बुधवार, 26 जून 2013

उत्तराखंड में संकट में लोक तंत्र लापता

मित्रों,16 जून की शाम ढलने तक दुनियाभर के हिन्दुओं के लिए सदियों से अतिपवित्र माना जानेवाला देवभूमि उत्तराखंड श्मशान में तब्दील हो चुका था। हर जगह,हर तरफ लाशें थीं,चीखें थीं,चीत्कारें थीं,नहीं थी तो केवल सरकार और सरकारी तंत्र। कहीं कोई राहत का इंतजाम नहीं,कहीं किसी तरह की कोई व्यवस्था नहीं। एक घोर चापलूस,दरबारी और अयोग्य मुख्यमंत्री से हम उम्मीद भी क्या करें और क्यों करें? अब तक केंद्र व राज्य की सरकारों ने हादसे के बाद बस इतना ही काम किया है कि वे लाशों को गिन रहें हैं मगर काफी कम करके। जहाँ मरनेवाले अभागे 20 हजार से कम नहीं हैं इन सरकारों की गिनती अभी हजार तक भी नहीं पहुँची है।
             मित्रों,हम सभी जानते हैं कि उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था सदियों से हिन्दू तीर्थयात्रियों के आगमन पर आधारित है और 16 जून को आए जल प्रलय में मरनेवाले और प्रभावित होनेवाले लगभग सारे लोग हिन्दू तीर्थयात्री ही हैं। कहाँ तो वे आए थे चारों धाम की यात्रा कर पुण्य कमाने और कहाँ तो वे या तो सुरधाम पहुँच गए या फिर उनको मरणांतक पीड़ा का सामना करना पड़ा और करना पड़ रहा है। सोलह जून की शाम को उन्होंने खुद को 15-20 फीट ऊँची वो भी कंकड़-पत्थरयुक्त अतिशीतल पानी की तेज धारा के मध्य में पाया। उनमें से कुछ अभागे तो तत्काल मर गए और जो बच गए उनकी हालत तो और भी बुरी थी। उनको सरकारी अव्यवस्था और अराजकता के चलते न तो कुछ खाने को ही कुछ मिल रहा था और न तो पीने को ही। न तो दवा ही मिल रही थी डॉक्टर भला कहाँ से मिलते? नौ-दस दिनों तक वे लोग लगातार पानी उड़ेलते खुले आकाश के नीचे भींगते-सूखते भूखे-प्यासे पड़े रहे और पड़े हैं। न कहीं शासन का पता और न कहीं प्रशासन का ही,पूरा-का-पूरा तंत्र लापता। न जाने क्यों और किसलिए राज्य सरकार ने इतने भारी-भरकम तंत्र को पाल-पोस रखा है? क्या अब भी किसी को संदेह रह गया है कि भारतीय लोकतंत्र में खासकर कांग्रेसी लोकतंत्र में तंत्र की नजर में लोक का कोई स्थान रह भी गया है? यह सर्वविदित है कि इस प्राकृतिक त्रासदी में मरनेवाले लगभग सारे लोग हिन्दू हैं और कोई हिन्दू वोट बैंक तो होता है नहीं कि उनकी चिंता की जाए। हिन्दू अगर अब भी नहीं जागे तो परंपरागत,सदियों पुरानी चार धाम यात्रा तो भविष्य में थम ही जाएगी उनके जीने के भी लाले पड़ जाएंगे जैसे कि इस समय देवभूमि उत्तराखंड में पड़े हुए हैं।
                         मित्रों,यह सब तब हुआ है जबकि सीएजी ने दो महीने पहले ही अपनी रिपोर्ट में उत्तराखंड में आपदा-प्रबंधन के शून्य होने की चेतावनी दे दी थी। फिर किंकर्त्तव्यविमूढ़ता की ऐसी स्थिति क्यों आई? क्यों राज्य और केन्द्र की सरकारों को कल-परसों यह कहना पड़ा था कि जिनको पीड़ितों तक राहत पहुँचानी है वे आप खुद जाकर पहुँचाएँ? आप ही बताईए कि ऐसा भी कहीं हुआ है कि सड़क मार्ग से कटे,अतिदुर्गम क्षेत्रों में जाकर देशभर के सहृदय और देशभक्त लोग खुद राहत पहुँचाएँ? फिर जब लोग आगे आने लगे तो अब वही केंद्र व राज्य सरकारें ऐसा क्यों कह रही हैं कि राहत-कार्य सिर्फ हमारे द्वारा ही चलाए जाएंगे?
