मंगलवार, 21 जनवरी 2014

लगता है कांग्रेसियों ने वक-नकुल कथा नहीं पढ़ी

ब्रजकिशोर सिंह,हाजीपुर। संस्कृत में ऐसी बेशुमार शिक्षाप्रद कहानियाँ हैं जिनसे हम वर्तमान जीवन में भी सीख ले सकते हैं। कभी कांग्रेस का भी संस्कृत और भारतीय संस्कृति से लगाव हुआ करता था लेकिन अब तो कांग्रेस के कर्णधार अमेरिका-इंग्लैंड से पढ़कर आते हैं सो वे अपने संस्कृत वांग्मय से पूरी तरह से अनभिज्ञ होते हैं उनसे शिक्षा लेने की बात तो दूर ही रही।
हमने बचपन में अपनी संस्कृत की पाठ्य-पुस्तक में एक कथा पढ़ी थी-नक-वकुल कथा। कथा एक बगुले की है जो एक पेड़ की कोटर में परिवार सहित रहता है। उसके कोटर से एक बिल जाता है जो एक साँप के बिल तक जाता है। परिणाम यह होता है कि जब भी मादा बगुला अंडा देती है और उनके बच्चे होते हैं साँप आकर उनका भक्षण कर जाता है। इस तरह बगुला दम्पति परेशान रहता है कि आगे हमारा संतति कैसे चलेगी। फिर एक दिन बगुला पेड़ के पास एक नेवले को देखता है और साँप को मारने की फुलप्रुफ योजना बनाता है। वह नदी से मछली पकड़कर लाता है और उसके टुकड़े करके नेवले के बिल से लेकर साँप के बिल तक बिछा देता है। नेवला भी ठहरा मांसाहारी सो मछलियों के टुकड़ों को खाता-खाता अंत में साँप के बिल तक पहुँचता है और साँप को मार देता है। लेकिन अब बगुले के समक्ष एक नई समस्या खड़ी हो जाती है। साँप को मारने के बाद नेवला वहीं से वापस नहीं हो जाता बल्कि पेड़ पर बिल से और ऊपर चढ़ता हुआ नेवला बगुले के कोटर तक पहुँच जाता है और उसके सारे अंडों और बच्चों को खा जाता है। इस तरह बगुले की समस्या जस-की-तस बनी रह जाती है। साँप का तो ईलाज उसने कर दिया अब नेवले का ईलाज कहाँ से लाए?
मेरा मानना है कि अगर कांग्रेसियों ने यह नीति-कथा पढ़ी होती तो आज उनके समक्ष और देश के सामने भी अरविन्द केजरीवाल एंड गिरोह की समस्या नहीं खड़ी हुई होती। माना कि अरविन्द केजरीवाल मोदी-रथ को आगे बढ़ने से रोक देगा लेकिन उसके बाद वो देश में जो अराजकता फैलाएगा जिस तरह कि इन दिनों दिल्ली में फैला रहा है तो उसका ईलाज कांग्रेस और देश कहाँ से लाएगा? यह आदमी मिनट-मिनट पर झूठ बोलता है,पैंतरे बदलता है। आज यह न्यायिक जाँच और न्यायपालिका पर अविश्वास प्रकट करते हुए मांग नहीं मानने पर गणतंत्र दिवस जो भारत की अस्मिता का प्रतीक है को बाधित करने की धमकी दे रहा है कल कहेगा कि वो खुद नया संविधान बनाएगा क्योंकि