बुधवार, 20 अक्तूबर 2021
आखिर कब सुधरेंगे बिहार के पटवारी?
मित्रों, साल तो याद नहीं लेकिन १९८० के दशक की बात है. पिताजी हर महीने प्रसिद्ध पत्रिका कादम्बिनी लाते थे. ऐसे ही किसी साल के दिवाली अंक में चम्बल के पूर्व डाकू मोहर सिंह का साक्षात्कार छपा था. मोहर सिंह से जब पूछा गया कि वो बागी क्यों बने तो उन्होंने कहा था कि अगर गाँव का पटवारी सुधर जाए तो कोई बागी नहीं बनेगा.
मित्रों, उत्तर प्रदेश का तो पता नहीं कि वहां के पटवारी सुधरे कि नहीं लेकिन अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि बिहार के पटवारी नहीं सुधरे हैं. मैं दावे के साथ कहता हूँ कि अभी भी बिहार में एक भी दाखिल ख़ारिज बिना रिश्वत दिए नहीं होता. राजस्व मंत्री की जमीन का भले ही हो गया हो. इतना ही नहीं पैसा देने पर भी दाखिल ख़ारिज में कर्मचारी सालों साल लगा देता है.
मित्रों, ईधर सरकार कहती है कि दाखिल ख़ारिज को ऑनलाइन कर दिया गया है लेकिन सच्चाई यही है कि सारे काम ऑफलाइन हो रहे हैं. इस बारे में पूछने पर एक राजस्व कर्मचारी ने दिलचस्प वाकया सुनाया. हुआ यह कि किसी किसान ने दाखिल ख़ारिज के लिए ऑनलाइन आवेदन दिया. फिर वो कर्मचारी से मिलने आया. कर्मचारी ने २५०० रूपये मांगे तो किसान ने कहा कि आप काम करिए मैं रसीद कटवाने आऊंगा तो पैसे दे दूंगा. कर्मचारी ने विश्वास करके काम करवा दिया और उसे ऑनलाइन भी कर दिया. उधर किसान चालाक निकला और कर्मचारी के पास रसीद कटवाने आया ही नहीं. जब कई महीने बीत गए तब कर्मचारी को शक हुआ और उसने चेक किया. कर्मचारी यह देखकर सन्न रह गया कि किसान ने ऑनलाइन रसीद कटवा लिया था. कर्मचारी ने बताया कि उसने अपनी जेब से सीओ और सीआई को १००० रूपये दे रखे थे. इस धोखे के बाद उस कर्मचारी ने बिना पैसे लिए ऑनलाइन दाखिल ख़ारिज करना ही बंद कर दिया. मजबूरन पार्टी को उसके पास जाना ही पड़ता है और बार-बार जाना पड़ता है.
मित्रों, हमारे एक परिचित की तो जमीन ही चोरी हो गई. बेचारे की खतियानी जमीन थी. जब वो रसीद कटवाने गया तो पता चला कि जमीन है ही नहीं. बेचारे की पाँव तले की जमीन भी खिसक गई. आजकल बेचारे डीसीएलआर कार्यालय का चक्कर काट रहे हैं.
मित्रों, अब सुनिए सरकार की तो उसे जहाँ विभाग में पारदर्शिता बढ़ानी चाहिए वहीँ वो पारदर्शिता कम करने में लगी है. संशोधन करके सूचना के अधिकार की जान पहले ही निकाली जा चुकी है. पहले जहाँ बिहार भूमि वेबसाइट पर हरेक मौजा में किस-किस किसान का दाखिल ख़ारिज का आवेदन कितने महीनों या सालों से लंबित है का विवरण उपलब्ध रहता था वहीँ अब अनुपलब्ध है. अब किसान सिर्फ अपने आवेदन की स्थिति देख सकता है. न जाने सरकार ने वेबसाइट में इस तरह का संशोधन क्यों किया जिससे इस महाभ्रष्ट विभाग में और भी ज्यादा भ्रष्टाचार हो जाए.