                       मित्रों,क्या सीएजी की चेतावनी के बाद भी केंद्र और उत्तराखंड की सरकारों का कान में तेल डालकर सोए रहना आपराधिक कृत्य नहीं है? क्या केंद्र और उत्तराखंड की सरकारों पर हजारों निरपराधों की हत्या का मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए? हमारे प्रधानमंत्री रोजाना सर्वोच्च न्यायालय को अपनी सीमा में रहने की चेतावनी देते रहते हैं फिर क्यों बिना सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के उत्तराखंड में राहत और बचाव का काम शुरू नहीं किया गया? देश में क्या आवश्यकता है ऐसे लोकतंत्र की जिसमें जब लोक की जान पर बन आए तो तंत्र लापता हो जाए? क्या जरुरत है ऐसी सरकारों की जो गाढ़ी जरुरत के समय जनता की किसी भी तरह से मदद न कर पाए और जनता को पूरी तरह से रामभरोसे तिल-तिल कर मरने के लिए छोड़ दे?
                       मित्रों,पूरा देश आभारी है भारतीय सेना और भारत-तिब्बत सीमा पुलिस के उन जवानों का जिन्होंने रात-दिन एक करके और अपनी जान की बिल्कुल भी परवाह न करते हुए हजारों लाचारों की जान बचाई। कल की हेलिकॉप्टर दुर्घटना में वायुसेना और अर्द्धसैनिक बलों के 19 जवानों को जान भी गवानी पड़ी है। हम उनकी आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं और महापापी सरकार से अनुरोध करते हैं कि इन वास्तविक नायकों के परिजनों को पर्याप्त मुआवजा दे,कम-से-कम राशि धौनी ब्रिगेड को कप जीतने पर मिलने वाली राशि से तो ज्यादा जरूर होनी चाहिए,प्रति जवान कम-से-कम एक करोड़ रूपया। दोस्तों,यह घोर दुर्भाग्यपूर्ण है कि अभी भी कम-से-कम पाँच हजार लोग लगातार 11 दिनों से बरसात,मच्छर,कीड़े-मकोड़े और भूख-प्यास से लड़ते हुए अभी भी मदद का इंतजार कर रहे हैं। देश में किसी भी तरह की आपदा-योजना या आपदा-तंत्र का नहीं होना क्या यह नहीं दर्शाता है कि वर्तमान केंद्र-सरकार और उत्तराखंड की सरकार दोनों ही नाकारा हैं और किसी भी तरह की बाहरी और भीतरी चुनौती से निबटने में पूरी तरह से अक्षम हैं? क्या ऐसी सरकारें खुद अपने-आपमें ही आपदा नहीं होती हैं?
                              मित्रों,मुझे आपको यह सूचित करते हुए अपार क्रोध हो रहा है कि भारत को श्री सुशील कुमार शिंदे के बाद कई और नीरो के बाप मिल गए हैं। जिस प्रदेश में 10-11 दिनों से साक्षात महाकाल का तांडव चल रहा हो,लाशों को जलाने के लिए लकड़ियों के लाले पड़े हों उस राज्य का मुख्यमंत्री न जाने क्यों इसी सप्ताह स्विट्जरलैंड की यात्रा पर जा रहा है। उनको स्विस बैंक से कोई जमा-निकासी करनी है या कोई अन्य अपरिहार्य काम आ पड़ा है पता नहीं लेकिन वे जिस विषम परिस्थिति में विदेश जाने पर अड़े हुए हैं उसे देखकर तो कदाचित् किसी जल्लाद को भी शर्म आ जाए। जब उनका प्रेरणा-पुरूष युवराज ही दो-दो गृह राज्य मंत्रियों को साथ में लेकर ऐन घटना के दिन से एक सप्ताह तक पेरिस में रंगरलियाँ मना रहा हो तो बहुत सारे अज्ञात गुणों से युक्त बहुगुणा क्यों नहीं मनाएंगे? मरनेवाले या नरक की पीड़ा भोग रहे लोग कोई उनके सगे-संबंधी तो हैं नहीं। इसी बीच कृपालु युवराज 24 जून को देश में वापस आ गए हैं और लगातार बाढ़-पीड़ितों से मिल रहे हैं जबकि इससे पहले भारत-सरकार के गृह-मंत्री श्री शिंदे ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को यह कहकर ऐसा करने से रोक दिया था कि इससे राहत-कार्य में बाधा आएगी। देश की कुंडली में राहु की महादशा ला सकने की अपार क्षमता रखनेवाले राहुल गांधी किसी नियम के अंतर्गत तो आते हैं नहीं सो वे क्यों मंत्री की सलाह पर अमल करने जाएँ? कुछ अन्य केंद्रीय मंत्री तो ऐसे भी हैं जिन्होंने तो राहत में लगे हेलिकॉप्टरों को जबरन खाली करवा दिया और तब आपदा-प्रभावित क्षेत्रों का क्रूरतापूर्वक हवाई और जमीनी सर्वेक्षण किया। क्या पता फिर कब ऐसा सुनहरा मौका हाथ लगता?
