बुधवार, 26 जून 2013
उत्तराखंड में संकट में लोक तंत्र लापता
मित्रों,16 जून की शाम ढलने तक दुनियाभर के हिन्दुओं के लिए सदियों से अतिपवित्र माना जानेवाला देवभूमि उत्तराखंड श्मशान में तब्दील हो चुका था। हर जगह,हर तरफ लाशें थीं,चीखें थीं,चीत्कारें थीं,नहीं थी तो केवल सरकार और सरकारी तंत्र। कहीं कोई राहत का इंतजाम नहीं,कहीं किसी तरह की कोई व्यवस्था नहीं। एक घोर चापलूस,दरबारी और अयोग्य मुख्यमंत्री से हम उम्मीद भी क्या करें और क्यों करें? अब तक केंद्र व राज्य की सरकारों ने हादसे के बाद बस इतना ही काम किया है कि वे लाशों को गिन रहें हैं मगर काफी कम करके। जहाँ मरनेवाले अभागे 20 हजार से कम नहीं हैं इन सरकारों की गिनती अभी हजार तक भी नहीं पहुँची है।
सोमवार, 17 जून 2013
कहाँ हुई भाजपा से चूक?
मित्रों,अगर आपने भारत का इतिहास पढ़ा होगा तो आप जानते होंगे कि 1789 से 1792 तक मैसूर का तृतीय युद्ध चला था। इस लड़ाई में एक तरफ तो मैसूर के शेर टीपू सुल्तान थे तो दूसरी तरफ थे अंग्रेज,मराठे और निजाम। युद्ध में टीपू बुरी तरह पराजित हुआ था और अगर अंग्रेज गवर्नर जनरल लार्ड कार्नवालिस चाहता तो तभी उसे प्राणहीन और राज्यविहीन कर सकता था। लेकिन उसने ऐसा किया नहीं और श्रीरंगपट्टनम् की संधि करके टीपू को मैसूर का शासक बना रहने दिया। जब ब्रिटिश सरकार ने नाराज होकर उससे ऐसा करने का कारण पूछा तो उसने बताया कि मैं शत्रु को तो समाप्त करना चाहता था लेकिन साथ ही मित्रों को इतना मजबूत भी नहीं होने देना चाहता था कि वे भविष्य में हमारे लिए ही खतरा बन जाएँ। जहाँ तक टीपू को समाप्त करने का सवाल है तो अब तो ब्रिटिश सेना यह काम अकेले भी और जब चाहे तब कभी भी कर सकती है। कहने का आशय यह है कि अगर तब टीपू को समाप्त कर दिया जाता तो अंग्रेजों को उसका राज्य तीन बराबर हिस्सों में बाँटना पड़ता जिससे मराठे और निजाम खासे शक्तिशाली हो जाते।
मित्रों,लगता है कि भारतीय जनता पार्टी में कोई भी इतिहासकार या इतिहास का विशेषज्ञ नहीं है नहीं तो वो भी इसी तरह कार्नवालिस की नीति पर चलती। दुर्भाग्यवश भाजपा के साथ ऐसा दूसरी बार हुआ है। पहली बार कुछ ऐसा ही उसके साथ उड़ीसा में भी हो चुका है। भारतीय जनता पार्टी लालू विरोध की धुन में भूल गई कि अगर कभी नीतीश कुमार ने अकेले ही बहुमत पा लिया तो गठबंधन का क्या होगा। कोई भी पार्टी लगभग 100 सीटों पर चुनाव लड़कर 91 सीट ही जीत सकती है 122 तो कभी नहीं। हालाँकि पिछले विधानसभा चुनाव में प्रतिशत सफलता के मामले में नीतीश भाजपा से काफी पीछे थे फिर भी उनकी पार्टी ने चूँकि 140 से भी ज्यादा स्थानों पर चुनाव लड़ा था इसलिए उसको 116 सीटों पर सफलता हाथ लगी। राजग तो 24 नवंबर,2010 को ही नीतीश कुमार के लिए बेमानी हो गया था और वे तो तभी से इससे पिण्ड छुड़ाने का बहाना ढूँढ़ रहे थे। जदयू और नीतीश कुमार का यह तर्क भी पूरी तरह से हास्यास्पद है कि नरेंद्र मोदी सांप्रदायिक हैं तो क्या आडवाणी जो 2009 में राजग की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे और कभी नरेंद्र मोदी के तारणहार भी रह चुके हैं सांप्रदायिक नहीं थे और अगर नहीं थे या हैं तो कैसे? आज नीतीश के पास 116 विधायक हैं तो भाजपा बुरी हो गई और अगर यही गिनती 100 से कम होती तो कदापि बुरी नहीं होती। अगर गुजरात