मित्रों, आज ही यह समाचार पढने को मिला कि अब अंचलाधिकारी दाखिल ख़ारिज का काम नहीं देखेंगे लेकिन उससे होगा क्या? जो अधिकारी दाखिल ख़ारिज देखेगा क्या वो रिश्वत नहीं लेगा? फिर यह कोई सुधार तो हुआ नहीं. यह भी पढ़ा कि कानपुर आईआईटी की टीम ने कोई नया सॉफ्टवेयर बनाया है जिससे बिना रिश्वत के दाखिल ख़ारिज हो सकेगा. देखते हैं कि आगे होता क्या है? वैसे मुझे नहीं लगता कि अंचलाधिकारी, अंचल निरीक्षक और हलका कर्मचारी के पास इसका तोड़ नहीं होगा. ऐसे में ४० साल बाद वही सवाल उठता है जो चम्बल के कुख्यात डाकू मोहर सिंह ने तब उठाया था कि आखिर कब सुधरेंगे बिहार के पटवारी?
सोमवार, 18 अक्तूबर 2021
महंगाई की मार बेसुध सरकार
मित्रों, महंगाई एक ऐसी चीज है, जो कभी खबरों से बाहर नहीं होती। कभी इसके बढ़ने की खबर है, तो कभी-कभी घटने की हालाँकि ऐसा कम ही होता है। समय साक्षी है कि महंगाई ने इस देश में कई बार सरकारें भी गिरा दी हैं। हालांकि, आजकल के हालात देखकर यकीन करना मुश्किल है कि ऐसा भी होता होगा।
मित्रों, महंगाई के मोर्चे पर पिछले कुछ दिनों में आई खबरों पर नजर डालें, तो क्या दिखता है? सरकारी आंकड़ों के अनुसार सितंबर में खुदरा महंगाई की दर पांच महीने में सबसे नीचे आ गई है, जो त्योहारी सीजन में अच्छी खबर मानी जानी चाहिए। लेकिन अगर हम जनसामान्य से बात करें तो निर्धन और माध्यम वर्ग बढती महंगाई से काफी परेशान है. एक तरफ केंद्र सरकार टाटा समूह को राहत दे रही है वहीँ पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस महँगी करके गरीबों की मुट्ठी से पैसे निकाल रही है. ज्ञातव्य हो कि एयर इंडिया पर 31 अगस्त तक कुल 61,562 करोड़ बकाया था। टाटा संस 15,300 करोड़ की जिम्मेदारी लेगी और बाकी 46,262 करोड़ एआईएएचएल को हस्तांतरित किया जाएगा अर्थात ये पैसे सरकार अपने पास से चुकाएगी।
मित्रों, सरकार के पास टाटा को राहत पहुँचाने के लिए पैसे हैं, वेदांता के हेयर कट के लिए ४६ हजार करोड़ रूपये हैं लेकिन आम जनता के लिए नहीं हैं? अगर हम सरकार की भी मानें तो वस्तुओं और सेवाओं के दाम घटे नहीं हैं बल्कि उनके दाम बढ़ने की रफ़्तार घटी है. सेवा से याद आया कि आज की तारीख में शिक्षा और स्वास्थ्य पर बढ़ता खर्च भी लोगों को कम तकलीफ नहीं दे रहा है. निजी विद्यालयों और अस्पतालों की मनमानी कोरोना से परेशान आम आदमी को कंगाल करने पर तुली है. एक बच्चे को बारहवीं करवाने में आज १० से १५ लाख रूपये का खर्च आता है जबकि सरकारी विद्यालय सफेद हाथी बनकर रह गए हैं. इसी प्रकार निजी अस्पताल भी लोगों को लूट रहे हैं. सवाल उठता है कि इन दो क्षेत्रों के लिए कोई रेगुलेटरी क्यों नहीं है जो इनकी फीस और चार्जेज पर नियंत्रण रखता?
