न हो उसका किसी पुराने के साथ
लगाव के बिना कुछ भी नहीं रह सकता।
भवानी बाबू की मानवता और मानवीय गुणों में अगाध आस्था थी और सबसे ज्यादा आस्था थी प्यार में,प्रेम में-
कितना भी भ्रष्ट जमाना हो
हर जगह प्यार जा सकता है।
मित्रों,भवानी बाबू ने कभी सम्मान या कुर्सी की अभिलाषा नहीं की बल्कि उनके लिए तो तख्तो-ताज कबाड़ी बाजार में बेचने लायक वस्तु थी-
कई बार तख्तोताज
कबाड़ी बाजारों में बिकते हैं
या कहो धरे के धरे रह जाते हैं
कबाड़ी बाजारों में
लोग उन्हें सिर्फ देख-दाख कर
निकल जाते हैं।
जाहिर है ऐसी बात वही व्यक्ति कर सकता है जिसको लालच और स्वार्थ छू भी नहीं गया हो। भवानी बाबू सार्थक जीवन जीने की बात करते थे। उनके मत में सार्थक जीवन वही है जो-
तपित को स्निग्ध करे
प्यासे को चैन दे
सूखे हुए अधरों को फिर से बैन दे। (असाधारण)
भवानी बाबू ने अगर जीवन को अपनी शर्तों पर जिया तो मौत से भी आँखों में आँखे डालकर बातें की। उनके अनुसार खामोशी से मरना भी कोई मरना होता है बल्कि मरना तो वही अच्छा है जो-
लंगड़े को पांव और लूले को हाथ दे बोले जो हमेशा सच
...रूकती-सी दुनिया को आगे बढ़ा दे जो मरना वही अच्छा है।
सच भी यही है कि भवानी प्रसाद मिश्र ने यथास्थिति को भंग करने का अथक प्रयास किया और रूकती-सी दुनिया को गति दी-
यह गीत सख्त सरदर्द भुलाएगा
यह गीत पिया को पास बुलाएगा
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है
यह गीत बढ़ाए से बढ़ जाता है।
मित्रों,कहते हैं कि जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि। भवानी प्रसाद मिश्र भले ही आज सदेह हमारे बीच उपस्थित नहीं हों लेकिन अपनी कविता के माध्यम से वे कालोत्तीर्ण हैं और रहेंगे। यह हमारा दुर्भाग्य है कि दिनोंदिन हमारे लिए उनकी प्रासंगिकता बढ़ती ही जा रही है। भवानी बाबू ने जिन आर्थिक,राजनैतिक और सामाजिक विद्रूपताओं पर अपनी लेखनी द्वारा भरपुर प्रहार किया था उनमें उनके जाने के बाद (20 फरवरी 1985) किंचित भी कमी नहीं आई है उल्टे स्थितियाँ बद से बदतर ही हुई हैं और होती जा रही हैं। जिस तरह भारत के लोगों ने त्रेता में वाल्मिकी और द्वापर में वेदव्यास को अनसुना कर दिया था अब तक उन्होंने भवानी बाबू पर कान नहीं दिया है तो यह हम भारतीयों की सीमा अथवा कमी है न कि महाकवि स्व. भवानी प्रसाद मिश्र की।
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