मंगलवार, 21 जनवरी 2020

भारतीय राजनीति का काला नाग अरविन्द केजरीवाल


मित्रों, दुर्भाग्यवश आजादी के बाद से ही भारत में फर्जी हिन्दू नेताओं की कोई कमी नहीं रही है. पंडित जवाहरलाल नेहरु से शुरू हुई यह परंपरा समय के साथ पल्लवित और पुष्पित होती रही है. कांग्रेस में ऐसे नेताओं की लम्बी सूची है जो वास्तव में ईसाई धर्म में दीक्षित हो चुके हैं लेकिन अपना नाम हिन्दुओं वाला ही रखा है. इन नेताओं के पास बस दो ही काम हैं-एक कैसे हिन्दू धर्म के मूलोच्छेदन का मार्ग प्रशस्त किया जाए और दूसरा कैसे मुसलमानों को खुश करते हुए भारत में इसाई धर्म की पताका लहराई जाए.
मित्रों, ऐसे ही रंगे सियारों में से एक हैं दिल्ली के निवर्तमान मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल जिन्होंने भारत की राजधानी दिल्ली को पाकिस्तान बनाकर रख दिया है. मस्जिदों के मौलवियों को वेतन और मंदिरों के पुजारियों को चवन्नी तक नहीं ऐसा शायद पाकिस्तान में भी न होता होगा. क्या केजरीवाल दिल्ली को शरिया कानून के माध्यम से चलाना चाहता है? कहना न होगा कि इस नराधम ने भी अपना नाम हिन्दुओं वाला ही रख रखा है लेकिन इसका पूरा जीवन हिन्दूविरोधियों के सानिध्य में गुजरा है. इसने एक लम्बे समय तक इसाई संस्था मिशनरिज ऑफ़ चैरिटी में काम किया है. मुझे पक्का विश्वास है कि ये उसी समय इसाई बन गया था. भौतिक रूप से नहीं तो मानसिक रूप से तो जरूर.
मित्रों, फिर इसने भी एक एनजीओ बनाया और उसके जरिए अपने हिन्दूविरोधी और भारतविरोधी एजेंडे को आगे बढाया. इसने अपने इर्द-गिर्द तमाम साम्यवादी-माओवादी और इसाई एनजीओ को जमा किया और तत्पश्चात सुदूर महाराष्ट्र के एक बूढ़े गांधीवादी अन्ना हजारे को आगे करके भ्रष्टाचार के खिलाफ एक लिफाफा आन्दोलन छेड़ दिया. उस दौरान इसने अपने बच्चों के सर पर हाथ रखकर कसम खाई कि ये कभी भी राजनीति में नहीं आएगा लेकिन ये राजनीति में भी आया और दिल्ली की जनता को बरगलाकर वहां का मुख्यमंत्री भी बन गया. इस बीमार मानसिकतावाले व्यक्ति का पिछले ५ वर्षों में दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में बस एक ही एजेंडा रहा कि फ्री बिजली-पानी देकर हिन्दुओं को लोल्ली-पॉप पकड़ा दो और दिल्ली को मिनी पाकिस्तान बना दो. जब-जब भी कोई निर्दोष हिन्दू मुसलमानों की बर्बरता का शिकार हुआ तो यह उनसे मिलने तक नहीं गया और जब एक मुसलमान ने हिन्दू लड़की के साथ बलात्कार किया और लोहे की छड उसके गुप्तांग में डालकर उसकी अंतड़ियाँ बाहर निकाल डालीं तब इसने उसे सिलाई मशीन और पैसे देकर पुरस्कृत किया मानों उसने बहुत ही प्रशंसनीय कृत्य किया हो. जब भी कोई मुसलमान हिन्दुओं द्वारा की गई जवाबी कार्रवाई में मारा गया इसने वहां पहुँचने में क्षण-मात्र की भी देर नहीं लगाई और उनके परिजनों को नौकरी और धन देने की तत्काल घोषणा कर डाली. यहाँ तक कि इसने कुर्सी के लिए दिल्ली के मुसलमानों के हाथों में पत्थर थमा दिया और पूरी दिल्ली को दंगों की आग में झोंक डाला. उस पर अति यह कि इसने पुलिस फायरिंग में या आपसी फायरिंग में मारे गए मुसलमानों के परिजनों को भी नौकरी और पैसे दे डाले जैसे दिल्ली भारत में नहीं पाकिस्तान में हो.
मित्रों, सवाल उठता है कि क्या दिल्ली की हिन्दू जनता ऐसे काले नाग को फिर से दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाएगी जो दिल्ली को कश्मीर बना देना चाहता है? आखिर फ्री बिजली-पानी के अलावा केजरीवाल ने दिल्ली में किया ही क्या है और कौन-से वादे को पूरा किया है? दूसरी तरफ इसकी सरकार में किए गए घोटालों की लिस्ट काफी लम्बी है. अब तो इसने मंत्रालयों में आग लगाकर घोटालों के सबूतों को जलाना भी शुरू कर दिया है. इसलिए समय आ गया है जब भारतीय राजनीति के इस काले नाग के फन को समय रहते कुचल दिया जाए अन्यथा ऐसा न हो कि दिल्ली में हिन्दुओं का जीना और हिन्दू लड़कियों का घर से बाहर निकलना दूभर हो जाए. यकीन न हो तो शाहीन बाग़ की स्थिति को देख लीजिए.
