मित्रों, हम सभी जानते हैं कि हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में न तो कार्यपालिका, न ही संसद और न न्यायपालिका को ही बल्कि संविधान को ही सर्वोच्च कहा है. संविधान के अनुसार कानून बनाना संसद का काम होगा और संविधान की रक्षा करना न्यायपालिका का. यद्यपि तीनों के बीच अधिकारों का बंटवारा करते समय चेक एंड बैलेंस अर्थात नियंत्रण और संतुलन को प्राथमिकता दी गई तथापि उन्होंने इंग्लैंड की तरह संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया जिसके अनुसार राष्ट्रपति नाम मात्र का शासनाध्यक्ष होगा और उसको अपना शासन मंत्रिमंडल के परामर्श से चलाना होगा और वह परामर्श राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी होगा.
मित्रों, यह परामर्श शब्द एक जगह और भी संविधान में आया है. संविधान का अनुच्छेद १२४ कहता है कि राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश की नियुक्ति सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करता है जिन्हें वह इस कार्य के लिए आवश्यक समझता है. यह अनुच्छेद मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति को मुख्य न्यायाधीश से परामर्श लेना अनिवार्य बनाता है.
इसी प्रकार अनुच्छेद २१७ में प्रावधान किया गया है कि किसी उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, सम्बंधित राज्य के राज्यपाल एवं उस राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श लेना अनिवार्य है. परन्तु संविधान में परामर्श शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है कि यह परामर्श बाध्यकारी होगा अथवा नहीं. इसलिए यह पूर्णतः स्पष्ट नहीं है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में किसे प्रधानता होगी राष्ट्रपति को या न्यायाधीशों को.
मित्रों, न्यायपालिका की स्वतंत्रता बहुत संवेदनशील मुद्दा है क्योंकि प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के कार्यकाल में उस पर कई गंभीर आघात किए गए थे. उसी समय “प्रतिबद्ध न्यायपालिका” का नारा दिया गया था और वरिष्ठतम जज की उपेक्षा करके उससे जूनियर जज को भारत का प्रधान न्यायाधीश बना दिया गया था. जिसके चलते इमरजेंसी के दौरान न्यायपालिका की भूमिका गौरवपूर्ण नहीं रही. इसीलिए उसके बाद पूरी कोशिश की गई कि न्यायपालिका को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त किया जाए और जजों की नियुक्ति में सरकारी भूमिका को कम किया जाए.
मित्रों, कुछ इस तरह के माहौल में उपरोक्त अनुच्छेदों में परामर्श शब्द को परिभाषित करने हेतु सुप्रीम कोर्ट की तरफ से तीन निर्णय दिए गए जिन्हें ३ न्यायाधीशवाद की संज्ञा दी गई. प्रथम न्यायाधीशवाद में ७ न्यायाधीशों की पीठ ने 4:3 के बहुमत से १९८१ में निर्णय दिया कि अनु. १२४ एवं २१७ में परामर्श का अर्थ भारत के मुख्य न्यायाधीश की सहमति नहीं है. यदि राष्ट्रपति और मुख्य न्यायाधीश के मध्य मतभिन्नता आती है तो राष्ट्रपति की राय प्रभावी होगी. लेकिन वर्ष १९९३ में द्वितीय न्यायाधीशवाद में ९ न्यायाधीशों की पीठ ने ७:2 के बहुमत से वर्ष १९९३ में निर्णय को उलट दिया. इस निर्णय में परामर्श को सहमति माना गया और विवाद की स्थिति में मुख्य न्यायाधीश की राय को प्रभावी बताया गया. इसी निर्णय के आधार पर कोलेजियम प्रणाली अस्तित्व में आई.
मित्रों, इस प्रणाली में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश एवं २ अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीशों की राय से सरकार को अवगत करा दी जाने की व्यवस्था बनाई, जो कि राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी थी. अपवादस्वरुप सरकार मजबूत एवं ठोस तर्कों से अनुशंसित नियुक्ति को अस्वीकार कर सकती थी किन्तु निर्णय में व्यवस्था थी कि यदि पुनः अनुशंसा करनेवाले न्यायाधीश एकमत से सरकार के तर्कों को दरकिनार करके अनुशंसित नियुक्ति की पुनः अनुशंसा करते हैं तो सरकार यह नियुक्ति करने के लिए बाध्य होगी. इसके बाद वर्ष १९९८ में तृतीय न्यायाधीशवाद में कोलेजियम के आकार को बढाकर सर्वोच्च न्यायालय के ४ वरिष्ठतम जजों को भी शामिल कर लिया गया.