मित्रों, अब समाज के विभिन्न वर्गों पर महंगाई के प्रभावों पर बात करेंगे. सबसे पहले श्रमवीरों की बात. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि प्राइवेट फैक्ट्रियों में काम करनेवाले अधिकतर मजदूरों को रोजाना १२ घंटे काम करने पर भी १०-१५ हजार से ज्यादा नहीं मिलता. अभी एक लीटर सरसों तेल 210 रुपए का है. कुछ महीने पहले इसका भाव 120 रुपए लीटर था. रसोई गैस का सिलेंडर अब 1,050 रुपए का हो गया है. फूलगोभी 100 रुपए किलो तो टमाटर 60 रुपए और प्याज़ 50 रुपए. पेट्रोल ११० और डीजल भी १०० के पार है. जिससे आने वाले दिनों में महंगाई और बढ़ेगी. लेकिन राजनीतिक दलों के लिए ये कोई मुद्दा ही नहीं है. कोई भी महंगाई पर चर्चा नहीं करता. पहले पांच हज़ार रुपए में राशन आराम से आ जाता था, लेकिन अब इतने पैसे में कुछ नहीं होता. प्राइवेट नौकरी में तनख़्वाह बहुत मामूली बढ़ती है. लिहाज़ा घर खर्च चलाने के लिए कई तरह के जोड़ घटाव वाला गणित करना पड़ता है. सच तो यह है कि इस बार अधिकतर मजदूर दुर्गा पूजा में घर के लोगों के लिए कपड़ा तक नहीं ख़रीद सके. बच्चे घर से ऑनलाइन क्लास कर रहे हैं, लेकिन स्कूल है जो ट्यूशन फ़ीस के अलावा भी कई तरह की फ़ीस वसूल रहा है. दुर्भाग्यवश ये भी मुद्दा नहीं बन रहा. इतनी महँगी पढ़ाई पूरी करने के बाद जब सरकारी नौकरी और घर के आस-पास काम नहीं मिलता तभी नौबत परदेश में मजदूरी काम करने तक आ जाती है. अधिकतर मजदूर किराए के एक कमरे में रहते हैं. ज़रूरत के सामान के नाम पर उनके पास एक चारपाई, पंखा, चंद बर्तन और कुछ कपड़े होते हैं. घर-परिवार से दूर रहने के बावजूद जानलेवा महंगाई के कारण उनकी सिर्फ जान बच रही है पैसा नहीं बच रहा.
मित्रों, सच तो यह है कि मांग नहीं होने से न सिर्फ क्रेता बल्कि दुकानदार भी परेशान हैं. पहले बीजेपी जब विपक्ष में थी तो ज़ोर-शोर से महंगाई पर कांग्रेस पार्टी को घेरती थी, लेकिन मोदी सरकार के ख़िलाफ़ कांग्रेस पार्टी महंगाई को आज तक मुद्दा नहीं बना सकी. यही वजह है कि आम आदमी की कोई नहीं सुन रहा और मीडिया में केवल सरकार का गुणगान चल रहा है.गरीबों को उज्ज्वला योजना में गैस सिलेंडर मिला. तब वे नहीं जानते थे कि इसे भरवाने में इतना पैसा लगेगा. अब महंगाई इतनी अधिक है कि वे फिर से लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनाने लगे हैं.
त्रों, झुलसाती महंगाई ने किसानों को भी कहीं का नहीं छोड़ा है. पिछले कुछ सालों में खेती के लिए ज़रूरी चीज़ों के दाम बहुत बढ़ गए हैं. खाद की क़ीमत पहले की तुलना में दोगुनी हो चुकी है. अब आप 100 बीघा के जोतहर (मालिक) भी हैं, तो महंगाई के कारण सारी ज़मीन पर खेती नहीं करा सकते. ज़मीन परती (ख़ाली) रह जाती है. खाद, बीज, कीटनाशक, पशुओं का चारा, डीज़ल सबकी क़ीमत बढ़ चुकी है. सरकार को किसानों के दर्द से कोई सरोकार नहीं है. ५०० रूपये मासिक में आजकल होता क्या है? अब किसानों को नून-रोटी खाने के लिए भी सोचना पड़ रहा है. तेल-घी की तो बात ही नहीं है.
