मित्रों, हम जानते हैं कि बिहार भारत का सबसे पिछड़ा राज्य है। इसमें कुछ योगदान निश्चित रूप से बिहारियों के स्वयं का है लेकिन अगर हम कहें बिहार के पिछड़ापन के लिए बैंक भी कम जिम्मेदार नहीं हैं तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। आजादी और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद से ही बैंकों का ऋण-जमा अनुपात बिहार में ही सबसे कम रहा है,क्यों? विजय माल्या जितना चाहे उतना कर्ज पा जाता है लेकिन एक बिहारी अगर अपनी मेहनत से जमा किया गया पैसा भी निकालने जाए तो बैंकवाले उसके साथ इस कदर बेरूखी से पेश आते हैं मानों वो बैंक लूटने आया हो। ऐसा नहीं है कि बिहार में अंबानी-टाटा पैदा नहीं हो सकते लेकिन जब बैंक पैसा देगा ही नहीं तो व्यवसायी व्यवसाय करेगा कैसे? पता नहीं प्रधानमंत्री द्वारा घोषित स्टार्ट अप में बिहार की हालत क्या है लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि बिहार इसमें भी शर्तिया सबसे पीछे होगा। ऐसा भी नहीं है कि बिहार के सभी सरकारी बैंकों के प्रबंधक बिहार के बाहर से हैं बल्कि लगभग सारे-के-सारे बिहारी हैं लेकिन उनकी नीयत गंदी है। वे सोंचते हैं कि जब तक उनको व्यक्तिगत आर्थिक लाभ न हो वे किसी की मदद क्यों करें? वे यह भी सोंचते हैं किअगर बिहार का विकास होता है तो उनको इससे क्या फायदा होगा?
मित्रों, अब वैशाली जिले के ऐतिहासिक शहर महनार (बुद्धकालीन महानगर) स्थित एसबीआई की शाखा के मैनेजर को ही लें तो श्रीमान का कहना है कि रिजर्व बैंक को जो कहना है कहे हम तो वही करेंगे जो हमारा मन करेगा। श्रीमान का नाम है गोपाल प्रसाद सिंह। महनार एसबीआई से जुड़े 9 ग्राहक सेवा केंद्रों के 10000 ग्राहकों की इनकी जिद के चलते जान पर बन आई है। पहले इन्होंने ग्राहक सेवा केंद्रों को 20000 रुपये प्रति ग्राहक प्रतिदिन जमा और इतनी ही निकासी की मंजूरी दे रखी थी लेकिन अब नोटबंदी के बाद ये प्रति ग्राहक मात्र 2000 रुपये प्रतिदिन ही जमा ले रहे हैं। उस पर जले पर नमक यह कि ग्राहकों की निकासी के लिए सीएसपी को एक भी पैसा नहीं दे रहे जबकि यह खेती-किसानी का मौसम है और सीएसपी के अधिकतर ग्राहक किसान हैं। पता नहीं बिहार की बाँकी जगहों के ग्राहक सेवा केंद्रों को ग्राहकों की जान का ग्राहक बना दिया गया है या नहीं लेकिन बानगी से जो पता चल रहा है घोर निराशाजनक है। कदाचित इसे ही कहते हैं कि खेती कईली जिए ला,बैल बिका गेल बिए ला अर्थात् हमने खेती तो की थी जीने के लिए लेकिन बीज खरीदने में ही बैल को बेचना पड़ गया।
मित्रों, कल आईसीआईसीआई की हाजीपुर शाखा में भी हमारा जाना हुआ। पता चला कि वहाँ ग्राहकों से एक अतिरिक्त फॉर्म भरवाया जा रहा है जिसमें जमा किए गए पैसों का पूरा विवरण देना होता है। जब हमने बैंक अधिकारी से ऐतराज जताया और कहा कि आरबीआई ने तो इस तरह का कोई आदेश नहीं दिया है तो उनका साफ तौर पर कहना था कि उनका आरबीआई से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि वे तो वही करेंगे तो उनके उच्च पदस्थ अधिकारी आदेश देंगे।
मित्रों, अब आप ही बताईए कि इस तरह के बैंकिंग माहौल में कोई राज्य कैसे विकास कर सकता है? किसानों को जब उनका खुद का पैसा बुवाई के मौसम में ही नहीं मिलेगा तो खेती का विस्तार कैसे होगा और बिहार द्वितीय हरित क्रांति का ईंजन कैसे बनेगा? किसी के पैर बांध दीजिए फिर कहिए कि ये तो दौड़ ही नहीं रहा है!