मित्रों, फिर तो माननीय न्यायमूर्तियों ने न्यायाधीश के पद की ऐसी अन्यायपूर्ण बंदरबांट की कि एनजेएसी पर सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान दिए गए आंकड़ों के अनुसार देश के 13 हाईकोर्ट में 52 फीसदी या करीब 99 जज बड़े वकीलों और जजों के रिश्तेदार हैं। आरोपों के अनुसार जजों की नियुक्ति प्रणाली में 200 अभिजात्य रसूखदार परिवारों का वर्चस्व है। सुप्रीम कोर्ट के जज कुरियन जोसफ ने कोलेजियम व्यवस्था में खामी पर सहमति जताते हुए सुधार के लिए खुलेपन की जरूरत जताई थी। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट अपने स्तर पर कोलेजियम व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के लिए न्यायिक आदेश पारित करने में विफल रहा। उसने केंद्र सरकार को ही मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर (एमओपी) में बदलाव करने का निर्देश दे दिया।
मित्रों, उसके बाद केंद्र सरकार ने बार-बार न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन के प्रयास किए. अंततः वर्ष २०१४ में वर्तमान केंद्र सरकार ने १२१वां संविधान संशोधन विधेयक २०१४ एवं राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक को दोनों सदनों से १४ अगस्त,२०१४ को पारित करवाया. तत्पश्चात राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को १३ अप्रैल, २०१५ को भारत सरकार के राजपत्र में अधिसूचित कर दिया गया. इस जन्म से पहले मार दिए गए राष्ट्रीय नियुक्ति आयोग में ६ सदस्य होने थे जिनमें सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय के ही २ वरिष्ठतम न्यायाधीश, केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री और दो प्रतिष्ठित व्यक्ति जो ३ सदस्यीय समिति जिसमें प्रधानमंत्री, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष के नेता शामिल होंगे द्वारा चयनित होंगे शामिल होने थे. परन्तु १६ अक्टूबर २०१५ को सर्वोच्च न्यायलय ने न्यायमूर्ति जे.एस. खेहर की अध्यक्षता में ५ न्यायाधीशों की पीठ ने ४:1 बहुमत से संविधान संशोधन को असंवैधानिक और शून्य घोषित कर दिया और पुराने कोलेजियम प्रणाली को ही जारी रखने का निर्णय देते हुए इसकी खामियों में सुधार हेतु सुझाव मांगे. संविधान संशोधन और आयोग के गठन वाला कानून संसद के दोनों सदनों ने बिना किसी विरोध के पारित किया था और उसे 20 विधानसभाओं का भी अनुमोदन प्राप्त था. इसलिए यह कहा जा सकता है कि ये जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व करते थे. इतना ही नहीं न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना विधि आयोग और प्रशासनिक सुधार आयोग जैसी संस्थाओं के व्यापक अध्ययन और सिफारिश के बाद की गई थी।
मित्रों, अब जबकि सुप्रीम कोर्ट एमओपी में बड़े बदलाव के लिए राजी नहीं है और उसके बगैर नए जजों की नियुक्ति लटकी है. चीफ जस्टिस के अनुसार विभिन्न हाईकोर्ट में 43 फीसदी पद रिक्त होने से 38 लाख मुकदमे लंबित हैं, लेकिन तथ्य यह भी है कि उच्च न्यायालयों के अलावा अन्य अदालतों में 3.5 करोड़ मुकदमे लंबित हैं। सवाल है कि ये मुकदमे क्यों लंबित हैं? इन अदालतों में तो जजों की नियुक्ति पर कोई गतिरोध नहीं है। न्यायिक सुधारों और जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव के बगैर केवल जजों की संख्या बढ़ाने से आम जनता को जल्दी न्याय कैसे मिलेगा? देश में 1940 और 1950 के दशक के मुकदमे अभी भी लंबित हैं। दूसरी ओर बड़े वकीलों की उपस्थिति से जयललिता और सलमान खान