शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

भारत में लोकतंत्र नहीं भ्रष्टतंत्र


अमेरिका के १६वें राष्ट्रपति और दुनिया के सार्वकालिक महान नेताओं में से एक अब्राहम लिंकन ने प्रजातंत्र की सबसे प्रसिद्ध परिभाषा देते हुए कहा था कि प्रजातंत्र जनता का,जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन है.शायद अमेरिका में आज भी प्रजातंत्र लिंकन के इन मानदंडों पर खरा है.लेकिन दुनिया के अधिकतर विकासशील देशों में प्रजातंत्र का मतलब वह नहीं रह गया है जो लिंकन के लिए था.भारतीय संविधान सभा ने बहुत ही सोंच-समझकर ब्रिटिश मॉडल की नक़ल करते हुए संसदीय प्रजातंत्र को अपनाया था और मान लिया था कि जिस तरह यह प्रयोग इंग्लैंड में सफल रहा उसी तरह भारत में भी सफल रहेगा.लेकिन वो कहावत है न कि नक़ल के लिए भी अक्ल चाहिए.दूसरे आम चुनाव में ही मतदान केन्द्रों पर कब्जे की घटनाएँ सामने आने लगीं.चुनावों में धन का दुरुपयोग भी होने लगा.विधायिका जो संसदीय लोकतंत्र में सर्वोपरि होती है में भ्रष्ट और आपराधिक पृष्ठभूमिवाले प्रतिनिधियों की संख्या लगातार बढती गई.अब जब रक्षक ही भक्षक हो गए तो समाज का नैतिक पतन तो होना ही था.श्रीकृष्ण ने गीता में कहा भी है कि समाज अपने संचालकों और समर्थ लोगों का अनुकरण करता है.आज स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय तक को कहना पड़ रहा है कि जब सरकार भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना चाहती ही नहीं तो क्यों नहीं इसे वैधानिक स्वीकृति दे देती?प्रत्येक कार्यालय में क्यों नहीं रिश्वत का रेट लिस्ट लगा दिया जाता जैसे भोजनालयों में रोटी-भात के दर की सूची लगी होती है?सच्चाई से भागने से क्या लाभ?इससे जनता की परेशानी भी कम हो जाएगी.सर्वोच्च न्यायालय की सलाह पर निश्चित रूप से अमल किए जाने की जरुरत है.आप सड़कों पर किसी भी आदमी से बात करके देख लीजिए हर कोई यही कहेगा कि बिना पैसा दिए कार्यालयों से कोई काम नहीं कराया जा सकता.हमारा पूरा तंत्र जनता की सेवा के लिए नहीं बल्कि जनता से रिश्वत (लेवी) की उगाही के लिए है.दुनिया के सभी देशों में पारदर्शिता का स्तर बताने वाली सूची में हमारा देश पिछले साल ८४वें स्थान पर था इस साल ३ स्थान लुढ़ककर ८७वें स्थान पर पहुँच गया है.वैसे यह संतोष की बात है कि हमसे नीचे भी कई देश हैं और अभी सूची में हमारे और नीचे खिसकने की गुंजाईश बची हुई है.वास्तविक प्रजातंत्र शक्तियों के विकेंद्रीकरण से आता है लेकिन हमारे यहाँ संविधान के ७३वें और ७४वें संशोधन के माध्यम से शक्तियों का ही विकेंद्रीकरण नहीं किया गया बल्कि बड़े ही धूम से भ्रष्टाचार का भी विकेंद्रीकरण किया गया.कोई पश्चिमी देश होता तो भ्रष्टाचार का मामला उजागर होते ही राजनेताओं का राजनैतिक जीवन ही समाप्त हो जाता लेकिन हमारे यहाँ राजनीतिज्ञ अपने राजनैतिक कैरियर की शुरुआत ही भ्रष्टाचार से करते हैं.पहले उल्टे-सीधे किसी भी तरीके से टिकट और वोट खरीदने लायक पैसा जमा किया जाता है,तब जाकर चुनाव लड़ने का अवसर प्राप्त होता है.अगर विधायक का चुनाव लड़ना है तो कम-से-कम १ करोड़ तो चाहिए ही,संसाद बनने के लिए और भी ज्यादा.चुनाव आयोग उम्मीदवारों का बैंकों में खाता खुलवाता है और यह झूठी उम्मीद करता है कि उम्मीदवार इसी खाते में से खर्च करेगा.ऐसा भी नहीं है आयोग को असलियत नहीं पता लेकिन वह कुछ नहीं कर सकता क्योंकि उनकी नियुक्ति केंद्र सरकार के हाथों में होती है.चुनाव जीतने के बाद शुरू होता है वन-टू का फोर का खेल.अगर कर्नाटक और झारखण्ड की तरह विधानसभा त्रिशंकु हो गई तो और भी पौ-बारह.फ़िर मंत्री-मुख्यमंत्री बनकर राज्य के खजाने पर भ्रष्टाचार का (मधु) कोड़ा जमकर चलाया जाता है.जब राजा ही चोर-लुटेरा हो जाएगा तो उसके अधिकारी-कर्मचारी तो यमराज हो ही जाएँगे और इस तरह तंत्र शासन का नहीं शोषण का माध्यम बन जाता है.चपरासी से लेकर सचिव तक और वार्ड आयुक्त से से लेकर मंत्री तक सभी हमारे देश में भ्रष्ट हो चुके हैं.यदि कोई सत्येन्द्र दूबे की श्रेणी का सिरफिरा ईमानदारी की खुजली से ग्रस्त व्यक्ति तंत्र में घुस भी आता है तो उसे किनारे हो जाना पड़ता है नहीं तो हमारा तंत्र बड़ी आसानी से उसे दुनिया से ही कल्टी कर देता है हमेशा के लिए.अगर अर्थशास्त्रीय दृष्टि से देखें तो हमारे देश में अमीरों का,अमीरों के लिए,अमीरों के द्वारा गरीबों पर शासन है.गरीबों को बार-बार यह भुलावा जरूर दिया जा रहा है कि अंततः शासन की बागडोर आपके ही हाथों में है.इसी तरह अगर हम राजनीति शास्त्र के दृष्टिकोण से लिंकन की उपरोक्त परिभाषा को मद्देनजर रखते हुए वर्तमान भारत पर विचार करें तो भारत में भ्रष्टों का,भ्रष्टों के द्वारा और भ्रष्टों के लिए शासन है.हमारे यहाँ एक सर्वथा नई शासन-प्रणाली है जिसे हम संसदीय भाषा में भ्रष्टतंत्र कह सकते हैं.लगभग सबका ईमान बिकाऊ है सिर्फ सही कीमत देनेवाला चाहिए.यह मैं ही नहीं कह रहा बल्कि हमारे लिए सबसे बड़े शर्म की बात तो यह है कि माननीय उच्चतम न्यायालय का भी यही मानना है.तालियाँ.

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