पूरे देश में सिर्फ उसी के पास दिमाग है और पूरे देश को उस संविधान पर चलना पड़ेगा। आज वो संवैधानिक पद पर रहते हुए खुलेआम,बेशर्मी से कानून तोड़ रहा है,निषेधाज्ञा का उल्लंघन कर रहा है और कांग्रेस उसको गिरफ्तार करने के बदले सिर्फ मुँहजबानी आलोचना कर रही है कल वो कहेगा कि मैं जो कहता हूँ वही कानून है और सबको न चाहते हुए भी उसी के कानून को मानना पड़ेगा तब कांग्रेस के साथ-साथ पूरे देश के सामने जो समस्या खड़ी होगी क्या उसका हल है कांग्रेस के पास? जिस आदमी को कश्मीरी अलगाववाद,वामपंथी उग्रवाद के समर्थन के आरोप में जेल में होना चाहिए उसे कांग्रेस ने मुख्यमंत्री बना दिया? अगर केजरीवाल की जगह कोई आम आदमी होता और उसने निषेधाज्ञा का उल्लंघन किया होता तो कब की पुलिस उसे वहाँ से गिरफ्तार कर हटा चुकी होती फिर स्वघोषित आम आदमी केजरीवाल के साथ वीआईपी जैसा व्यवहार क्यों? देश रहेगा,संविधान रहेगा,कानून रहेगा तभी कांग्रेस के दोबारा सत्ता में आने की संभावना भी रहेगी लेकिन अगर एक अराजकतावादी को कांग्रेस साजिशन देश का भाग्य-विधाता बन जाने देगी तो न तो देश रहेगा न ही देश का बाबा साहेब का बनाया संविधान और न ही कानून का राज। एक पागल दिन-रात जनता की ईच्छा के नाम पर उल्टे-सीधे आदेश दिया करेगा और लोग उत्तर कोरिया के नागरिकों की तरह न चाहते हुए उन पर अमल करने को बाध्य होंगे। तब उस नेवले का ईलाज कांग्रेस के बगुले कहाँ से लाएंगे? तब क्या उन कांग्रेसी घुनों के साथ-साथ देश की गेहूँ रूपी जनता भी अराजकता और एक पागल की प्रलाप रूपी चक्की में नहीं पिस जाएगी?
मुझे याद आता है अपना पढ़ा एक प्रसंग। तब कांग्रेस नेता सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं। उनके पति आचार्य कृपलानी कांग्रेस छोड़ चुके थे और लखनऊ में कांग्रेस-सरकार के खिलाफ ही आंदोलन कर रहे थे। उन्होंने भी निषेधाज्ञा का उल्लंघन किया। डीजीपी ने सुचेता जी से पूछा कि क्या करें? सुचेता जी ने बेहिचक गिरफ्तार करने का आदेश दिया। शाम में वे खुद थाने में जमानत देने भी पहुँची तो आचार्य कृपलानी ने नाराजगी दिखाते हुए पूछा कि यह सब क्या है? पहले गिरफ्तार करवाया अब जमानत दे रही हो तब सुचेता जी ने कहा था कि गिरफ्तार करवाना एक मुख्यमंत्री का कर्त्तव्य था और अब जमानत देना एक पत्नी का फर्ज है। कहाँ गई कांग्रेसियों की वो नैतिकता? (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