जैसे रसूखदारों के मुकदमों में तुरंत फैसला हो जाता है। पूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण ने जजों के भ्रष्टाचार को दर्शाते हुए एक हलफनामा दायर किया था। राजनीतिक भ्रष्टाचार पर सख्ती दिखाने वाला सुप्रीम कोर्ट जजों की अनियमितताओं के मामलों में सख्त कारवाई करने में विफल रहा। दिलचस्प है कि जजों को बर्खास्त करने के लिए संविधान में महाभियोग की प्रक्रिया निर्धारित की गई है, लेकिन यह प्रक्रिया इतनी कठिन है कि उसके इस्तेमाल से आज तक कोई भी जज हटाया नहीं जा सका है।
मित्रों, आखिर हमारी अदालतें 19वीं शताब्दी के कानून और 20वीं सदी की मानसिकता से लैस होकर 21वीं सदी की समस्याओं को सिर्फ जजों की संख्या बढ़ा कर कैसे सुलझा सकती हैं? जब सीनियर एडवोकेट्स की नियुक्ति हेतु सभी जजों की सहमति चाहिए होती है तो फिर जजों की नियुक्ति हेतु पांच जजों की बजाय सभी जजों की सहमति क्यों नहीं ली जाती? जब लोकतंत्र के सभी हिस्से सूचना अधिकार कानून के दायरे में हैं तो फिर जज उसके दायरे में आने से परहेज क्यों करते है? जब संसद की कार्यवाही का सीधा टीवी प्रसारण हो सकता है तो फिर अदालतों की कार्यवाही का सीधा प्रसारण या रिकार्डिंग को क्यों रोका जा रहा है? अगर जजों के बच्चे या रिश्तेदार हाईकोर्ट में वकालत कर रहे हैं तो फिर ऐसे जज अपना तबादला खुद कराकर नैतिक मिसाल क्यों नहीं पेश कर पा रहे हैं? सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार तीन महीने से ज्यादा कोई आर्डर रिजर्व नहीं रखा जा सकता। इसके बावजूद तमाम मामलों में सालों साल बाद आदेश पारित हो रहे हैं।
मित्रों, सुप्रीम कोर्ट द्वारा एडीआर मामले मे दिए गए फैसले के बाद सांसद और विधायक का चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों को व्यक्तिगत विवरण का हलफनामा जरूरी हो गया है। यदि जज भी सत्ता केंद्रों के साथ अपने संबंधों का हलफनामा दें तो उनकी नियुक्ति पारदर्शी हो जाएगी। इस तरह का हलफनामा देने की मांग पर सुप्रीम कोर्ट की खामोशी चिंताजनक है। नेम और शेम के तहत हलफनामे में विवरण के अनुसार रिश्तेदारों को चयन प्रक्रिया से बाहर होना ही पड़ेगा। इससे समाज के वंचित वर्ग के योग्य लोगों को जज बनने का मौका मिलेगा। हलफनामे में गलत तथ्य होने पर जजों को बगैर महाभियोग के हटाने में आसानी होगी।
मित्रों, सुप्रीम कोर्ट का निर्णय अपनी जगह है, लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि कॉलेजियम प्रणाली बहुत सुचारु ढंग से काम नहीं कर रही है. इसमें सुधार-संबंधी सुझावों पर विचार करने की बात कहकर खुद सुप्रीम कोर्ट ने प्रकारांतर से यह स्वीकार किया है कि प्रणाली में खामियां हैं. पिछले कई वर्षों के दौरान हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के कई जजों के भ्रष्टाचार के बारे में सवाल उठे हैं. देश के शीर्षस्थ कानूनविदों में से एक फाली एस. नरीमन ने हालांकि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का विरोध किया था, लेकिन उनका भी यह कहना था कि कॉलेजियम प्रणाली बिलकुल भी पारदर्शी नहीं है और इसे बदलने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि वह आयोग का इसलिए विरोध कर रहे हैं क्योंकि छह सदस्यों वाले इस आयोग में तीन ऐसे सदस्यों की नियुक्ति का प्रावधान है जिनमें कानून मंत्री भी शामिल होंगे और शेष दो सदस्य ऐसे होंगे जिनका कानून से कोई वास्ता ही नहीं होगा. इस तरह जजों की नियुक्ति में राजनीतिक हस्तक्षेप की गुंजाइश पैदा हो जाएगी.