के दंगों में भाजपा की प्रदेश सरकार का हाथ था तो क्या कारण था कि नीतीश कुमार ने दंगों के समय या तत्काल बाद केंद्रीय रेल मंत्री के पद से इस्तीफा क्यों नहीं दिया? इतना ही नहीं ये वही नीतीश कुमार हैं जिन्होंने गुजरात दंगों के बाद भी कई बार नरेंद्र मोदी की बड़ाई की है। जाहिर है कि आज समीकरण बदल चुके हैं और नीतीश के पास पर्याप्त संख्या बल है। आज उनको सत्ता में बने रहने के लिए भाजपा को साथ में लेकर चलने की जरुरत नहीं है कल जरुरत पड़ेगी तो फिर देखा जाएगा। वे घोर अवसरवादी तो हैं ही फिर से हाथ-पाँव जोड़कर चिपक लेंगे।
मित्रों,स्पष्ट है कि नीतीश कुमार ने भाजपा के रणनीतिकारों को तगड़ा झटका दिया है। सबसे ज्यादा सबक ग्रहण किया होगा सुशील कुमार मोदी ने। उम्मीद है कि आगे से भाजपा क्षेत्रीय दलों से सीटों का समझौता करते समय इस बात का ख्याल रखेगी कि सहयोगी को बड़ा भाई न बनाया जाए और खुद वो ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़े। नहीं तो उसको इसी तरह लगातार विश्वासघात के झटके लगते रहेंगे और बार-बार धोखे खाने पड़ेंगे। वैसे भी राजनीति में न तो कोई किसी का स्थायी मित्र होता है और न ही स्थायी शत्रु और प्यार और जंग में सबकुछ जायज तो होता ही है।
शनिवार, 15 जून 2013
नरेन्द्र मोदी और उनका मोदीत्त्व
मित्रों, इस दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति में कुछ बुराइयाँ होती हैं तो कुछ अच्छाइयाँ। जाहिर है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी में भी कुछ बुरी बाते हैं तो कुछ अच्छी भी। ऐसा भी नहीं है कि पिछले 11 सालों में मोदी ने अपनी सोंच और व्यवहार में कोई बदलाव नहीं किया हो। उन्होंने इस बीच सद्बावना यात्रा और उपवास का आयोजन कर मुसलमानों को सार्वजनिक मंच पर गले से भी लगाया है। अपने बारह साल के शासन में मोदी ने कभी धर्म के नाम पर भेदभाव नहीं किया। शायद यही कारण है कि सच्चर आयोग ने भी गुजरात में ही मुसलमानों की स्थित सबसे अच्छी बताई। आज के नरेन्द्र मोदी 2002 के नरेन्द्र मोदी नहीं हैं। आज वे विकासपुरूष हैं,सर्वधार्मिक और सर्वजातीय विकास के प्रतीक हैं फिर भी देश की कथित धर्मनिरपेक्ष,मुस्लिमवादी और तुष्टीकरण की गंदी राजनीति करनेवाली पार्टियाँ और नेता उनको अंत्यज और अस्पृश्य बनाने पर तुले हैं।
मित्रों,मैं इन नेताओं और पार्टियों से पूछना चाहता हूँ कि श्रीमान् जी टाईटलर,सज्जन कुमार सज्जन हैं,मदनी,बुखारी और औबैसी धर्मनिरपेक्ष हैं,गोधरा में ट्रेन फूँकनेवाले सही हैं परन्तु दंगाइयों को सजा दिलानेवाले,दंगों के समय पुलिस को गोली चलाने का आदेश देनेवाले मोदी गलत और सांप्रदायिक कैसे हो गए? कांग्रेस ने कितने बाबू बजरंगियों और कितनी मायाओं को सजा दिलवाई है? नरपिशाच नक्सलियों का मसीहा विनायक सेन स्वीकार्य और मोदी घृणास्पद? शर्म को विदेशी शराब में घोलकर पी गए क्या? मोदी ने मंच पर फैजी टोपी नहीं पहनी तो साम्प्रदायिक हो गए और फैजी टोपी पहनकर जो नेता दशकों से मुसलमानों को टोपी पहना रहे हैं वे धर्मनिरपेक्ष? इन लोगों ने देश-प्रदेश में मुसलमानों के लिए क्या किया है? क्यों बाँकी राज्यों के मुसलमान गुजरात के मुसलमानों से पिछड़े हुए हैं? इक्का-दुक्का को छोड़कर क्या इनमें से सबने पार्टी को पारिवारिक सम्पत्ति या दुकान नहीं बना दिया है?