सोमवार, 20 जनवरी 2014

शुरू हो गया दिल्ली की सड़कों पर हाई वोल्टेज ड्रामा

ब्रजकिशोर सिंह,हाजीपुर। आपने ड्रामें तो बहुत सारे देखे होंगे लेकिन माँ कसम इतना बड़ा और हाई वोल्टेज ड्रामा कभी नहीं देखा होगा। दिल्ली की पूरी सरकार सारे नियमों-कानूनों को रौंदती हुई,शपथ-ग्रहण के समय खाई हुई सारी शपथों पर थूकती हुई निषेधाज्ञा का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करती हुई खुद ही धरने पर बैठ गई है। चोरी और सीनाजोरी ऐसा उदाहरण शायद ही फिर से कभी देखने को मिले। जिन्होंने समर्थन देकर सरकार बनवाई यह उनकी ही सरकार के खिलाफ एक दूसरी सरकार का आंदोलन है। कई विदेशी महिलाओं को इनके मंत्री ने आधी रात में नाजायज तरीके से बंदी बना लिया। यहाँ तक कि सबके सामने ही मूत्र-विसर्जन करने के लिए बाध्य किया और खुद ही पीड़ित बनकर अब धरने पर जा बैठे हैं।
यह सही है कि दिल्ली पुलिस भ्रष्ट है। दिल्ली पुलिस क्या सारे राज्यों की पुलिस भ्रष्ट है। मगर क्या इस तरह पूरी दिल्ली को जाम कर देने,चार-चार मेट्रो स्टेशनों को बंद कर देने से दिल्ली पुलिस ईमानदार हो जाएगी? क्या निर्दोष विदेशी महिलाओं के मानवाधिकारों का उल्लंघन करने से,उनको नाजायज तरीके से हिरासत में रखने से दिल्ली पुलिस ईमानदार हो जाएगी? गृह-मंत्री द्वारा पैसे लेकर थाना बेचने का आरोप तो पूर्व गृह सचिव व भाजपा नेता आर.के. सिंह ने भी लगाए थे जो कदाचित् सही भी हैं तो क्या चार वांछित लोगों का तबादला कर देने से गृह-मंत्री ईमानदार हो जाएंगे? कल हो सकता है कि केंद्र इनकी मांग मान भी ले क्योंकि इनका रिमोट तो कांग्रेस के पास ही है तो आज जो जनता को परेशानी हुई वो वापस हो जाएगी? क्या अरविन्द केजरीवाल की चांडाल चौकड़ी उसको वापस कर सकती है? सरकार चलाना और आंदोलन करना दो अलग-अलग काम हैं,बिल्कुल अलग-अलग तरीके के काम हैं। अन्ना अच्छे आंदोलनकारी हैं लेकिन कोई जरूरी नहीं कि मौका मिलने पर वे अच्छा शासन भी कर सकें। हो सकता है कि वे इस मामले में टांय-टांय फिस्स हो जाएँ। अरविन्द भी अच्छे आंदोलनकारी हैं,कहीं उससे अच्छे रंगमंच-कलाकार भी हो सकते हैं लेकिन उनका 20 दिन का काम बताता है कि वे शासक अच्छे नहीं हैं बल्कि बुरे हैं। वे ड्रामा कर सकते हैं,हंगामा भी कर सकते हैं लेकिन अच्छी सरकार नहीं दे सकते। कभी इसी कारण से ब्रिटेन की जनता ने उनको द्वितीय विश्वयुद्ध में जीत दिलानेवाले प्रधानमंत्री चर्चिल को पदमुक्त कर दिया था क्योंकि चर्चिल युद्ध के दिनों के लिए तो इस पद के लिए उपयुक्त थे परंतु निर्माण-काल के लिए अनुपयुक्त।
केजरीवाल को समझना चाहिए कि दिल्ली की सरकार को शासन का पूरा अधिकार नहीं है क्योंकि दिल्ली एक केंद्रशासित प्रदेश है और आगे भी रहना चाहिए अन्यथा कल को बिहार-यूपी वालों के साथ भी वही सलूक होगा जो मुम्बई में अक्सर होता है। मैं तो मांग करता हूँ कि मुम्बई को भी केंद्रशासित प्रदेश ही होना चाहिए। फिर भी दिल्ली सरकार के हाथों में काफी अधिकार है जिनका इस्तेमाल करके वो चाहे तो दिल्लीवालों का काफी भला कर सकती है। इस समय दिल्ली की सड़कों पर सर्वाहारा वर्ग के लोग ठंड के मारे दम तोड़ रहे हैं और सरकार गायब है। अरविन्द और उनकी सरकार को वहाँ होना चाहिए न कि धरने पर। दिल्ली की सरकार को तेज गति से उन वादों को पूरा करने के लिए मुस्तैद होना चाहिए जो उसने चुनाव-परिणाम आने से पहले किए थे  न कि धरने पर। दिल्ली सरकार को पहले उन नौ लाख लोगों की चिंता करनी चाहिए थी जिन्होंने उनलोगों की बातों में आकर पिछले एक साल से बिजली और पानी का बिल उनके इस वादे पर भरोसा करके नहीं भरा कि हमारी सरकार आने पर हम उनका सारा-का-सारा बिल माफ कर देंगे। उनको उन दिल्लीवासियों की चिंता करनी चाहिए जिनको उनके द्वारा पानी और बिजली पर दी जानेवाली छूट से कोई फायदा नहीं होनेवाला है बल्कि बढ़ी हुई दरों से नुकसान होनेवाला है। शायद ऐसे ही किसी मौके पर किसी दूरदराज के गांव में यह कहावत गढ़ी गई होगी-नाच न जाने आंगन टेढ़ा। करो,करते रहो आंगन को सीधा। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