                               मित्रों,इस बीच उत्तराखंड के प्रलय-क्षेत्र से कुछ इस तरह की सूचनाएँ या खबरें भी आ रही हैं जो उसके एक और नाम देवभूमि से बिल्कुल भी मेल नहीं खातीं। कई जगहों पर स्थानीय निवासी फँसे हुए तीर्थयात्रियों से खाद्य-सामग्री और पानी के मनमाने दाम वसूल रहे हैं। देवताओं यह देव-संस्कृतिवाली बात तो हुई नहीं। भारतीय वांङ्मय में अतिथियों को देवता का दर्जा दिया गया है फिर उनकी मजबूरियों से अनुचित लाभ उठाना तो दानवोंवाला कृत्य ही कहा जाएगा न? इतना ही नहीं कई जीवित-मृत महिलाओं के हाथ तक भी स्वर्णाभूषणों के लालच में काट लिए गए हैं,कई तीर्थयात्रियों को पहाड़ से नीचे फेंकने की धमकी देकर लूटा गया है और कई तीर्थयात्री महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार भी किया गया है। कुछ जगहों से जैसे गौरीकुंड से इस तरह की खबरें भी आ रही हैं कि वहाँ के ग्रामीणों ने अपना सारा राशन-पानी पीड़ित आगन्तुकों को खिला-पिला दिया है और खुद उपवास कर रहे हैं। ऐसे लोग निश्चित रूप से श्रद्धा और स्तुति के पात्र हैं।
                मित्रों,कहते हैं कि आपदायें मानवता का लिटमस टेस्ट होती हैं। इसी दौरान पता चलता है कि कौन मानव है और कौन दानव,कौन हितैषी है और कौन शत्रु। तभी तो रहीम कवि ने कहा था कि-रहिमन विपदा हूँ भलि जो थोड़े दिन होय।हित-अनहित या जगत में जानि पड़े सब कोय।। जल-प्रलय ने हिन्दुओं के समक्ष कांग्रेस के खौफनाक हिन्दू-विरोधी,मानवता-विरोधी और देश-विरोधी चेहरे को तो पूरी तरह से अनावृत कर ही दिया है वहाँ की स्थानीय जनता के देव-संस्कृति का हिस्सा होने के दावे को भी कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है। मैं हमेशा से तीर्थयात्रा को मूर्खता मानता रहा हूँ। भक्तराज रामकृष्ण परमहंस भी कहा करते थे कि जहाँ सज्जन लोग निवास करते हों वहीं तीर्थ है अन्यत्र नहीं। हिन्दुओं को अपना कर्म सुधारना चाहिए परलोक बिना तीर्थयात्रा किए ही सुधर जाएगा।
                   मित्रों,उत्तराखंड में न तो पहली बार बादल फटे हैं और न ही पहली बार भूस्खलन ही हुआ है। हाँ,इस बार जान-माल का नुकसान जरूर बहुत ज्यादा हुआ है। हमने प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया और प्रकृति ने हमें बिना देरी किए उसका दंड भी दे दिया। हिमालय के साथ सबसे पहला खिलवाड़ तो अंग्रेजों ने पूरे क्षेत्र में अखरोट के बदले चीड़ का जंगल लगाकर किया था जिसकी जड़ों में मिट्टी को जकड़कर रखने की क्षमता कम होती है। फिर हमने औद्योगिकीकरण,सड़क-निर्माण और जल-विद्युत उत्पादन के नाम पर पूरे उत्तराखंड के पहाड़ों को वेध कर रख दिया,छलनी कर दिया। अभी-अभी 4-5 जून को मूर्खता के प्रकाश-स्तंभ,चापलूस-शिरोमणि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार के पर्यावरण मंत्रालय पर राज्य में नई जल-विद्युत परियोजनाओं और नई सड़कों के निर्माण को बाधित करने का आरोप लगाते हुए देखा। सूत्र बताते हैं कि नई जल-विद्युत परियोजनाओं के लिए प्रति मेगावाट 1 करोड़ रूपया माननीय मुख्यमंत्री सुविधा-शुल्क के रूप में लेते हैं।