 

बुधवार, 15 जनवरी 2020

बिहार में भी लागू हो एनआरसी

मित्रों, बात पुरानी है. १९९४-९५ की. उन दिनों मैं कटिहार जिले के कोढ़ा प्रखंड के फुलवरिया में रहता था और अपनी पुश्तैनी जमीन पर खेती करवाता था. उन दिनों मेरे चचेरे नाना जी कैलाश बाबू की जमीन एक पास के ही गाँव का मुसलमान जोता करता था. नाम था मोहम्मद इस्राईल. अक्सर वो मेरे पास भी बैठ जाया करता था. बातचीत के दौरान ही उसने बताया था कि वो बंगलादेशी मुसलमान है और हाल ही में वहां आया है. उसने यह भी बताया कि धीरे-धीरे उसने अपने पूरे खानदान सारे चाचा, मामा, मौसा, बहनों और बहनोईयों को भी कोढ़ा बुला लिया है. उन दिनों वहां के एनएच ३१ के किनारे के गड्ढों में बहुत सारी झोपड़ियाँ बन रही थीं और वे सारी बंगलादेशी घुसपैठियों की थीं. उस समय मैं कई बार कोढ़ा से बस द्वारा कटिहार गया था और देखा था कि सड़क किनारे बहुत-सी मस्जिदें बन चुकी थीं और बन रही थीं.
मित्रों, उस समय भाजपा और उसके आनुषंगिक संगठन बंगादेशी घुसपैठ को लेकर काफी मुखर और उग्र हुआ करते थे. लेकिन इसे राजनीति की माया कहें या सत्ता का लालच आजकल भाजपा के बिहारी नेताओं की जुबान ही नहीं खुलती. बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल यू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार बार-बार कह रहे हैं कि बिहार में एनआरसी यानि नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजनशिप को लागू नहीं किया जाएगा लेकिन बिहार भाजपा जो उनकी सरकार में शामिल है के लोगों की तो जैसे जुबान ही सिल गई है मानों मो. इस्राईल समेत सारे बांग्लादेशी घुसपैठी बिहार छोड़कर चले गए हों.
मित्रों, विभिन्न संस्थाओं एवं मीडिया के मोटे अनुमान के मुताबिक़, भारत में दस करोड़ से भी ज्यादा बंगलादेशी घुसपैठिए बस गए हैं और इनमें से ८० प्रतिशत सिर्फ बिहार,बंगाल,असम और झारखण्ड में हैं. एक अनुमान के अनुसार सिर्फ बिहार में १ करोड़ से ज्यादा बंगलादेशी हैं. 2006 में चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल में ऑपरेशन क्लीन भी चलाया था. 23 फरवरी 2006 तक अभियान चला और 13 लाख नाम काटे गए. हालांकि चुनाव आयोग फिर भी पूरी तरह संतुष्ट नहीं था और उसने केजे राव की अगुवाई में मतदाता सूची की समीक्षा के लिए अपनी टीम भेजी. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन राज्य सचिव अनिल विश्वास ने कहा था, उन्हें सैकड़ों पर्यवेक्षक भेजने दीजिए, अब कोई भी क़दम हमें जीतने से नहीं रोक सकता. इस बयान से अंदाज़ा लगाया गया कि माकपा को अपने समर्पित वोट बैंक पर कितना भरोसा रहा है. राजनीतिक पंडितों का मानना है कि वाममोर्चा के सत्ता में आने के समय से ही मुस्लिम घुसपैठियों को वोटर बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गई. उस समय ममता बनर्जी इस मुद्दे पर काफी मुखर थी और उन्होंने कहा था कि राज्य में दो करोड़ बोगस वोटर हैं. पर अब ममता मुख्यमंत्री बनने के बाद एनआरसी विरोधी हो गई हैं क्योंकि उन्हें भी सिर्फ बंगाल की कुर्सी दिख रही है देश दिखाई नहीं दे रहा.
मित्रों, 1991 की जनगणना में सा़फ दिखा कि असम एवं पूर्वोत्तर के राज्यों के साथ-साथ पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती ज़िलों की जनसंख्या भी कितनी तेज़ी से बढ़ी. एक मोटे अनुमान के मुताबिक़, प. बंगाल के सीमावर्ती ज़िलों के क़रीब 17 प्रतिशत वोटर घुसपैठिए हैं, जो कम से कम 56 विधानसभा सीटों पर हार-जीत का निर्णय करते हैं, जबकि असम की 32 प्रतिशत विधानसभा सीटों पर वे निर्णायक हालत में हैं. असम में भी मुसलमानों की आबादी 1951 में 24.68 प्रतिशत से 2001 में 30.91 प्रतिशत हो गई, जबकि इस अवधि में भारत के मुसलमानों की आबादी 9.91 से बढ़कर 13.42 प्रतिशत हो गई. 1991 की जनगणना के मुताबिक़, इसी दौरान बंगाल के पश्चिम दिनाजपुर, मालदा, वीरभूम और मुर्शिदाबाद की आबादी क्रमशः 36.75, 47.49, 33.06 और 61.39 प्रतिशत की दर से बढ़ी. सीमावर्ती ज़िलों में हिंदुओं एवं मुसलमानों की आबादी में वृद्धि का बेहिसाब अनुपात घुसपैठ की ख़तरनाक समस्या की ओर इशारा करता है. 1993 में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री ने भी लोकसभा में स्वीकार था कि 1981 से लेकर 1991 तक यानी 10 सालों में ही बंगाल में हिंदुओं की आबादी 20 प्रतिशत की दर से बढ़ी, तो मुसलमानों की आबादी में 38.8 फीसदी का इज़ा़फा हुआ. 1947 में बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी 29.17 प्रतिशत थी, जो 2001 में घटकर 2.5 प्रतिशत रह गई. सबूत तमाम तरह के हैं. 4 अगस्त, 1991 को बांग्लादेश के मॉर्निंग सन अख़बार में छपी रिपोर्ट के मुताबिक़, एक करोड़ बांग्लादेशी देश से लापता हैं. छह मई 1997 में संसद में दिए बयान में तत्कालीन गृह मंत्री इंद्रजीत गुप्ता ने भी स्वीकार किया था कि देश में एक करोड़ बांग्लादेशी हैं।