मित्रों, हमारी यह दिली ख्वाहिश है कि नोटबंदी सिर्फ नोटबंदी तक ही सीमित नहीं रहे बल्कि इसे बैंक-परिवर्तन का महापर्व भी बनाना चाहिए। कहना न होगा कि अगर हमारे बैंकों का कामकाज निराशाजनक न होता तो नोटबंदी के इस कठिन समय में जनता को किंचित भी परेशानी नहीं उठानी पड़ती। इसलिए सरकार को बैंकों के रवैये में मूलभूत बदलाव लाना चाहिए तभी देश में भी जड़ से बदलाव आएगा। तभी भारत निवेश और व्यवसाय की वैश्विक रैंकिंग में तेजी से ऊपर चढ़ेगा। वरना गोपाल का प्रसाद जिसको मिलेगा केवल वहीं सिंह बनेगा और जैसा चलता है चलता रहेगा।
मित्रों, अब वैशाली जिले के ऐतिहासिक शहर महनार (बुद्धकालीन महानगर) स्थित एसबीआई की शाखा के मैनेजर को ही लें तो श्रीमान का कहना है कि रिजर्व बैंक को जो कहना है कहे हम तो वही करेंगे जो हमारा मन करेगा। श्रीमान का नाम है गोपाल प्रसाद सिंह। महनार एसबीआई से जुड़े 9 ग्राहक सेवा केंद्रों के 10000 ग्राहकों की इनकी जिद के चलते जान पर बन आई है। पहले इन्होंने ग्राहक सेवा केंद्रों को 20000 रुपये प्रति ग्राहक प्रतिदिन जमा और इतनी ही निकासी की मंजूरी दे रखी थी लेकिन अब नोटबंदी के बाद ये प्रति ग्राहक मात्र 2000 रुपये प्रतिदिन ही जमा ले रहे हैं। उस पर जले पर नमक यह कि ग्राहकों की निकासी के लिए सीएसपी को एक भी पैसा नहीं दे रहे जबकि यह खेती-किसानी का मौसम है और सीएसपी के अधिकतर ग्राहक किसान हैं। पता नहीं बिहार की बाँकी जगहों के ग्राहक सेवा केंद्रों को ग्राहकों की जान का ग्राहक बना दिया गया है या नहीं लेकिन बानगी से जो पता चल रहा है घोर निराशाजनक है। कदाचित इसे ही कहते हैं कि खेती कईली जिए ला,बैल बिका गेल बिए ला अर्थात् हमने खेती तो की थी जीने के लिए लेकिन बीज खरीदने में ही बैल को बेचना पड़ गया।
मित्रों, कल आईसीआईसीआई की हाजीपुर शाखा में भी हमारा जाना हुआ। पता चला कि वहाँ ग्राहकों से एक अतिरिक्त फॉर्म भरवाया जा रहा है जिसमें जमा किए गए पैसों का पूरा विवरण देना होता है। जब हमने बैंक अधिकारी से ऐतराज जताया और कहा कि आरबीआई ने तो इस तरह का कोई आदेश नहीं दिया है तो उनका साफ तौर पर कहना था कि उनका आरबीआई से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि वे तो वही करेंगे तो उनके उच्च पदस्थ अधिकारी आदेश देंगे।
मित्रों, अब आप ही बताईए कि इस तरह के बैंकिंग माहौल में कोई राज्य कैसे विकास कर सकता है? किसानों को जब उनका खुद का पैसा बुवाई के मौसम में ही नहीं मिलेगा तो खेती का विस्तार कैसे होगा और बिहार द्वितीय हरित क्रांति का ईंजन कैसे बनेगा? किसी के पैर बांध दीजिए फिर कहिए कि ये तो दौड़ ही नहीं रहा है!
मित्रों, हमारी यह दिली ख्वाहिश है कि नोटबंदी सिर्फ नोटबंदी तक ही सीमित नहीं रहे बल्कि इसे बैंक-परिवर्तन का महापर्व भी बनाना चाहिए। कहना न होगा कि अगर हमारे बैंकों का कामकाज निराशाजनक न होता तो नोटबंदी के इस कठिन समय में जनता को किंचित भी परेशानी नहीं उठानी पड़ती। इसलिए सरकार को बैंकों के रवैये में मूलभूत बदलाव लाना चाहिए तभी देश में भी जड़ से बदलाव आएगा। तभी भारत निवेश और व्यवसाय की वैश्विक रैंकिंग में तेजी से ऊपर चढ़ेगा। वरना गोपाल का प्रसाद जिसको मिलेगा केवल वहीं सिंह बनेगा और जैसा चलता है चलता रहेगा।
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