मित्रों, दरअसल सबसे बड़ी समस्या यह है कि एक बार जज बन जाने के बाद उस व्यक्ति पर चाहे कितना भी गंभीर आरोप क्यों न लग जाए, उसे उसके पद से हटाने की प्रक्रिया इतनी कठिन और लंबी है कि हटाना लगभग असंभाव ही है. इसके कारण यह सवाल पैदा होता है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता बरकरार रखते हुए उसे जवाबदेह कैसे बनाया जाए. इस समय किसी को भी यह नहीं पता है कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया क्या है और उन्हें किन कसौटियों पर कसने के बाद नियुक्त किया जाता है, यानी उनकी नियुक्ति के लिए क्या मानक तय किए गए हैं. इसलिए यह राय बल पकड़ती जा रही है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता बचाने के नाम पर न्यायपालिका ने खुद को निरंकुश बना लिया है. यह अपने अधिकारों का दुरुपयोग तो है ही साथ ही लोकतंत्र में उसका कोई भी स्तंभ निरंकुश नहीं हो सकता.
मित्रों,कहाँ तो हमने सोंचा था कि वर्तमान केंद्र सरकार पूरी-की-पूरी न्याय व्यवस्था में ही आमूल-चूल परिवर्तन करेगी जिससे डिजिटलाईजेशन के इस युग में न्याय पाना चुटकी बजाने जितना आसान होगा और कहाँ अभी तक उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति को लेकर जारी गतिरोध ही दूर नहीं हो सका है. सवाल उठता है कि न्यायपालिका में बांकी के सुधार भी क्या स्वयं न्यायपालिका ही करेगी या संसद को बेधड़क होकर करने देगी जो संसद का संवैधानिक अधिकार भी है? फिर भी मैं मानता हूँ कि सरकार और संसद को इस दिशा में अपना काम तेजी से जारी रखना चाहिए जिससे हमारी न्याय व्यवस्था २१वीं सदी के साथ त्वरित गति से कदम-से-कदम मिलाकर चल सके. अगर आगे भी सर्वोच्च न्यायालय इस पवित्र कार्य में बाधा डालता है तब भी जनता के समक्ष यह तो साबित हो ही जाएगा वर्तमान सरकार की मंशा में कोई खोट नहीं है.
मित्रों, यह परामर्श शब्द एक जगह और भी संविधान में आया है. संविधान का अनुच्छेद १२४ कहता है कि राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश की नियुक्ति सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करता है जिन्हें वह इस कार्य के लिए आवश्यक समझता है. यह अनुच्छेद मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति को मुख्य न्यायाधीश से परामर्श लेना अनिवार्य बनाता है.
इसी प्रकार अनुच्छेद २१७ में प्रावधान किया गया है कि किसी उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, सम्बंधित राज्य के राज्यपाल एवं उस राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श लेना अनिवार्य है. परन्तु संविधान में परामर्श शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है कि यह परामर्श बाध्यकारी होगा अथवा नहीं. इसलिए यह पूर्णतः स्पष्ट नहीं है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में किसे प्रधानता होगी राष्ट्रपति को या न्यायाधीशों को.
मित्रों, न्यायपालिका की स्वतंत्रता बहुत संवेदनशील मुद्दा है क्योंकि प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के कार्यकाल में उस पर कई गंभीर आघात किए गए थे. उसी समय “प्रतिबद्ध न्यायपालिका” का नारा दिया गया था और वरिष्ठतम जज की उपेक्षा करके उससे जूनियर जज को भारत का प्रधान न्यायाधीश बना दिया गया था. जिसके चलते इमरजेंसी के दौरान न्यायपालिका की भूमिका गौरवपूर्ण नहीं रही. इसीलिए उसके बाद पूरी कोशिश की गई कि न्यायपालिका को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त किया जाए और जजों की नियुक्ति में सरकारी भूमिका को कम किया जाए.