मित्रों, 2001 की जनगणना के मुताबिक़, भारत में बांग्लादेशी घुसपैठियों की संख्या 1.5 करोड़ थी. सीमा प्रबंधन पर बने टास्क फोर्स की रिपोर्ट के मुताबिक़, हर महीने तीन लाख बांग्लादेशियों के भारत में घुसने का अनुमान है. केवल दिल्ली में 13 लाख बांग्लादेशियों के होने की बात कही जाती है, हालांकि अधिकृत आंकड़ा चार लाख से कम ही बताता है. भारत-बांग्लादेश सीमा का गहन दौरा करने वाले लेखक वी के शशिकुमार ने इंडियन डिफेंस रिव्यू (4 अगस्त, 2009) में छपे अपने लेख में बताया कि किस तरह दलालों का गिरोह घुसपैठ कराने से लेकर भारतीय राशनकार्ड और वोटर पहचानपत्र बनवाने तक में मदद करता है. दक्षिण दिनाजपुर के हिली गांव में भारत-बांग्लादेश सीमा पर कुछ दीवारें बनाई गई हैं, कोई नहीं जानता कि इन्हें किसने बनाया है, पर यह समझने में मुश्किल नहीं है कि यह तस्करों के गिरोह की करतूत है. वहां सुबह से शाम तक तस्करी और घुसपैठ जारी रहती है. घुसपैठिए ज़्यादा से ज़्यादा गर्भवती महिलाओं को सीमा पार कराते हैं और उन्हें किसी भारतीय अस्पताल में प्रसव कराकर उसे जन्मजात भारतीय नागरिकता दिलवा देते हैं. इस काम में दलाल और उनके भारतीय रिश्तेदार भी मदद करते हैं. मालूम हो कि सीमा के क़रीब रहने वाले लोगों में परंपरागत रूप से अब भी शादी-ब्याह का रिश्ता चलता है. यही नहीं, कुंआरी लड़कियों को बिहार, उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे राज्यों में दुल्हनों के तौर पर बेच दिया जाता है. कई दलाल तो शादी कर उन्हें कोठे पर पहुंचा देते हैं. सीमा से लगी ज़मीन की ऊंची क़ीमतों से भी साबित होता है कि घुसपैठ एवं तस्करी को स्व-रोज़गार का कितना बड़ा साधन बना लिया गया है. इतना ही नहीं,14 जुलाई, 2002 को संसद में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने एक सवाल के जवाब में बताया था कि भारत में 10 करोड़ 20 लाख 53 हज़ार 950 अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं. इनमें से केवल बंगाल में ही ३ करोड़ हैं. इलीगल इमिग्रेशन फॉम बांग्लादेश टू इंडिया : द इमर्जिंग कन्फिल्क्ट के लेखक चंदन मित्रा ने पुस्तक में पश्चिम बंगाल के साथ असम में भी बांग्लादेशी घुसपैठियों से जुड़ी गतिविधियों एवं कार्रवाइयों का पूरा ब्यौरा दिया है. वह लिखते हैं, सच कहें तो पश्चिम बंगाल बांग्लादेशी घुसपैठियों का पसंदीदा राज्य बन गया है. 2003 में मुर्शिदाबाद ज़िले के मुर्शिदाबाद-जियागंज इलाक़े के नागरिकों को बहुउद्देशीय राष्ट्रीय पहचानपत्र देने के लिए केंद्र सरकार द्वारा पायलट प्रोजेक्ट के लिए चुना गया. इसमें भारतीय नागरिकों और ग़ैर-नागरिकों की पहचान तय करनी थी. हालांकि अंतिम रिपोर्ट अभी सौंपी जानी है, पर अंतरिम रिपोर्ट में चौंकाने वाला खुलासा हुआ. इस प्रोजेक्ट के दायरे में आने वाले 2,55,000 लोगों में से केवल 24,000 यानी 9.4 प्रतिशत लोगों के पास भारतीय नागरिकता साबित करने के लिए कम से कम एक दस्तावेज़ था. 90.6 प्रतिशत या 2,31,000 लोग निर्धारित 13 दस्तावेज़ों में से एक भी नहीं पेश कर पाए. आख़िर में इन्हें संदिग्ध नागरिकता की श्रेणी में डालकर छोड़ दिया गया.
मित्रों, यहाँ हम आपको बता दें कि असम के मंगलदोई संसदीय क्षेत्र में 1979 में हुए उपचुनाव में महज दो साल के दरम्यान 70 हजार मुस्लिम मतदाता बढऩे के बाद पहली बार देश में बांग्लादेशी घुसपैठ का मामला प्रकाश में आया था, लेकिन बिहार के लिए भी यह कोई नया मुद्दा नहीं है। 1980 में राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक बालाजी देवरस बिहार दौरे पर आए थे। तब समस्तीपुर की सभा में पूर्णिया एवं  किशनगंज के स्वयंसेवकों ने उन्हें इसकी जानकारी दी थी. इसके बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के महामंत्री की हैसियत से सुशील कुमार मोदी ने सीमांचल के जिलों का सघन दौरा किया था। उन्होंने 1983 में गुवाहाटी हाईकोर्ट के सामने जजेज फील्ड और इसके कुछ दिनों बाद पूर्णिया में बांग्लादेशी घुसपैठ के खिलाफ प्रदर्शन का नेतृत्व भी किया था। तब मुद्दे की गंभीरता को देखते हुए उन्होंने इस पर-'क्या बिहार भी असम बनेगा' पुस्तक भी लिखी थी। इसके बाद पूर्व विधान पार्षद और भाजपा नेता हरेंद्र प्रताप ने भी सीमांचल के इलाके में 1961 से लेकर 1991 की जनगणना के आंकड़ों के आधार बांग्लादेशी घुसपैठ की समस्या को लेकर 'बिहार पर मंडराता खतरा' नाम से  किताब लिखी, जिसका 2006 में विमोचन करने भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह पटना आए थे। 