19-2-18,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,कथित गांधीवादी अन्ना हजारे ने
एक बार फिर से अपने विचार बदल लिए हैं। कदाचित यू-टर्न लेने की उनमें और
उनके कथित चेले अरविन्द केजरीवाल में होड़-सी लगी हुई है। कभी अन्ना को
नीतीश कुमार अच्छे लगने लगते हैं तो कभी अरविन्द केजरीवाल और कभी ममता
बनर्जी। आजकल ममता बनर्जी की बारी आई हुई है। इतना ही नहीं कभी अन्ना को
संसद द्वारा पारित लोकपाल अच्छा लगने लगता है तो कभी केजरीवाल का जनलोकपाल।
समझ में नहीं आता कि अन्ना आखिर चाहते क्या हैं? क्या उनका चित्त स्थिर
है? क्या उनके ऊपर विश्वास किया जा सकता है? अन्ना की कौन-सी बात सही है और
कौन-सी गलत?
मित्रों,आपको याद होगा कि जब अरविन्द केजरीवाल ने राजनैतिक दल के गठन की घोषणा की थी तो अन्ना ने खुलकर उसका विरोध किया था। फिर कभी उन्होंने केजरीवाल का विरोध किया तो फिर अगले ही दिन समर्थन भी कर दिया। अभी कुछ दिन पहले कांग्रेस ने संसद से लोकपाल को पास करने की घोषणा की। यह जानने के बावजूद अन्ना अनशन पर बैठ गए। फिर राहुल गांधी ने लोकपाल की जरुरत पर बल दिया और सरकार ने बिल लाकर उसे पारित करवा लिया। जब अन्ना और पूरे देश को पता था कि उक्त सत्र में सरकार लोकपाल लाने जा रही है तो फिर समझ में नहीं आता कि अन्ना क्यों अनशन पर बैठे? क्या वे इसका श्रेय पूरी संसद के स्थान पर सिर्फ राहुल गांधी को दिलवाना चाहते थे?
मित्रों,अभी तक अन्ना का जो विचित्र व्यवहार रहा है उससे ऐसा प्रतिध्वनित होता है कि अन्ना कहीं-न-कहीं कांग्रेसी हैं और वे चाहते हैं कि केंद्र में किसी-न-किसी तरह से कांग्रेस की ही सरकार रहे। हम अपने अनुभव के आधार पर जानते हैं कि चुनावों से पहले ये कथित धर्मनिरपेक्ष दल चाहे जितनी भी तू तू मैं मैं कर लें चुनावों के बाद सबके सब कांग्रेस से मिल जाते हैं। यहाँ तक कि सपा और बसपा जैसे धुर विरोधी दल भी कांग्रेसी घाट पर एकसाथ पानी पीने लगते हैं। फिर अन्ना की ऐसी क्या मजबूरी है कि वे हमेशा इन कथित धर्मनिरपेक्ष दलों का ही समर्थन करते हैं? पहले केजरीवाल अच्छे लगे लेकिन जब देखा कि यह बंदा तो अब काफी बदनाम हो चुका है तो उन्होंने एक अन्य ऐसे दल का समर्थन कर दिया जिसके नाम में भी कांग्रेस लगा हुआ है और जिसका चाल,चरित्र और चेहरा तो कांग्रेसवाला है ही। अन्ना को कैसे ममता का शासन अच्छा लग रहा है जबकि पश्चिम बंगाल के अस्पतालों में सरकारी भ्रष्टाचार के चलते जबसे ममता शासन में आई हैं मौत का तांडव चल रहा है।
मित्रों,मूलतः ममता और साम्यवादी दलों के शासन में कोई अंतर नहीं है। जो गुंडागर्दी और सामूहिक बलात्कार पहले साम्यवादी कार्यकर्ता कर रहे थे वही गुंडागर्दी और सामूहिक बलात्कार अब तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता कर रहे हैं। आखिर वो कौन-सा चश्मा है जिससे देखने पर अन्ना को ममता बनर्जी दूध की धुली नजर आ रही हैं?