मित्रों,महात्मा ईसा और गाँधी कहा करते थे कि पाप से घृणा करो पापी से नहीं। महर्षि वाल्मिकी भी पहले डाकू हुआ करते थे इसलिए हमें क्या इस बात का मूल्यांकन नहीं करना चाहिए कि वाल्मिकी मोदी में कितना कथित रत्नाकर मोदी बचा हुआ है? अगर मोदी ने 2002 के मार्च के पहले सप्ताह में राजधर्म का पालन नहीं किया और दंगों को जानबूझकर बढ़ावा दिया तो क्या उन्होंने इस एक गलती को बाद में दोहराया भी? क्या इसके बाद भी गुजरात में कभी सांप्रदायिक दंगे हुए? राजधर्म को तो आज कोई भी राजनेता नहीं निभा रहा है। सबके सब पदभार ग्रहण करते समय देश की एकता और अखंडता की रक्षा करने और अपने कर्त्तव्यों का सम्यक निर्वहन करने की शपथ लेते हैं फिर भूल जाते हैं। मोदी ने अगर बाद में भी राजधर्म नहीं निभाया तो फिर आज माया और बजरंगी को सजा कैसे हो गई? जो लोग और जो मीडिया कभी मोदी की बाबू बजरंगी से निकटता का बेबुनियाद आरोप लगा रहे थे वे उसको सजा मिलने पर चुप क्यों हैं जैसे कि वसंत में मेंढ़क मौन हो जाता है।
मित्रों,जाहिर है कि मोदी का पूरी तरह से कायान्तरण हो चुका है। उन्होंने कथित धर्मनिरपेक्ष मीडिया द्वारा निर्मित सांप्रदायिक छवि को वर्षों पीछे छोड़ते हुए विकासपुरूष की छवि बना ली है। जब लालू,खुर्शीद,राजा,सोरेन,कोड़ा,राजशेखर रेड्डी,मायावती,मुलायम एंड को,पवार एंड को,कलमाड़ी,जयललिता,करूणानिधि एंड को,सोनिया गाँधी एंड को जैसे महाभ्रष्ट,देशद्रोही और देशबेचवा नेता स्वीकार्य हैं,रोज-रोज राजधर्म के साथ सामूहिक दुष्कर्म करनेवाले ये नेता वंदनीय हैं और एक बार गलती से कथित रूप से राजधर्म नहीं निभा सकनेवाले नरेन्द्र मोदी निंदनीय? हमें नहीं भूलना चाहिए कि यही वे नेता हैं जो 1998 में मिनरल वाटर पी पीकर यह भविष्यवाणीपूर्ण आरोप लगा रहे थे कि अगर भाजपा एक बार केंद्र में सत्ता में आ गई तो फिर कभी चुनाव नहीं होंगे क्योंकि ये लोग तानाशाह हिटलर की तरह सत्ता पर हमेशा-हमेशा के लिए जबरन काबिज हो जाएंगे मगर ऐसा हुआ क्या? ये वही लोग हैं जो बिहार में यह बोलकर मुसलमानों को डराते रहे हैं कि अगर भाजपा सत्ता में आ गई तो उनके साथ यह होगा वह होगा मगर ऐसा हुआ क्या? और आज वही लोग यह कहकर देशभर के मुसलमानों के मन में भय का वातावरण बना रहे हैं कि मोदी प्रधानमंत्री बनेगा तो उनके साथ यह बुरा होगा वह बुरा होगा। कोई भी दल या नेता बहुसंख्यक हिन्दुओं की न तो चिंता ही कर रहा है और न तो बात ही। जैसे वे लोग तो वोटर हैं ही नहीं।