1985 के बाद हर चुनाव बिहार में भाजपा के लिए बांग्लादेशी घुसपैठियों का मामला एक मुद्दा रहा है। इसी के बल पर पार्टी को इस इलाके में हर चुनाव में सफलता भी मिलती रही है। कटिहार लोकसभा सीट से भाजपा के निखिल चौधरी के 1999, 2004 और 2009 में लगातार चुनाव जीतने, पूर्णियां 1998 में भाजपा के जयकृष्ण मंडल और 2004 और 2009 में उदय सिंह की जीत तथा अररिया में 98 में रामजी ऋषिदेव, 2004 में सुखदेव पासवान और 2009 में भाजपा के प्रदीप सिंह की जीत के पीछे कहीं न कहीं यह मुद्दा भी कारण रहा है। पार्टी नेताओं की राय है कि इस इलाके में मुस्लिम जनसंख्या में तेजी से हो रही वृद्धि का प्रमुख कारण बांग्लादेशी घुसपैठ है। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह का अभी भी कहना है कि बांग्लादेशी घुसपैठ की समस्या केवल असम तक सीमित नहीं है। पश्चिम बंगाल और बिहार भी इससे अछूते नहीं हैं। इसे जाति और धर्म से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए।
मित्रों, अगर हम 1991 की बिहार की जनगणना पर एक नजर डालें तो उस समय बिहार में हिन्दू आबादी 82.77 प्रतिशत थी और मुस्लिम आबादी 11.02 प्रतिशत. परन्तु 2011 की जनगणना के अनुसार हिन्दू आबादी 79.79 प्रतिशत रह गई और मुस्लिम आबादी 14.22 प्रतिशत हो गई. मतलब कि मुस्लिम आबादी 3.02 प्रतिशत बढ़ गई और हिन्दू आबादी उसी अनुपात में घट गई.  बिहार के सीमावर्ती जिलों में अररिया में 1971 में मुस्लिम आबादी 36.52 प्रतिशत थी जो 2011 में मुस्लिम आबादी 42.94 प्रतिशत हो गई अर्थात मुस्लिम आबादी में 6.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई. इसी तरह कटिहार में 1971 में मुस्लिम आबादी 36.58 प्रतिशत थी जो 2011 में बढ़कर 44.46 प्रतिशत हो गई अर्थात मुस्लिम आबादी में वृद्धि 7.88 प्रतिशत की रही.  इसी प्रकार पूर्णिया जिले में 1971 में मुस्लिम आबादी 31.93 प्रतिशत थी जो 2011 में बढ़कर 38.46 प्रतिशत हो गई यानि मुस्लिम आबादी में वृद्धि 6.53 प्रतिशत रही जो किसी भी तरह से सामान्य नहीं कही जा सकती।
मित्रों, स्वयं संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछली जनगणना में बांग्लादेश से एक करोड़ लोग गायब हैं। सवाल उठता है कि आखिर ये लोग गए कहाँ? इनको धरती निगल गई या आसमान खा गया. अगर मुसलमानों ने १९४७ में अपने लिए अलग देश नहीं लिया होता तब तो कोई बात नहीं थी लेकिन जब उनको धार्मिक आधार पर अलग देश दे दिया गया है तब भारत क्यों घुसपैठ की समस्या को झेले? इस समस्या का सबसे दुखद पहलू तो यह है कि बिहार और बंगाल के जो नेता विपक्ष में होते हुए कभी बांग्लादेशी घुसपैठियों को तत्काल निकाल-बाहर करने की मांग कर रहे थे इन दिनों वही सत्ता के लालच में एनआरसी का मुखर विरोध कर हिन्दू मतदाताओं और देशहित के साथ धोखा कर रहे हैं जिन्होंने उनको पहली बार जब से सत्ता में आए थे तब वोट दिया था. यह कितनी बड़ी विडंबना है कि अब जब वे नेता सत्ता में काबिज हो गए हैं तब उनको हिन्दुओं की भावनाओं से कुछ भी लेना-देना नहीं है और उनके लिए मुस्लिम वोट ही सबकुछ हो गया? यहाँ तक कि बिहार में भाजपा भी नीतीश कुमार के मिथ्या प्रलापों के आगे मूकदर्शक बनी बैठी है जो हिन्दुओं की एकमात्र पार्टी है. बिहार के मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि बिहार में एनआरसी लागू नहीं होना चाहिए? मैं उनसे पूछता हूँ क्यों नहीं होना चाहिए? क्या वे ऐसा दावे के साथ कह सकते हैं कि बिहार में कोई बांग्लादेशी घुसपैठी नहीं है? अगर उनको अपने ऊपर और अपने महाभ्रष्ट तंत्र के ऊपर इतना ही भरोसा है तो क्यों नहीं वे बिहार में एनआरसी लागू करके दूध का दूध और पानी का पानी हो जाने देते हैं (हालाँकि अभी एनआरसी अभी आई नहीं है)? आखिर इस समस्या पर किताब लिखनेवाले सुशील कुमार मोदी कुछ बोल क्यों नहीं रहे? क्या इस ठण्ड में उनको भी पाला मार गया है?

गुरुवार, 9 जनवरी 2020

राजनीति की बिसात पर दलित

मित्रों, जबसे अपना देश आजाद हुआ है तभी से विभिन्न राज्यों में तरह-तरह के राजनैतिक समीकरण बनते-बिगड़ते रहे हैं और देश की चुनावी राजनीति में दलितों की भूमिका महत्वपूर्ण होती गई है. खासकर उत्तर भारत में काशीराम और मायावती के पदार्पण के बाद से दलित जिसकी तरफ होते हैं विजयश्री उसी को मिलती है. ऐसे में स्वाभाविक है कि विभिन्न दल लगातार दलितों को अपने पक्ष में करने के प्रयास करते रहते हैं.
