बुधवार, 13 अक्तूबर 2010
लौट के बुद्धू घर को आए
कल वह उससे मिला एक लम्बे अरसे के बाद.वैसे एक महीने का वक़्त कोई ज्यादा नहीं होता लेकिन फ़िर भी यह समय एक युग कम भी तो नहीं था उसके लिए.वह उसके भीतर ही तो रहता था पर मुलाकात नहीं होती थी.वह कोई और नहीं था उसकी अंतरात्मा थी,उसका सच्चा स्वरुप.वर्ष २००२ में जब वह पहली बार दिल्ली गया तो यह देखर आश्चर्यचकित हुआ था कि कैसे एक ही कमरे में रहनेवाले दिन और रात की अलग-अलग शिफ्टों में काम करनेवाले लोगों में महीनों मुलाकात नहीं होती थी.एक जब तक ड्यूटी से वापस आता दूसरा ड्यूटी के लिए जा चुका होता था.वह यानी उसका मन और उसकी अंतरात्मा एक ही कमरे यानी शरीर में तो रहते थे.लेकिन वह पिछले एक महीने से अपने-आपमें नहीं था.उसने श्रम के साथ-साथ मन-मस्तिष्क को भी बेच डाला था चंद कागज के टुकड़ों के लिए.उसे लगता था कि यह अख़बार तो अख़बार है ही नहीं बल्कि यह तो घोषित रूप से एक आन्दोलन है.यहाँ उसे पैसों के साथ मानसिक संतुष्टि भी मिलेगी.लेकिन वह कुछ भी तो हासिल नहीं कर पाया.माया मिली न राम.वह कितना खुश था उस दिन जनशताब्दी में सवार होते समय.खुश होता भी क्यों नहीं?उसे भारत के महान पत्रकारों में से एक माने जानेवाले प्रधान सम्पादकजी ने खुद ही मिलने के लिए आमंत्रित किया था.वो भी उसके लेखों से प्रभावित होकर.सम्पादकजी अपने लेखों में हमेशा बड़ी-बड़ी बातें करते.कभी किसी निष्कासित विदेशी क्रांतिकारी के मन की बेचैनी को स्वर देते हुए पाठकों के साथ-साथ खुद अपने-आपसे यह सवाल करते कि हमारे देश में ऐसे लोग क्यों नहीं पैदा होते तो कभी लोकनायक पर पूरा-का-पूरा पृष्ठ ही काला कर डालते.छोटे-छोटे वाक्यों में बड़ी-बड़ी बातें उनके लेखन की विशेषता थी.वह निश्चित समय पर अख़बार के प्रधान कार्यालय में मिलने के लिए उपस्थित भी हुआ था,दिल में हिलोरें लेतीं जवां उमंगों के साथ.करीब एक घंटे के इंतज़ार के बाद ऊपर से बुलावा आया पत्रकारिता जगत के भगवान का.वह इंतजार के इन लम्हों में समझ चुका था कि रहीम कवि ने कितना सही कहा था-रहिमन याचकता गहै बडौ छोट ह्वै जात.भगवान ने मिलते ही कहा आप जो लिखते हैं बहुत अच्छा लिखते हैं लेकिन इसका कहीं कोई प्रभाव नहीं पड़नेवाला.उसके दिल को आघात लगा;हृदयाघात से भी तेज और दर्दनाक.उसने भी टका-सा जवाब दिया कि ऐसा तभी होता है जब लेखक की कथनी और करनी में अंतर हो.जैसे नेताओं की बकवासों पर जनता ध्यान नहीं देती वैसे ही ऐसे दोहरे चरित्रवाले लोगों की वाणी भी खाली जाती है.निराशा हुई कि इतना बड़ा चिन्तक और इतना प्रोफेशनल.फ़िर ऐसे लोग किसलिए लिखते हैं?क्या सिर्फ शब्दों के बाजार में अपनी रेटिंग बढ़ाने के लिए?ये श्रीमान तो बाजारवाद के घोर विरोधी माने जाते हैं और खुद सबसे बड़े बाजारवादी भी हैं.विचारों और व्यवहारों में सीधी शत्रुता.