किनारे से निकल गए केजरीवाल



दिल्ली विधानसभा में विश्वासमत पर हुई चर्चा के दौरान अपने उत्तर में दिल्ली के नए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने विपक्ष के नेता डॉ. हर्षवर्द्धन और रामवीर सिंह विधूड़ी द्वारा उठाए गए किसी भी प्रश्न का सीधे-सीधे जवाब नहीं दिया और गोल-मोल उत्तर देते हुए किनारे से निकल गए। उन्होंने यह नहीं बताया कि चुनाव प्रचार के समय उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और उनके मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के जो आरोप लगाए थे उनका क्या होगा? उन्होंने यह भी नहीं बताया कि पिछली सरकार में हुए भ्रष्टाचारों की जाँच कब कराई जाएगी या फिर कराई जाएगी भी या नहीं। उन्होंने यह भी नहीं बताया कि बिजली-पानी पर उन्होंने जो सब्सिडी का गंदा खेल शुरु किया है उसका देश की अर्थव्यवस्था पर कैसे प्रभाव पड़ेगा? अगर बाँकी सरकारों ने भी मजबूरी में इस मामले में उनका अनुशरण करना शुरु कर दिया तो पहले से ही मंदी भुगत रही अर्थव्यवस्था तो दम ही तोड़ देगी। सिर्फ भारतमाता की जय का झूठा नारा लगाने से ही तो भारतमाता की जय नहीं हो जाएगी। उनकी प्रत्येक पंक्ति में एक शब्द जरुर आ रहा था और वो शब्द था-आम आदमी। उन्होंने कहा कि उनकी सरकार को आम आदमी चलाएगा। तो क्या सचिवालय में प्रेस के प्रवेश पर रोक उन्होंने एसएमएस और जनसभाओं द्वारा आमआदमी की राय लेकर लगाई है? आप चुनाव-प्रचार के समय तो हर काम प्रेस को बुलाकर किया करते थे। यहाँ तक कि शपथ-ग्रहण के लिए आते समय मेट्रो में महिलाएँ सीट पर बैठकर आपने बड़े ही ठाठ से फोटों खिंचवाया फिर मुख्यमंत्री बनते ही आपने मीडिया से दूरी क्यों बना ली? क्या उन्होंने या उनकी पार्टी ने राष्ट्रमंडल घोटाले में शीला दीक्षित को क्लिन चिट भी आमआदमी से पूछकर दी है? क्या शीला और उसके मंत्रियों के खिलाफ सबूत जुटाना भी आम आदमी का ही काम है?
इतना ही नहीं केजरीवाल ने अपने भाषण में आम आदमी की परिभाषा को भी बदल दिया। पहले जहाँ पीड़ित-दलित-शोषित-ग्रास रूट लेवल पर स्थित व्यक्ति को आम आदमी माना जाता था केजरीवाल के अनुसार आम आदमी वह है जो भ्रष्ट नहीं है और खास आदमी वह है जो भ्रष्ट है। क्या केजरीवाल बताएंगे कि कौन भ्रष्ट है और कौन नहीं का निर्णय कौन करेगा? क्या वे खुद ही इसका निर्णय लेंगे और सिर्फ वही निर्णय लेंगे? फिर तो भ्रष्टाचार और भ्रष्ट व्यक्ति की भी परिभाषा निर्धारित करनी पड़ेगी। खुद केजरीवाल भ्रष्ट हैं या नहीं इसका पता कैसे चलेगा? जो व्यक्ति अपने बच्चों की कसमें खाकर मुकर गया हो वो सच बोलता भी होगा कौन मानेगा? क्या आप कभी आयकर आयुक्त थे भी जैसा कि आप दावा करते रहे हैं? आयकर अधिकारियों का संगठन तो आपको इस मामले में भी झूठा ठहरा रहा है। केजरीवाल जी मनोहर पार्रीकर,माणिक सरकार,डॉ. हर्षवर्द्धन जैसे कई राजनेता भारत की धरती पर इस समय पहले से ही मौजूद हैं जो अपनी ईमानदारी और सच्चाई के लिए जाने जाते हैं। न तो उनको अपनी ईमानदारी साबित करने के लिए बच्चों की कसमें खानी पड़ती है और न ही किसी मान्य परिभाषा को बदलने की। ईमानदारी स्वयंसिद्ध होती है। उसको दिखावे द्वारा जबरन साबित करने की कोशिश न तो पहले कभी सफल हुई है और न तो आगे सफल होनेवाली है। हाँ,कुछ देर के लिए झूठ का सिक्का जरुर चल जा सकता है लेकिन एक-न-एक दिन तो उसकी कलई उतर ही जाती है। आपको बड़े-बड़े उजले कॉलर वाले पदाधिकारियों व धनपतियों को आम आदमी पार्टी में शामिल करना है तो करिए मगर आम आदमी की परिभाषा को तो भ्रष्ट नहीं करिए। हमारे कुछ मित्र कह सकते हैं कि भाजपा ने भी तो येदुरप्पा को वापस लिया तो मैं उन मित्रों की जानकारी के लिए बता दूँ कि येदुरप्पा भ्रष्टाचार के सारे मामलों में पहले ही कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा बरी किए जा चुके हैं। ऐसे में मैं नहीं मानता कि उनको पार्टी में वापस लेने में कोई बुराई है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि इंसाफ का तकाजा तो यह है कि जब तक कोर्ट सजा न दे दे कोई अपराधी नहीं होता,व्यक्ति ईमानदार हो या नहीं हो उसको कानून की नजरों में ईमानदार होना चाहिए लेकिन नैतिकता को तकाजा तो यही है कि व्यक्ति को न सिर्फ ईमानदार दिखना चाहिए बल्कि होना भी चाहिए। मैं आपसे नैतिकता की आशा इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि आप कथित रूप से राजनीति की मरुभूमि में नैतिकता की गंगा प्रवाहित करने आए हैं। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)