मित्रों, कुछ विघ्नसंतोषियों का शुरू से ही यह प्रयास रहा है कि दलितों को बांकी हिन्दुओं से किस प्रकार अलग-थलग करके उसका राजनैतिक लाभ उठाया जाए. प्रारंभ में वामपंथियों ने साहित्य में एक अलग धारा दलित साहित्य के नाम से बनाने और बहाने का प्रयास किया. इस धारा के लोग लगातार यह साबित करने में लगे रहते थे कि सवर्णों ने दलितों पर बेईन्तहा जुल्म ढाहे हैं. पता नहीं इस धारा के लोग कौन-सा इतिहास पढ़कर आए थे. उन लेखकों में कई सारे मुसलमान भी थे जो बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बने हुए थे. मैं पूछता हूँ कि ११९२ ई. के बाद से जब देश की बागडोर मुसलमानों के हाथों में चली गयी तो न जाने सवर्णों ने कब जुल्म किया? वो बेचारे तो खुद ही जुल्म के शिकार थे. वर्तमान में पाकिस्तान में जो दलितों के साथ हो रहा है क्या उसके लिए भी सवर्ण ही जिम्मेदार हैं? समाज में छुआछुत का प्रचलन जरूर था लेकिन वह उस युग की सीमा थी,युगधर्म था. जैसे-जैसे आधुनिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ यह कम होता गया और अब कहीं पर भी इसका नामोनिशान नहीं है.
मित्रों, मध्य प्रदेश,पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान से जरूर अभी भी ऐसी इक्का-दुक्का घटनाओं की खबरें आती रहती हैं जिन्हें दुर्भाग्यपूर्ण कहा जा सकता है. जैसे दलित को घोड़े पर चढ़ने से रोकना, बारात को रोक देना आदि. लेकिन इसके साथ ही ऐसी ख़बरें भी आती हैं जिनमें किसी राजपूत या जाट ने अपनी घोड़ी पर बिठा कर गाँव के दलित की बेटी के बारात निकलवाई तथापि मीडिया में ऐसी ख़बरों को दबा दिया जाता है. जहाँ तक मंदिरों में पूजा करने का सवाल है तो अब किसी भी मंदिर में दलितों को पूजा करने से रोका नहीं जाता बल्कि बिहार में तो बड़े-बड़े मंदिरों में दलितों को ही मुख्य पुजारी बना दिया गया है.
मित्रों, दुर्भाग्यवश आपसी रंजिश में घटित हिंसक घटनाओं को भी मीडिया और नेताओं द्वारा जातीय बना दिया जाता है. मीडिया में इन दिनों यह ट्रेंड भी देखने को मिलता है कि जब भी दलितों का झगडा पिछड़ों या सवर्णों से होता है तो मीडिया और कथित दलित राजनेता उसे तुरंत लपक लेते हैं लेकिन जब मुसलमान दलितों के खिलाफ हिंसा करते हैं तब मामले को दबाने की कोशिश की जाती है. कुछ ऐसा ही प्रयास अभी पाकिस्तान और बांग्लादेश से भारत आए हिन्दुओं को लेकर भी किया जा रहा है.
मित्रों, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि जब हमारे देश का बंटवारा हुआ तब जो हिन्दू पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान में रह गए लगभग वे सारे-के-सारे दलित थे. उन पर १९४७ से ही वहां के मुसलमान भयंकर अत्याचार कर रहे हैं. वहां उनको कोई कानूनी या राजनैतिक संरक्षण प्राप्त नहीं है. उल्टे मुसलमानों ने जब जी चाहा उनकी बालिग-नाबालिग लड़कियों को उठा लिया और जबरन उनका धर्म बदलकर शादी कर दी. वहां की पुलिस और अदालत भी अपहर्ताओं का ही साथ देती है इसलिए बेचारे दलित हिन्दू के पास मन मसोसकर रह जाने और अंत में भारत आने के सिवा और कोई उपाय शेष नहीं रह जाता. और जब भारत सरकार ने इन हिन्दुओं को भारत की नागरिकता देने की ठानी है तो कई दलित नेता भी बेवजह इसका विरोध करते हैं. आश्चर्य होता है कि मायावती और चंद्रशेखर रावण जैसे राजनेता जिनकी पूरी राजनीति दलितों पर आधारित है वे लोग कैसे इस कानून का विरोध कर सकते हैं? तो क्या उनका दलित प्रेम ढोंग मात्र नहीं है? आखिर क्यों रामविलास पासवान को टिकट बांटते समय अपने परिवार से बाहर का कोई दलित दिखाई नहीं देता?
मित्रों, पिछले कुछ सालों से मैं देख रहा हूँ कि ओवैसी भी दलित-दलित की रट लगाए हुए है और डीएम समीकरण यहाँ दलित-मुसलमान समीकरण की बात कर रहा है लेकिन वो भी सीएए का विरोध कर रहा है. तो क्या दलित इतने मूर्ख हैं या अन्धे हैं कि उनको यह सब नहीं दिख रहा? क्या दलित देख नहीं रहे कि किस तरह दलितों की देवी से मायवती दौलत की देवी बन बैठी जबकि दलित वहीँ के वहीँ खड़े रह गए? दलितों और गरीबों की राजनीति करनेवाले लालू, रामविलास पासवान आज किस तरह पैसों के ढेर पर बैठे हैं क्या दलितों को दिख नहीं रहा? भारत के दलितों को देखना चाहिए और समझना चाहिए कि हिन्दू समाज से अलग होकर पाकिस्तान में ही रूक जाने का क्या दुष्परिणाम वहां के दलितों को झेलना पड़ा जैसे पानी से अलग हो जाने पर मछली को झेलना पड़ता है? उनका हित खुद को हिन्दू समाज से अलग समझने में नहीं है बल्कि उसके साथ चलने में है. एकता में ही बल है और जब भी हिन्दू बंटेगा तो कटेगा और फिर घटेगा चाहे वो पाकिस्तान हो या भारत या बांग्लादेश. दलित हमारे हिन्दू समाज के सम्मानित और आवश्यक अंग हैं और हमें ख़ुशी है कि आजादी के बाद से उन्होंने काफी प्रगति भी की है. बिहार में ऐसे हजारों गाँव हैं जिनके मुखिया आज दलित हैं. आज दलितों के पास कार, बाईक क्या नहीं है? आज बहुत सारे हमारे दलित भाई तो बड़े-बड़े उद्योगपति भी हैं.

