मित्रों,अगर आपने विशाखदत्त रचित मुद्राराक्षस नाटक पढ़ा होगा तो देखा होगा कि उसमें दो पक्ष हैं-एक का नेतृत्व चंद्रगुप्त मौर्य के हाथों में है और दूसरे की बागडोर है घनानंद के हाथों में। दोनों के पास एक-एक महान रणनीतिकार है चंद्रगुप्त के लिए चाणक्य सारी योजनाएँ बनाते हैं तो घनानंद के लिए मुद्राराक्षस रणनीति बनाते हैं। यद्यपि मुद्राराक्षस भी महान राजनीतिज्ञ है लेकिन वह अन्यायी का साथ दे रहा है,एक ऐसे राजा का साथ दे रहा है जिसका उद्देश्य भोग-विलास मात्र है तो वहीं चाणक्य और चंद्रगुप्त महान उद्देश्य की प्राप्त के लिए अथक परिश्रम कर रहे हैं। वे दोनों माँ भारती का विदेशी आक्रांताओं से उद्धार और अखंड भारत की स्थापना करना चाहते हैं। अंत में जीत चाणक्य और चंद्रगुप्त की होती है और घनानंद मृत्यु को प्राप्त होता है।
मित्रों,अगर हम वर्तमान भारत के परिदृश्य को देखें तो कुछ वैसी ही स्थिति देखने को मिलेगी जो 2500 साल पहले थी। आज एक तरफ तो नरेंद्र मोदी हैं जो माँ भारती का उद्धार करना चाहते हैं तो दूसरी ओर वे तमाम प्रतिगामी शक्तियाँ हैं जो वर्षों से देश को लूटती आ रही हैं।
एक तरफ नरेंद्र मोदी खुद ही अपनी रणनीतियाँ बना रहे हैं तो प्रतिगामी घनानंद सदृश शक्तियों को सहारा है महान रणनीतिकार प्रशांत किशोर का। निश्चित रूप से प्रशांत अपने काम में गजब के माहिर हैं और उन्होंने बिहार के चुनावों में इसको साबित भी किया है लेकिन सवाल उठता है कि क्या प्रशांत जो कर रहे हैं वह देशहित में है? महान तो शुक्राचार्य भी थे,रावण भी था लेकिन वे लोग पूज्य तो नहीं हैं। क्यों? क्योंकि उनके कृत्य समाजविरोधी,धर्मविरोधी थे।
मित्रों,हम मानते हैं कि हमारे लिए भी पैसा बहुत बड़ी चीज है लेकिन पैसा न तो कभी सबकुछ रहा है और न ही हो सकता है। प्रशांत को कदाचित पैसे के साथ-साथ शुक्राचार्य की तरह पावर भी चाहिए था जो दर्जा प्राप्त कैबिनेट मंत्री बनने से मिल भी गया है। परंतु इन तमाम उपलब्धियों के बावजूद सवाल उठता है प्रशांत जो कुछ भी कर रहे हैं उससे देश का भला होगा? अगर भला नहीं होगा तो फिर उनको क्या कहा जाए? क्यों उनकी तुलना रावण या शुक्राचार्य से नहीं होनी चाहिए? अगर उनकी अंतरात्मा मानसिंह की अंतरात्मा की तरह उनको नहीं धिक्कारती है तो क्या यह देशभक्त प्रबुद्ध लोगों का कर्तव्य नहीं है कि उनकी निंदा करे और उनको आत्मावलोकन के लिए बाध्य करने का प्रयास करे? आखिर अपना भारत आज भी घास की रोटी खाकर देश के लिए लड़नेवाले प्रताप की ही पूजा करता है न कि सोने-चांदी की थाली में छप्पन भोग खानेवाले मानसिंह की।
मित्रों,अगर हम वर्तमान भारत के परिदृश्य को देखें तो कुछ वैसी ही स्थिति देखने को मिलेगी जो 2500 साल पहले थी। आज एक तरफ तो नरेंद्र मोदी हैं जो माँ भारती का उद्धार करना चाहते हैं तो दूसरी ओर वे तमाम प्रतिगामी शक्तियाँ हैं जो वर्षों से देश को लूटती आ रही हैं।
एक तरफ नरेंद्र मोदी खुद ही अपनी रणनीतियाँ बना रहे हैं तो प्रतिगामी घनानंद सदृश शक्तियों को सहारा है महान रणनीतिकार प्रशांत किशोर का। निश्चित रूप से प्रशांत अपने काम में गजब के माहिर हैं और उन्होंने बिहार के चुनावों में इसको साबित भी किया है लेकिन सवाल उठता है कि क्या प्रशांत जो कर रहे हैं वह देशहित में है? महान तो शुक्राचार्य भी थे,रावण भी था लेकिन वे लोग पूज्य तो नहीं हैं। क्यों? क्योंकि उनके कृत्य समाजविरोधी,धर्मविरोधी थे।
मित्रों,हम मानते हैं कि हमारे लिए भी पैसा बहुत बड़ी चीज है लेकिन पैसा न तो कभी सबकुछ रहा है और न ही हो सकता है। प्रशांत को कदाचित पैसे के साथ-साथ शुक्राचार्य की तरह पावर भी चाहिए था जो दर्जा प्राप्त कैबिनेट मंत्री बनने से मिल भी गया है। परंतु इन तमाम उपलब्धियों के बावजूद सवाल उठता है प्रशांत जो कुछ भी कर रहे हैं उससे देश का भला होगा? अगर भला नहीं होगा तो फिर उनको क्या कहा जाए? क्यों उनकी तुलना रावण या शुक्राचार्य से नहीं होनी चाहिए? अगर उनकी अंतरात्मा मानसिंह की अंतरात्मा की तरह उनको नहीं धिक्कारती है तो क्या यह देशभक्त प्रबुद्ध लोगों का कर्तव्य नहीं है कि उनकी निंदा करे और उनको आत्मावलोकन के लिए बाध्य करने का प्रयास करे? आखिर अपना भारत आज भी घास की रोटी खाकर देश के लिए लड़नेवाले प्रताप की ही पूजा करता है न कि सोने-चांदी की थाली में छप्पन भोग खानेवाले मानसिंह की।
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