मित्रों,मैं बताता हूँ कि मोदी के आने से देश में क्या हो सकता है। मोदी के आने से सरकार में पूंजीपतियों का दखल कम होगा,देश की डूबती अर्थव्यवस्था फिर से पटरी पर आ सकेगी,देश का सर्वांगिण विकास होगा,भ्रष्टाचार में कमी आएगी,बेरोजगारी घटेगी,घोटाले कम होंगे,देश को लूटने और बेचने का सिलसिला कम होगा,महँगाई कम होगी,सांप्रदायिक दंगे कम होंगे,सीमापार से कश्मीर सहित पूरे भारत में आतंकवाद में कमी आएगी,भुगतान संतुलन में सुधार आएगा,रूपया मजबूत होगा,हम चीन से उसकी ही भाषा में बात कर सकेंगे,पूरी दुनिया में भारत का रसूख बढ़ेगा और रक्तपिपासु नक्सलियों के खिलाफ निर्णायक कदम उठाए जा सकेंगे। और अगर ये कथित धर्मनिरपेक्ष देशद्रोही लुटेरे फिर से सत्ता में आ गए तो वही सब होगा जो इन दिनों केंद्र की सरकार में हो रहा है और देश एक बार फिर से गुलाम हो जाएगा।
शुक्रवार, 7 जून 2013
भाजपा के अर्जुन,भीष्म और शिखंडी
मित्रों,मुझे पूरा यकीन है कि आपने महाभारत पढ़ा या देखा जरूर होगा। घर में नहीं तो टीवी पर ही सही। यकीनन आपको यह भी पता होगा कि महाभारत का युद्ध जब 9 दिनों तक हो चुका था तब पांडवों के समक्ष सबसे बड़ी समस्या अजेय योद्धा और कौरव दल के सेनापति भीष्म पितामह को मार्ग से हटाने की थी। अंत में नौवें दिन की रात में खुद भीष्म ने ही पांडवों द्वारा पूछने पर अपनी पराजय का रहस्य प्रकट कर दिया था। तत्पश्चात् जब 10वें दिन की लड़ाई शुरू हुई तो अर्जुन भीष्म के सामने सीधे-सीधे नहीं आए और अपने आगे नपुंसक शिखंडी को खड़ा कर लिया। प्रतिज्ञाबद्ध होने के चलते भीष्म ने शिखंडी पर प्रहार नहीं किया और उसके पीछे से वाण चलाकर अर्जुन ने इस दुर्जेय योद्धा को शरशायी कर दिया।
मित्रों,इन दिनों भारत की दूसरी सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी भाजपा में भी महाभारत का जीवंत मंचन चल रहा है। इस महाभारत के भीष्म हैं वयोवृद्ध और जनता द्वारा 2009 में प्रधानमंत्री पद के लिए नकारे जा चुके लालकृष्ण आडवाणी,अर्जुन हैं जोश से लबरेज विजय रथ पर सवार गुजरात के बब्बर शेर नरेंद्र मोदी। जहाँ मूल महाभारत में अर्जुन को शिखंडी चाहिए था वहीं इस महाभारत में पराजित और हताश भीष्म शिखंडी की तलाश में हैं। कभी उनको अपना शिखंडी भाषणवीरांगना सुष्मा स्वराज में नजर आता है तो कभी किसी और में। अभी उन्होंने मध्य प्रदेश के अपने प्रदेश में दिन-प्रतिदिन अलोकप्रिय होते जा रहे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को शिखंडी बनाना चाहा था लेकिन सिरे से असफल रहे। फिर नेता कम व्यापारी ज्यादा भ्रष्टाचारपुरूष नितिन गडकरी के सिर पर शिखंडी का ताज रखना चाहा लेकिन उन्होंने भी उसे जमीन पर दे मारा। तब श्रीमान् ने अर्जुन अर्थात् नरेंद्र मोदी के सेनापतित्व को तो स्वीकार कर लिया लेकिन इस शर्त पर कि कमान का एक हिस्सा गडकरी को दिया जाए। दुर्भाग्यवश श्रीमान् एक बार फिर से असफल होते दिख रहे हैं क्योंकि गडकरी फिलहाल विवादों में उलझना ही नहीं चाहते।
