मित्रों, मान लीजिए आप एक गाँव में रहते हैं और बहुत दयालु हैं. गाँव में
कोइ बेहद गरीब है और आप उसकी सहायता करना चाहते हैं तो आप क्या करेंगे?
सामान्यतया तो आप भी वही करेंगे जो बांकी लोग करते हैं. उसको कुछ पैसे दे
देंगे और वो उसको खा जाने के बाद फिर से आपके दरवाजे पर आ जाएगा. फिर यह
सिलसिला बार-बार चलेगा मगर ऐसा करने से न तो आपको संतोष मिलेगा न ही उसकी
स्थिति ही सुधरेगी. तो इसका क्या समाधान निकालेंगे? आप देखेंगे कि क्या
उसको कहीं नौकरी मिल सकती है या वो कोई व्यवसाय कर सकता है.
मित्रों, ठीक यही स्थिति इस समय हमारे देश में किसानों की है. सरकारें आती हैं और चली जाती हैं. लगभग हर सरकार ने किसानों के कर्ज माफ़ किए हैं लेकिन किसी ने भी कृषि को लाभकारी बनाने के बारे में नहीं सोंचा है. पहली बार केंद्र में एक ऐसी सरकार आई है जो इस दिशा में ठोस कदम उठाने के बारे में सोंच रही है. चूंकि संविधान की सातवीं अनुसूची में कृषि को राज्य सूची में रखा गया है इसलिए यह काम काफी मुश्किल है.
मित्रों, मान लीजिए केंद्र सरकार ने मिट्टी स्वास्थय कार्ड जारी करने की योजना बनाई या फसल बीमा योजना को विस्तार देने की घोषणा की लेकिन राज्य सरकार जिसको योजनाओं को लागू करना है ने पर्याप्त अभिरुचि नहीं दिखाई तो? केंद्र सरकार राज्य सरकारों से अपील ही कर सकती है उनमें जबरदस्ती अभिरुचि तो नहीं पैदा कर सकती.
मित्रों, फिर भी ऐसा नहीं कि केंद्र कुछ कर ही नहीं सकती. वो न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ा सकती है और विभिन्न उपायों द्वारा कृषि लागत को भी कम कर सकती है लेकिन इन दोनों के लिए उसको भारी मात्रा में सब्सिडी देनी पड़ेगी.
मित्रों, साथ ही केंद्र सरकार को चाहिए कि नए इलाकों में ज्यादा मुनाफा देनेवाली फसलों की खेती के लिए अनुसन्धान करवाए. उदाहरण के लिए अगर झारखण्ड के जामताड़ा में काजू की शौकिया खेती हो सकती है जो पूरे झारखण्ड या उसकी जैसी जलवायुवाले इलाकों में क्यों नहीं हो सकती? हमें याद है कि एक समय कटिहार और नौगछिया में केले और मखाने की खेती बिलकुल नहीं होती थी और तब वह इलाका बेहद गरीब था लेकिन आज उसका कायाकल्प को चुका है. नए इलाकों में ज्यादा लाभ देनेवाली फसलों की खेती करवाते समय यह भी ध्यान में रखना होगी कि उन फसलों को बाजार भी मिले. उदाहरण के लिए गोभी के मौसम में जब हाजीपुर में गोभी १५ रूपए किलो थी तब हाजीपुर से ३० किलो मीटर दूर महनार के किसान उसे ३ रूपये किलो बेचने के लिए मजबूर थे. जाहिर है कि उनको घाटा लग रहा था. कई बार किसान ऐसी स्थिति में फसल को बेचने के बदले सड़कों पर फेंकने लगते हैं.
मित्रों, कहने का लब्बोलुआब यह है कि चाहे केंद्र लाख माथापच्ची कर ले लेकिन वो तब तक खेती को लाभकारी नहीं बना सकती जब तक उसको राज्य सरकारों का सहयोग नहीं मिलेगा. सिर्फ बजट आवंटित करने से अगर किसी क्षेत्र का भला हो जाता तो भारत आज भी विकासशील नहीं होता. सबसे बड़ी चीज है ईच्छाशक्ति और समन्वय. मगर ये होगा कैसे जब विपक्ष हिंसा फ़ैलाने पर आमदा हो? कई राज्यों में तो विपक्षी दलों की सरकार है और उन्होंने केंद्र के साथ सहयोग नहीं किया तो? हम जानते हैं कि अंत में जो लोग आज कृषि को लाभकारी बनाने के पवित्र कार्य में सबसे ज्यादा अडंगा लगा रहे हैं वे लोग ही कल को कहेंगे कि मोदी सरकार तो ऐसा नहीं कर पाई.