सोमवार, 6 जनवरी 2020

ननकाना साहिब के सबक

मित्रों, यह वह समय था जब पूरे उत्तर भारत पर लगातार मुस्लिम आक्रान्ताओं के हमले हो रहे थे और हताश हिन्दू मन के पास आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में सिवाय भगवान की शरण में जाने के और कोई विकल्प ही नहीं था. इन्हीं परिस्थितियों में भारत में भक्ति आन्दोलन ने जन्म लिया जिसने हिन्दू धर्म को पुनर्जीवन तो दिया ही हिंदी साहित्य को भी समृद्ध किया.
मित्रों, भक्ति आन्दोलन की गंगा को विद्वानों ने दो भागों में विभाजित किया है-निर्गुण और सगुण. इसी पहले वाले निर्गुण पंथ के प्रवर्तकों में से एक थे गुरु नानक. गुरु नानक ने सरल और सहज जीवन का उपदेश दिया. उन्होंने कहा कि ईश्वर एक है। सदैव एक ही ईश्वर की उपासना करो। ईश्वर सब जगह और प्राणी मात्र में मौजूद है. ईश्वर की भक्ति करने वालों को किसी का भय नहीं रहता। ईमानदारी से और मेहनत कर के उदरपूर्ति करनी चाहिए।
बुरा कार्य करने के बारे में न सोचें और न किसी को सताएं. सदैव प्रसन्न रहना चाहिए। ईश्वर से सदा अपने लिए क्षमा मांगनी चाहिए। मेहनत और ईमानदारी की कमाई में से ज़रूरतमंद को भी कुछ देना चाहिए। सभी स्त्री और पुरुष बराबर हैं। भोजन शरीर को जि़ंदा रखने के लिए ज़रूरी है पर लोभ−लालच व संग्रहवृत्ति बुरी है।
मित्रों, बाद के समय में जब मुग़ल शासन में भारत में हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया जाने लगा और मना करने पर उनकी हत्या होने लगी और उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार किए जाने लगे तब सिख पंथ के छठे गुरु हरगोविंद सिंह ने कहा कि जरुरत पड़ने पर धर्म रक्षा के लिए तलवार उठाना भी हमारे धर्म का भाग है. इसके लिए पंजाब के प्रत्येक हिन्दू परिवार से एक व्यक्ति बलिदानी सैनिक बनने लगा. यह परंपरा पंजाब में आज भी कायम है. बाद में औरंगजेब ने जब कश्मीर में हिन्दुओं के धर्म-परिवर्तन का हिंसक अभियान चलाया तब कश्मीरी हिन्दू नवम गुरु गुरु तेगबहादुर के पास अपनी शिकायत लेकर पहुँचने लगे. उस समय गुरूजी बिहार की राजधानी पटना में रह रहे थे. गुरूजी ने अपने परिवार के समक्ष सनातन धर्म पर छाए संकट का जिक्र करते हुए कहा कि किसी महान आत्मा को बलिदान देना पड़ेगा अन्यथा धर्म-रक्षा नहीं हो पाएगी. तब बालक गोविन्द ने कहा था कि पिताजी किसी और का इंतजार क्यों, आप खुद बलिदान क्यों नहीं देते? तब सनातन धर्म के प्रतिनिधि बनकर गुरु तेगबहादुर दिल्ली गए और औरंगजेब से धर्म के नाम पर अत्याचार बंद करने को कहा. तब अत्यंत अत्याचारी औरंगजेब ने शर्त रखी कि अगर आपने इस्लाम स्वीकार कर लिया तो सारे कश्मीरियों को भी इस्लाम स्वीकार करना पड़ेगा. उसके बाद औरंगजेब ने गुरूजी पर बेइंतहा जुल्म किए मगर गुरूजी सबको सह गए. अंत में उसने गुरूजी का सिर कटवा दिया. यह घटना जहाँ घटी वहां आज गर्व से खड़ा शीशगंज गुरुद्वारा शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले की कहावत को चरितार्थ कर रहा है.
मित्रों, इसके बाद तो औरंगजेब जैसे पागल ही हो गया और उसने हिन्दुओं के ऊपर और भी ज्यादा अत्याचार ढाहना शुरू कर दिया. तब बलिदानी गुरु तेगबहादुर जी के बेटे और सिखों के दशम और अंतिम गुरु गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज ने धर्म रक्षा के लिए तलवार उठाई और सर्वस्व बलिदान का आह्वान किया. वर्ष १७०४ ई. के उत्तरार्द्ध में सरसा नदी पर गुरु गोबिंद सिंह जी का परिवार हमेशा के लिए जुदा हो गया. एक ओर जहां बड़े साहिबजादे अजित सिंह और जुझार सिंह गुरु जी के साथ चले गए, वहीं दूसरी ओर छोटे साहिबजादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह, माता गुजरी जी के साथ रह गए थे। उनके साथ ना कोई सैनिक था और ना ही कोई उम्मीद थी जिसके सहारे वे परिवार से वापस मिल सकते। अचानक रास्ते में उन्हें अपना ब्राह्मण नौकर गंगू मिल गया, जो किसी समय पर गुरु महल में उनकी सेवा करता था। गंगू ने उन्हें यह आश्वासन दिलाया कि वह उन्हें उनके परिवार से फिर से मिलाएगा और तब तक के लिए वे लोग उसके घर में रुक जाएं। माता गुजरी जी और साहिबजादे गंगू के घर चले तो गए लेकिन वे गंगू की असलियत से वाकिफ नहीं थे। गंगू ने लालच में आकर तुरंत वजीर खां को गोबिंद सिंह की माता और छोटे साहिबजादों के उसके यहां होने की खबर दे दी जिसके बदले में वजीर खां ने उसे सोने की मोहरें