                       मित्रों,सारे पर्यावरणविद् हिमालय-क्षेत्र में नए बाँधों और सड़कों के निर्माण के विरूद्ध लगातार चेतावनी देते रहे हैं। हमने अपनी आँखों से देखा है कि मंसूरी में लोगों ने पहाड़ की ढाल पर पीलर दे-देकर घर बना लिए हैं। नवीन वलित पर्वतीय व भूकंप की दृष्टि से अतिसंवेदनशील क्षेत्र में इस प्रकार से घर बनाना और उसमें रहना निश्चित रूप से मृत्यु को आमंत्रण देना है इसलिए प्रदेश में अंधाधुंध कंक्रीटों के जंगल लगाने पर भी रोक लगाई जानी चाहिए। गिनाने को तो मैंने गिना दिया कि उत्तराखंड में क्या-क्या किया जाना चाहिए परन्तु यह सब करेगा कौन? कांग्रेस पार्टी के नेताओं से तो कुछ होनेवाला है नहीं सिवाय धर्मनिरपेक्षता के फूटे ढोल को पीटते रहने के और धर्मनिरपेक्षता की छतरी के नीचे बैठकर देश-प्रदेश को लूट लेने के,बेच देने के और फिर अमेरिका व स्विट्जरलैंड जाकर लूट और विक्रय के माल को ठिकाने लगाने के या फिर पेरिस जाकर रंगरलियाँ मनाने के। तो आईये मित्रों,अंत में हम भी भारतेन्दु हरिश्चंद्र की तरह वर्तमान भारत की महादुर्दशा (अंग्रेजों ने तो भारत की सिर्फ दुर्दशा ही की थी) पर सामूहिक विलाप करें-रोवहु सब मिलि के आवहु भारत भाई। हा! हा! भारत महादुर्दशा देखी न जाई।।              

सोमवार, 17 जून 2013

कहाँ हुई भाजपा से चूक?

 

मित्रों,अगर आपने भारत का इतिहास पढ़ा होगा तो आप जानते होंगे कि 1789 से 1792 तक मैसूर का तृतीय युद्ध चला था। इस लड़ाई में एक तरफ तो मैसूर के शेर टीपू सुल्तान थे तो दूसरी तरफ थे अंग्रेज,मराठे और निजाम। युद्ध में टीपू बुरी तरह पराजित हुआ था और अगर अंग्रेज गवर्नर जनरल लार्ड कार्नवालिस चाहता तो तभी उसे प्राणहीन और राज्यविहीन कर सकता था। लेकिन उसने ऐसा किया नहीं और श्रीरंगपट्टनम् की संधि करके टीपू को मैसूर का शासक बना रहने दिया। जब ब्रिटिश सरकार ने नाराज होकर उससे ऐसा करने का कारण पूछा तो उसने बताया कि मैं शत्रु को तो समाप्त करना चाहता था लेकिन साथ ही मित्रों को इतना मजबूत भी नहीं होने देना चाहता था कि वे भविष्य में हमारे लिए ही खतरा बन जाएँ। जहाँ तक टीपू को समाप्त करने का सवाल है तो अब तो ब्रिटिश सेना यह काम अकेले भी और जब चाहे तब कभी भी कर सकती है। कहने का आशय यह है कि अगर तब टीपू को समाप्त कर दिया जाता तो अंग्रेजों को उसका राज्य तीन बराबर हिस्सों में बाँटना पड़ता जिससे मराठे और निजाम खासे शक्तिशाली हो जाते।
                        मित्रों,लगता है कि भारतीय जनता पार्टी में कोई भी इतिहासकार या इतिहास का विशेषज्ञ नहीं है नहीं तो वो भी इसी तरह कार्नवालिस की नीति पर चलती। दुर्भाग्यवश भाजपा के साथ ऐसा दूसरी बार हुआ है। पहली बार कुछ ऐसा ही उसके साथ उड़ीसा में भी हो चुका है। भारतीय जनता पार्टी लालू विरोध की धुन में भूल गई कि अगर कभी नीतीश कुमार ने अकेले ही बहुमत पा लिया तो गठबंधन का क्या होगा। कोई भी पार्टी लगभग 100 सीटों पर चुनाव लड़कर 91 सीट ही जीत सकती है 122 तो कभी नहीं। हालाँकि पिछले विधानसभा चुनाव में प्रतिशत सफलता के मामले में नीतीश भाजपा से काफी पीछे थे फिर भी उनकी पार्टी ने चूँकि 140 