गुरुवार, 11 मार्च 2021

कोरोना संकट, वैश्विक अर्थव्यवस्था और भारत

मित्रों, इन दिनों खुद प्रधानमंत्री मोदी और उनके समर्थक इस बात की रट लगाए हुए हैं कि उनकी सरकार ने कोरोना संकट से बड़े ही बेहतरीन तरीके से निबटा लेकिन अगर हम यूरोप और अमेरिका द्वारा उठाए गए कदमों और उनके प्रभावों पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि अमेरिका और यूरोप के देश इस दौरान प्रबंधन में हमसे कहीं आगे, बहुत आगे थे. मित्रों, मैकेंजी की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक २०२० की दूसरी और चौथी तिमाही में यूरोपीय समुदाय के देशों की जीडीपी १८ प्रतिशत सिकुड़ गई तब भी वहां रोजगार केवल ३ प्रतिशत घटी जबकि खर्च योग्य आय अर्थात डिस्पोजेबल इनकम में केवल ५ प्रतिशत की कमी आई. वहीँ अमेरिका में इस दौरान जीडीपी १० प्रतिशत टूटा, रोजगार भी घटा लेकिन लोगों की खर्च योग्य आय ८ प्रतिशत बढ़ गई. इस दौरान यूरोपीय समुदाय के देशों ने प्रतिव्यक्ति २३४२ डॉलर और अमेरिका ने ६७५२ डॉलर प्रतिव्यक्ति व्यय किया जबकि भारत सरकार ने कितना व्यय किया खुद सरकार भी नहीं जानती. साथ ही रोजगार की स्थिति पर भी हमारी सरकार रिपोर्ट को दबाने में ही लगी रहती है इसलिए हम इस मामले में भी आज तक अँधेरे में हैं. मित्रों, जहाँ यूरोप और अमेरिका की सरकारों ने अपना पूरा ध्यान रोजगार बचाने और बेरोजगारों की सहायता पर केन्द्रित रखा वहीँ हमारी सरकार का पूरा ध्यान सरकारी कम्पनियों को बेचने और उद्योग जगत को लाभ पहुँचाने में लगा रहा. इस दौरान उद्योग जगत ने कितने लोगों को बेरोजगार कर दिया और उन बेरोजगारों की स्थिति क्या है से सरकार ने कोई मतलब ही नहीं रखा. यहाँ तक कि सरकार ने अचानक लॉक डाउन घोषित कर दिया और जो लोग जहाँ-तहां फँस गए उनके खाने-पीने-रहने-शौचालय आदि का कोई इंतजाम नहीं किया. लोगों को पैदल भूख-प्यास-थकान से जूझते हुए हजारों किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ी. उनमें से कई लोगों की जीवन यात्रा यात्रा के दौरान ही समाप्त हो गई. मित्रों, दूसरी तरफ अमेरिका और यूरोप की सरकारों ने अचानक लॉक डाउन नहीं किया. साथ ही वहां की सरकारों ने आम लोगों की बचत संरक्षित करने और आवासीय, शिक्षा व चिकित्सा की लागत को कम करने पर खर्च किया. जबकि हमारी सरकार ने फैक्ट्री मालिकों से मजदूरों को घर बिठाकर वेतन देने, स्कूलों से २ महीने की फीस माफ़ करने और मकान मालिकों से बिना किराया लिए लोगों को घर में रहने देने का अनुरोध भर करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली. परिणाम यह हुआ कि अचानक हजारों मजदूर रोजगार और गृहविहीन होकर सडकों पर आ गए और कई महीनों तक अफरातफरी का माहौल रहा. जबकि यूरोप और अमेरिका में मकान और फैक्ट्री मालिकों और स्कूल संचालकों को सरकारी आदेश से जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई सरकार ने की. साथ ही मकान किराया और स्कूल फ़ीस को कम किया और कर्मचारियों को अनिवार्य पेंशन भुगतान में छूट दी गई या सरकार ने खुद नुकसान की भरपाई की. मित्रों, इस कार्य में यूरोप और अमेरिका के निजी क्षेत्र ने भी सरकार का भरपूर साथ दिया. कंपनियों को कारोबार में नुकसान हुआ, कई दिवालिया भी हो गईं लेकिन रोजगारों में कमी को कम-से-कम बनाए रखा और पेंशन व बीमा भुगतानों का बोझ उठाया. इन सारी कवायदों का परिणाम यह हुआ कि अमेरिका में २०२० की तीसरी तिमाही में खर्च योग्य आय दोगुनी बढ़कर १६.१ प्रतिशत हो गई तो वहीँ यूरोप में भी बचत दर २४.६ प्रतिशत तक पहुँच गई. अब जबकि वहां की जनता की आय सुरक्षित है और बचत भी बढ़ चुकी है तो जैसे ही कारोबार अपनी पूरी क्षमता से खुलेगा यह ईंधन अर्थव्यवस्था को सरपट दौड़ा देगा. मित्रों, दूसरी तरफ भारत सरकार एक्ट ऑफ़ गॉड के नाम पर रोजाना नए कर थोप रही है, पहले से तंगहाल हो चुकी जनता को पेट्रोल की आग में जला रही है और निजी कम्पनियाँ रोजगार में कटौती करके मुनाफा कूट रही है. सवाल उठता है कि जब पूंजीवादी मुल्कों में सरकार और निजी क्षेत्र मिलकर संकट से लड़ सकते हैं तो भारत में ऐसा क्यों नहीं हो पाया? भारत सरकार ऐसे संवेदनहीन निजी क्षेत्र के हाथों में सबकुछ सौंपने के बारे में सोंच भी कैसे सकती है? मित्रों, अयोग्य वित्त मंत्री और सरकारी कुप्रबंधन की कृपा से कोविद पूर्व ही मंदी और अभूतपूर्व बेरोजगारी के चलते लोगों की खर्च योग्य आय में ७.१ प्रतिशत की कमी आ चुकी थी. फिर कोविद और अब अत्यधिक करारोपण से उपजी जानलेवा महंगाई लोगों की आय को खा रही है. आज भारत दुनिया में खपत पर सबसे ज्यादा और दोहरा-तिहरा कर लगानेवाले देशों में है. हम न तो सरकार से टैक्स का हिसाब मांगते हैं और न ही इस बात की फिक्र ही करते हैं कि कॉर्पोरेट मुनाफों में बढ़त से रोजगार और वेतन क्यों नहीं बढ़ते और अगर बढ़ने के स्थान पर घटते हैं तो भारत लोक कल्याणकारी राज्य कैसे है? हम तो बस जय श्रीराम का नारा लगाते हैं रामजी के नाम पर देश और खुद को लुटने देते हैं.

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