भेंट की। खबर मिलते ही वजीर खां के सैनिक माता गुजरी और 7 वर्ष की आयु के साहिबजादा जोरावर सिंह और 5 वर्ष की आयु के साहिबजादा फतेह सिंह को गिरफ्तार करने गंगू के घर पहुंच गए। उन्हें लाकर ठंडे बुर्ज में रखा गया और उस ठिठुरती ठंड से बचने के लिए कपड़े का एक टुकड़ा तक ना दिया गया। दिसंबर १७०४ में रात भर ठंड में ठिठुरने के बाद सुबह होते ही दोनों साहिबजादों को वजीर खां के सामने पेश किया गया, जहां भरी सभा में उन्हें इस्लाम धर्म कबूल करने को कहा गया। कहते हैं सभा में पहुंचते ही बिना किसी हिचकिचाहट के दोनों साहिबजादों ने ज़ोर से जयकारा लगा “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल”। यह देख सब दंग रह गए, वजीर खां की मौजूदगी में कोई ऐसा करने की हिम्मत भी नहीं कर सकता लेकिन गुरु जी की नन्हीं जिंदगियां ऐसा करते समय एक पल के लिए भी ना डरीं। सभा में मौजूद मुलाजिम ने साहिबजादों को वजीर खां के सामने सिर झुकाकर सलामी देने को कहा. तब दोनों ने सिर ऊंचा करके जवाब दिया कि ‘हम अकाल पुरख और अपने गुरु पिता के अलावा किसी के भी सामने सिर नहीं झुकाते। ऐसा करके हम अपने दादा की कुर्बानी को बर्बाद नहीं होने देंगे, यदि हमने किसी के सामने सिर झुकाया तो हम अपने दादा को क्या जवाब देंगे जिन्होंने धर्म के नाम पर सिर कलम करवाना सही समझा, लेकिन झुकना नहीं’। वजीर खां ने दोनों साहिबजादों को काफी डराया, धमकाया और प्यार से भी इस्लाम कबूल करने के लिए राज़ी करना चाहा, लेकिन दोनों अपने निर्णय पर अटल थे। आखिर में दोनों साहिबजादों को जिंदा दीवारों में चुनवाने का ऐलान किया गया। कहते हैं दोनों साहिबजादों को २७ दिसंबर १७०४ को जब दीवार में चुनना आरंभ किया गया तब उन्होंने ‘जपुजी साहिब’ का पाठ करना शुरू कर दिया और दीवार पूरी होने के बाद अंदर से जयकारा लगाने की आवाज़ भी आई। ऐसा कहा जाता है कि वजीर खां के कहने पर दीवार को कुछ समय के बाद तोड़ा गया, यह देखने के लिए कि साहिबजादे अभी जिंदा हैं या नहीं। तब दोनों साहिबजादे जीवित थे, लेकिन मुगल मुलाजिमों का कहर अभी भी जिंदा था। उन्होंने दोनों साहिबजादों को जबर्दस्ती मौत के गले लगा दिया। उधर दूसरी ओर साहिबदाजों की शहीदी की खबर सुनकर माता गुजरी जी ने अकाल पुरख को इस गर्वमयी शहादत के लिए शुक्रिया किया और अपने प्राण त्याग दिए।
मित्रों, लगभग उसी समय दिसंबर १७०४ के अंतिम सप्ताह में बड़े साहबजादे अजीत सिंह और जुझार सिंह चमकौर के युद्ध में  अतुलनीय वीरता का प्रदर्शन करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। गुरु जी द्वारा नियुक्त किए गए पांच प्यारों ने अजीत सिंह को समझाने की कोशिश की कि वे ना जाएं, क्योंकि वे ही सिख धर्म को आगे बढ़ाने वाली अगली शख्सियत हो सकते हैं लेकिन पुत्र की वीरता को देखते हुए गुरु जी ने अजीत सिंह को निराश ना किया। ‌ उन्होंने स्वयं अपने हाथों से अजीत सिंह को युद्ध लड़ने के लिए तैयार किया, अपने हाथों से उन्हें शस्त्र दिए थमाए और पांच सिखों के साथ उन्हें किले से बाहर रवाना किया। कहते हैं रणभूमि में जाते ही अजीत सिंह ने मुगल फौज को थर-थर कांपने पर मजबूर कर दिया। अजीत सिंह कुछ यूं युद्ध कर रहे थे मानो स्वयं भगवन शिव शस्त्र धारण कर असुरों से लड़ने के लिए आ गए हों. अजीत सिंह एक के बाद एक वार कर रहे थे, उनकी वीरता और साहस को देखते हुए मुगल फौज पीछे भाग रही थी लेकिन वह समय आ गया था जब अजीत सिंह के तीर खत्म हो रहे थे। जैसे ही दुश्मनों को यह अंदाज़ा हुआ कि अजीत सिंह के तीर खत्म हो रहे हैं, उन्होंने साहिबजादे को घेरना आरंभ कर दिया। लेकिन तभी अजीत सिंह ने म्यान से तलवार निकाली और बहादुरी से मुगल फौज का सामना करना आरंभ कर दिया। कहते हैं तलवार बाजी में पूरी सिख फौज में भी अजीत सिंह को कोई चुनौती नहीं दे सकता था तो फिर ये मुगल फौज उन्हें कैसे रोक सकती थी। अजीत सिंह ने एक-एक करके मुगल सैनिकों का संहार किया, लेकिन तभी लड़ते-लड़ते उनकी तलवार भी टूट गई। 17 वर्ष की आयु में शहीद हुए अजित ने फिर अपनी म्यान से ही लड़ना शुरू कर दिया, वे आखिरी सांस तक लड़ते रहे और फिर आखिरकार वह समय आया जब उन्होंने शहादत को अपनाया और महज़ 17 वर्ष की उम्र में शहीद हो गए। इसके बाद गुरु जी के मंझले बेटे जुझार सिंह जिनकी आयु मात्र १५ वर्ष थी, भी तलवार लेकर मैदान में आ गए और अतुलनीय वीरता प्रदर्शित करते हुए शहादत दी.