मित्रों,प्रश्न उठता है कि क्या अन्ना दिल से भारत का भला चाहते हैं? क्या वे चाहते हैं कि भारत का तीव्रतर विकास हो और भारत से भ्रष्टाचार का समूल नाश हो जाए? अगर हाँ तो फिर उनको नरेंद्र मोदी और भाजपा से शत्रुता क्यों है? मुझे तो लगता है कि अन्ना उस दिलफेंक आशिक की तरह चलंतमति हैं जिसका दिल रह-रहकर कभी इस पर तो कभी उस पर आता रहता है। सिर्फ वंदे मातरम का नारा भर लगा देने से भारत महान नहीं हो जाएगा। ममता ने पश्चिम बंगाल में ऐसा क्या कर दिया है कि अन्ना उस पर मोहित हो गए? ममता का शासन तो इतना निर्मम है कि उसने एक बिहारी बेटी को जिसका कि बंगाल में सामूहिक बलात्कार हुआ था अपने हाल पर छोड़ दिया। यहाँ तक कि घटना के बाद लंबे समय तक बलात्कारियों को गिरफ्तार तक नहीं किया,ममता की पुलिस ने साक्ष्यों को नष्ट हो जाने दिया और जब बिहार सरकार ने उसकी मदद करनी चाही तो उसके एक मंत्री ने उसका भी विरोध किया।
मित्रों,हमें कोरे नारे नहीं चाहिए। नारे तो पिछले 65 सालों से लग रहे हैं। अब हमें मजबूर की जगह मजबूत सरकार चाहिए,अब हमें गठबंधन की जगह एकदलीय सरकार चाहिए,अब हमें नीति नहीं नीयत चाहिए, कोरे नारे नहीं धरातल पर काम चाहिए,योजनाएँ नहीं उनका सटीक और पारदर्शी क्रियान्वन चाहिए,ममता जैसी 10-20 सांसदों वाला कमजोर और पिलपिला प्रधानमंत्री नहीं 273 प्लस वाला सिंहनाद करनेवाला शेर चाहिए जिसकी गर्जना से चीन से लेकर अमेरिका तक काँपने लगे। वही अमेरिका जिसका एजेंट होने के आरोप इन दिनों यू टर्न गुरू अन्नाजी के चेले पर लग रहे हैं। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
मित्रों,आपको याद होगा कि जब अरविन्द केजरीवाल ने राजनैतिक दल के गठन की घोषणा की थी तो अन्ना ने खुलकर उसका विरोध किया था। फिर कभी उन्होंने केजरीवाल का विरोध किया तो फिर अगले ही दिन समर्थन भी कर दिया। अभी कुछ दिन पहले कांग्रेस ने संसद से लोकपाल को पास करने की घोषणा की। यह जानने के बावजूद अन्ना अनशन पर बैठ गए। फिर राहुल गांधी ने लोकपाल की जरुरत पर बल दिया और सरकार ने बिल लाकर उसे पारित करवा लिया। जब अन्ना और पूरे देश को पता था कि उक्त सत्र में सरकार लोकपाल लाने जा रही है तो फिर समझ में नहीं आता कि अन्ना क्यों अनशन पर बैठे? क्या वे इसका श्रेय पूरी संसद के स्थान पर सिर्फ राहुल गांधी को दिलवाना चाहते थे?
मित्रों,अभी तक अन्ना का जो विचित्र व्यवहार रहा है उससे ऐसा प्रतिध्वनित होता है कि अन्ना कहीं-न-कहीं कांग्रेसी हैं और वे चाहते हैं कि केंद्र में किसी-न-किसी तरह से कांग्रेस की ही सरकार रहे। हम अपने अनुभव के आधार पर जानते हैं कि चुनावों से पहले ये कथित धर्मनिरपेक्ष दल चाहे जितनी भी तू तू मैं मैं कर लें चुनावों के बाद सबके सब कांग्रेस से मिल जाते हैं। यहाँ तक कि सपा और बसपा जैसे धुर विरोधी दल भी कांग्रेसी घाट पर एकसाथ पानी पीने लगते हैं। फिर अन्ना की ऐसी क्या मजबूरी है कि वे हमेशा इन कथित धर्मनिरपेक्ष दलों का ही समर्थन करते हैं? पहले केजरीवाल अच्छे लगे लेकिन जब देखा कि यह बंदा तो अब काफी बदनाम हो चुका है तो उन्होंने एक अन्य ऐसे दल का समर्थन कर दिया जिसके नाम में भी कांग्रेस लगा हुआ है और जिसका चाल,चरित्र और चेहरा तो कांग्रेसवाला है ही। अन्ना को कैसे ममता का शासन अच्छा लग रहा है जबकि पश्चिम बंगाल के अस्पतालों में सरकारी भ्रष्टाचार के चलते जबसे ममता शासन में आई हैं मौत का तांडव चल रहा है।
मित्रों,मूलतः ममता और साम्यवादी दलों के शासन में कोई अंतर नहीं है। जो गुंडागर्दी और सामूहिक बलात्कार पहले साम्यवादी कार्यकर्ता कर रहे थे वही गुंडागर्दी और सामूहिक बलात्कार अब तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता कर रहे हैं। आखिर वो कौन-सा चश्मा है जिससे देखने पर अन्ना को ममता बनर्जी दूध की धुली नजर आ रही हैं?