से भी ज्यादा स्थानों पर चुनाव लड़ा था इसलिए उसको 116 सीटों पर सफलता हाथ लगी। राजग तो 24 नवंबर,2010 को ही नीतीश कुमार के लिए बेमानी हो गया था और वे तो तभी से इससे पिण्ड छुड़ाने का बहाना ढूँढ़ रहे थे। जदयू और नीतीश कुमार का यह तर्क भी पूरी तरह से हास्यास्पद है कि नरेंद्र मोदी सांप्रदायिक हैं तो क्या आडवाणी जो 2009 में राजग की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे और कभी नरेंद्र मोदी के तारणहार भी रह चुके हैं सांप्रदायिक नहीं थे और अगर नहीं थे या हैं तो कैसे? आज नीतीश के पास 116 विधायक हैं तो भाजपा बुरी हो गई और अगर यही गिनती 100 से कम होती तो कदापि बुरी नहीं होती। अगर गुजरात के दंगों में भाजपा की प्रदेश सरकार का हाथ था तो क्या कारण था कि नीतीश कुमार ने दंगों के समय या तत्काल बाद केंद्रीय रेल मंत्री के पद से इस्तीफा क्यों नहीं दिया? इतना ही नहीं ये वही नीतीश कुमार हैं जिन्होंने गुजरात दंगों के बाद भी कई बार नरेंद्र मोदी की बड़ाई की है। जाहिर है कि आज समीकरण बदल चुके हैं और नीतीश के पास पर्याप्त संख्या बल है। आज उनको सत्ता में बने रहने के लिए भाजपा को साथ में लेकर चलने की जरुरत नहीं है कल जरुरत पड़ेगी तो फिर देखा जाएगा। वे घोर अवसरवादी तो हैं ही फिर से हाथ-पाँव जोड़कर चिपक लेंगे।
                          मित्रों,स्पष्ट है कि नीतीश कुमार ने भाजपा के रणनीतिकारों को तगड़ा झटका दिया है। सबसे ज्यादा सबक ग्रहण किया होगा सुशील कुमार मोदी ने। उम्मीद है कि आगे से भाजपा क्षेत्रीय दलों से सीटों का समझौता करते समय इस बात का ख्याल रखेगी कि सहयोगी को बड़ा भाई न बनाया जाए और खुद वो ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़े। नहीं तो उसको इसी तरह लगातार विश्वासघात के झटके लगते रहेंगे और बार-बार धोखे खाने पड़ेंगे। वैसे भी राजनीति में न तो कोई किसी का स्थायी मित्र होता है और न ही स्थायी शत्रु और प्यार और जंग में सबकुछ जायज तो होता ही है।
                   

शनिवार, 15 जून 2013

नरेन्द्र मोदी और उनका मोदीत्त्व

मित्रों, इस दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति में कुछ बुराइयाँ होती हैं तो कुछ अच्छाइयाँ। जाहिर है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी में भी कुछ बुरी बाते हैं तो कुछ अच्छी भी। ऐसा भी नहीं है कि पिछले 11 सालों में मोदी ने अपनी सोंच और व्यवहार में कोई बदलाव नहीं किया हो। उन्होंने इस बीच सद्बावना यात्रा और उपवास का आयोजन कर मुसलमानों को सार्वजनिक मंच पर गले से भी लगाया है। अपने बारह साल के शासन में मोदी ने कभी धर्म के नाम पर भेदभाव नहीं किया। शायद यही कारण है कि सच्चर आयोग ने भी गुजरात में ही मुसलमानों की स्थित सबसे अच्छी बताई। आज के नरेन्द्र मोदी 2002 के नरेन्द्र मोदी नहीं हैं। आज वे विकासपुरूष हैं,सर्वधार्मिक और सर्वजातीय विकास के प्रतीक हैं फिर भी देश की कथित धर्मनिरपेक्ष,मुस्लिमवादी और तुष्टीकरण की गंदी राजनीति करनेवाली पार्टियाँ और नेता उनको अंत्यज और अस्पृश्य बनाने पर तुले हैं।