मित्रों, बाद के समय में भी जब आवश्यकता महसूस हुई सिखों ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए बढ़-चढ़ कर बलिदान दिया. इतिहास गवाह है कि १७०८ ई. में गुरूजी की कायरपूर्ण हत्या के बाद डोगरा राजपूत परिवार में जन्मे माधो दास उर्फ़ लक्ष्मण दास उर्फ़ बंदा बहादुर सिंह ने सिखों को एकजुट किया और पूरे पंजाब में मुगलों के खिलाफ जंग छेड़ दी. बन्दा सिंह बहादुर उर्फ़ बंदा बैरागी एक सिख सेनानायक थे। वे पहले ऐसे सिख राजपूत सेनापति हुए, जिन्होंने मुग़लों के अजेय होने के भ्रम को तोड़ा; छोटे साहबज़ादों की शहादत का बदला लिया और गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा संकल्पित प्रभुसत्तासम्पन्न लोक राज्य की राजधानी लोहगढ़ में ख़ालसा राज की नींव रखी। यही नहीं, उन्होंने गुरु नानक देव और गुरू गोविन्द सिंह के नाम से सिक्का और मोहरे जारी करके निम्न वर्ग के लोगों को उच्च पद दिलाया और हल वाहक किसान-मज़दूरों को ज़मीन का मालिक बनाया। उनको भी मुगलों ने अपने सैन्यबल के बल पर बंदी बना लिया और अपार अमानुषिक यातनाएं दीं. यहाँ तक कि उनके मुंह में उनके बेटे का मांस तक ठूंसा गया, गर्म चिमटे से उनके शरीर से मांस नोचा गया और गर्म तवे पर बिठाया गया. लेकिन वे बंदा बैरागी को मुसलमान नहीं बना सके.अन्ततः १६ जून, १७१६ को मुग़ल बादशाह फर्रुख्सियर के आदेश पर बंदा के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए.
मित्रों, इसी तरह पूरा सनातन परिवार रामसिंह कूका का हमेशा ऋणी रहेगा जिन्होंने १८६०-७० के दशक में गोहत्या के खिलाफ अपने समस्त नामधारी शिष्यों के साथ संघर्ष किया और अनंत यातनाएं झेलीं. अयोध्या के राम मंदिर में भी सबसे पहले पूजन और हवन करने का श्रेय निहंग सिखों को जाता है जिन्होंने नवम्बर-दिसंबर १८५८ में वहां बाबरी ढांचे में रातों-रात चबूतरा बनाकर भगवान राम की प्रतिमा स्थापित की थी.इस घटना का वर्णन माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने निर्णय किया है.
मित्रों,आश्चर्य है कि ऐसे सिखों को कैसे सियासत और कुर्सी के लिए हिन्दुओं से अलग बताया जाता है? क्या बंटवारे के समय हिन्दुओं और सिखों को एक साथ जेहादी हिंसा का शिकार नहीं होना पड़ा था? आश्चर्य तो इस बात पर भी होता है कि कैसे झारखण्ड में अभी हाल ही में आदिवासियों को भी हेमंत सोरेन ने अहिंदू बता दिया? इससे पहले बौद्धों और जैनियों को भी सनातन धर्म से अलग कर देने की कुचेष्टा हो चुकी है जबकि हिन्दू भगवन बुद्ध और महावीर दोनों की पूजा करते हैं. दलितों को लेकर भी इस तरह के गंदे प्रयास किए जा रहे हैं. हद हो गयी. कुर्सी का खेल खेलो खूब खेलो लेकिन सनातन धर्म को बांटकर कमजोर नहीं करो अन्यथा देश कमजोर होगा.
मित्रों, तो हम बात कर रहे थे सिखों की. उन्हीं सिखों के पहले गुरु गुरु नानकदेव जी के जन्मस्थान ननकाना साहिब पर अभी कुछ दिन पहले वहां के स्थानीय मुसलमानों ने हमला किया है और गुरूद्वारे के दरवाजे को तोड़ दिया है. इससे पहले वहां के ग्रंथि भगवान सिंह जी की पुत्री का भी अपहरण कर अगस्त महीने में जबरन मुस्लिम लड़के के साथ विवाह कर दिया गया था. हम समझ सकते हैं कि पूरी दुनिया में प्रसिद्ध ननकाना साहिब पर जब हमला और पथराव हो सकता है तो पाकिस्तान में आम सनातन धर्मियों की क्या स्थिति होगी? एक तरफ जहाँ पूरी कथित धर्मनिरपेक्ष लॉबी सीएए के खिलाफ सड़क पर है जो भारत के मुस्लिम पडोसी देशों में प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता प्रदान करनेवाला कानून है वहीँ पाकिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों पर अत्याचार लगातार बढ़ता ही जा रहा है. जो लोग समझते हैं कि मुस्लिमों के बहुसंख्यक होने के बाद भी भारत में कुछ भी नहीं बदलेगा उनके लिए ननकाना साहिब पर हुआ हमला एक सबक है. भारत सरकार को चाहिए कि ननकाना साहिब की त्रासद घटना से सबक लेते हुए जल्द-से-जल्द जनसंख्या नियंत्रण बिल लाए जिससे देश का जनसँख्या अनुपात स्थिर हो जाए और भारत को भविष्य में शरियत का शासन न देखना पड़े.
मित्रों, इसके साथ ही समान नागरिक संहिता को भी अविलम्ब लागू किया जाना चाहिए जो संविधान के निर्माण के समय से ही भारतीय संविधान के भाग चार के अनुच्छेद ४४ में कैद अपने उद्धार की प्रतीक्षा कर रहा है. हमारे शास्त्र कहते हैं शठं शाठ्यम समाचरेत. अर्थात सरल शब्दों में लात के देवता बातों से नहीं मानते. जिस तरह से मोदी सरकार ने देश की ऐतिहासिक भूलों में सुधार करने का अभी अभियान चला रखा है हमें पूर्ण विश्वास है कि वो अविलम्ब इन दोनों कानूनों का निर्माण कर भारत को पाकिस्तान बनने से बचा लेगी क्योंकि पता नहीं कब फिर से भाजपा की सरकार केंद्र में बने या न बने.