18-2-14,हाजीपुर,ब्रजकिशोर
सिंह। मित्रों, किसी भी आम बजट में दो बातें प्रमुख होती हैं. पहला, बजट
से सरकार और पार्टी की आर्थिक और राजनीतिक सोच का पता चलता है और दूसरा,
देश की वित्तीय नीतियों के बारे में पता चलता है। बजट के प्रावधानों से पता
चल जाता है कि केंद्र सरकार की आर्थिक नीति कैसी होगी। दुर्भाग्यवश
चिदंबरम अपनी सरकार और पार्टी की सोंच और नीतियों की बात तब करने चले हैं
जबकि इस सरकार के दिऩ पूरे हो गए हैं।
यह साफ है कि वित्त मंत्री पी चिदंबरम द्वारा पेश अंतरिम बजट सिर्फ लोकसभा चुनाव को ध्यान में रख कर तैयार किया गया है। इस बजट का न तो देश के वर्तमान से ही कुछ लेना-देना है और न ही भविष्य से ही। हमें ध्यान रखना चाहिए कि ‘वोट ऑन एकाउंट’ में करों से संबंधित विशेष प्रावधान नहीं किये जाते हैं। चुनाव से पहले सरकारी खर्च के लिए ही अंतरित बजट पेश किया जाता है।
2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार और 2009 में तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने भी अंतरिम बजट में करों का कोई नया प्रावधान नहीं किया था, लेकिन वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने इस बार ऐसा कर दिया। पहली बात तो यह कि यह संसदीय परंपराओं के खिलाफ है।
कुछ महीने बाद आम चुनाव होनेवाले हैं और मई, 2014 तक नयी सरकार का गठन हो जायेगा। नयी सरकार अपना पूर्ण बजट पेश करेगी। अगर यूपीए की सरकार फिर से बनती है और पी चिदंबरम ही फिर से वित्त मंत्री बनते हैं, तब भी अंतरिम बजट में की गयी घोषणाओं को लागू करना मुश्किल होगा। नियमों के तहत चिदंबरम यूपीए सरकार की दस साल की उपलब्धियों के बारे में बखानभर कर सकते थे।
हालांकि इस बात के लिए भी उनकी आलोचना होती, लेकिन चुनावी साल में अमूमन सभी ऐसा करते हैं। अंतरिम बजट में चिदंबरम द्वारा की गयी कुछ घोषणाओं को वास्तविकता में लागू नहीं किया जा सकता है। अब देश की जनता जागरूक हो गयी है। चुनावी साल में लोक लुभावन घोषणाओं से उसे बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है। आर्थिक लिहाज से भी इन घोषणाओं का कोई मतलब नहीं है।
यह ध्यान देने की बात है कि 2008-09 तक आर्थिक मंदी का सामना करने में भारत इसलिए सफल हो पाया था, क्योंकि तब उसकी बुनियाद मजबूत थी। वर्ष 2008 के बाद घरेलू निवेश का हिस्सा 65 फीसदी, जबकि घरेलू बचत 35 फीसदी था। वर्ष 2014 में कमरतोड़ महंगाई के कारण निवेश 34 फीसदी रह गया है। आज भारत के बड़े-बड़े उद्योगपति ही देश में निवेश नहीं कर रहे हैं। पिछले पांच साल में भारत की आर्थिक बुनियाद काफी कमजोर हो गयी है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे कमजोर और संकटग्रस्त है। भारतीय अर्थव्यस्था संस्थागत चुनौती का सामना कर रही है। राजकोषीय घाटे को जिस तरह से कम करके बताया जा रहा है वह सिर्फ आंकड़ों की बाजीगरी है क्योंकि चिदंबरम ने बड़ी धूर्तता से सब्सिडी के 35000 करोड़ रुपए को अगले साल पर डाल दिया है। इतना ही नहीं इसके लिए आधारभूत संरचना और सामाजिक क्षेत्र पर होनेवाले खर्च में भी 90 हजार करोड़ रुपए की कटौती की गई है। ईंधन के लिए जो 65000 करोड़ रुपए की सब्सिडी रखी गई उसको प्राप्त करना तभी संभव होगा जबकि या तो सब्सिडी में अभूतपूर्व कमी कर दी जाए या फिर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल के मूल्य धराशायी हो जाएँ। जाहिर है कि सब्सिडी कम करने की महती जिम्मेदारियों से आनेवाली सरकार को जूझना होगा। यूपीए-2 सरकार ने इस चुनौती का ख्याल नहीं रखा। महंगाई को कम करने पर ध्यान नहीं दिया गया। सिर्फ महंगाई रिजर्व बैंक की नीतियों से नियंत्रित नहीं हो सकती है। रिजर्व बैंक सिर्फ रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट