मित्रों, हम भारतीयों में एक अजीब आदत है. वो यह कि हम भयंकर अतिवादी हैं. हम या तो किसी भी भगवान बना देते हैं या फिर दानव. इतिहास गवाह है कि महात्मा बुद्ध के समय से ही बहुत सारे ऐसे महापुरुष भारत में पैदा हुए जिन्होंने अपने अनुयायियों को सख्ती से ताकीद किया कि मुझे इन्सान ही रहने देना भगवान नहीं बना देना परन्तु उनके मरने के बाद भारतीयों ने उन्हें भगवान बना दिया. आश्चर्य की बात तो यह है कि बुद्ध और कबीर ने आजीवन मूर्ति पूजा का विरोध किया और आज हर जगह उनकी मूर्तियाँ नजर आती हैं. यहाँ तक कि गाँधी और अंबेडकर को भी हमने नहीं छोड़ा.
मित्रों, गाँधी जी की आत्मकथा तो मैंने पढ़ी ही हैसाथ ही गाँधी दर्शन का भी अध्ययन किया है. मैंने जहाँ तक अनुभव किया है गाँधी में भी वो सारी कमजोरियां थीं जो एक इन्सान में होती हैं. गाँधी ने लिखा है कि जब उनके पिता अंतिम सांसें ले रहे थे तब वे अपनी पत्नी के साथ रतिक्रिया में लीन थे. इसी तरह गाँधी जी ने अपने ब्रम्हचर्य के साथ प्रयोग के बारे में लिखकर विस्तार से बताया है कि वे किस तरह ६०-७० साल की उम्र में नंगी लड़कियों के साथ सोते थे. इतना ही नहीं भारत के बंटवारा के लिए भी काफी हद तक गाँधी जी भी जिम्मेदार थे. दरअसल उन्होंने १९१६ में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच समझौता करके मुस्लिम लीग को मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था के रूप में न केवल मान्यता दे दी बल्कि इस रूप में उसे स्थापित होने का सुअवसर भी दे दिया.
मित्रों, बाद में भी जिन्ना और नेहरु के प्रति उनके झुकाव का नुकसान भारत को उठाना पड़ा. वास्तव में उम्र ढलने के साथ गाँधी जिद्दी हो गए थे. उनकी इसी जिद के चलते सुभाष चन्द्र बोस को कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव जीतने का बावजूद इस्तीफा देना पड़ा था और उन्होंने जिद करके न केवल उस पाकिस्तान को ५५ करोड़ रूपये दिलवाए जो तब तक कश्मीर पर कब्ज़ा कर चुका था बल्कि नेहरु को जबरन प्रधानमंत्री भी बनवा दिया जबकि कांग्रेस कार्यसमिति सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाना चाहती थी. क्या विडंबना है कि मो. अली जिन्ना गाँधी को हिन्दुओं का नेता मानते थे मगर गाँधी खुद को सर्वधर्मसमभाव का पुजारी मानते थे. सवाल उठता है कि अगर गाँधी सबके नेता थे तो फिर वे हिन्दू-मुस्लिम दंगों को क्यों नहीं रोक पाए? जब मुस्लिम लीग ने १६ अगस्त १९४६ को प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस की घोषणा की तब मुसलमानों ने गाँधी की क्यों नहीं सुनी? मैं समझता हूँ कि मेरे साथ-साथ आपने भी पढ़ा होगा कि आइन्स्टीन ने गाँधी की मृत्यु के बाद क्या कहा था यही कि आनेवाली पीढियां आसानी से यह विश्वास नहीं करेगी कि कोई इस तरह का हाड़-मांस का आदमी भी कभी धरती पर हुआ करता था. माना कि आइन्स्टीन गाँधी के अनन्य प्रशंसक थे लेकिन वे गाँधी को इन्सान ही मानते थे भगवान नहीं.
मित्रों, मैंने गोडसे को भी पढ़ा है. उनकी पुस्तक मैंने गाँधी वध क्यों किया शायद आपलोगों ने भी पढ़ी होगी. उसमें गोडसे कहते हैं कि वे गाँधी के आलोचक नहीं प्रशंसक हैं लेकिन गाँधी के कारण देश को जो क्षति हो रही थी उससे वे परेशान थे. यहाँ तक कि गाँधी पर गोली चलाने के दिन भी उसने पहले गाँधी का चरणस्पर्श किया था और बाद में उनपर गोली चला दी थी. गाँधी की हत्या तो गलत थी लेकिन उसके बदले में महाराष्ट्र में सैंकड़ों चितपावन ब्राम्हणों की जो सामूहिक हत्या कर दी गई वो कैसे सही थी? गलत तो वो भी था. जिस गाँधी की जिंदगी अहिंसा का पाठ पढ़ाते हुए बीती उसी की मौत का बदला हिंसा से लिया गया.
मित्रों, तात्पर्य यह कि न तो गाँधी जी भगवान थे और न ही नाथूराम राक्षस था बल्कि हमने एक को भगवान और दूसरे को राक्षस बना दिया. यहाँ तक कि हमने अपने आँख और कान बंद कर लिए और नाथूराम की आवाज को दबा दिया जबकि नाथूराम न तो पेशेवर हत्यारा था और न ही उसकी गाँधी जी के साथ कोई निजी दुश्मनी थी और न ही गाँधी को मारने में उसका कोई निजी स्वार्थ था. मैं यह नहीं कहता कि गाँधी की हत्या करके उसने कोई महान कार्य किया लेकिन महात्मा गाँधी और इंदिरा गाँधी की मौत का बदला हमने जिस तरह नरसंहार के द्वारा लिया मैं समझता हूँ वो भी सही नहीं था. न जाने हम कब यह समझेंगे कि दुनिया न तो पूरी तरह से ब्लैक है और न ही वाइट बल्कि दुनिया ग्रे है अर्थात वो थोड़ी काली भी है और थोड़ी उजली भी. श्रीलंका में जिस तरह प्रभाकरन के बेटे को बिस्कुट खिलाने के बाद गोली मार दी गई वो भी तो गलत था न, उसका बाप आतंकवादी था इसमें उस अबोध बच्चे का क्या दोष था?
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