मित्रों, कुछ इस तरह के माहौल में उपरोक्त अनुच्छेदों में परामर्श शब्द को परिभाषित करने हेतु सुप्रीम कोर्ट की तरफ से तीन निर्णय दिए गए जिन्हें ३ न्यायाधीशवाद की संज्ञा दी गई. प्रथम न्यायाधीशवाद में ७ न्यायाधीशों की पीठ ने 4:3 के बहुमत से १९८१ में निर्णय दिया कि अनु. १२४ एवं २१७ में परामर्श का अर्थ भारत के मुख्य न्यायाधीश की सहमति नहीं है. यदि राष्ट्रपति और मुख्य न्यायाधीश के मध्य मतभिन्नता आती है तो राष्ट्रपति की राय प्रभावी होगी. लेकिन वर्ष १९९३ में द्वितीय न्यायाधीशवाद में ९ न्यायाधीशों की पीठ ने ७:2 के बहुमत से वर्ष १९९३ में निर्णय को उलट दिया. इस निर्णय में परामर्श को सहमति माना गया और विवाद की स्थिति में मुख्य न्यायाधीश की राय को प्रभावी बताया गया. इसी निर्णय के आधार पर कोलेजियम प्रणाली अस्तित्व में आई.
मित्रों, इस प्रणाली में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश एवं २ अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीशों की राय से सरकार को अवगत करा दी जाने की व्यवस्था बनाई, जो कि राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी थी. अपवादस्वरुप सरकार मजबूत एवं ठोस तर्कों से अनुशंसित नियुक्ति को अस्वीकार कर सकती थी किन्तु निर्णय में व्यवस्था थी कि यदि पुनः अनुशंसा करनेवाले न्यायाधीश एकमत से सरकार के तर्कों को दरकिनार करके अनुशंसित नियुक्ति की पुनः अनुशंसा करते हैं तो सरकार यह नियुक्ति करने के लिए बाध्य होगी. इसके बाद वर्ष १९९८ में तृतीय न्यायाधीशवाद में कोलेजियम के आकार को बढाकर सर्वोच्च न्यायालय के ४ वरिष्ठतम जजों को भी शामिल कर लिया गया.
मित्रों, फिर तो माननीय न्यायमूर्तियों ने न्यायाधीश के पद की ऐसी अन्यायपूर्ण बंदरबांट की कि एनजेएसी पर सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान दिए गए आंकड़ों के अनुसार देश के 13 हाईकोर्ट में 52 फीसदी या करीब 99 जज बड़े वकीलों और जजों के रिश्तेदार हैं। आरोपों के अनुसार जजों की नियुक्ति प्रणाली में 200 अभिजात्य रसूखदार परिवारों का वर्चस्व है। सुप्रीम कोर्ट के जज कुरियन जोसफ ने कोलेजियम व्यवस्था में खामी पर सहमति जताते हुए सुधार के लिए खुलेपन की जरूरत जताई थी। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट अपने स्तर पर कोलेजियम व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के लिए न्यायिक आदेश पारित करने में विफल रहा। उसने केंद्र सरकार को ही मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर (एमओपी) में बदलाव करने का निर्देश दे दिया।
मित्रों, उसके बाद केंद्र सरकार ने बार-बार न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन के प्रयास किए. अंततः वर्ष २०१४ में वर्तमान केंद्र सरकार ने १२१वां संविधान संशोधन विधेयक २०१४ एवं राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक को दोनों सदनों से १४ अगस्त,२०१४ को पारित करवाया. तत्पश्चात राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को १३ अप्रैल, २०१५ को भारत सरकार के राजपत्र में अधिसूचित कर दिया गया. इस जन्म से पहले मार दिए गए राष्ट्रीय नियुक्ति आयोग में ६ सदस्य होने थे जिनमें सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय के ही २ वरिष्ठतम न्यायाधीश, केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री और दो प्रतिष्ठित व्यक्ति जो ३ सदस्यीय समिति जिसमें प्रधानमंत्री, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष के नेता शामिल होंगे द्वारा चयनित होंगे शामिल होने थे. परन्तु १६ अक्टूबर २०१५ को सर्वोच्च न्यायलय ने न्यायमूर्ति जे.