गुरुवार, 24 सितंबर 2020

बिचौलियों के पक्ष में लामबंद विपक्ष

मित्रों, सुदामा पांडे धूमिल हिंदी की समकालीन कविता के दौर के मील के पत्थर सरीखे कवियों में एक रहे हैं। उनकी कविताओं में आजादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति देखने को मिलती है. उनकी एक कविता जो देखने में काफी छोटी है देश के हालात को इतनी सटीकता और सुन्दरता से बयां करती है कि बस देखते ही बनता है. वह कविता है रोटी और संसद. कविता कुछ इस प्रकार है- रोटी और संसद एक आदमी रोटी बेलता है एक आदमी रोटी खाता है एक तीसरा आदमी भी है जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है मैं पूछता हूँ-- 'यह तीसरा आदमी कौन है ?' मेरे देश की संसद मौन है। मित्रों, मेरे, आपके और धूमिल जी के देश की संसद सचमुच इस प्रश्न पर ७३ साल तक मौन थी कि यह तीसरा आदमी कौन है लेकिन अब संसद ने मौन का परित्याग कर दिया है और किसानों को इस तीसरे आदमी के चंगुल से आजाद कर दिया है. लेकिन यह क्या सारे कथित किसानहितैषी दल किसानों की आज़ादी के विरोध में एकजुट हो गये हैं. इस सन्दर्भ में मुझे संस्कृत की एक कथा याद आ रही है. एक जंगल में एक तालाब था जिसमें बहुत सारी मछलियाँ थीं. तालाब के किनारे एक विशाल वृक्ष था जिस पर एक बगुला रहता था. एक बार बरसात न होने के कारण तालाब सूखने लगा. मछलियाँ घबरा गईं. बगुले ने मछलियों से कहा कि उसने थोड़ी ही दूर पर एक और तालाब देख रखा है जिसमें बहुत पानी है. अगर मछलियाँ चाहें तो वो बारी-बारी से उनको उस तालाब तक पहुंचा देगा. इस प्रकार रोज बगुला एक मछली को पंजे में दबाकर उड़ता और थोड़ी दूर स्थित एक पेड़ की डाल पर ले जाकर खा जाता. धीरे-धीरे तालाब की सारी मछलियाँ समाप्त हो गईं. लेकिन एक केकड़ा अभी भी बचा हुआ था. बगुले ने उसके सामने भी वही प्रस्ताव रखा. केकड़े को शुरू से ही बगुले पर शक था इसलिए उसने शर्त रख दी कि वो बगुले के पंजे में दबकर नहीं जाएगा क्योंकि उसे ऊंचाई से डर लगता है. बल्कि वो तो बगुले की गर्दन को पकड़ कर जाएगा. बगुला चूंकि लालच में अँधा था अतः तैयार हो गया. बगुला जैसे ही उस पेड़ के पास पहुँचा जहाँ उसने मछलियों को मारा था उसने केंकड़े से कहा कि अब तुम भी मरने के लिए तैयार हो जाओ. लेकिन केंकड़े ने तभी उसका गला ही काट दिया. मित्रों, इस समय विपक्षी दल भी खुद को बगुला और किसानों को मछली समझ रहे हैं. कृषि विधेयक में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे किसानों को हानि हो बल्कि उनको फसल कटने से पहले ही फसल की गारंटी मिलने वाली है लेकिन विपक्षी दल कृषि-क्षेत्र में व्याप्त बिचौलियों को बचाने के लिए गोलबंद हो गए हैं. एक अनुमान के अनुसार अगर अंतिम उपभोक्ता कोई कृषि-उत्पाद खरीदता है तो उसका मात्र १० से २३ प्रतिशत ही किसानों को मिलता है बांकी बिचौलिए ले उड़ते हैं. फिर क्या कारण है कि विपक्ष बिचौलियों के पक्ष में खड़ा है और दिखावा किसान हितैषी होने का कर रहा है. क्या कारण है कि आजादी के समय जो किसान मात्र साढ़े तीन क्विंटल गेहूं बेचकर एक तोला सोना खरीद लेता था लेकिन आज वही किसान ज्यादा फसल उपजाकर भी २० क्विंटल गेहूं बेचने के बाद भी एक तोला सोना नहीं खरीद सकता? किसने ऐसी व्यवस्था बनाई जिससे किसान आजादी के बाद एपीएमसी अर्थात the Agricultural Produce & Livestock Market Committee के बंधक बनकर रह गए? माल महाराज के मिर्जा खेले होली? मित्रों, आज यह कड़वा सत्य है कि देश के ९९ प्रतिशत युवा और ७६ प्रतिशत किसान खेती करना नहीं चाहते. आज़ादी के समय जो कृषि-क्षेत्र देश की जीडीपी में ५० प्रतिशत से ज्यादा का योगदान देता था पिछली सरकारों की गलत नीतियों के कारण आज १३ प्रतिशत योगदान कर पा रहा है. विपक्ष के पाखंड की पराकाष्ठा तो देखिए कि जिस कांग्रेस पार्टी ने अपने २०१४ और २०१९ के घोषणा-पत्र में एपीएमसी के शिकंजे से किसानों को आजाद करवाने के वादे किए थे आज वही इस कानून का सिर्फ इसलिए विरोध कर रही है क्योंकि उसे विरोध करना है. मित्रों, महाकवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता है जो कुछ इस प्रकार है- १० बाई १० के कमरे में बैठा व्यापारी सोने का हो गया, मगर १० बीघा खेत में खड़ा किसान माटी का हो गया. सवाल उठता है है कि कोरोना जैसे विकट समय में भी देश की अर्थव्यवस्था को सहारा देनेवाला किसान कब तक माटी का होता रहेगा और कब तक बिचौलिए उसकी मेहनत पर मौज उड़ाते रहेंगे? आखिर विपक्ष क्यों किसानों को सोने का नहीं होने देना चाह रहा? एक सवाल किसानों से भी है कि आखिर किसान कब मछली के बदले केंकड़ा बनेगा?

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