          मित्रों,मैं इन नेताओं और पार्टियों से पूछना चाहता हूँ कि श्रीमान् जी टाईटलर,सज्जन कुमार सज्जन हैं,मदनी,बुखारी और औबैसी धर्मनिरपेक्ष हैं,गोधरा में ट्रेन फूँकनेवाले सही हैं परन्तु दंगाइयों को सजा दिलानेवाले,दंगों के समय पुलिस को गोली चलाने का आदेश देनेवाले मोदी गलत और सांप्रदायिक कैसे हो गए? कांग्रेस ने कितने बाबू बजरंगियों और कितनी मायाओं को सजा दिलवाई है? नरपिशाच नक्सलियों का मसीहा विनायक सेन स्वीकार्य और मोदी घृणास्पद? शर्म को विदेशी शराब में घोलकर पी गए क्या? मोदी ने मंच पर फैजी टोपी नहीं पहनी तो साम्प्रदायिक हो गए और फैजी टोपी पहनकर जो नेता दशकों से मुसलमानों को टोपी पहना रहे हैं वे धर्मनिरपेक्ष? इन लोगों ने देश-प्रदेश में मुसलमानों के लिए क्या किया है? क्यों बाँकी राज्यों के मुसलमान गुजरात के मुसलमानों से पिछड़े हुए हैं? इक्का-दुक्का को छोड़कर क्या इनमें से सबने पार्टी को पारिवारिक सम्पत्ति या दुकान नहीं बना दिया है?
                        मित्रों,महात्मा ईसा और गाँधी कहा करते थे कि पाप से घृणा करो पापी से नहीं। महर्षि वाल्मिकी भी पहले डाकू हुआ करते थे इसलिए हमें क्या इस बात का मूल्यांकन नहीं करना चाहिए कि वाल्मिकी मोदी में कितना कथित रत्नाकर मोदी बचा हुआ है? अगर मोदी ने 2002 के मार्च के पहले सप्ताह में राजधर्म का पालन नहीं किया और दंगों को जानबूझकर बढ़ावा दिया तो क्या उन्होंने इस एक गलती को बाद में दोहराया भी? क्या इसके बाद भी गुजरात में कभी सांप्रदायिक दंगे हुए? राजधर्म को तो आज कोई भी राजनेता नहीं निभा रहा है। सबके सब पदभार ग्रहण करते समय देश की एकता और अखंडता की रक्षा करने और अपने कर्त्तव्यों का सम्यक निर्वहन करने की शपथ लेते हैं फिर भूल जाते हैं। मोदी ने अगर बाद में भी राजधर्म नहीं निभाया तो फिर आज माया और बजरंगी को सजा कैसे हो गई? जो लोग और जो मीडिया कभी मोदी की बाबू बजरंगी से निकटता का बेबुनियाद आरोप लगा रहे थे वे उसको सजा मिलने पर चुप क्यों हैं जैसे कि वसंत में मेंढ़क मौन हो जाता है।
                        मित्रों,जाहिर है कि मोदी का पूरी तरह से कायान्तरण हो चुका है। उन्होंने कथित धर्मनिरपेक्ष मीडिया द्वारा निर्मित सांप्रदायिक छवि को वर्षों पीछे छोड़ते हुए विकासपुरूष की छवि बना ली है। जब लालू,खुर्शीद,राजा,सोरेन,कोड़ा,राजशेखर रेड्डी,मायावती,मुलायम एंड को,पवार एंड को,कलमाड़ी,जयललिता,करूणानिधि एंड को,सोनिया गाँधी एंड को जैसे महाभ्रष्ट,देशद्रोही और देशबेचवा नेता स्वीकार्य हैं,रोज-रोज राजधर्म के साथ सामूहिक दुष्कर्म करनेवाले ये नेता वंदनीय हैं और एक बार गलती से कथित रूप से राजधर्म नहीं निभा सकनेवाले नरेन्द्र मोदी निंदनीय? हमें नहीं भूलना चाहिए कि यही वे नेता हैं जो 1998 में मिनरल वाटर पी पीकर यह भविष्यवाणीपूर्ण आरोप लगा रहे थे कि अगर भाजपा एक बार केंद्र में सत्ता में आ गई तो फिर कभी चुनाव नहीं होंगे क्योंकि ये लोग तानाशाह हिटलर की तरह सत्ता पर हमेशा-हमेशा के लिए जबरन काबिज हो जाएंगे मगर ऐसा हुआ क्या? ये वही लोग हैं जो बिहार में यह बोलकर मुसलमानों को डराते रहे हैं कि अगर भाजपा सत्ता में आ गई तो उनके साथ यह होगा वह होगा मगर ऐसा हुआ क्या? और आज वही लोग यह कहकर देशभर के मुसलमानों के मन में भय का वातावरण बना रहे हैं कि मोदी प्रधानमंत्री बनेगा तो उनके साथ यह बुरा होगा वह बुरा होगा। कोई भी दल या नेता बहुसंख्यक हिन्दुओं की न तो चिंता ही कर रहा है और न तो बात ही। जैसे वे लोग तो वोटर हैं ही नहीं।