मित्रों,प्रश्न उठता है कि क्या अन्ना दिल से भारत का भला चाहते हैं? क्या वे चाहते हैं कि भारत का तीव्रतर विकास हो और भारत से भ्रष्टाचार का समूल नाश हो जाए? अगर हाँ तो फिर उनको नरेंद्र मोदी और भाजपा से शत्रुता क्यों है? मुझे तो लगता है कि अन्ना उस दिलफेंक आशिक की तरह चलंतमति हैं जिसका दिल रह-रहकर कभी इस पर तो कभी उस पर आता रहता है। सिर्फ वंदे मातरम का नारा भर लगा देने से भारत महान नहीं हो जाएगा। ममता ने पश्चिम बंगाल में ऐसा क्या कर दिया है कि अन्ना उस पर मोहित हो गए? ममता का शासन तो इतना निर्मम है कि उसने एक बिहारी बेटी को जिसका कि बंगाल में सामूहिक बलात्कार हुआ था अपने हाल पर छोड़ दिया। यहाँ तक कि घटना के बाद लंबे समय तक बलात्कारियों को गिरफ्तार तक नहीं किया,ममता की पुलिस ने साक्ष्यों को नष्ट हो जाने दिया और जब बिहार सरकार ने उसकी मदद करनी चाही तो उसके एक मंत्री ने उसका भी विरोध किया।
मित्रों,हमें कोरे नारे नहीं चाहिए। नारे तो पिछले 65 सालों से लग रहे हैं। अब हमें मजबूर की जगह मजबूत सरकार चाहिए,अब हमें गठबंधन की जगह एकदलीय सरकार चाहिए,अब हमें नीति नहीं नीयत चाहिए, कोरे नारे नहीं धरातल पर काम चाहिए,योजनाएँ नहीं उनका सटीक और पारदर्शी क्रियान्वन चाहिए,ममता जैसी 10-20 सांसदों वाला कमजोर और पिलपिला प्रधानमंत्री नहीं 273 प्लस वाला सिंहनाद करनेवाला शेर चाहिए जिसकी गर्जना से चीन से लेकर अमेरिका तक काँपने लगे। वही अमेरिका जिसका एजेंट होने के आरोप इन दिनों यू टर्न गुरू अन्नाजी के चेले पर लग रहे हैं। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
2 टिप्पणियां:
अब तो इनकी विश्वसनीयता इन्होने खुद ही ख़त्म कर दी है....ममता भले ही सादगी पसंद हो लेकिन वो घनघोर सांप्रदायिक हैं.............पहले कहते थे की किसी राजनैतिक पार्टी को पास नहीं आने देंगे. अब सीधे सांप्रदायिक पार्टी से मिल गए.........क्या फर्क रहा इनमे और मुलायम सिंह में
अब तो इनकी विश्वसनीयता इन्होने खुद ही ख़त्म कर दी है....ममता भले ही सादगी पसंद हो लेकिन वो घनघोर सांप्रदायिक हैं.............पहले कहते थे की किसी राजनैतिक पार्टी को पास नहीं आने देंगे. अब सीधे सांप्रदायिक पार्टी से मिल गए.........क्या फर्क रहा इनमे और मुलायम सिंह में
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