मित्रों,आडवाणी जी की मानसिक अवस्था को हम आसानी से समझ सकते हैं और चाहें तो सहानुभूति भी प्रकट कर सकते हैं। हम सभी यह जानते हैं कि हर किसी के भाग्य में हरेक चीज नहीं होती। आडवाणी के भाग्य में भी हर तरह से योग्य होते हुए भी पीएम की कुर्सी नहीं लिखी हुई थी। अच्छा होता कि आडवाणी अपनी तकदीर को 2009 में ही स्वीकार कर लेते और भाजपा के नेतृत्व को काम करने की खुली छूट दे देते। मगर क्या करें बेचारे का दिल है कि मानता ही नहीं और अब भी प्रधानमंत्री बनने को मचल उठता है वो कहते हैं न कि दिल तो बच्चा है जी। वर्तमान दशा में आडवाणी जी को जहाँ अपने हठी दिल को समझाना चाहिए और वक्त की पुकार को तहेदिल से मान लेना चाहिए वहाँ वे हर बात में अड़ जाते हैं किसी जिद्दी बच्चे की तरह।
मित्रों,अगर हम प्रदेशवार विचार करें तो भाजपा में चार ऐसे नेता हैं जो मुख्यमंत्री हैं और जनाधारवाले कहे जा सकते हैं-मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान,छत्तीसगढ़ में रमन सिंह,गुजरात में नरेंद्र मोदी और गोवा में मनोहर पार्रीकर। इनमें से गोवा चूँकि काफी छोटा है इसलिए उसको सूची से हटा दें तो नरेंद्र मोदी को छोड़कर ऐसा कोई भाजपाई नेता या मुख्यमंत्री नहीं है जिसकी लोकप्रियता 2009 के बाद बढ़ी हो या पूर्ववत् हो। पता नहीं फिर आडवाणी क्यों जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं को गुमराह करने में लगे हैं?
मित्रों,अगर ऐसा है तो फिर आडवाणी न सिर्फ मूर्ख हैं बल्कि देशद्रोही भी हैं। उनका अवसरवादी चेहरा और चरित्र तो तभी जनता के समक्ष अनावृत्त हो चुका है जब उन्होंने महान साम्प्रदायिक नेता,40 करोड़ मजलूमों के हत्यारे और भारत विभाजक जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष कह दिया था। आडवाणी मूर्ख इसलिए हैं क्योंकि अब नरेंद्र मोदी को विकल्पहीन हो चुकी भाजपा का सेनापति बनने से रोक पाना संभव ही नहीं रह गया है फिर भी वो इस दिशा में निरर्थक हाथ-पैर मार रहे हैं और वे देशद्रोही इसलिए हैं क्योंकि उनके द्वारा मोदी का मार्ग बाधित करने से अगर किसी को फायदा हो सकता है तो देश को दोनों हाथों से लुटने में लगी लुटेरी और देशद्रोही कांग्रेस पार्टी को। मैं जहाँ तक समझता हूँ कि देशद्रोहियों का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मददगार होना भी देशद्रोह ही है। वैसे अभी तक इस हारे मगर ईच्छामृत्यु का वरण नहीं कर रहे भीष्म पितामह को शिखंडी मिला नहीं है और उम्मीद करनी चाहिए कि मिलेगा भी नहीं। ऐसे में आडवाणी क्या करेंगे? क्या उनमें वह साहस और नैतिक बल है,वो जनाधार उनके पास है कि शिखंडी के नहीं मिल पाने की स्थिति में वो सीधे-सीधे दिव्यास्त्रों से लैश अर्जुन नरेंद्र मोदी का सामना कर सकें? मुझे तो इसकी संभावना नहीं लग रही और आपको?
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