गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

समय के साथ कदमताल में असफल सोनपुर मेला

मैं जब नन्हा-मुन्ना था तो मेरी दीदी मुझे सुलाने के लिए रोजाना एक लोरी गाती-' रे निंदिया निन्दरवन से,बौआ अलई नानी घर से,नानी घर बौआ कथी-कथी खाए,साठी के चूड़ा,पुरहिया गाय के दूध;खा ले रे बौआ जयबे बड़ी दूर'.लेकिन अब हमारे घर में न तो साठी धान का चूड़ा ही है ही पूरहिया गाय का दूध.सरकार की गलत कृषि नीति ने हमें परपरागत बीजों के साथ-साथ शुद्ध दूध-दही से भी महरूम कर दिया है.ज्ञातव्य हो कि वेदों में मगध में उपजने वाले जिस उत्तम कोटि के ब्रीहि धान का जिक्र है वह कोई और नहीं यही साठी धान था.एक समय था कि खुद मेरे दरवाजे पर ही जोड़ा बैलों के साथ-साथ कई-कई गायें और भैंसें बंधी होती थीं.लेकिन हमारी सरकार ने सर्वविनाशक वैज्ञानिक कृषि का ढिंढोरा पीट कर हमारी कृषि से पशुओं को अलग कर दिया.इसी कथित विकास का खामियाजा भुगत रहा है कभी दुनिया का सबसे बड़ा पशु मेला रहा सोनपुर पशु मेला.सोनपुर और हाजीपुर को नारायणी गंडक नदी अलग करती है.कल जब मैं मेले में गया तो पाया कि वहां पशुओं के नाम पर मात्र ४०-५० जर्सी गायें और २०-२५ घोड़े मौजूद हैं.लोगों से पता चला कि कुछ हाथी भी मेले में आए तो थे लेकिन अब जा चुके हैं क्योंकि अब मेला क्षेत्र में बरगद और पीपल के पेड़ रहे नहीं.इसलिए मालिकों के लिए उनका भोजन खरीदना काफी महंगा पड़ता है.कभी इस मेले में कितने पशु खरीद-बिक्री के लिए आते थे इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि १८५६ में बाबू कुंअर सिंह ने इसी सोनपुर मेले से एक साथ कई हजार घोड़े अपनी विद्रोही सेना के लिए ख़रीदे थे.आज तो स्थिति यह है कि नाम पशु मेला और भीड़ बिना पूंछ वाले दोपाया जानवरों यानी मानवों की.सारी भीड़ सिर्फ सड़कों पर और दुकानें खाली.शायद यह बाजार के पसरने और महंगाई का सम्मिलित प्रभाव है.पहले मेलों का ग्रामीण जनता के आर्थिक क्रियाकलापों में महत्वपूर्ण स्थान हुआ करता था.लोग साल में एक बार थका देनेवाले कृषि कार्यों से फ़ुरसत पाकर मेले में आते.मन भी बहल जाता और जरूरत की चीजों की खरीदारी भी हो जाती.खुद मेरे दरवाजे पर बिछी दरी,घर में मौजूद कम्बल,ऊनी कपडे सब के सब इसी मेले की देन होते थे.मेरे गाँव में जो भी बरतन सामूहिक भोज-भात में प्रयुक्त होते वे भी इसी सोनपुर मेले में ख़रीदे हुए होते थे.तब प्रत्येक ग्रामीण एक बार जरूर सोनपुर मेले में आता.तब यह मेला सगे-सम्बन्धियों से मिलने का भी सुनहरा अवसर हुआ करता था.अब तो मेले का क्षेत्रफल भी सिकुड़ता जा रहा है.तब मेले का क्षेत्रफल आज से कम-से-कम दस गुना हुआ करता था.मैं बात ज्यादा दिन पहले की नहीं,यही कोई ३० साल पहले तक की कर रहा हूँ.तब लोगों की भीड़ भी कई गुनी होती थी और उनमें से ज्यादा संख्या स्वाभाविक रूप से किसानों की हुआ करती थी.