इसके बाद उसकी परीक्षा ली गई कि वह उनके अख़बार के लिए कहाँ तक उपयोगी सिद्ध होगा.अनुवाद करवाया गया,खबर सम्पादित कराई गई और सूचना के अधिकार पर एक लेख भी लिखवाया गया.उसकी एच.आर. प्रमुख से मुलाकात भी करवाई गई जो वास्तव में आदमी को आदमी नहीं बल्कि संसाधन समझते थे.उनका कहना था कि चूंकि उसकी एक साल से आमदनी शून्य थी इसलिए वेतन की शुरुआत फ़िर से यानी शून्य से ही करनी पड़ेगी.वह उन्हें सिर्फ धन्यवाद कह पाया और लौट आया था अपने घर में.लेकिन कुछ ही दिनों बाद उसे सुखद आश्चर्य हुआ जब उसे अख़बार की नई खुल रही यूनिट में काम करने के लिए बुलाया गया.फ़िर से उसकी सूनी आँखों में सपनों के महासागर हिलोरे लेने लगे.नियत समय पर जब दफ्तर पहुंचा तो देखकर हैरान रह गया कि वह तो दफ्तर था ही नहीं.उससे ज्यादा साफ-सुथरा तो तबेला (बिहार में बथान) होता है.ट्यूबलाईटों पर भनभनाते असंख्य कीड़े-मकोड़े,शौचालय में बल्ब नहीं,घुप्प अँधेरा.पीने के लिए टंकी का गन्दा पानी.आधे लोग सिस्टम के खाली होने के इंतजार में खड़े थे.उस पर खून चूसने को तैयार मच्छरों की टोलियाँ.कई दिनों तक तो उसे कम्प्यूटर छूने को भी नहीं मिला.उसे इस बात का भी डर लगने लगा था कि कहीं वह काम करना भी न भूल जाए.वहां का संपादक भी अजीब था.वह कभी भी कहीं भी मिल जाता.कभी चाय की दुकान पर तो कभी पान की दुकान पर.आवाज कड़क और शब्द कभी-२ बदतमीजी की हद से भी ज्यादा गंदे.एक दिन सबके सामने एक संवाददाता को गालियाँ देने लगा.ऐसी गालियाँ जिन्हें सुनकर कोई भी शरमा जाए.अपने लोगों से ज्यादा उन्हें राजधानी कार्यालय के लोगों पर विश्वास था. इन परिस्थियों में उसका स्वास्थ्य बिगड़ना ही था.मानसिक के साथ-२ उसका शारीरिक स्वास्थ्य भी बिगड़ने लगा.फ़िर भी उसने दफ्तर जाना नहीं छोड़ा.हाँ अब वह रोज-२ नहीं जा पा रहा था.वह जाता और बैठकर चला आता.लेकिन जब भी संपादक मिलता तो कहता यार तबियत ठीक करो,तबियत आपकी ख़राब हो रही है और दिल मेरा बैठ रहा है.उसे दुःख तो हटा लेकिन यह जानकार ख़ुशी भी होती कि इस शख्स के पास दिल भी है.फ़िर एक दिन भगवानजी का आगमन हुआ.शौचालय में बल्ब लग गया.बांकी चीजें यथावत रहीं.अब वह कुछ काम भी करने लगा.लौन्चिंग के दिन चार पृष्ठों के विशेषांक की उसी ने प्रूफ रीडिंग की जिसकी प्रशंसा भी की गई.लेकिन अब एक नई मुसीबत सर पर थी.जब भी वह पेज बनाने बैठता चार सीनियर घेर कर बैठ जाते और पेज बनवाने लगते.वह सिर्फ माटी की मूरत था.विरोध करने पर संपादक उसी पर फट पड़ा और कहने लगा यहाँ काम करना है तो इसी तरह काम करना पड़ेगा.वह तत्काल निकल गया.वह समझ चुका था कि यह उसकी दुनिया नहीं है.अब वह आजाद था अपनी दुनिया में निर्भय उड़ान भरने के लिए.उसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं था और पाने के लिए सारा जहाँ.
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