मित्रों, अंत में दो सुझाव और देना चाहूँगा. पहले यह कि केंद्र यह नहीं देखे कि कौन-सा कृषि विशेषज्ञ किस खेमे का है बल्कि अगर उसके सुझाव अच्छे हैं तो उन पर बेहिचक अमल करे और दूसरा सुझाव केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह जी के लिए है कि उनको अभी बाबा रामदेव के गाईड का काम करना बंद कर मध्य प्रदेश का दौरा करना चाहिए. बाबा कोई बच्चा नहीं हैं वे अकेले भी चंपारण का भ्रमण कर सकते हैं.
मित्रों, ठीक यही स्थिति इस समय हमारे देश में किसानों की है. सरकारें आती हैं और चली जाती हैं. लगभग हर सरकार ने किसानों के कर्ज माफ़ किए हैं लेकिन किसी ने भी कृषि को लाभकारी बनाने के बारे में नहीं सोंचा है. पहली बार केंद्र में एक ऐसी सरकार आई है जो इस दिशा में ठोस कदम उठाने के बारे में सोंच रही है. चूंकि संविधान की सातवीं अनुसूची में कृषि को राज्य सूची में रखा गया है इसलिए यह काम काफी मुश्किल है.
मित्रों, मान लीजिए केंद्र सरकार ने मिट्टी स्वास्थय कार्ड जारी करने की योजना बनाई या फसल बीमा योजना को विस्तार देने की घोषणा की लेकिन राज्य सरकार जिसको योजनाओं को लागू करना है ने पर्याप्त अभिरुचि नहीं दिखाई तो? केंद्र सरकार राज्य सरकारों से अपील ही कर सकती है उनमें जबरदस्ती अभिरुचि तो नहीं पैदा कर सकती.
मित्रों, फिर भी ऐसा नहीं कि केंद्र कुछ कर ही नहीं सकती. वो न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ा सकती है और विभिन्न उपायों द्वारा कृषि लागत को भी कम कर सकती है लेकिन इन दोनों के लिए उसको भारी मात्रा में सब्सिडी देनी पड़ेगी.
मित्रों, साथ ही केंद्र सरकार को चाहिए कि नए इलाकों में ज्यादा मुनाफा देनेवाली फसलों की खेती के लिए अनुसन्धान करवाए. उदाहरण के लिए अगर झारखण्ड के जामताड़ा में काजू की शौकिया खेती हो सकती है जो पूरे झारखण्ड या उसकी जैसी जलवायुवाले इलाकों में क्यों नहीं हो सकती? हमें याद है कि एक समय कटिहार और नौगछिया में केले और मखाने की खेती बिलकुल नहीं होती थी और तब वह इलाका बेहद गरीब था लेकिन आज उसका कायाकल्प को चुका है. नए इलाकों में ज्यादा लाभ देनेवाली फसलों की खेती करवाते समय यह भी ध्यान में रखना होगी कि उन फसलों को बाजार भी मिले. उदाहरण के लिए गोभी के मौसम में जब हाजीपुर में गोभी १५ रूपए किलो थी तब हाजीपुर से ३० किलो मीटर दूर महनार के किसान उसे ३ रूपये किलो बेचने के लिए मजबूर थे. जाहिर है कि उनको घाटा लग रहा था. कई बार किसान ऐसी स्थिति में फसल को बेचने के बदले सड़कों पर फेंकने लगते हैं.
मित्रों, कहने का लब्बोलुआब यह है कि चाहे केंद्र लाख माथापच्ची कर ले लेकिन वो तब तक खेती को लाभकारी नहीं बना सकती जब तक उसको राज्य सरकारों का सहयोग नहीं मिलेगा. सिर्फ बजट आवंटित करने से अगर किसी क्षेत्र का भला हो जाता तो भारत आज भी विकासशील नहीं होता. सबसे बड़ी चीज है ईच्छाशक्ति और समन्वय. मगर ये होगा कैसे जब विपक्ष हिंसा फ़ैलाने पर आमदा हो? कई राज्यों में तो विपक्षी दलों की सरकार है और उन्होंने केंद्र के साथ सहयोग नहीं किया तो? हम जानते हैं कि अंत में जो लोग आज कृषि को लाभकारी बनाने के पवित्र कार्य में सबसे ज्यादा अडंगा लगा रहे हैं वे लोग ही कल को कहेंगे कि मोदी सरकार तो ऐसा नहीं कर पाई.
मित्रों, अंत में दो सुझाव और देना चाहूँगा. पहले यह कि केंद्र यह नहीं देखे कि कौन-सा कृषि विशेषज्ञ किस खेमे का है बल्कि अगर उसके सुझाव अच्छे हैं तो उन पर बेहिचक अमल करे और दूसरा सुझाव केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह जी के लिए है कि उनको अभी बाबा रामदेव के गाईड का काम करना बंद कर मध्य प्रदेश का दौरा करना चाहिए. बाबा कोई बच्चा नहीं हैं वे अकेले भी चंपारण का भ्रमण कर सकते हैं.
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