                     मित्रों,मैं बताता हूँ कि मोदी के आने से देश में क्या हो सकता है। मोदी के आने से सरकार में पूंजीपतियों का दखल कम होगा,देश की डूबती अर्थव्यवस्था फिर से पटरी पर आ सकेगी,देश का सर्वांगिण विकास होगा,भ्रष्टाचार में कमी आएगी,बेरोजगारी घटेगी,घोटाले कम होंगे,देश को लूटने और बेचने का सिलसिला कम होगा,महँगाई कम होगी,सांप्रदायिक दंगे कम होंगे,सीमापार से कश्मीर सहित पूरे भारत में आतंकवाद में कमी आएगी,भुगतान संतुलन में सुधार आएगा,रूपया मजबूत होगा,हम चीन से उसकी ही भाषा में बात कर सकेंगे,पूरी दुनिया में भारत का रसूख बढ़ेगा और रक्तपिपासु नक्सलियों के खिलाफ निर्णायक कदम उठाए जा सकेंगे। और अगर ये कथित धर्मनिरपेक्ष देशद्रोही लुटेरे फिर से सत्ता में आ गए तो वही सब होगा जो इन दिनों केंद्र की सरकार में हो रहा है और देश एक बार फिर से गुलाम हो जाएगा।

शुक्रवार, 7 जून 2013

भाजपा के अर्जुन,भीष्म और शिखंडी

मित्रों,मुझे पूरा यकीन है कि आपने महाभारत पढ़ा या देखा जरूर होगा। घर में नहीं तो टीवी पर ही सही। यकीनन आपको यह भी पता होगा कि महाभारत का युद्ध जब 9 दिनों तक हो चुका था तब पांडवों के समक्ष सबसे बड़ी समस्या अजेय योद्धा और कौरव दल के सेनापति भीष्म पितामह को मार्ग से हटाने की थी। अंत में नौवें दिन की रात में खुद भीष्म ने ही पांडवों द्वारा पूछने पर अपनी पराजय का रहस्य प्रकट कर दिया था। तत्पश्चात् जब 10वें दिन की लड़ाई शुरू हुई तो अर्जुन भीष्म के सामने सीधे-सीधे नहीं आए और अपने आगे नपुंसक शिखंडी को खड़ा कर लिया। प्रतिज्ञाबद्ध होने के चलते भीष्म ने शिखंडी पर प्रहार नहीं किया और उसके पीछे से वाण चलाकर अर्जुन ने इस दुर्जेय योद्धा को शरशायी कर दिया।
           मित्रों,इन दिनों भारत की दूसरी सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी भाजपा में भी महाभारत का जीवंत मंचन चल रहा है। इस महाभारत के भीष्म हैं वयोवृद्ध और जनता द्वारा 2009 में प्रधानमंत्री पद के लिए नकारे जा चुके लालकृष्ण आडवाणी,अर्जुन हैं जोश से लबरेज विजय रथ पर सवार गुजरात के बब्बर शेर नरेंद्र मोदी। जहाँ मूल महाभारत में अर्जुन को शिखंडी चाहिए था वहीं इस महाभारत में पराजित और हताश भीष्म शिखंडी की तलाश में हैं। कभी उनको अपना शिखंडी भाषणवीरांगना सुष्मा स्वराज में नजर आता है तो कभी किसी और में। अभी उन्होंने मध्य प्रदेश के अपने प्रदेश में दिन-प्रतिदिन अलोकप्रिय होते जा रहे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को शिखंडी बनाना चाहा था लेकिन सिरे से असफल रहे। फिर नेता कम व्यापारी ज्यादा भ्रष्टाचारपुरूष नितिन गडकरी के सिर पर शिखंडी का ताज रखना चाहा लेकिन उन्होंने भी उसे जमीन पर दे मारा। तब श्रीमान् ने अर्जुन अर्थात् नरेंद्र मोदी के सेनापतित्व को तो स्वीकार कर लिया लेकिन इस शर्त पर कि कमान का एक हिस्सा गडकरी को दिया जाए। दुर्भाग्यवश श्रीमान् एक बार फिर से असफल होते दिख रहे हैं क्योंकि गडकरी फिलहाल विवादों में उलझना ही नहीं चाहते।