एस. खेहर की अध्यक्षता में ५ न्यायाधीशों की पीठ ने ४:1 बहुमत से संविधान संशोधन को असंवैधानिक और शून्य घोषित कर दिया और पुराने कोलेजियम प्रणाली को ही जारी रखने का निर्णय देते हुए इसकी खामियों में सुधार हेतु सुझाव मांगे. संविधान संशोधन और आयोग के गठन वाला कानून संसद के दोनों सदनों ने बिना किसी विरोध के पारित किया था और उसे 20 विधानसभाओं का भी अनुमोदन प्राप्त था. इसलिए यह कहा जा सकता है कि ये जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व करते थे. इतना ही नहीं न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना विधि आयोग और प्रशासनिक सुधार आयोग जैसी संस्थाओं के व्यापक अध्ययन और सिफारिश के बाद की गई थी।
मित्रों, अब जबकि सुप्रीम कोर्ट एमओपी में बड़े बदलाव के लिए राजी नहीं है और उसके बगैर नए जजों की नियुक्ति लटकी है. चीफ जस्टिस के अनुसार विभिन्न हाईकोर्ट में 43 फीसदी पद रिक्त होने से 38 लाख मुकदमे लंबित हैं, लेकिन तथ्य यह भी है कि उच्च न्यायालयों के अलावा अन्य अदालतों में 3.5 करोड़ मुकदमे लंबित हैं। सवाल है कि ये मुकदमे क्यों लंबित हैं? इन अदालतों में तो जजों की नियुक्ति पर कोई गतिरोध नहीं है। न्यायिक सुधारों और जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव के बगैर केवल जजों की संख्या बढ़ाने से आम जनता को जल्दी न्याय कैसे मिलेगा? देश में 1940 और 1950 के दशक के मुकदमे अभी भी लंबित हैं। दूसरी ओर बड़े वकीलों की उपस्थिति से जयललिता और सलमान खान जैसे रसूखदारों के मुकदमों में तुरंत फैसला हो जाता है। पूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण ने जजों के भ्रष्टाचार को दर्शाते हुए एक हलफनामा दायर किया था। राजनीतिक भ्रष्टाचार पर सख्ती दिखाने वाला सुप्रीम कोर्ट जजों की अनियमितताओं के मामलों में सख्त कारवाई करने में विफल रहा। दिलचस्प है कि जजों को बर्खास्त करने के लिए संविधान में महाभियोग की प्रक्रिया निर्धारित की गई है, लेकिन यह प्रक्रिया इतनी कठिन है कि उसके इस्तेमाल से आज तक कोई भी जज हटाया नहीं जा सका है।
मित्रों, आखिर हमारी अदालतें 19वीं शताब्दी के कानून और 20वीं सदी की मानसिकता से लैस होकर 21वीं सदी की समस्याओं को सिर्फ जजों की संख्या बढ़ा कर कैसे सुलझा सकती हैं? जब सीनियर एडवोकेट्स की नियुक्ति हेतु सभी जजों की सहमति चाहिए होती है तो फिर जजों की नियुक्ति हेतु पांच जजों की बजाय सभी जजों की सहमति क्यों नहीं ली जाती? जब लोकतंत्र के सभी हिस्से सूचना अधिकार कानून के दायरे में हैं तो फिर जज उसके दायरे में आने से परहेज क्यों करते है? जब संसद की कार्यवाही का सीधा टीवी प्रसारण हो सकता है तो फिर अदालतों की कार्यवाही का सीधा प्रसारण या रिकार्डिंग को क्यों रोका जा रहा है? अगर जजों के बच्चे या रिश्तेदार हाईकोर्ट में वकालत कर रहे हैं तो फिर ऐसे जज अपना तबादला खुद कराकर नैतिक मिसाल क्यों नहीं पेश कर पा रहे हैं? सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार तीन महीने से ज्यादा कोई आर्डर रिजर्व नहीं रखा जा सकता। इसके बावजूद तमाम मामलों में सालों साल बाद आदेश पारित हो रहे हैं।
