गुरुवार, 13 मई 2021

गंगा में तैरती मानवता की लाश

मित्रों, इन दिनों भारत में कोरोना संकट पूरे उफान पर है. तंत्र पूरी तरह फेल है. कदाचित इतनी बुरी स्थिति १८९६ के पूना प्लेग के समय भी नहीं हुई थी जबकि तब देश गुलाम था. जिसे देखो लोगों की मजबूरी का फायदा उठाकर पैसा बनाने में लगा हुआ है. अस्पताल वाले, ऑक्सीजन वाले, एम्बुलेंस वाले, पोस्टमार्टम करने वाले और शवदाह करने वाले. बीमारी से ग्रस्त होने से लेकर अंतिम संस्कार होने तक हर कोई लोगों की मजबूरी का फायदा उठाने में तल्लीन है. मानों वे इन पैसों का उपभोग करने के लिए हमेशा दुनिया में बैठे रहेंगे. मित्रों, इन दिनों मुझे अपने मानव होने पर शर्म आने लगी है. हमसे अच्छे तो जानवर हैं. अरस्तु ने कभी कहा था कि मानव एक सामाजिक प्राणी है. लेकिन कोरोना ने मानवों की परिभाषा ही बदल दी है. वास्तव में मानव एक असामाजिक प्राणी है. कैसा समाज और कैसी सामाजिकता? जो न्यायाधीश दूसरों को गलत काम करने पर दंड देता है जब उसका पिता मर गया तो वो पिता के अंतिम दर्शन तक करने नहीं आया. बहुत स्थानों पर बेटे-बेटी अपने उन माता-पिता का अंतिम संस्कार करने तक नहीं आ रहे जिन्होंने उनको हजार दुःख-परेशानियाँ उठाकर पाला है. इतना ही नहीं जिन चिकित्सकों को हम भगवान मानते आ रहे हैं कोरोना ने उनकी कलई भी खोल दी है. कोई भगवान-उगवान नहीं है. सबके-सब रोबोट हैं. संवेदनहीन पैसा कमाने की मशीन. मित्रों, कवि केदारनाथ सिंह ने कहा था कि मेरी पूँजी क्या है? मुट्ठीभर साँस. कदाचित उससे भी बड़ी पूँजी हमारे पास थी और वो थी मानवता. यह मानवता और सामाजिकता ही है जिसके बल पर मानव आज कथित विकास के इस चरण तक पहुंचा है. जब हमारे पूर्वजों ने रेंगना छोड़कर खड़ा होना सीखा होगा तब उनके समक्ष कितनी तरह की दुश्वारियां रही होंगी. मक्खी, मच्छर लेकर सांप और बाघ-सिंह जैसे खूंखार जानवर. भोजन से लेकर पेयजल और शयन की समस्या. जन्म के बाद बच्चों का लालन-पालन करने की समस्या. रोग, अकाल, बाढ़, भूकंप. सबका सामना मानवता ने मिल-जुलकर किया. वरना जमीन पर रेंगनेवाले कीड़ा समान मानव की क्या औकात! पहले जो कुछ था सबका था. फिर अपना-पराया, मेरा-तेरा का भाव आया. मध्यकाल में भारतीय आध्यात्मिकता पर पश्चिमी भौतिकता ने विजय प्राप्त कर ली. ज्ञान का प्रकाश स्तम्भ जो सर्वे भवन्तु सुखिनः की बात करता था की जगह सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट जैसे मत्स्य न्यायवादी सिद्धांत ने ले लिया. आत्मा पर शरीर की जीत हुई. अब बौद्धिक सम्पदा कानून का युग था. प्रकृति के साथ जीवन का स्थान प्रकृति पर विजय ने ले लिया. और अंत में चीन का माओ कंधे पर बन्दूक लिए आया यह कहते हुए कि नैतिक-फैतिकता कुछ नहीं होती राजनैतिक सत्ता सबकुछ होती है. और राजनैतिक सत्ता लोगों के ह्रदय या श्रद्धा-प्रेम से नहीं बन्दूक की नली से निकलती है. माओ ने यह भी कहा कि राजनीति आदर्श नहीं बल्कि रक्तपात रहित युद्ध है और युद्ध रक्तपात युक्त राजनीति। मित्रों, ये तो रही उस अमेरिका की बातें जो मानवता पर छाये सबसे भीषण संकट के समय भी व्यापार और बौद्धिक सम्पदा कानून की बातें कर रहा है. चीन की बातें जिसने जानबूझकर कोरोना वायरस को प्रयोगशाला में निर्मित कर हथियार की तरह हवा में छोड़कर एक प्रकार का विश्वयुद्ध छेड़ दिया है. लेकिन इस समय भारत में जो रहा है वह घनघोर कष्टकारी है. हमारी भारतीयता क्या है? अपने परिजनों को जीवित या मृत अवस्था में उनके हाल पर छोड़ देना तो भारतीयता नहीं है? लोगों की मदद करने के बदले उनकी मजबूरी का फायदा उठाना तो कतई भारतीयता नहीं है. प्राणी मात्र को सिया राममय मानने वाला भारत भला कैसे पैसे को भगवान मान सकता है? पिछले कुछ दिनों में जो दो सौ से भी अधिक लोगों की लाशें गंगा में बहती हुई मिली हैं वास्तव में वो मानवों की लाशें नहीं हैं बल्कि मानवता की लाश है, भारतीयता की लाश है. बिना भारतीयता के भारत भी लाश है. करने को हम भी सिर्फ तंत्र और सरकार को दोषी ठहरा कर अपना पल्ला झाड़ सकते हैं लेकिन क्या उस भारतीयता की मौत के लिए सिर्फ सरकार जिम्मेदार है जिसके पीछे कभी पूरी दुनिया दीवानी थी और जिसका अर्क पीने के लिए फाहियान , ह्वेनसांग और इत्सिंग ख़ाक छानते फिर रहे थे, जिस भारतीयता का अध्ययन करने के लिए तक्षशिला, विक्रमशिला और नालंदा में दुनियाभर के ज्ञान-पिपासुओं का जमघट लगता था? यद्यपि सत्य तो यह भी है कि हमारा लोकतंत्र कोरोना आपदा का बोझ उठा सकने में पूरी तरह से विफल साबित हुआ है और हो रहा है.

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