मित्रों, उधर जिन लोगों ने छोटे-मोटे स्कूल खोल रखे थे उनकी हालत भी कोई अच्छी नहीं है। कोविड महामारी के चलते स्कूल बंद हो गया. गैस के दाम बढ़ गए तो लोग दिन भर के लिए सब्ज़ी एक ही बार बनाकर ख़र्च कम करने की कोशिश कर रहे हैं. हरी सब्ज़ी खाना भी कम कर दिया है. कई परिवार तो कोरोना में आमदनी घटने या पूरी तरह से बंद हो जाने चलते पहले से ही इतने लाचार हो चुके हैं कि बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर दिया और उस पर जानलेवा महंगाई की मार. लोग अपने बेटे और बेटी को पोषण वाला खाना भी नहीं दे पा रहे. उनका जीवन स्तर बहुत नीचे आ गया है. समाज में भ्रष्टाचार बढ़ा है क्योंकि लोग ज़रूरतें पूरी करने के लिए आय का ग़लत ज़रिया ढूंढ रहे हैं.
मित्रों, सच्चाई तो यह है कि सत्ता पक्ष अराजक हो गया है और आम लोग 'एकाकी' होकर सोचने लगे हैं. मोबाईल और इन्टरनेट ने उनको और भी समाज से काट कर रख दिया है. बढ़ती महंगाई से आदमी तनाव में है, लेकिन वो करे भी तो क्या करे? आम आदमी ने हालात से समझौता कर लिया है. मोदी सरकार आखिरी उम्मीद थी लेकिन अब कोई उम्मीद नजर नहीं आती.
मित्रों, रही बात सरकार की तो उसे हम इतना तो कह ही सकते हैं कि
तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
उधर जम्हूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है ,नवाबी है
लगी है होड़ सी देखो अमीरी औ गरीबी में
ये गांधीवाद के ढांचे की बुनियादी खराबी है
तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है
शनिवार, 16 अक्तूबर 2021
अराजक होता किसान आन्दोलन
मित्रों, हम सभी जानते हैं कि भारत में लोकतंत्र है और भारतीय संविधान ने भारत के प्रत्येक नागरिक को सरकार या सरकारी नीतियों का विरोध करने की आजादी और अधिकार दिया है. यद्यपि यह आजादी या अधिकार पूरी तरह से असीम नहीं है बल्कि इसकी कुछ सीमाएं हैं. आप आन्दोलन करिए या अपने किसी अन्य अधिकार का प्रयोग करिए लेकिन आप ऐसा करते हुए किसी और के अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकते.
मित्रों, पिछले कुछ समय से ऐसा देखा जा रहा है कि कई सरकार विरोधी आन्दोलन देशविरोधी स्वरुप अख्तियार कर ले रहे हैं. पहले एनआरसी के खिलाफ जो आन्दोलन हुए और अब जो तथाकथित किसान आन्दोलन चल रहा है दोनों ने ही बारी-बारी से अराजक रूप ग्रहण किया है. एनआरसी आन्दोलन अंततः हिन्दूविरोधी दंगों में परिणत हो गया वहीँ किसान आन्दोलन भी राह से भटकता हुआ परिलक्षित हो रहा है.
मित्रों, पहले तो तथाकथित किसानों ने राष्ट्रीय राजमार्गों पर आवागमन को बाधित किया, यहाँ तक कि सेना की गाड़ियों को भी गुजरने से रोका और अब किसान हत्या भी करने लगे हैं. पहले लखीमपुर खीरी में उन्होंने चार लोगों को पीट-पीट कर मार डाला और अब राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के सिन्धु बॉर्डर पर एक दलित के हाथ काटकर उसकी बड़ी ही बेरहमी से हत्या कर दी. इन घटनाओं से ऐसा लगने लगा है कि जैसे उनको भारतीय कानून और न्यायालय का कोई डर ही नहीं है.