शायद इसलिए इस मेले को १९२९ में अखिल भारतीय किसान सभा की नीव पड़ते देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.तब स्थानीय बाजारों में न तो इतनी दुकाने होती थीं और न ही दुकानों में इतना सामान.तब नदियाँ आने-जाने का सबसे प्रमुख साधन हुआ करती थीं.सड़कों का महत्त्व कम था.इसलिए सारे मेले नदी किनारे लगा करते थे.आज तो पूरा देश ही एक बाज़ार का रूप ले चुका है और इस बाज़ार में हर कोई कुछ न कुछ खरीद और बेच रहा है.सबसे ज्यादा इस बाज़ार में जो चीज बिक रही है वह है ईमान.मेला घूमते समय सौभाग्यवश मुझे घुडबाजार में एक घोड़े का सौदा होते हुए देखने का अवसर भी मिला.चूंकि सारी बातचीत कूटभाषा में हो रही थी इसलिए मैं सब कुछ समझकर भी कुछ भी नहीं समझ पाया.आगे बढ़ा तो लाउडस्पीकरों के शोर से साबका हुआ.सड़कों पर पैरों में लाठी बांध कर १०-१० फीट लम्बे हो गए बच्चे घूमते नजर आए.लोगों की कौतुहलप्रियता पर गुस्सा भी आया जिसे शांत करने के लिए ये बच्चे हाथ-पैर टूटने का जोखिम उठा रहे थे.मेले में सबसे ज्यादा भीड़ दिखी कृषि प्रदर्शनी में.मैंने भी यहाँ भारतीय कृषि के विनाश के लिए दोषी यंत्रों को देखा.अब तो सरकार खुद भी मान रही है कि कृषि का हमारा परंपरागत तरीका ही सही था.वैज्ञानिक कृषि ने पेयजल को भी जहरीला कर दिया है,अनाज और सब्जियां तो जहरीली हुई ही है.पशु न सिर्फ हमारे सहायक थे बल्कि परिवार के सदस्य भी थे.मैंने बचपन में कई बार बिक चुके पशुओं को नए मालिकों के साथ जाने से इनकार करते देखा है.कई गुस्सैल पशुओं को मालिक के आगे सीधा-सपाटा होते देखा है.मैंने मेरे मित्र राजकुमार पासवान के परिवार को भैंस बेचने के बाद फूट-फूट कर रोते हुए देखा है.खुद अपने चचेरे मामा रामजी मामा के परिवार का बैल बेचने के बाद रोते-रोते हुए बुरा हाल होते देखा है.अब हमारी नकलची सरकार एक बार फ़िर पश्चिम की नक़ल करते हुए बेमन से ही सही जैविक और परंपरागत कृषि को फ़िर से प्रोत्साहित करना चाहती है.बेमन से इसलिए क्योंकि कृषि यंत्रो और उत्पादों के निर्माताओं के पास कुछ भी खरीदने के लिए जितना ज्यादा पैसा है,हमारे मंत्रियों-अफसरों के पास बेचने के लिए ईमान उतना ही सस्ता लेकिन मात्रा में कम.फ़िर भी अगर ऐसा हो ही गया तो क्या लोग फ़िर से वापस पशुआधारित कृषि को अपनाएँगे?मुझे तो इसकी सम्भावना कम ही लगती है.अब कौन एक बात आदत छूट जाने के बाद गोबर से हाथ गन्दा करेगा जब रासायनिक खाद का विकल्प उपलब्ध है.सरकार को पता होना चाहिए कि विकास की गाड़ी में सिर्फ आगे बढ़ाने वाले गियर होते हैं,रिवर्स गियर नहीं होता.इसलिए यह उम्मीद करना भी बेमानी होगी कि सोनपुर पशु मेले में फ़िर से पहले की तरह भारी संख्या में पशुओं का आना शुरू होगा और यह मेला फ़िर से दुनिया का सबसे बड़ा पशु मेला कहलाने का गौरव प्राप्त कर लेगा.काश मेरी बात गलत साबित हो जाए और मुझे वर्षों बाद अपनी गलती पर पछताना पड़े.

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