मित्रों,मुझे पूरा यकीन है कि आपने महाभारत पढ़ा या देखा जरूर होगा। घर में नहीं तो टीवी पर ही सही। यकीनन आपको यह भी पता होगा कि महाभारत का युद्ध जब 9 दिनों तक हो चुका था तब पांडवों के समक्ष सबसे बड़ी समस्या अजेय योद्धा और कौरव दल के सेनापति भीष्म पितामह को मार्ग से हटाने की थी। अंत में नौवें दिन की रात में खुद भीष्म ने ही पांडवों द्वारा पूछने पर अपनी पराजय का रहस्य प्रकट कर दिया था। तत्पश्चात् जब 10वें दिन की लड़ाई शुरू हुई तो अर्जुन भीष्म के सामने सीधे-सीधे नहीं आए और अपने आगे नपुंसक शिखंडी को खड़ा कर लिया। प्रतिज्ञाबद्ध होने के चलते भीष्म ने शिखंडी पर प्रहार नहीं किया और उसके पीछे से वाण चलाकर अर्जुन ने इस दुर्जेय योद्धा को शरशायी कर दिया। मित्रों,इन दिनों भारत की दूसरी सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी भाजपा में भी महाभारत का जीवंत मंचन चल रहा है। इस महाभारत के भीष्म हैं वयोवृद्ध और जनता द्वारा 2009 में प्रधानमंत्री पद के लिए नकारे जा चुके लालकृष्ण आडवाणी,अर्जुन हैं जोश से लबरेज विजय रथ पर सवार गुजरात के बब्बर शेर नरेंद्र मोदी। जहाँ मूल महाभारत में अर्जुन को शिखंडी चाहिए था वहीं इस महाभारत में पराजित और हताश भीष्म शिखंडी की तलाश में हैं। कभी उनको अपना शिखंडी भाषणवीरांगना सुष्मा स्वराज में नजर आता है तो कभी किसी और में। अभी उन्होंने मध्य प्रदेश के अपने प्रदेश में दिन-प्रतिदिन अलोकप्रिय होते जा रहे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को शिखंडी बनाना चाहा था लेकिन सिरे से असफल रहे। फिर नेता कम व्यापारी ज्यादा भ्रष्टाचारपुरूष नितिन गडकरी के सिर पर शिखंडी का ताज रखना चाहा लेकिन उन्होंने भी उसे जमीन पर दे मारा। तब श्रीमान् ने अर्जुन अर्थात् नरेंद्र मोदी के सेनापतित्व को तो स्वीकार कर लिया लेकिन इस शर्त पर कि कमान का एक हिस्सा गडकरी को दिया जाए। दुर्भाग्यवश श्रीमान् एक बार फिर से असफल होते दिख रहे हैं क्योंकि गडकरी फिलहाल विवादों में उलझना ही नहीं चाहते। मित्रों,आडवाणी जी की मानसिक अवस्था को हम आसानी से समझ सकते हैं और चाहें तो सहानुभूति भी प्रकट कर सकते हैं। हम सभी यह जानते हैं कि हर किसी के भाग्य में हरेक चीज नहीं होती। आडवाणी के भाग्य में भी हर तरह से योग्य होते हुए भी पीएम की कुर्सी नहीं लिखी हुई थी। अच्छा होता कि आडवाणी अपनी तकदीर को 2009 में ही स्वीकार कर लेते और भाजपा के नेतृत्व को काम करने की खुली छूट दे देते। मगर क्या करें बेचारे का दिल है कि मानता ही नहीं और अब भी प्रधानमंत्री बनने को मचल उठता है वो कहते हैं न कि दिल तो बच्चा है जी। वर्तमान दशा में आडवाणी जी को जहाँ अपने हठी दिल को समझाना चाहिए और वक्त की पुकार को तहेदिल से मान लेना चाहिए वहाँ वे हर बात में अड़ जाते हैं किसी जिद्दी बच्चे की तरह। मित्रों,अगर हम प्रदेशवार विचार करें तो भाजपा में चार ऐसे नेता हैं जो मुख्यमंत्री हैं और जनाधारवाले कहे जा सकते हैं-मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान,छत्तीसगढ़ में रमन सिंह,गुजरात में नरेंद्र मोदी और गोवा में मनोहर पार्रीकर। इनमें से गोवा चूँकि काफी छोटा है इसलिए उसको सूची से हटा दें तो नरेंद्र मोदी को छोड़कर ऐसा कोई भाजपाई नेता या मुख्यमंत्री नहीं है जिसकी लोकप्रियता 2009 के बाद बढ़ी हो या पूर्ववत् हो। पता नहीं फिर आडवाणी क्यों जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं को गुमराह करने में लगे हैं? मित्रों,अगर ऐसा है तो फिर आडवाणी न सिर्फ मूर्ख हैं बल्कि देशद्रोही भी हैं। उनका अवसरवादी चेहरा और चरित्र तो तभी जनता के समक्ष अनावृत्त हो चुका है जब उन्होंने महान साम्प्रदायिक नेता,40 करोड़ मजलूमों के हत्यारे और भारत विभाजक जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष कह दिया था। आडवाणी मूर्ख इसलिए हैं क्योंकि अब नरेंद्र मोदी को विकल्पहीन हो चुकी भाजपा का सेनापति बनने से रोक पाना संभव ही नहीं रह गया है फिर भी वो इस दिशा में निरर्थक हाथ-पैर मार रहे हैं और वे देशद्रोही इसलिए हैं क्योंकि उनके द्वारा मोदी का मार्ग बाधित करने से अगर किसी को फायदा हो सकता है तो देश को दोनों हाथों से लुटने में लगी लुटेरी और देशद्रोही कांग्रेस पार्टी को। मैं जहाँ तक समझता हूँ कि देशद्रोहियों का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मददगार होना भी देशद्रोह ही है। वैसे अभी तक इस हारे मगर ईच्छामृत्यु का वरण नहीं कर रहे भीष्म पितामह को शिखंडी मिला नहीं है और उम्मीद करनी चाहिए कि मिलेगा भी नहीं। ऐसे में आडवाणी क्या करेंगे? क्या उनमें वह साहस और नैतिक बल है,वो जनाधार उनके पास है कि शिखंडी के नहीं मिल पाने की स्थिति में वो सीधे-सीधे दिव्यास्त्रों से लैश अर्जुन नरेंद्र मोदी का सामना कर सकें? मुझे तो इसकी संभावना नहीं लग रही और आपको?
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