मित्रों, सवाल उठता है कि संघ सरकार कब तक हाथ-पर-हाथ धरे बैठी रहेगी या मूकदर्शक बनी रहेगी? मान लिया कि पंजाब में चुनाव होनेवाले हैं लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं है कि दिल्ली को एक बार फिर जलने दिया जाए. कहना न होगा अगर संघ सरकार ने २०१९-२० में समय रहते शाहीन बाग़ के अवैध धरने को समाप्त करवा दिया होता तो दिल्ली में सुनियोजित हिन्दूविरोधी-देशविरोधी दंगे नहीं हुए होते. लेकिन दंगों के बाद भी केद्र सरकार किंकर्तव्यविमूढ़ बनी रही और धरने की स्वाभाविक समाप्ति की प्रतीक्षा करती रही.
मित्रों, यह देखकर काफी दुःख होता है एक बार फिर से हमारी केंद्र सरकार कथित किसान आन्दोलन को लेकर असमंजस में है. इस आन्दोलन को लेकर कोई बच्चा भी बता देगा कि इसके पीछे विदेशी फंडिंग हो रही है और किसान आन्दोलन का बस बहाना है. वास्तव में इसका उद्देश्य देश में अराजकता उत्पन्न करना है. फिर से खालिस्तानी आतंकवाद को जीवित करना है. लेकिन न तो केंद्र सरकार और न ही सुप्रीम कोर्ट को कुछ भी दिखाई दे रहा है और न ही वे इसे समाप्त करने की दिशा को कोई कठोर कदम उठाते दिख रहे हैं. क्या टिकैत के दूसरा भिंडरावाला बनने का इंतजार हो रहा है? आज से लगभग ढाई हजार साल पहले आचार्य चाणक्य ने कहा था कि दीमक लकड़ी को और रोग जिस प्रकार शरीर को खा जाते हैं उसी प्रकार अराजकता से राष्ट्र का विनाश हो जाता है अतः राज्य को हर स्थिति में कानून और व्यवस्था को बनाए रखना चाहिए. राज्य को न सिर्फ अराजकतावादियों से बल्कि राज्याधिकारियों और राज्यकर्मियों से भी प्रजा की रक्षा करनी चाहिए.
शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2021
निजी क्षेत्र में भ्रष्टाचार
ममित्रों, ऐसा देखा जा रहा है कि पिछले कुछ समय से जबसे संघ में मोदी जी की सरकार आई है लगातार सरकार और सरकार समर्थक यह बोलते आ रहे हैं कि सरकारी क्षेत्र की कंपनियों में गुणवत्ता में सुधार लाना संभव नहीं है इसलिए उनका निजीकरण कर देना चाहिए. मानो हर समस्या का एकमात्र हल निजीकरण है. तथापि प्रश्न उठता है कि क्या निजी क्षेत्र भ्रष्टाचार से सर्वथा मुक्त है?
मित्रों, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. वास्तविकता तो यह है कि निजी क्षेत्र में भी उतना ही भ्रष्टाचार है जितना सरकारी क्षेत्र में है बल्कि किसी-किसी क्षेत्र में तो अपेक्षाकृत अधिक ही है.