को घटाने और बढ़ाने जैसे छोटे कदम उठा सकता है। महंगाई को कम करने के लिए सरकार को व्यापक कदम उठाने की जरुरत है। इसके लिए सरकार को पीडीएस व्यवस्था को दुरुस्त करने की कोशिश करनी चाहिए थी, लेकिन विभिन्न सेक्टरों में महंगाई को काबू में करने की कोशिश नहीं की गई। यह कोशिश न तो पिछले दस साल में दिखी, और न ही अंतरिम बजट में कोई प्रावधान किया गया। प्रणव दा द्वारा प्रस्तावित सब्सिडी को सीधे लाभार्थियों के खाते में डालने की योजना का अभी तक कहीं अता-पता नहीं है। आज देश के सामने आर्थिक वृद्धि दर को बढ़ाने और महंगाई को कम करने की विकराल चुनौती है। यह आगे भी बनी रहेगी।
यूपीए सरकार के पूरे कार्यकाल में आधारभूत संरचना के विकास की गति काफी धीमी हो गयी। इससे रोजगार के अवसर भी कम हुए हैं। बड़ी परियोजनाएं कानूनी अड़चनों के कारण परवान नहीं चढ़ पायी। घोटालों के कारण नीतिगत स्तर पर ठहराव आ गया। रक्षा क्षेत्र की जरुरतों की छोटी-छोटी सामग्री भी विदेशों से आयात किए जाने लगे। इस कारण दूसरे दौर की सुधार प्रक्रियाओं को लागू करने में सरकार विफल रही। सरकार की इस नाकामी के कारण निवेशकों का विश्वास डोल गया जिसका असर अर्थव्यवस्था पर पड़ा और आर्थिक विकास दर सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया। अंतरिम बजट में आर्थिक विकास दर को बढ़ाने की कोई ठोस घोषणा नहीं की गयी। कुल मिला कर यह यूपीए सरकार का अंतरिम बजट नहीं, बल्कि कांग्रेस पार्टी का अंतरिम घोषणापत्र है। सरकार ने इस बजट में लोकलुभावन नीतियों द्वारा ज्यादा-से-ज्यादा जनता को अपने पक्ष में करने का प्रयासभर किया है जिनमें किसान,पूर्व सैनिक,छात्र,अल्पसंख्यक आदि शामिल हैं। यह आरोप इसलिए भी सच लगता है क्योंकि पूर्व सैनिकों के लिए समान रैंक के लिए समान पेंशन की पार्टी युवराज राहुल गांधी द्वारा की गई मांग को अभी 48 घंटे भी पूरे नहीं हुए थे और मांग को तमाम परंपराओं को ताक पर रखते हुए पूरा भी कर दिया गया। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
यह साफ है कि वित्त मंत्री पी चिदंबरम द्वारा पेश अंतरिम बजट सिर्फ लोकसभा चुनाव को ध्यान में रख कर तैयार किया गया है। इस बजट का न तो देश के वर्तमान से ही कुछ लेना-देना है और न ही भविष्य से ही। हमें ध्यान रखना चाहिए कि ‘वोट ऑन एकाउंट’ में करों से संबंधित विशेष प्रावधान नहीं किये जाते हैं। चुनाव से पहले सरकारी खर्च के लिए ही अंतरित बजट पेश किया जाता है।
2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार और 2009 में तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने भी अंतरिम बजट में करों का कोई नया प्रावधान नहीं किया था, लेकिन वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने इस बार ऐसा कर दिया। पहली बात तो यह कि यह संसदीय परंपराओं के खिलाफ है।
कुछ महीने बाद आम चुनाव होनेवाले हैं और मई, 2014 तक नयी सरकार का गठन हो जायेगा। नयी सरकार अपना पूर्ण बजट पेश करेगी। अगर यूपीए की सरकार फिर से बनती है और पी चिदंबरम ही फिर से वित्त मंत्री बनते हैं, तब भी अंतरिम बजट में की गयी घोषणाओं को लागू करना मुश्किल होगा। नियमों के तहत चिदंबरम यूपीए सरकार की दस साल की उपलब्धियों के बारे में बखानभर कर सकते थे।
हालांकि इस बात के लिए भी उनकी आलोचना होती, लेकिन चुनावी साल में अमूमन सभी ऐसा करते हैं। अंतरिम बजट में चिदंबरम द्वारा की गयी कुछ घोषणाओं को वास्तविकता में लागू नहीं किया जा सकता है। अब देश की जनता जागरूक हो गयी है। चुनावी साल में लोक लुभावन घोषणाओं से उसे बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है। आर्थिक लिहाज से भी इन घोषणाओं का कोई मतलब नहीं है।