             मित्रों,आडवाणी जी की मानसिक अवस्था को हम आसानी से समझ सकते हैं और चाहें तो सहानुभूति भी प्रकट कर सकते हैं। हम सभी यह जानते हैं कि हर किसी के भाग्य में हरेक चीज नहीं होती। आडवाणी के भाग्य में भी हर तरह से योग्य होते हुए भी पीएम की कुर्सी नहीं लिखी हुई थी। अच्छा होता कि आडवाणी अपनी तकदीर को 2009 में ही स्वीकार कर लेते और भाजपा के नेतृत्व को काम करने की खुली छूट दे देते। मगर क्या करें बेचारे का दिल है कि मानता ही नहीं और अब भी प्रधानमंत्री बनने को मचल उठता है वो कहते हैं न कि दिल तो बच्चा है जी। वर्तमान दशा में आडवाणी जी को जहाँ अपने हठी दिल को समझाना चाहिए और वक्त की पुकार को तहेदिल से मान लेना चाहिए वहाँ वे हर बात में अड़ जाते हैं किसी जिद्दी बच्चे की तरह।
                  मित्रों,अगर हम प्रदेशवार विचार करें तो भाजपा में चार ऐसे नेता हैं जो मुख्यमंत्री हैं और जनाधारवाले कहे जा सकते हैं-मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान,छत्तीसगढ़ में रमन सिंह,गुजरात में नरेंद्र मोदी और गोवा में मनोहर पार्रीकर। इनमें से गोवा चूँकि काफी छोटा है इसलिए उसको सूची से हटा दें तो नरेंद्र मोदी को छोड़कर ऐसा कोई भाजपाई नेता या मुख्यमंत्री नहीं है जिसकी लोकप्रियता 2009 के बाद बढ़ी हो या पूर्ववत् हो। पता नहीं फिर आडवाणी क्यों जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं को गुमराह करने में लगे हैं?
                       मित्रों,अगर ऐसा है तो फिर आडवाणी न सिर्फ मूर्ख हैं बल्कि देशद्रोही भी हैं। उनका अवसरवादी चेहरा और चरित्र तो तभी जनता के समक्ष अनावृत्त हो चुका है जब उन्होंने महान साम्प्रदायिक नेता,40 करोड़ मजलूमों के हत्यारे और भारत विभाजक जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष कह दिया था। आडवाणी मूर्ख इसलिए हैं क्योंकि अब नरेंद्र मोदी को विकल्पहीन हो चुकी भाजपा का सेनापति बनने से रोक पाना संभव ही नहीं रह गया है फिर भी वो इस दिशा में निरर्थक हाथ-पैर मार रहे हैं और वे देशद्रोही इसलिए हैं क्योंकि उनके द्वारा मोदी का मार्ग बाधित करने से अगर किसी को फायदा हो सकता है तो देश को दोनों हाथों से लुटने में लगी लुटेरी और देशद्रोही कांग्रेस पार्टी को। मैं जहाँ तक समझता हूँ कि देशद्रोहियों का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मददगार होना भी देशद्रोह ही है। वैसे अभी तक इस हारे मगर ईच्छामृत्यु का वरण नहीं कर रहे भीष्म पितामह को शिखंडी मिला नहीं है और उम्मीद करनी चाहिए कि मिलेगा भी नहीं। ऐसे में आडवाणी क्या करेंगे? क्या उनमें वह साहस और नैतिक बल है,वो जनाधार उनके पास है कि शिखंडी के नहीं मिल पाने की स्थिति में वो सीधे-सीधे दिव्यास्त्रों से लैश अर्जुन नरेंद्र मोदी का सामना कर सकें? मुझे तो इसकी संभावना नहीं लग रही और आपको?