मित्रों, सबसे पहले बात करते हैं बैंकिंग क्षेत्र की. यह वह क्षेत्र है जिसमें देश के गरीब लोग अपना पेट काटकर भविष्य के लिए पैसा जमा करते हैं. आपको याद होगा कि एक समय इस क्षेत्र में हेलियस और जेवीजी जैसी नन बैंकिंग कंपनियों की धूम थी. कोई दो साल में पैसे दोगुना कर रहा था तो कोई ३ साल में. तत्कालीन संघ सरकार को सब पता था कि किस तरह जनता को ठगा जा रहा है लेकिन वो ऑंखें मूंदे रही क्योंकि जेवीजी सहित कई कंपनियों में बड़े-बड़े नेताओं ने भी पैसे लगा रखे थे. फिर एक दिन वही हुआ जो होना था. इन बैंकों ने रातों-रात अपनी शाखाओं और दफ्तरों को बंद कर दिया. हजारों गरीबों की जीवनभर की कमाई लूट ली गई, हजारों ने आत्महत्या कर ली लेकिन किसी भी फरार कंपनी मालिकों और संचालकों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. आज भी सहारा इंडिया में लाखों गरीबों के पैसे फंसे हुए हैं और कदाचित डूब भी जाएंगे. फिर वही लाठी होगी, वही सांप और वही सांप का बिल. इसी तरह महाराष्ट्र में लगातार कोई-न-कोई सहकारी बैंक बंद हो रहा है और लगातार गरीबों के पैसों पर डाका पड़ रहा है. कोई ठिकाना नहीं कि आज जो एचडीएफसी, आईसीआईसीआई जैसे बैंक उदाहरण माने जाते हैं कल निवेश सम्बन्धी एक गलती के कारण या फिर जानबूझकर अपने ही परिवार या मित्र की कंपनी में निवेश कर कंपनी को दिवालिया घोषित कर देने के चलते कब डूब जाएं और कब गरीबों के लाखों करोड़ पर डाका पड़ जाए. फिर भी भारत सरकार सरकारी बैंकों का निजीकरण करने पर आमादा है. दरअसल इस समय देश में अंधा बांटे रेवड़ी वाली हालत है.
मित्रों, स्वास्थ्य एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें पूरी तरफ से निजी क्षेत्र का कब्ज़ा था और है. सरकारी अस्पताल इमरजेंसी सेवा के लिए पूरी तरह से अनुपयुक्त हैं जिसका फायदा निजी क्षेत्र के अस्पताल जमकर उठाते आ रहे हैं और जनता को दोनों हाथों से लूट रहे हैं. बच्चों की नॉर्मल डेलिवरी बहुत पहले दूर की कौड़ी हो चुकी है. आए दिन हम समाचार पत्रों में पढ़ते हैं कि दिल्ली, पटना इत्यादि स्थानों के प्रतिष्ठित अस्पतालों ने साधारण बुखार के ईलाज के नाम पर १७ लाख-२० लाख का बिल मरीज के परिजन को थमाया या फिर गलत अंग का ऑपरेशन कर दिया या फिर मृत व्यक्ति का कई दिनों तक झूठा ईलाज करते रहे. पहले कहावत थी कि सरकारी अस्पतालों में लोग ईलाज करवाने नहीं जाते मरने जाते हैं दुर्भाग्यवश अब निजी अस्पतालों के बारे में यह कहा जाता है लोग वहां ईलाज करवाने नहीं खुद को कंगाल करवाने जाते हैं. लोग जाएँ तो जाएँ कहाँ? सरकारी में व्यवस्था नहीं है और निजी घर तक बिकवा दे रहा है.
