हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,आज प्रशांत किशोर को कौन नहीं जानता? वे किसी परिचय के मोहताज नहीं है। वह एक ऐसी शख्सियत के रूप में उभरे हैं जिसका चुनावी रणनीति बनाने में कोई जवाब नहीं है। जब प्रशांत ने मोदी के अभियान का नेतृत्व किया तब किसी को भी आश्चर्य नहीं हुआ लेकिन जब लालू-नीतीश ने उनको अपनी नैया का खेवनहार बनाया तो वह जरूर आश्चर्यचकित कर देनेवाला निर्णय था। आश्चर्यचकित कर देनेवाला इसलिए क्योंकि लालू-नीतीश हमेशा से ब्राह्मणविरोधी आरक्षणवादी व्यवस्था के कट्टर समर्थक रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि उन्होंने क्यों और कैसे एक ब्राह्मण प्रशांत किशोर को अपना रणनीतिकार बनाया।
मित्रों,जब इनलोगों को डॉक्टर बनाना होता है तो वे 100 में से 90 अंक लानेवाले डॉक्टर की जगह 10 नंबर लानेवाले को डॉक्टर बनाते हैं,गांवों में प्रतिभावान पढ़े-लिखे नेतृत्व की जगह अंगूठाछाप को मुखिया-सरपंच बनाते हैं तो इनको अपना रणनीतिकार बनाने में भी तो आरक्षण लागू करना चाहिए था। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि तब सवाल राज्य या पंचायत के विकास का नहीं था बल्कि अपनी कुर्सी का था,अपने भविष्य का था इसलिए किसी भी तरह का जोखिम नहीं लिया जा सकता था। इसलिए इनलोगों ने सर्वश्रेष्ठ दिमागवाले,प्रतिभावाले को अपनी रणनीति बनाने का भार सौंपा। मुझे पूरा यकीन है कि चाहे लालू-नीतीश हों या मुलायम-माया जब ये लोग बीमार होंगे तो ये सर्वश्रेष्ठ डॉक्टर के पास ही जाएंगे फिर वो डॉक्टर किसी वैसी जाति से ही क्यों न आता हो जिनको वे जीवनभर गालियाँ देते रहे हों। तब ये लोग 100 में से 10 अंक पाकर प्रवेश परीक्षा में जाति के बल पर सफल घोषित होनेवाले से अपना ईलाज हरगिज नहीं करवाएंगे बल्कि तब इनको 100 में से 91 अंक लानेवाले के पास ही जाएंगे फिर भले ही वो क्यों न तिलक,तराजू और तलवार या भूराबाल वाली जातियों से आते हों। माया ने तो पिछले दो चुनावों से अपना नारा भी बदल दिया है-ब्राह्मण शंख बचाएगा,हाथी बढ़ता जाएगा। बहनजी, 5 साल पहले तक आपके करकमलों से जूते खानेवाला ब्राह्मण क्यों शंख बजाएगा?
मित्रों,कहने का तात्पर्य यह है कि न कथित समाजवादी और कथित मनुवाद-विरोधी नेताओं का न तो कोई सिद्धांत है और न ही कोई मूल्य। इनको तो बस किसी भी तरह से चुनाव जीतना है। ये लोग जब राज्य का सवाल आएगा तब तो प्रतिभा की जगह वोटबैंक को प्राथमिकता देंगे,दूसरों की हजामत होनी हो तो बंदर के हाथ भी उस्तरा पकड़ा देंगे लेकिन जब सवाल खुद अपने भविष्य या अपनी जान का आएगा तब ये लोग किसी भी तरह का जोखिम नहीं लेंगे और सर्वश्रेष्ठ को ही अपना सहायक या खेवनहार बनाएंगे। यहाँ मेरे कहने यह तात्पर्य नहीं है कि पिछड़ी जातियों या दलित-आदिवासियों में कोई प्रतिभावान है ही नहीं। मेरा उद्देश्य तो इन घनघोर जातिवादी नेताओं के दोहरे मापदंड यानि अपने लिए कुछ और राज्य के मामले में कुछ और की पोल खोलना मात्र है।
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