मित्रों, सुप्रीम कोर्ट द्वारा एडीआर मामले मे दिए गए फैसले के बाद सांसद और विधायक का चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों को व्यक्तिगत विवरण का हलफनामा जरूरी हो गया है। यदि जज भी सत्ता केंद्रों के साथ अपने संबंधों का हलफनामा दें तो उनकी नियुक्ति पारदर्शी हो जाएगी। इस तरह का हलफनामा देने की मांग पर सुप्रीम कोर्ट की खामोशी चिंताजनक है। नेम और शेम के तहत हलफनामे में विवरण के अनुसार रिश्तेदारों को चयन प्रक्रिया से बाहर होना ही पड़ेगा। इससे समाज के वंचित वर्ग के योग्य लोगों को जज बनने का मौका मिलेगा। हलफनामे में गलत तथ्य होने पर जजों को बगैर महाभियोग के हटाने में आसानी होगी।
मित्रों, सुप्रीम कोर्ट का निर्णय अपनी जगह है, लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि कॉलेजियम प्रणाली बहुत सुचारु ढंग से काम नहीं कर रही है. इसमें सुधार-संबंधी सुझावों पर विचार करने की बात कहकर खुद सुप्रीम कोर्ट ने प्रकारांतर से यह स्वीकार किया है कि प्रणाली में खामियां हैं. पिछले कई वर्षों के दौरान हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के कई जजों के भ्रष्टाचार के बारे में सवाल उठे हैं. देश के शीर्षस्थ कानूनविदों में से एक फाली एस. नरीमन ने हालांकि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का विरोध किया था, लेकिन उनका भी यह कहना था कि कॉलेजियम प्रणाली बिलकुल भी पारदर्शी नहीं है और इसे बदलने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि वह आयोग का इसलिए विरोध कर रहे हैं क्योंकि छह सदस्यों वाले इस आयोग में तीन ऐसे सदस्यों की नियुक्ति का प्रावधान है जिनमें कानून मंत्री भी शामिल होंगे और शेष दो सदस्य ऐसे होंगे जिनका कानून से कोई वास्ता ही नहीं होगा. इस तरह जजों की नियुक्ति में राजनीतिक हस्तक्षेप की गुंजाइश पैदा हो जाएगी.
मित्रों, दरअसल सबसे बड़ी समस्या यह है कि एक बार जज बन जाने के बाद उस व्यक्ति पर चाहे कितना भी गंभीर आरोप क्यों न लग जाए, उसे उसके पद से हटाने की प्रक्रिया इतनी कठिन और लंबी है कि हटाना लगभग असंभाव ही है. इसके कारण यह सवाल पैदा होता है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता बरकरार रखते हुए उसे जवाबदेह कैसे बनाया जाए. इस समय किसी को भी यह नहीं पता है कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया क्या है और उन्हें किन कसौटियों पर कसने के बाद नियुक्त किया जाता है, यानी उनकी नियुक्ति के लिए क्या मानक तय किए गए हैं. इसलिए यह राय बल पकड़ती जा रही है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता बचाने के नाम पर न्यायपालिका ने खुद को निरंकुश बना लिया है. यह अपने अधिकारों का दुरुपयोग तो है ही साथ ही लोकतंत्र में उसका कोई भी स्तंभ निरंकुश नहीं हो सकता.
मित्रों,कहाँ तो हमने सोंचा था कि वर्तमान केंद्र सरकार पूरी-की-पूरी न्याय व्यवस्था में ही आमूल-चूल परिवर्तन करेगी जिससे डिजिटलाईजेशन के इस युग में न्याय पाना चुटकी बजाने जितना आसान होगा और कहाँ अभी तक उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति को लेकर जारी गतिरोध ही दूर नहीं हो सका है. सवाल उठता है कि न्यायपालिका में बांकी के सुधार भी क्या स्वयं न्यायपालिका ही करेगी या संसद को बेधड़क होकर करने देगी जो संसद का संवैधानिक अधिकार भी है? फिर भी मैं मानता हूँ कि सरकार और संसद को इस दिशा में अपना काम तेजी से जारी रखना चाहिए जिससे हमारी न्याय व्यवस्था २१वीं सदी के साथ त्वरित गति से कदम-से-कदम मिलाकर चल सके. अगर आगे भी सर्वोच्च न्यायालय इस पवित्र कार्य में बाधा डालता है तब भी जनता के समक्ष यह तो साबित हो ही जाएगा वर्तमान सरकार की मंशा में कोई खोट नहीं है.
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