मित्रों, अब बात करते हैं शिक्षा की. एक जमाना था जब सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में उच्च गुणवत्ता की पढाई होती थी. फिर सामाजिक न्याय वाली सरकारें आईं और सरकारी स्कूलों-कॉलेजों से पढाई गायब हो गई. अगरचे सरकारी स्कूलों के शिक्षक सिर्फ वेतन लेने स्कूल जाते हैं और अगर जाते भी हैं तो आरक्षण की कृपा से उनको खुद ही कुछ पता नहीं है तो बच्चों को बताएंगे क्या? दूसरी तरफ सरकारी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अधिकतर विभाग शिक्षक विहीन हैं क्योंकि राज्य सरकारें इनके ऊपर किए गए व्यय को वेवजह का खर्च मानती हैं. ऐसे में निजी स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय अगर कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे हैं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं तथापि भ्रष्टाचार वहां भी कम नहीं है. शिक्षक और शिक्षकेतर कर्मचारियों से हस्ताक्षर दोगुने-तिगुने वेतन पर करवाया जाता है लेकिन दिया नहीं जाता. कई बार तो पैसा उनके खाते में डाल दिया जाता है और वे बेचारे बैंक से पैसा निकालकर फिर कॉलेज-विश्वविद्यालय को वापस कर देते हैं. इतना ही नहीं निजी स्कूलों-कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में भी पढाई न के बराबर होती है ज्यादातर शिक्षणेतर गतिविधियों का ही आयोजन होता है जिससे मीडिया में सुर्ख़ियों में बना रहा जा सके. कुल मिलाकर हमारी शिक्षा-व्यवस्था परीक्षा व्यवस्था बन चुकी है लेकिन न तो ढंग से परीक्षा ली जाती है और न की सम्यक तरीके से कापियों की जांच की जाती है. कई बार तो कापियों के बंडल खुलते भी नहीं हैं और परिणाम घोषित कर दिया जाता है और ऐसा न सिर्फ सरकारी बल्कि निजी शिक्षण-संस्थानों में भी होता है. निजी क्षेत्र की कृपा से शिक्षा अब ज्ञान दान नहीं व्यापार बन गयी है, विशुद्ध व्यापार.
मित्रों, अब बात करते हैं ठेके पर होनेवाले कामों की. चाहे वो सफाई हो या सड़क या पुल निर्माण या फिर टोल वसूली किसी भी क्षेत्र में ठेकेदार सही तरीके से काम नहीं करते और जमकर पैसा बनाते हैं फिर चाहे उद्घाटन से पहले ही पुल गिर क्यों न जाए.
मित्रों, आपके घर के आसपास भी आपने देखा होगा कि बैंकों और बैंकों के एटीएम के बाहर निजी सुरक्षा कंपनियों के गार्ड पहरा देते हैं. भ्रष्टाचार ने उन गरीबों को भी अछूता नहीं छोड़ा है. बेचारे हस्ताक्षर करते हैं २४ हजार पर लेकिन उनके हाथों में आता है १२-१३ हजार. मतलब यहाँ भी जमकर भ्रष्टाचार हो रहा है.
मित्रों, अब बात करते हैं उस घटना की जिसने मुझे यह आलेख लिखने के लिए प्रेरित किया. अडानी पोर्ट से भारी मात्रा में हेरोईन की खेप का पकड़ा जाना. हाल में अडानी ग्रुप को सौपे गए गुजरात के मुंद्रा-अडानी बंदरगाह से एक साथ ३००० किलोग्राम हेरोईन पकड़ी गई है जिसकी कीमत १९००० करोड़ रूपये बताई जाती है. ये हेरोईन टेलकम पाउडर के नाम पर आयातित की गई थी. सोंच लीजिए निजी हाथों में पोर्ट सौंपकर हम देश की सुरक्षा को किस कदर खतरे में डाल रहे हैं. इस घटना के बाद सवाल यह भी उठता है कि क्या बड़े-बड़े धनपति पूरी तरह दूध के धुले हैं?
मित्रों, कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि निजीकरण समाधान नहीं है बल्कि इससे पहले से ज्यादा जटिल समस्याओं का जन्म होगा. रही बात भ्रष्टाचार की तो निजीकरण के बाद भी भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होनेवाला है. ऐसे में अच्छा यही रहेगा कि सरकार साफ़ मन से सरकारी क्षेत्र की कंपनियों और बैंकों की व्यवस्था को सुधारे और बार-बार यह कहना बंद करे कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं है. साथ ही एनसीएलटी के माध्यम से सरकारी बैंकों को लगाए जा रहे चूना पर अविलम्ब रोक लगाए. वैसे मुझे लगता है कि इस समय देश एक बार फिर से सरकारविहीन हो गया है.
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