यह ध्यान देने की बात है कि 2008-09 तक आर्थिक मंदी का सामना करने में भारत इसलिए सफल हो पाया था, क्योंकि तब उसकी बुनियाद मजबूत थी। वर्ष 2008 के बाद घरेलू निवेश का हिस्सा 65 फीसदी, जबकि घरेलू बचत 35 फीसदी था। वर्ष 2014 में कमरतोड़ महंगाई के कारण निवेश 34 फीसदी रह गया है। आज भारत के बड़े-बड़े उद्योगपति ही देश में निवेश नहीं कर रहे हैं। पिछले पांच साल में भारत की आर्थिक बुनियाद काफी कमजोर हो गयी है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे कमजोर और संकटग्रस्त है। भारतीय अर्थव्यस्था संस्थागत चुनौती का सामना कर रही है। राजकोषीय घाटे को जिस तरह से कम करके बताया जा रहा है वह सिर्फ आंकड़ों की बाजीगरी है क्योंकि चिदंबरम ने बड़ी धूर्तता से सब्सिडी के 35000 करोड़ रुपए को अगले साल पर डाल दिया है। इतना ही नहीं इसके लिए आधारभूत संरचना और सामाजिक क्षेत्र पर होनेवाले खर्च में भी 90 हजार करोड़ रुपए की कटौती की गई है। ईंधन के लिए जो 65000 करोड़ रुपए की सब्सिडी रखी गई उसको प्राप्त करना तभी संभव होगा जबकि या तो सब्सिडी में अभूतपूर्व कमी कर दी जाए या फिर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल के मूल्य धराशायी हो जाएँ। जाहिर है कि सब्सिडी कम करने की महती जिम्मेदारियों से आनेवाली सरकार को जूझना होगा। यूपीए-2 सरकार ने इस चुनौती का ख्याल नहीं रखा। महंगाई को कम करने पर ध्यान नहीं दिया गया। सिर्फ महंगाई रिजर्व बैंक की नीतियों से नियंत्रित नहीं हो सकती है। रिजर्व बैंक सिर्फ रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट को घटाने और बढ़ाने जैसे छोटे कदम उठा सकता है। महंगाई को कम करने के लिए सरकार को व्यापक कदम उठाने की जरुरत है। इसके लिए सरकार को पीडीएस व्यवस्था को दुरुस्त करने की कोशिश करनी चाहिए थी, लेकिन विभिन्न सेक्टरों में महंगाई को काबू में करने की कोशिश नहीं की गई। यह कोशिश न तो पिछले दस साल में दिखी, और न ही अंतरिम बजट में कोई प्रावधान किया गया। प्रणव दा द्वारा प्रस्तावित सब्सिडी को सीधे लाभार्थियों के खाते में डालने की योजना का अभी तक कहीं अता-पता नहीं है। आज देश के सामने आर्थिक वृद्धि दर को बढ़ाने और महंगाई को कम करने की विकराल चुनौती है। यह आगे भी बनी रहेगी।
यूपीए सरकार के पूरे कार्यकाल में आधारभूत संरचना के विकास की गति काफी धीमी हो गयी। इससे रोजगार के अवसर भी कम हुए हैं। बड़ी परियोजनाएं कानूनी अड़चनों के कारण परवान नहीं चढ़ पायी। घोटालों के कारण नीतिगत स्तर पर ठहराव आ गया। रक्षा क्षेत्र की जरुरतों की छोटी-छोटी सामग्री भी विदेशों से आयात किए जाने लगे। इस कारण दूसरे दौर की सुधार प्रक्रियाओं को लागू करने में सरकार विफल रही। सरकार की इस नाकामी के कारण निवेशकों का विश्वास डोल गया जिसका असर अर्थव्यवस्था पर पड़ा और आर्थिक विकास दर सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया। अंतरिम बजट में आर्थिक विकास दर को बढ़ाने की कोई ठोस घोषणा नहीं की गयी। कुल मिला कर यह यूपीए सरकार का अंतरिम बजट नहीं, बल्कि कांग्रेस पार्टी का अंतरिम घोषणापत्र है। सरकार ने इस बजट में लोकलुभावन नीतियों द्वारा ज्यादा-से-ज्यादा जनता को अपने पक्ष में करने का प्रयासभर किया है जिनमें किसान,पूर्व सैनिक,छात्र,अल्पसंख्यक आदि शामिल हैं। यह आरोप इसलिए भी सच लगता है क्योंकि पूर्व सैनिकों के लिए समान रैंक के लिए समान पेंशन की पार्टी युवराज राहुल गांधी द्वारा की गई मांग को अभी 48 घंटे भी पूरे नहीं हुए थे और मांग को तमाम परंपराओं को ताक पर रखते हुए पूरा भी कर दिया गया। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
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